शुक्रवार, 27 जून 2008

कविता




विशेष

वरिष्ठ कवि, साहित्यकार और पत्रकार कन्हैयालाल नन्दन १ जुलाई, २००८ को अपने जीवन के पचहत्तर वर्ष पूरे कर रहे है. मेरे लिए यह सुखद अनुभूति है कि जिस ’भास्करानन्द इंटर कॉलेज, नरवल’(कानपुर) से उन्होंने हाईस्कूल किया था मैंने भी १९६७ में वहां से हाईस्कूल किया था. स्पष्ट है कि मुझसे लगभग १८ वर्ष पहले वह वहां के विद्यार्थी रहे थे. नन्दन जी का जन्म मेरे गांव(जिला -कानपुर) के पड़ोसी गांव परशदेपुर (जिला-फतेहपुर) में हुआ था. अपनी हाईस्कूल की पढ़ाई के दौरान मैं जिन दो लोगों की चर्चा सुना करता था वे रामावतार चेतन और कन्हैयालाल नन्दन थे और संयोग से दोनॊं एक ही गांव के रहने वाले थे. नन्दन जी से मेरी पहली मुलाकात १९७८ में हुई थी . तब वह सारिका के सम्पादक थे और मैं साहित्य की दुनिया में लड़खड़ाते हुए कदम रख रहा था. मैं उनसे जंगपुरा के उनके किराये के मकान में मिला था और लगभग चार घण्टे तक विभिन्न विषयों में उनसे बातें करता रहा था. हमारी बातों में बार -बार गांव आता रहा था और भाभी जी हमारी बातों में विशेष रुचि लेती रही थीं. उसके बाद उनसे मुलाकातें तो अनेकों हुई, लेकिन अल्पकालिक . तीन बार उनके दफ्तर (एक बार सारिका कार्यालय में , एक बार नवभारत टाइम्स और एक बार सण्डे मेल दफ्तर में) और शेष मुलाकातें किसी न किसी साहित्यिक कार्यक्रम में. लेकिन उनका स्नेह मुझे सदैव मिलता रहा . हाल में, लगभग तीन-चार महीने पहले शाम पांच बजे के लगभग उनका फोन आया. कुछ देर बातें करने के बाद एक क्षण वह ठहरे फिर बोले - "दरअसल तुम्हे प्यार करने का मन हुआ इसलिए फोन कर लिया " और ठहाका लगाकर हंस दिए. नन्दन जी मेरे गुरू राजेश्वर शुक्ल के सहपाठी रहे हैं और मैं शुक्ल जी से डरा करता था इसलिए नन्दन जी से भी डरता हूं , लेकिन यह डर बड़े भाई के सामने छोटे भाई वाला डर है. बड़ों के सामने विनयावनत रहना संस्कार में मिला , अतः इसे इस रूप में भी देख सकते हैं.

मैंने कमलेश्वर जी का लंबा साक्षात्कार किया था. नन्दन जी उन दिनों गगनांचल के सम्पादक थे. साक्षात्कार का एक अंश प्रकाशनार्थ वहां भेजेने के लिए नन्दन जी को फोन किया . सुनते ही बोले - " इसमें पूछने की क्या बात है! तुरन्त भेजो. न्यूयार्क विश्व हिन्दी सम्मेलन के समय प्रकाशित होने वाली स्मारिका का वह सम्पादन कर रहे थे. डॉ० शिवप्रसाद सिंह के उपन्यास - ’अलग-अलग वैतरिणी’ पर आलेख मांगा . समय दिया केवल २० दिनों का. मैं उन दिनों अपनी पुस्तक ’दॉस्तोएव्स्की के प्रेम’ में उलझा हुआ था. लिखा कि मेरे पास ’नीला चांद’ पर आलेख तैयार है. वह भेज सकता हूं. ’अलग-अलग वैतरिणी’ पुनः पढ़ना और उसपर इतने दिनों में लिख भेजना कठिन होगा. उनका पत्र आया कि आलेख मुझे ही लिखना है और वह भी ’अलग-अलग वैतरिणी’ पर ही . समय सीमा उन्होंने १० दिन और बढ़ा दी. मुझे नन्दन जी के आदेश को सिरोधार्य करना पड़ा और उनके पूर्व दिए समय सीमा के अंतर्गत मैंने आलेख लिख भेजा . इसके लिए एक सप्ताह मुझे ’दॉस्तोएव्स्की’ को स्थगित करना पड़ा था.

नन्दन जी की निरन्तर सक्रियता आज की युवा पीढ़ी के लिए प्रेरणास्रोत है. वातायन की ओर से हम उनके शतायु होने और सुखद सम्पन्न जीवन की कामना करते हैं. इस अवसर पर प्रस्तुत हैं उनकी पांच कविताएं :

एक


वसंत घर आ गया

अतसि नील गोटे की
सरसों सी पीली-पीली
पुण्य पीत साड़ी में वेष्टित
नवनीत गात कोंपलों- सी रक्ताभअधरों पर लिए हुए
तार झीनी बोली में
कोयल-सा गा गया।
क्षण क्षण बदलाती सौंदर्य की छायाओं-सा
जीवन के पतझड़ में
कोई मुस्का गया
वासंती छवि का समंदर लहरा गया
लगा कि जैसे वसंत घर आ गया।

दो

सूरज की पेशी

आंखों में
रंगीन

नज़ारे

सपने बड़े बडे़.
भरी धार लगता है
बालू बीच खड़े.
बहते हुए समन्दर
मन के ज्वार
निकाल रहे.
दरकी हुई शिलाओं में
खरापन डाल रहे
मूल्य पड़े हैं बिखरे
जैसे
शीशे के टुकड़े
नजरोंमकके ओछेपन
जब
इतिहास रचाते हैं
पिटे हुए मोहरे
पन्ना पन्ना भर जाते हैं
बैठाये जाते हैं
सच्चों पर
पहरे
तगड़े.
अंधकार की पंचायत में
सूरज की पेशी
किरणें
ऎसे करें गवाही
जैसे
परदेसी
सरेजाम
नीलम रोशनी
ऊंचे भाव चढ़े.
भरी धार लगता है
जैसे
बालू बीच खड़े.


तीन
बोगनबेलिया
ओ पिया
आग लगाए बोगनबेलिया!
पूनम के आसमान में
बादल छाया
मन का जैसे
सारा दर्द छितराया,
सिहर-सिहर उठता है
जिया मेरा,
ओ पिया!
लहरों की दीपों में
कांप रही यादें
मन करता है
कि
तुम्हे
सब कुछ बतला दें-
आकुल
हर क्षण को
कैसे जिया,
ओ पिया !
पछुआ की सांसों में
गंध के झकोरे
वर्जित मन लौट गए
कोरे के कोरे
आशा का
थर थरा उठा दिया!
ओ पिया!

चार

अंग अंग चन्दन

एक नाम अधरों पर आया
अंग-अंग
चन्दन
वन हो .
बोल हैं
कि वेद की रिचाएं?
सांसों में
सूरज उग आएं
रितुपति के छंद
तैरने लगे
मन सारा नील गगन हो गया.
गंध गुंथी बाहों का घेरा
जैसे
मधुमास का सवेरा
फूलों की भाषा में
देह बोलने लगी
पूजा का
एक जतन
हो गया.
पानी पर खींचकर लकीरें
काट नही सकते जंजीरे.
आसपास अजनबी अंधेरों के देरे हैं
अग्निबिन्दु
और सघन हो गया!
अंग-अंग
चन्दन वन हो गया!

पांच

ज़िन्दगी (चार कविताएं)

(१)
रूप की जब उजास लगती
ज़िन्दगी,
आसपास लगती है
तुमसे मिलने की चाह
कुछ ऎसे
जैसे खुशबू को
प्यास लगती है.

(२)

न कुछ कहना
न सुनना
मुस्कराना
और आंखों में ठहर जाना
कि जैसे
रौशनी कि
एक अपनी धमक होती है
वो इस अंदाज में
मन की तहों में
घुस गए
उन्हें मन की तहों ने
इस तरह अंबर पिरोया है
सुबह धूप जैसे
हार में
सबनम पिरोती है.

(३)
जैसे तारों के नर्म बिस्तर पर
खुशनुमा चांदनी
उतरती है
इस तरह ख्वाब के बगीचे में
ज़िन्दगी
अपने पांव धरती है
और फिर करीने से ताउम्र
सिर्फ
सपनों के
पर कुतरती है

(४) जिन्दगी की ये ज़िद है

ख्वाब बन के
उतरेगी.
नींद अपनी ज़िद पर है
-- इस जनम में न आएगी
दो ज़िदों के साहिल पर
मेरा आशियाना है
वो भी ज़िद पे आमादा
--ज़िन्दगी को
कैसे भी
अपने घर
बुलाना है.


डॉ० कन्हैयालाल नन्दन : जन्म सन १९३३ में, उ०प्र० के फतेहपुर जि़ले के गांव परसदेपुर में. आपने डी०ए०वी० कॉलेज कानपुर से बी०ए), प्रयाद वि०वि० से एम०ए० और भावनगर यूनिवर्सिटी से पी-एच०डी० की उपाधि ली. चार वर्ष तक मुंबई वि०वि० के कॉलेजों में हिन्दी अध्यापन के बाद १९६१ से १९७२ तक ’धर्मयुग’ में सहायक सम्पादक रहे; १९७२ से क्रमशः ’पराग’ ’ सारिका’ और ’दिनमान’ का संपादन. तीन वर्ष’ नवभारत टाइम्स में फीचर सम्पादक. छह वर्षत क हिन्दी ’संडे मेल’ के प्रधान संपादक रहे. तीस से अधिक पुस्तकें.

संपर्क : १३२ ए० कैलाश हिल्स कालोनी,

नई दिल्ली

E-mail: klnandan@yahoo.com

सोमवार, 23 जून 2008

कहानी


चित्र : डॉ० अवधेश मिश्र


पाषाण-गाथा

हिमांशु जोशी



नदी पार करने के पश्चात हल्की-सी चढ़ाई थी और उसके बाद यह दूसरी दुनिया. घने वनों के बीच बिछी हरी चादरें-- ओर-छोर का कहीं पता ही न चल पाता.

अभी गर्मी आरम्भ नहीं हुई थी, फिर भी गेहूं के बित्ते-भर ऊंचे पौधे हवा में लहलहा रहे थे. किसी ने बतलाया - ये नई किस्म के पौधे हैं, इससे ऊंचे नहीं जाते. जितना लम्बा डंठल है, उतनी ही लम्बी बाल भी लगती है.

उस पार आसमान की ओर उभरी एक नीली धुंधली रेखा साफ दिखलाई दे रही थी -- पर्वतों की माला.

सामने कतार में झोंपड़ीनुमा कच्चे घर थे-- घास-फूस के. अब याद नहीं, उनकी छतें टीन की चादरों से ढंकी थीं या घास-पयालासे. इतने लंबे वक्फे में तो बहुत-सी बातें यों ही धुंधला जाती हैं.

हां, जब हम वहां पहुंचे तो अनीब-सा लग रहा था. एक ऊंचा-सा काला शेड दाहिनी तरफ खड़ा था-- वर्कशाप जैसा. काले कपड़े पहने कुछ मजदूर काम पर जुटे थे. कहीं भट्टी में गरम लोहा तप रहा था. घन की भरपूर चोट से तपते लोहे को निश्चित आकार दिया जा रहा था. कुछ मजदूर लोहे के भारी शहतीर को उठाने का असफल प्रयास कर रहे थे. वहां शोरगुल कुछ अधिक था. धुंए के साथ-साथ धूल थी. उड़ती हुई रेत इतनी अधिक कि देर तक ठहर पाना कठिन लग रहा था.

तभी सामने अधेड़ उम्र का एक आदमी आया. उसकी घनी मूंछें डरावनी लग रही थीं. भौंह के काले बाल गुच्छे की तरह गुंथे हुए.

"फारम का काम आने वाला औजार हम अपनेई ठीककै लेइत हैं." उसने कहा.

"कब से यैं यहां ?" मैंने पूछा.

"तिन साल येहि चैत मा पूरा होई जाई."

"रहने वाले कहां के हैं?"

"सुलतानपुर कै."

बगल में खड़े अधिकारी ने मेरे कान के पास मुंह ले जाकर फुसफुसाते हुए कुछ कहा-- इतने धीमे स्वर में कि सामने खड़ा व्यक्ति न सुन सके. फिर भी पता नहीं, किस तरह वह भांप गया. बोला, "हमहु भी सजा आफता अहि--मुजरिक----."

"किस अपराध में?"

"दफा रीन सौ दोई-- उमर कइद."

मुझे आघात-सा लगा.

"जुर्म?"

"क-तल." उसने सहजभाव से कहा.

पर मेरा मुंह तनिक खुल-सा आया.

"यहां सभी कैदी लगभग ऎसे ही हैं." अधिकारी ने बतलाया, "अधिकतर दफा तीन सौ दो के हैं-- आजन्म कारावास वाले."

आस-पास खड़े अन्य व्यक्तियों को भी उन्होंने इशारे से पास बुलाया.

हत्या ! मार-पीट ! डकैती !

सुबह तड़के जब यहां के लिए रवाना हुए, तब कुछ-कुछ सर्दी थी. किन्तु इस समय दोपहर की धूप कहीं चुभ -सी रही थी.

समीप ही पेड़ के नीचे धूल से ढंकी, काठ की टूटी हुई दो-तीन पुरानी कुर्सियां पड़ी थीं. रूमाल से उन्हें साफ कर किसी तरह बैठ गए.

साथा आए सज्जन चाय की व्यवस्था करने चले गए.

कुछ देर पश्चात पुलिस अधिकारी के पिछे-पीछे एक नाटा-सा व्यक्ति केतली और लोहे के गिलास थामे, लम्बे-लम्बे डग भरता चला आ रहा था. उसकी सामने वाली जेब कुछ उभरी हुई थी-- बिस्कुट के छोटे पैकेट का ऊपरी हिस्सा साफ दिखलाई दे रहा था.

चाय लाने वाला भी कोई कैदी था, बनाने वाला भी.

पता नहीं चाय क्यों इतनी बेस्वाद लगी. एक अनीब-सी गंध आ रही थी. पानी ही ऎसा होगा, मैंने मान लिया था.

इस खुली जेल के बारे में कुछ विशेश जानकारी हासिल करने के लिए मैं यहां आया था. इन विकट अपराधियों को, इस तरह मुक्तभाव से विचरण करते देख , मुझे अजीब-सा लगा रहा था-- एक विचित्र-सी दहशत. ये भागते नहीं होगें? आपस में ही कभी फिर कत्ल!

"अभी आपको कैदियों के फार्म की ओर भी जाना है. गेहूं की यह फसल इन्हीं कैदियों ने उगाई है. यहां पहले बियाबान जंगल था. इन्हीं लोगों ने उसे साफ किया था." खाकी कपड़े पहने एक व्यक्ति पास आकर बोला.

कुछ क्षण विश्राम करने के पश्चात हम फिर आगे बढे़-- खोतों की तरफ.

यहां परती धरती तोड़ी जा रही थी. दो-तीन ट्रैक्टर धूं-धूं करते हुए, ढेर सारी धूल एक साथ उड़ रहे थे. ट्रैक्टरों के पीछे-पीछे कुछ लोग नंगे पांव दौड़ से रहे थे -- जो भी पत्थर सामने दीखता, उथाकर एक ओर जमा करते चले जाते.

जहां ट्रैक्टर चल चुके थे, वहाम टोलियों में बिखरे लोग घास-फुस इकट्ठी करके जला रहे थे. जगह-जगह घास की ढेरियों के पास धुआं उठ रहा था. बुआई के लिए खेत यधाशीघ्र समतल हो जाएं, सब इसी प्रयत्न में जुटे दीख रहे थे.

सिर पर मोटे खद्दर की मैली-सी टोपी, उसी कपड़े की आधी बांह की बंडी, घुटने तक का वैसा ही पाजामानुमा कच्छा पहने कितने ही लोग यंत्रवत काम में जुटे थे. अलग-अलग दिशाओं में अनेक टोलियां फैली थीं.

घंटों तक पैदल इधर-उधर चलने के पश्चात अंत में हम उस सिरे पर पहुंचे, जहां कैदी मजदूरों ने अपने ही प्रयत्नों से एक नाले का बहाव रोककर , छोटी-सी कृत्रिम झील बना ली थी. बीच पानी में ई पेड़ आधे-आधे डूबे थे. किनारे की लाल कच्ची मिट्टी अभी तक भी गीली थी,जैसे अभी-अभी झील का निर्माण-कार्य समाप्त हुआ हो.

कुछ और आगे बढ़कर अंधेरे जंगल के सिरे पर पहुंचे तो वहां गीली जमीन पर शेर के पंजों के जैसे निशान दिखलाई दिए.

"यहीं पर कुछ दिन पहले शेर ने एक कैदी को मार डाला था----." पुलिस आधिकारी ने और आगे न बढ़ने के लिए चेतावनी-सी देते हुए कहा.

जब हम पीछे मुड़ने लगे तो सूरज फिसलता हुआ क्षितिज के समीप पहुंच चुका था.

फार्म की सीमा-रेखा के निकट, एक ऊंचे वृक्ष की शाखाओं पर, हवा में झूलती एक झोंपड़ी -सी अटकी थी-- इतनी छोटी कि एक व्यक्ति पांव फैलाकर सो भी न पाए.

"यह किसलिए----?"

"रात में पहरेदारी के लिए यह मचान बना रखा है कि कहीं कोई कैदी निकल न भागे."

"पहरेदारी कौन करता है ?"

"इन्हीं कैदियों में से----."

तभी सामने से गुज़रते कैदी को आवाज लगाई तो वह सहमता हुआ खड़ा हो गया.

"आजकल यही पहरेदारी कर रहा है."

’सारी रात इस जंगल में अकेले बैठे डर नहीं लगता?"

वह बोला कुछ नहीं-- बस, यों ही देखता रहा.

"कभी घर जाने को मन करता है ?"

उसनेमात्र सिर हिला दिया.

"अब कितने बरस बाकी हैं?"
"------"

"यहां की जिन्दगी बहुत कष्टकर है न!"

इस बार भी वह काठ-सा देखता रहा.

उसकी उदास आकृति पर राख-सी पुती थी. सूनी आंखें यंत्रवत खुली . घास-सी उगी दाढ़ी के बाल बेढंगे लग रहे थे.

"कोई कैदी इस खुली जेल से कभी भागता तो नहीं ?" मैं पुलिस अधिकारी से पूछता हूं -- चलते-चलते.

"ऎसे वाकये कम ही होते है...."

सूरज धलने के साथ-साथ सभी कैदी-मजदूर डेरे की दिशा में लौट रहे थे-- हारे-थके-से. प्रायः सबके सिरों पर जलाने के लिए एकत्र की गई लम्बी-सूखी लकड़ियों का छोटा-सा गट्ठर था. सब बेजान-से लग रहे थे--- मशीन की तरह.

पूर्वी क्षेत्र में एक छोटा-सा हिस्सा अभी देखना बाकी था. जल्दी-जल्दी उसे देखकर लौटे तो आसमान पर ढकना-सा लग गया था, काले कंबल का, एकदम घुप्प अंधियारा.

अंग्रेजी के ’एल’ के आकार में बनी झॊंपड़ियों के आगे खुला-सा बंजर मैदान था-छोटा-सा , जिसमें बीसियों चूल्हे अलग-अलग जल रहे थे. अल्युमीनियम की पिचकी हुई काली पतीलियों पर चावल जैसा कुछ बुदबुद करता हुआ उबल रहा था. दिन-भर के श्र से थके सभी कैदी रात का भोजन बनाने में जुटे थे.

"राशन सरकार देती है ?"

"जी हां."

"पेट भर जाता है?"

"हां"

एक जवान कै़दी की ओर मुड़ता हूं, "घर से मिलने कभी कोई आता है ?"

"दूर के रिश्ते की एक बुआ थी. साल-छह महीने में कभी खाने-पीने का कुछ सामान बेचारी डाल जाती थी. पर इस वर्ष माघ महीने में वह मर गई----." उसका मासूम चेहरा एकाएक उदास हो आया था.

घर में और कोई नही.....?"

"न्नां....."

उसके चेहरे पर अजीब-सी व्यथा, अजीब-सी विवशता थी. उसे देखकर लगता नहीं था कि इससे इतना बड़ा अपराथ हुआ होगा, जिसकी ऎसी कठिन सजा भुगत रहा है.

कैदियों की झोपडियां भीतर से बैरकनुमा थीं-- खुली हुई. नीचे मिट्टी के कच्चे फर्श पर सूखा पयाल बिछा था, उसके ऊपर कॊई फटा कंबल या चटाई मात्र. किसी-किसी कैदी के पास chhotaaभीथा. कहीं पर जंग लगे टूटे कनस्तर में पिचका हुआ पुराना ताला भी लटक रहा था- शायद घर से भेजी वस्तुएं सुरक्षित रखने के लिए.

मैं सोचता रहा-- वस्तुएं भी क्या होंगी, इन अनिकेत विस्थापितों के पास ! तन के पकद़्ए, फटे कंबल, चावल, आटा, बीड़ी, गद़्अ ! इनके अलावा और क्या ?

आंगन की दाहिनी तरफ, एक कोने में मूर्ति का -सा जैसा एक ढांचा खड़ा था.

"यह मूर्ति किसी कैदी ने बनाई है ?" जिज्ञासा से मैंने पूछा.

"जी हां"

उसी के निकट जूल्हा जल रहा था. एक बूढ़ा कैदी गर्दन झुकाए , ऊंघता हुआ बैठा चावल उबाल रहा था. सैंवार की तरह उलझे बाल. कोटरों में धंसी निस्तेज आंखें ! झुर्रियों से ढंका चेहरा !

"इसी ने बनाई है ---- पहले बरेली सेन्ट्रल जेल में था. सुना है, वहां भी ऎसा ही कुछ करता रहता था." पुलिस अधिकारी ने बतलाया.

हमें पास देखते ही उसने उठ खड़े होने की कोशिश की. उसकी कमर धनुष की तरह झुकी थी -- अधखुली आंखों मेम जिज्ञासा का-सा जैसा भाव.

"बहुत अच्छी बनाई है." मूर्ति को मैंने हाथ से छूकर देखा-परखा.

वह संकोच से और चोटा हो आया - सिकुड़कर. मेरी ओर देखता हुआ बोला, "यों ही कुछ --- अब आंख से बहुत कम देख पाता हूं. हाथों में भी जान नहीं रही."

"यहां कैसे आ गए.....?"

कुछ देर वह वैसा ही देखता रहा -- निर्निमेष. फिर धीरे-से बुदबुदाता हुआ बोला, "हत्या और बलात्कार का जुरम लगा है साब...."

अब आग के और निकट होने के कारण उसका सूखे खजूर-सा चेहरा और भी पीला लग रहा था. मकड़ी के जाले-जैसी अनगिनत रेखाओं से ढंकी आकृति पर एक साथ कितने ही भाव आ-जा रहे थे--- पानी पर डोलते प्रतिबिम्ब की तरह.

"कैसे हो गया यह सब....?"

"किस्मत में यही लिखा था, हुजूर ! उसकी लिखी को कौन टाल सकता है ?"

ठंडी हवा से उसके तन पर लटके चीथड़े ही नहीं, उसका सारा बूढ़ा शरीर सूखे पत्ते की तरह कांप रहा था. अपनी कुहनियों की बगल में दोनों नम्गे हाथों को सर्दी से बचाने के लिए, चिपाने का असफल प्रयास कर रहा था.

"कैदियों के साथ इतनी लंबी उम्र गुजारने के बाद मैम इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि कॊई भी आदमी ’बेसिकली’ बुरा नहीम होता. आवेश के किसी क्षण में कभी-कभी कुछ-का कुछ हो जाता है." पुलिस अधिकारी ने दार्शनिक अंदज में कहा.

हम लोग थोड़ी देर यों ही खड़े रहे. एक-एक पल भारी लग रहा था -- एकदम बोझिल . चूल्हे की धंधली आग के उजाले में मूर्ति का धांचा अब और भी साफ दीख रहा था.

भरी मन से हम लौटने लगे. अभी कुछ ही कदम अंधेरे में रास्ता टटोलते हुए आगे बढे़ तो फिछे से किसी के आने की आहट हुई.

मुड़कर देखा - वह फिर सामने खड़ा था -- तनिक हांफता हुआ.

"आपका मफलर रह गया था. जमीन पर गिरा था." उसने मफलर मेरी ओर बढ़ाते हुए कहा.

जब मैं मूर्ति को टटोल रहा था, तब कंधे पर से शायद नीचे गिर पड़ा हो.

"आप ही रख लीजिए." मैंने पता नहीं क्या सोचकर कहा.

"नहीं-नहीं." वह और कसरा आया.

"अरे भाई,हम कह रहे हैं. रख भी लीजिए. क्या फर्क पड़ता है!"

मैंने मफलर उसके हाथ में दिया, तो वह ठगा-सा खड़ा देखता रहा.

"आप और भी अच्छी-अच्छी मूर्तियां बनाएं, हमारी शुभकामनाएं हैं...." मफलर अभी तक भी उसके हाथ में यों ही धरा था.

कुछ सोचता हुआ बोला, "मैंने कुछ और भी मूर्तियां बनाई हैं--- मिट्टी की. दिन की रोशनी में आप आते तो देखलाता. आपके चेहरे के भावों से लगता है, आप कला के अच्छे पारखी हैं----." कहते-कहते वह सहसा चुप हो आया. फिर तनिक रुककर बोला - "आपको भी यही लगता है कि मैंने हत्या की है?"

"........"

उस अंधकार में मैं महसूस कर रहा था, वह अपलक मेरी ही ओर देख रहा है.

"किसी से कहिएगा तो नहीं--- ", वह मुझे पुलिस- अधिकारी से कुछ दूर एकान्त में ले जाता हुआ बोला, "यह भूल --- यह भूल मुझसे नहीं, मेरे बेटे से हुई थी. भरी जवानी में उसे फांसी के तख्ते पर झूलते या उमरकैद की सजा काटते मैं कैसे देख सकता था ? इसलिए जुर्म मैंने खुद ओढ़ लिया . .... यों मुह्हे अब जीना ही कितना है --- हद-से हद साल-चह महीने बस---." उसका सर भारी हो आया.

"बच्चे कभी मिलने आते हैं?" मैंने असह्य मौन तोड़ते हुए कहा.

वह कुछ भी बोल न पाया-- प्रत्युत्तर में.

"चिट्ठी-पत्री आती है....?’

"न्नां....!" कहीं खोया-खोया-सा वह बोला, "कौन लिखेगा मुझे चिट्ठी--- सब मुझसे घृणा करते हैं . यही समझते हैम कि यह सब बुढ़ापे में मैंने ही किया. सगे-संबंधी कतराते हैं. पत्नी मेरा मुंह तक नहीं देखना चाहती----. जिस बेटे के लिए मैंने यह सब किया, वह मुझे कब का मरा मान चुका है..... ये सारे कैदी, जिनकी चादरें मुझसे भी अधिक मैली हैं , मुझ पर थूकते हैं.... किन्तु मुझे इस सबसे दुःख नहीं होता. मेरे बच्चे सुख से रह रहे हैं--- इससे अधिक मुह्हे और क्या चाहिए ?"

उसकी आवाज़ भीग आई थी. किन्तु वह अपनी रौ में बोलता रहा, "यहां मजदूरी से मुझे साढ़े चार रुपए रोज मिलते हैं . अब तक मेरे खाते में जितने भी रुपए जमा हैं, सब मैंने उनके नाम करवा दिए हैं. मेरे मरने के बाद उन्हें अच्छी रकमे मिल जाएगी---- बहुत अच्छी...." उसकी लड़खड़ाती आवाज में कहीं अपरिमित संतोष का-सा भाव उभर रहा था. इससे अधिक वह कुछ बोल न पाया.

उस सघन अंधकार में धूल उड़ाती हुई हमारी जीप जब लौटने लगी, तब मैंने सहसा मुड़कर देखा --- वह वैसा ही पाषाणवत खड़ा था.

******

ग्रणी कथाकार एवं पत्रकार हिमांशु जोशी का जन्म ४ मई १९३५ को उत्तर प्रदेश (अब उत्तरांचल० में हुआ था. लगभग २९ वर्ष देश की अग्रणी पत्रिका ’साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ में वरिष्ठ पत्रकार. कोलकाता से प्रकाशित साहित्यिक मासिक पत्रिका ’वागर्थ’ के सम्पादक रहे.
* जोशी जी की प्रमुख प्रकाशित कृतियों में अरण्य, महासागर , छाया मत छूना मत, कगार की आग, समय साक्षी है, तुम्हारे लिए तथा सु-राज (सभी उपन्यास०, अन्ततः तथा अन्य कहानियां, मनुष्य-चिन्ह तथा अन्य कहानियां, जलते हुए डैने तथा अन्य कहानियां, रथचक्र , तपस्या तथा अन्य कहानियां, गंधर्व-गाथा, इस बार फिर बर्फ गिरी तो , नंगे पांवो के निशान सहित अठारह कहानी संग्रह, तीन कविता संग्रह, दो वैचारिक संस्मरण-संकलन, साक्षात्कार, यात्रा-वृत्तान्त, जीवनी तथा खोज, रेडियो नाटक और बाल साहित्य की नौ पुस्तकें प्रकाशित.

*लगभग ३५ शोधार्थियों ने साहित्य पर शोध कर डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की. कई विश्वविद्यालयों में रचनाएं पाठ्यक्रम में.
* अनेक भारतीय भाषाओं , अंग्रेजी, नेपाली, वर्मी, चीनी, जापानी , इटालियन, नार्वेजियन सहित लगभग २४ भाषाओं में साहित्य अनूदित.
* उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, हिन्दी अकादमी, दिल्ली, तथा राजभाषा विभाग बिहार सरकार द्वारा पुरस्कृत. हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग का सर्वोच्च समान ’साहित्य वाचस्पति’ . नार्वे का साहित्य के लिए ’अंतरराष्ट्रीय हेनरिक सम्मन’ वर्ष २००७ .

* अनेक संगठनों एवं संस्थानों से संबद्ध. भारत सरकार की हिन्दी-सलाहकार समितियों मे.
* अमेरिक, नार्वे, स्वीडन , डेनमार्क, जर्मनी, फ्रांस, नेपाल, ब्रिटेन, मारीशस, त्रिनिदाद, थाईलैण्ड, सूरानाम, नीदरलैण्ड, जापान, कोरिया, आदि अनेक देशों की यात्राएं.
* सम्प्रति : स्वतंत्र लेखन. नार्वे से प्रकाशित पत्रिका ’शांतिदूत’ के विशेष सलाहकार.

*संपर्क : ७/सी-२, हिन्दुस्तान टाइम्स अपार्टमेण्टस,
मयूर विहार, फ़ेज-एक, दिल्ली - ११००९१
फॊन : ०११-२२७५२३३० , मोबाइल : ०९८९९३११९३२

आगामी अंक

आगामी अंक में ’हम और हमारा समय’ के अंतर्गत युवा कवि- कथाकार इला प्रसाद का आलेख और वरिष्ठ कथाकार-पत्रकार सुरेश उनियाल की कहानी तथा अन्य सामग्री.

रविवार, 8 जून 2008

वातायन- जून 2008


हम और हमारा समय

स्वैच्छिक सेवा अवकाश ग्रहण के लगभग एक वर्ष बाद एक दिन मेरा एक सहयोगी एक कार्यक्रम में मुझे मिला. देर तक बातचीत के बाद उसने एक ऎसा प्रश्न किया जिसने मुझे चौंका दिया था.
"आपका धंधा कैसा चल रहा है ?" उसने पूछा था.
"कौन-सा धंधा ?"
"वही, लिखने का…" उसने मेरे चेहरे के भाव पढ़ने का प्रयत्न किया, फिर बोला, "इन्कम तो अच्छी हो जाती होगी ?"
मैंप. उसे क्या उत्तर दूं सोचता रहा. उत्तर न देना ही बेहतर था. वह भी शायद इस बात को समझ गया था. वह हर काम को अर्थ से जोड़कर देखने वालों में से था. अपनी जगह वह गलत भी न था. यदि मेरे लिखने से आय नहीं होती तो मैं लिखता ही क्यों हूं ? और यदि आय है तो उसकी दृष्टि में मेरा लेखन-कर्म 'धंधा' ही हुआ. यह एक सामान्य-जन का प्रश्न था, जिसके पास मेरे काम के मूल्यांकन के लिए वही उपयुक्त शब्द था. लेकिन जब एक वरिष्ठ कथाकार और एक बड़ी कथा-पत्रिका के संपादक ने प्रश्न किया कि 'आपने कभी सोचा कि आप क्यों लिखते हैं ?" पहली बार उनके प्रश्न से कुछ भी अटपटा नहीं लगा था, परन्तु उन्होंने जब महीनों के अंतराल में तीन बार यही प्रश्न दोहराया तब अस्वाभाविक लगना स्वाभाविक था और उसके निहितार्थ को समझना भी आवश्यक था. प्रश्न देखने में जितना सहज दिखता है, उत्तर भी उतना ही सीधा-सहज हो सकता है, लेकिन सम्पादक जी के पूछने में जो असहजता थी उसने मेरे लिए प्रश्न को अधिक ही गूढ़ बना दिया था.

भले ही संपादक जी वर्षों पहले लिखना छोड़ चुके थे और अपनी पत्रिका के माध्यम से न लिखने के कारणों की चर्चा कर विवाद भी पैदा कर चुके थे (क्योंकि विवादों में रहना उनकी फितरत है). एक समय वह हिन्दी कथा-साहित्य के चर्चित हस्ताक्षरों में थे (और चर्चा का आधार साहित्य की उत्कृष्टता से नहीं अन्य कारणों से था, यह आज हिन्दी साहित्य के इतिहास में दर्ज है) और "'वह क्यों लिख रहे थे ?" उनसे उलट प्रश्न पूछा जा सकता था. वह आज भी कभी मन बहलाने के लिए लिख लेते हैं और अपनी पत्रिका के माध्यम से अपने कुछ चाटुकारों को 'प्रमोट' करने में ऎड़ी-चोटी का जोर भी लगा देते हैं. लेकिन क्या उन्होंने कभी अपने किसी चाटुकार से पूछा कि 'वह' क्यों लिखता है ? शायद उनकी दृष्टि में 'वह' समकालीन साहित्य का सर्वश्रेष्ठ लिख रहा है. लेकिन 'सर्वश्रेष्ठ' को किसी के प्रमोशन की दरकार नहीं होती… पाठक उसे खोज ही लेते हैं. जब संपादक जी अपने किसी चाटुकार की किसी पुस्तक की एकाधिक समीक्षाएं एक ही अंक में प्रकाशित करते हैं तो उसके 'सर्वश्रेष्ठ' को लेकर उनके अंदर के भय और उहापोह को सहजता से समझा जा सकता है.

इन्हीं वरिष्ठ कथाकार और सम्पादक जी के प्रश्न ने मुझे प्रेरित किया है कि इस विषय पर मैं अपने कुछ वरिष्ठ और समकालीन लेखकों से 'वातायन' में लिखने के लिए अनुरोध करूं. वरिष्ठ चित्रकार और साहित्यकार हरिपाल त्यागी जी ने मेरे अनुरोध की रक्षा करते हुए इस विषय पर लिखा जिसे मैं इस अंक में प्रस्तुत कर रहा हूँ. इस श्रंखला को जारी रखने का प्रयास रहेगा.

मैं क्यों लिखता हूं?
हरिपाल त्यागी

दुनिया में शायद ही कोई ऎसा विषय हो जहां लेखन के बिना काम सधता हो. लेकिन इस प्रश्न के पीछे 'लिखने' का मतलब सृजनात्मक साहित्यिक लेखन से है. हमारी चर्चा का विषय भी साहित्यिक लेखन पर ही केन्द्रित है. यह मेरे लिए सौभाग्य की बात है कि एक चित्रकार के रूप में अपनी पहचान बनाने के बावजूद मैं लिखता-पढ़ता भी हूं और यह मेरी मानसिक खुराक में शामिल है.

मैं क्यों लिखता हूं – यह प्रश्न मेरे लिए अब नया नहीं रह गया है. पहले भी मैंने अपने लिखने के कारणॊं पर छिटपुट टिप्पणियां की हैं और इस प्रश्न के पीछे छिपे मंतव्यों को समझने की कोशिश की है. ऊपर से देखने में प्रश्न जितना सीधा-सपाट लगता है, उतना है नहीं, अपने गर्भ में अनेकानेक मंतव्यों, आशयों और जिज्ञासा के कारण यह बहुत-सी जटिलताएं समेटे हुए है. उनमें से कुछ आशय और मंतव्य समय के साथ-साथ खुद भी बदलते गए हैं.

प्रश्न के भीतर छुपे वे नये और पुराने उद्देश्य क्या हैं या क्या हो सकते हैं, पहले यह जान लेना जरूरी है, ताकि उत्तर सही-सही और सिलसिलेवार दिया जा सके. मसलन, एक मंतव्य तो यही हो सकता है कि एक चित्रकार, जो अपने विचारों और मनोभावों को रंग और रेखाओं के प्रयोग से अभिव्यक्त करता आया है, के लिए सृजनात्मक लेखन क्यों जरूरी हुआ? इसके साथ यह आशंका भी चिपकी हो सकती है कि शायद लाख कोशिश के बाद, मैं उतना अच्छा लेखक सिद्ध न हो पाऊं जितना चित्रकार के रूप में सिद्ध हो चुका हूं. कहीं ऎसा न हो कि दोनों दिशाओं में हाथ मारने से मैं इधर का रहूं, न उधर का. मेरे एक-दो शुभचिंतकों ने तो चेतावनी ही दे डाली कि चित्रकला के मुकाबले लेखन मेरे लिए घाटे का सौदा है और बैठे-बिठाए जोखिम मोल लेने वाली बात है. आज हिन्दी का बड़े से बड़ा लेखक भी यह दावा नहीं कर सकता कि केवल लेखन के बल पर उसे आर्थिक निश्चितंता प्राप्त है और वह अपनी आजीविका सम्मानपूर्वक चला सकता है. अलावा इसके, लेखन से हाल-फिलहाल किसी सामाजिक परिवर्तन की बात भी गले नहीं उतरती. विश्व पूंजीवाद के मौजूदा दौर में, जबकि मूल्यों का लगातार ह्रास हो रहा है और उन में साहित्यिक मूल्यों को भी शामिल करके देखा जाना चाहिए, साहित्य-सृजन एकदम गैरजरूरी हो गया है. सरकारी और गैर सरकारी साहित्यिक सम्मान, पुरस्कार और अभिनंदन लोमड़ियों द्वारा मुर्गों के गुणगान के समान हैं. लेखकीय गरिमा और प्रतिष्ठा में इन से कोई इजा़फा नहीं हुआ है. यह सारा तंत्र संदेह के घेरे में है, जहां उद्देश्य साहित्य का विकास न होकर कुछ और है.

मैं अपने शुभचिंतकों की बात से सहमत हूं, फिर भी लिखने की जिद पर अड़ा हूं. यह जिद मेरी जीवन प्रणाली का हिस्सा है. अगर बात को बदले की भावना से कहा हुआ न माना जाए तो मैं कहना चाहूंगा कि मैंने अनेक साहित्यकारों को पढ़ा है और अब मुझे भी यह अधिकार है कि दूसरों को अपना लिखा पढ़ाऊं. जब दूसरे सभी मेरे हमसफ़र जिंदगी की मार झेल सकते हैं तो मैं उनसे अलग क्यों रहूं?

चित्रकला और साहित्य एक-दूसरे का विकल्प नहीं हैं और दोनों विधाओं की अपनी अलग-अलग स्वायत्तता है. दोनों एक-दूसरे की पूरक हो सकती हैं, लेकिन एक-दूसरे का स्थान नहीं ले सकतीं. इन दो विधाओं के अलावा, अगर मैं अपनी आनंदानुभूति में नाचना भी शुरू कर दूं तो इस में किसी को क्यों आपत्ति हो? मेरे ख़याल से एक पढे़-लिखे व्यक्ति से ऎसे प्रश्न करना कि वह लिखता क्यों है, पढ़ता क्यों है निहायत बेतुकी बात है.


उनका यह भी कहना है कि मौजूदा दौर में बड़ी तेजी से एक ऎसा समाज विकसित हो रहा है जो साहित्य-कला एवं सांस्कृतिक गतिविधियों के प्रति उदासीन रवैया अपनाता है या फिर इन्हें बाजारवाद की जरूरत के मुताबिक ढाल कर देखता है. सारे कला मूल्य और गुणवत्ता कागज के चंद टुकड़ों में तब्दील हो रहे हैं. करोड़ों की नीलामी के शोर-शराबे में कला संवेदना और कलात्मक गुणवत्ता दम तोड़ रहे हैं. साहित्य का तो और भी बुरा हाल है- प्रसिद्ध कवि नागार्जुन को भी कहना पड़ा था : "प्रभु तुम कर दो वमन / होगा मेरी क्षुधा का शमन." ऎसे में मैं क्यों लिखता हूं या कोई भी क्यों लिखता है यह जानना बहुत जरूरी है.

विकसित होते हुए साहित्यिक संस्कारों से वंचित और उदासीन धन-पशुओं का समाज किसी भी सच्चे कलाकार या साहित्यकार के लिए आदर्श नहीं हो सकता, उसकी प्रवृत्तियों को उजागर करने में लेखन भी एक कारगर हथियार है. आखिर साहित्य जीवन की आलोचना के अलावा और है भी क्या. हालांकि जीवन सभी के लिए एक जैसा नहीं है, इसलिए लेखन के उद्देश्य और कारण भी समान नहीं है. कोई एक लेखक भी कई विभिन्न कारणॊं से लिख सकता है.
देखा जाए तो न लिखने के पक्ष में और भी अनेक तर्क दिए जा सकते हैं, दिए जाते भी हैं. शायद इन्हीं तर्कों -कुतर्कों के वशीभूत रेस के कई घोड़े हताश होकर लेखन से किनारा कर बैठे हैं. अपने को प्रयोगधर्मा बताने वाले एक सुपरिचित वरिष्ठ कथाकार ने तो न लिखने का कारण भी लिखित रूप में प्रस्तुत किया था, हालांकि इस एक कारण को बताने में वे कुछ शरमा जाते हैं कि वे चुक गए हैं, जबकि मुख्य कारण यही है. समझदारी का सबूत देते हुए एक दूसरे लेखक ने, न लिखने के पक्ष में कोई दलील न देते हुए और जितना लिख चुके हैं उसे ही पर्याप्त समझते हुए, शायद दूसरों को मौका देने के लिए ही, स्वयं लेखन को तिलांजलि दे दी. अब वे लाख उकसाने के बावजूद स्थितप्रज्ञ अवस्था में ही हैं और सिर्फ 'हां-हूं' करके रह जाते हैं किसी रचनाकार को पारिश्रमिक दें, न दें, लेकिन किसी लेखक या कवि को पहलवान बनाने में पीछे रहने वाले नहीं. आलोचना-साहित्य को सृजनात्मकता से जोड़नेवाले एक और जाने-माने साहित्यकार धीरे-धीरे लेखन से विरक्त होते गए, फिर भी चुप होकर नहीं बैठे - एक अदद माइक देखते ही आज भी आंखों में चमक आ जाती है. उदार इतने कि दुश्मनों पर प्यार उमड़ने लगे. मूड न हो तो दोस्तों से कतराकर निकल जाएं- वक्त के अनुकूल ही उनका अगला कदम उठेगा, यह तय है.

आदर्श बुद्धिजीवी का लक्षण है कि वह प्रत्येक सही बात पर असहमत हो. दिग्गजों ने लिखना छोड़ा - यह तो ठीक, लेकिन बुद्धिजीवी को किसी के बोलने पर भी आपत्ति है. रचनाकारों को सभी सृजनात्मक कष्टों से उबारने के लिए वे उन्हें मीडिया विमर्श के बारे में बताते हैं और तकनीकी लेखन अपनाने की सलाह दे डालते हैं, क्योंकि पुस्तक मेलों में पाकशास्त्र और कढा़ई -बुनाई का साहित्य कथा-कहानी और कविता वगैरह से कहीं ज्यादा बिकता देखा गया है. किसी भी क्षेत्र में जमने के लिए माल का ब्रांडेड होना जरूरी है. जो ब्रांड होने की क्षमता नहीं रखता उसे जिन्दगी घसीटनी ही पड़ेगी और आने वाले प्रत्येक दिन में उस पर जिन्दगी का बोझ बढ़ता जाएगा.

ऎसे मूल्यवान सुझावों को बेगौर करते हुए, साथ ही, लेखन से जुड़े सभी नये-पुराने खतरों का जोखिम उठाते हुए मैं लगातार लिख रहा हूं और कभी-कभी खुद से ही पूछने लगता हूं कि आखिर वे कारण हैं क्या जिन के वशीभूत मैं कलम उठाने को मजबूर हो जाता हूं. तब 'समझदारी से भरी' किसी भी बात का असर मुझ पर क्यों नहीं हो पाता ? लेखन से जुड़े खतरे मेरे इरादे को बदल क्यों नहीं पाते? बल्कि, तमाम दुख-तकलीफ के बीच मैं आत्मतुष्टि और रचनात्मक आह्लाद के क्षण भी निकाल ही लेता हूं… और ये ही वो लम्हे हैं जो मुझे आगे और लिखने की प्रेरणा तथा शक्ति से भर देते हैं. खुशी और सुखानुभूति से भरे वे क्षण, जिन में मेरी बेचैनियां, पीड़ाएं और मानसिक कसमसाहटें भी शामिल हैं, मुझे लिखने को विवश करते रहे हैं और यह ऎसा नशा है जिसके सामने दुनिया के सभी नशे फीके पड़ जाते हैं.

साहित्यिक रेस के वे घोड़े कभी मेरे प्रिय लेखकों में हुआ करते थे. जब वे ही बेजार हो कर बैठ गए तो मेरा यह दायित्व बनता है कि बढ़ कर साहित्य की मशाल स्वयं थाम लूं. हालांकि, साहित्य-कला और संस्कृति के क्षेत्र में कोई किसी का स्थान नहीं ले सकता और प्रत्येक को अपनी जमीन खुद तोड़नी पड़ती है जो पहले टूट चुकी जमीन से कहीं अधिक कड़ी होती है, लेकिन चुनौती स्वीकारने का नाम ही तो जिंदगी है और इसका कोई शॉर्टकट नहीं है- एक आग का दरिया है और डूब के जाना है…

एक साक्षात्कार के बीच मुझ से पूछा गया कि मैं सृजनात्मक आनन्द चित्रकला में अधिक महसूस करता हूं या साहित्य-सृजन में ? मेरा उत्तर यही है कि जब मैं लिख रहा होता हूं तो साहित्य-सृजन में मुझे आनंद मिलता है, लेकिन चित्र-रचना के दौरान चित्र में ही. मुख्य बात विधा की नहीं, सृजन की है. सृजन-सुख से वंचित कोई आदमी शायद इस बात को समझ ही नहीं पाता. क्या संतान की इच्छुक किसी नारी को भंयकर प्रसव पीड़ा का भय दिखा कर और बाज औकात संतानोत्पत्ति की प्रक्रिया में नारी की मृत्यु तक हो जाने का वर्णन करके उसे मां बनने के सुख और अधिकार से रोका जा सकता है ? यही नियम सृजनात्मक लेखन और अन्य विधाओं पर लागू होता है. यह इतना सहज-स्वाभाविक है कि यह प्रश्न ही बेतुका और बेमाने हो जाता है. एसे में प्रश्नकर्ता से ही पलट कर पूछने की इच्छा होती है कि वह जी क्यों रहा है? ताजा हवा फेफड़ों में भरकर गर्म सांसें और अपानवायु बाहर निकालने का मतलब क्या है ? जबकि, मनुष्य की तमाम जिंदगी दुख- तकलीफ़ की खान है. फिर क्यों जिंदगी से जोंक की तरह चिपटे हुए हो ?


लेकिन नहीं, यह प्रश्न भी उतना ही बेतुका और बेमाने है जितना मेरे लिखने से संबंधित पूछे जाने वाला प्रश्न. जीना भी उतना ही सहज-स्वाभाविक है. जिंदगी बड़ी नियामत है, मैं इसी से अनुभव बटोर कर उन्हें शब्द देता हूं ताकि ये शब्द-बीज अंकुरित होकर हजारों हजा़र जिंदगियों में फूलें-फलें. यह वो रोशनी है जिस में मैं खुद की तलाश भी करता हूं- भाड़ में जाए विश्वपूंजीवाद और कितनी भी नंगई पर उतरे विश्व बाजारवाद, मुझे अपनी शर्तों पर जीना है…

अपनी शर्तों पर जीने की जि़द में मेरा रचना कर्म भी शामिल है, जो मुझे रचनात्मक ऊर्जा और शक्ति देता है. इसी से मुझ में जीने का विश्वास पैदा हुआ है- अपनी शर्तों पर जीने का विश्वास ! 'एक आग है जिस में मैं लगातार जलता रहता हूं. अपना सारा जीवन इसी आग के हवाले है. एक दिन सारा जीवन ही जल कर राख हो जाएगा. यही एक आखिरी सच है. लेकिन अपने काग़ज-कलम और कुछ अन्य कला सामग्री के साथ मुझे जलाने वाली यही आग मेरी ऊर्जा और ताकत में बदल जाती है और उसी की रोशनी में मैं खुद को पहचान पाता हूं- तब जिंदगी के लिए दी गई प्रत्येक कुर्बानी मृत्यु न होकर जीवन की निरंतरता में बदल जाती है.'

आग से गुजर कर आए मेरे शब्द रोटी का विकल्प तो नहीं ही हैं, क्योंकि शब्दों से अखबारों या पत्र-पत्रिकाओं का पेट भले ही भरा जा सके लेकिन मनुष्य को तो रोटी ही चाहिए. फिर भी, मैं शब्दों की ही खेती करता हूं, इन्हीं शब्द-बीजों को दूर-तक लोगों के दिलो-दिमाग में बोने के लिए लिखता हूं- हालांकि बंजर धरती में अच्छे बीज भी बेकार हो सकते हैं, लेकिन बंजर धरती को बार-बार जोत कर उर्वरा बनाना भी मेरे रचना कर्म का हिस्सा है. मैं इस में कितना सफल हो पाता हूं, सफल हो भी पाता हूं या नहीं, यह तो वक्त ही बताएगा और हर रचनाकार को धैर्यपूर्वक अपने वक्त का इंतजार करना होता है. आत्मविश्वास ही इस में मदद कर सकता है. फिर भी, जोखिम भरा काम है- इसकी न कोई शर्त है, न गारंटी. आस-पास कितना भी सौंदर्य बिखरा हो लेकिन दृष्टि न हो, तब सब कुछ बेकार है.

एक बार दागिस्तान के प्रसिद्ध लोक कवि रसूल हमजा़तोव से उसके गांव के किसानों ने पूछा, 'तुम कविताएं लिखते हो. तुम्हारा बाप भी कविताएं लिखा करता था- तुम लोग काम कब करते हो? जबकि, हमें तो रोज आठ घंटे फार्म पर कड़ी मशक्कत के साथ गुजारने पड़ते हैं.'

तब रसूल हमजा़तोव ने कहा कि 'एक रचनाकार की ड्यूटी आठ घंटे की नहीं, बल्कि पूरे चौबीस घंटे की होती है और वह अंतर्चेतना से स्वयं ही स्वयं को निर्देशित करता है. आराम के क्षणॊं में भी वह काम कर रहा होता है.'

पता नहीं, वे किसान उसकी बात के मर्म को समझ पाये या नहीं, लेकिन दो रचनाओं के बीच अंतराल को देखते हुए यह निष्कर्ष निकाल बैठना कि लेखक चुपचाप खाली बैठा आसमान को ताकता रहता है, भयंकर भूल होगी.

यह सच है कि चेतना पर आर्थिक दबावों का असर पड़ता है. सच यह भी है कि विश्वपूंजीवाद और बाजारवाद और इसी से जुड़ा उपभोक्ता वर्ग अपने खिलाफ उठाये गए किसी भी विचार, आवाज और सृजनात्मकता के पक्ष में नहीं है और मानवीय संवेदना तथा सामाजिक न्याय के अलावा मनुष्य जाति के गौरवपूर्ण इतिहास को भी वह अवहेलना और उपहास की नजर से देखता है, लेकिन ये सब बातें ही रचनात्मक साहित्य के लिए खाद का काम करती हैं और वह लेखन कर्म के प्रति और भी जिम्मेदारी का अनुभव करता है. एक सच्चे-सजग कलाकार और साहित्यकार का काम है कि वह नये समय की चुनौतियों को स्वीकार करे, तभी उस के लिखने का कुछ मतलब होगा. वर्ना कोई पकड़ कर पूछ सकता है कि तुम क्यों लिखते हो !
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उत्तर प्रदेश के बिजनौर जिले के महुवा गांव मे 20 अप्रैल, 1934 को जन्मे हरिपाल त्यागी शिक्षा प्राप्त करने के बाद विवाहोपरान्त 1955 में आजीविका की तलाश में पिता के साथ दिल्ली आ गये. चित्रकला, काष्ठ शिल्प कार्य और लेखन को अभिव्यक्ति का माध्यम चुना. अनेक प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं एवं उल्लेखनीय पुस्तकों में पेण्टिंग्स तथा साहित्यिक रचनाएं प्रकाशित एवं संगृहीत. अनेक नगरों-महानगरों में एकल चित्रकला प्रदर्शनियां आयोजित एवं सामूहिक कला-प्रदर्शनियों में भागीदारी.

'आदमी से आदमी तक'(शब्दचित्र एवं रेखाचित्र) भीमसेन त्यागी के साथ सहयोगी पुस्तक. 'महापुरुष' (साहित्य के महापुरुषों पर केन्द्रित व्यंग्यात्मक निबन्ध) एवं रेखाचित्र प्रकाशित.

दो उपन्यास, एक कहानी संग्रह तथा संस्मरणॊं की एक पुस्तक शीघ्र प्रकाश्य. 'भारतीय लेखक' (त्रामासिक पत्रिका) का सम्पादन.

साहित्य एवं कला के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए अनेक बार पुरस्कृत-सम्मानित. देश-विदेश में पेण्टिंग्स संग्रहित.
एफ़- 29, सादतपुर विस्तार, दिल्ली-110094
फोन : 011-22961856
E-mail : haripaltyagi@yahoo.com

कहानी

अभिशप्त
तेजेन्द्र शर्मा

आज का दिन बाकी दिनों से कोई भिन्न नहीं है। रजनीकांत आज भी सुबह सवा छः बजे उठा; सुबह के कामों से निवृत्त हुआ, अपने लिए चाय बनाई और रात की बची रोटियों के साथ उसे गटक गया। रात की बची ठंडी रोटियां खाना रजनीकांत के लिए कोई मजबूरी नहीं है, बस सोचता है - कौन गरम करे! अंदर बेडरूम में बिजली-चालित कंबल की गरमी में आराम की नींद सो रहे हैं - निशा और हैरी।
हर रोज़ यही तो होता है। रजनीकांत पहले स्वयं उठकर तैयार होता है; नाश्ता करता है और काम पर जाने से पहले निशा को जगा देता है। निशा अलसाई-सी उठती है। आधी बंद आंखों से ही अपने काम निबटाती है। हैरी को जगाने में ही आधा घंटा लग जाता है। वह नख़रे करता है, ठुनकता है, रोता है, बिलबिलाकर उठता है और नन्हे-नन्हे हाथों से स्कूल जाने की तैयारी करता है। गोरा, चिट्टा गब्दू सा लगता है हैरी - हर्षद! निशा और रजनीकांत का पुत्र। निशा काम पर जाते-जाते कार से पुत्र को स्कूल छोड़ती जाती है।
रजनीकांत बस से अपने वेयर-हाउस चला जाता है।
आज भी हुआ तो यही सब। रजनीकांत 'हैरो-वील्ड' से बस में बैठा; फिर 'हैरो ऑन द हिल' से बस बदली और अपने वेयर-हाउस पहुंच गया। वहां दिन-भर बोझा ढोया और ओवर-टाइम करके रात नौ बजे वापस घर पहुंचा। घर आकर नहाया। लंदन में रात को नहाने की प्रथा का पहले-पहल रजनीकांत मज़ाक उड़ाया करता था। परंतु धीरे-धीरे उसे भी समझ में आने लगा कि गीले बालों के साथ सुबह-सुबह बाहर निकलना बीमारी को खुली दावत देना है, इसलिए अब वह रात को ही नहाता है, और हां नहाने के बाद पूजा अवश्य करता है। वही उसने आज भी किया। फिर आदत के अनुसार उसने बीयर का डिब्बा खोला और ठंडी बीयर को अपने शरीर में उतारने लगा।
किंतु आज दो डिब्बे बीयर पीने के बाद भी वह तरो-ताज़ा महसूस नहीं कर रहा था। जैसे एक बोझ उसे दबाए जा रहा था। वह बोझ कई बार रजनीकांत के दिलो-दिमाग़ को झकझोरता रहता है; और उसे इस हद तक परेशान कर देता है कि वह रात-भर करवटें बदलता रहता है। निशा और रात के होते हुए भी रजनीकांत सो नहीं पाता।
जब से लंदन में 'ज़ी' चैनल टेलीविजन पर दिखाया जाने लगा है, रजनीकांत रात को कुछ समय तक हिंदी के कार्यक्रम अवश्य देखता है। आज भी टेलीविजन पर हिंदी फ़िल्म चल रही है। रजनीकांत ने फिल्म बीच में से देखनी शुरू की है। कलाकारों और गीत से अदांज़ लगाने की कोशिश कर रहा है कि फ़िल्म का नाम क्या हो सकता है। वैसे नाम पता चल जाने से क्या होगा? सभी हिंदी फिल्में अंतत: होती तो एक सी ही हैं। उनमें कोई बदलाव तो आने से रहा, ठीक रजनीकांत के अपने जीवन की तरह।
रजनीकांत ने बीयर के खाली डिब्बे की ओर देखा और कचरे के डिब्बे में फेंक दिया। टेलीविज़न पर चल रहे दर्द-भरे गीतों के साथ अपना सुर मिलाता रहा। फिर एक झटके से उठा और स्कॉच की बोतल निकाल ली। गिलास में बर्फ़ के टुकड़े डाले और उन पर व्हिस्की उंड़ेलने लगा। उसे 'ग्लेन फिड़िश', 'आन दी राक्स' ही अच्छी लगती है। गांव में कहां शराब पीता था, वहां तो 'बा' थी, 'बापूजी' थे। वहां तो शराब के बारे में सोचना भी पाप था। वहां तो छाछ पीता था, या फिर चाय। समय और स्थान के साथ-साथ पेय भी बदल जाते है, और पीने वाले भी।
पानी में तिड़कती-पिघलती बर्फ़, बाहर आसमान से रुई के फाहे सी गिरती बर्फ़; रजनी और निशा के संबंधों में पैठी बर्फ़ - हर तरफ ठंड-ही-ठंड - एक सर्द......भयानक सर्द सन्नाटा ! शायद बर्फ़ सी ठंडी स्कॉच रजनीकांत के जिस्म को थोड़ी गर्मी और दिमाग़ को सुकून दे सके ! ......सोच उसका पीछा नहीं छोड़ती......स्कॉच ने बीयर के साथ मिलकर उसके दिमाग में हलचल मचा दी है।
रह-रहकर एक ही प्रश्न उसे मथे जा रहे था - मैं यहां इस देश में क्या कर रहा हूं? ......क्यों कर रहा हूं? ......अपनों से दूर......इतनी दूर......! मैं यहां करने क्या आया था? ऐसे ही न जाने कितने प्रश्न उसे परेशान किये रहते हैं।
परेशानी ने उसका साथ पिछले सात वर्षों में कभी नहीं छोड़ा। अब तो हालत यह हो गई है कि यदि किसी परेशानी ने उसे न घेर रखा हो तो वह बेचैन हो उठता है कि कोई परेशानी है क्यों नहीं। एक बार फिर वह अतीत की गलियों में खो गया था।
......बापूजी तो आनंद में भी मज़दूरी ही किया करते थे। अपने रजनी का जीवन संवारने की चाह ने उन्हें मजबूर कर दिया कि किसी भी तरह रजनी को कॉलेज भेजने का जुगाड़ करें, और किया भी। गुजराती माध्यम से रजनीकांत बी.ए. पास हो गया - इतिहास और राजनीति शास्त्र में बी.ए. की डिग्री से नौकरी का जुगाड़ होता भी तो कैसे। नौकरी उसे कोई नहीं मिली। भला बापूजी अपने पढ़े-लिखे पुत्र को मजदूरी कैसे करने देते!
अब रजनीकांत भी सोचने लगा कि वह अपने गांव से कहीं दूर चला जाए, इतनी दूर कि उसे पहचानने वाला कोई न हो। वहां और कुछ नहीं तो कम से कम पेट पालने के लिए मज़दूरी तो कर पाएगा। दूर की बहन गांव आई है। बहुत दूर रहती है - लंदन! बापूजी अपनी चिंता उसके सामने लेकर बैठ जाते हैं, 'बेटी, मुझे तो रजनी की चिंता खाए जा रही है। उसकी यह बी.ए. की डिग्री तो गले की फांस बनती जा रही है।......समझ नही नहीं आता कि क्या करूं?'
'करना क्या है मौसाजी, बस हमारे साथ लंदन भेज दीजिए, बाकी हम पर छोड़ दीजिए, वहीं इसकी शादी करवा देंगे। देख लीजिएगा, एक बार वहां पहुंच गया तो फिर पीछे मुड़कर नहीं देखेगा।'
बापूजी परेशान! पुत्र को सदा के लिए खो दें या यूं ही भटकने दें। रजनीकांत ने भी दूर की बहन की बात दूर से सुन ली थी। लंदन में विवाह! तो फिर स्नेहा का क्या होगा? स्नेहा भी तो रजनीकांत के साथ सपने देख रही है! ......रजनी की नौकरी लगेगी तभी तो स्नेहा की मां आकर 'बा' से बात शुरू करेंगी। क्या लंदन वाले रजनीकांत के जीवन में स्नेहा के लिए कोई स्थान होगा?अभी तो काफ़ी समय है। पासपोर्ट बनेगा, वीज़े के लिए मुंबई जाना होगा। क्या स्नेहा के प्रेम को अभी से भूलना होगा? यदि विवाह किसी और से होना है तो क्या स्नेहा से प्रेम करना उचित होगा? क्या विवाह प्रेम की कसौटी है? क्या प्रेम केवल शारीरिक संबंध या वासना ही है? किंतु रजनीकांत ने तो आज तक स्नेहा को वासना की दृष्टि से छुआ तक नहीं।
उसका प्रेम तो बस एक-दूसरे के साथ बैठने या बोलने तक ही सीमित है। उसने तो आज भी स्नेहा से मिलने के लिए समय तय कर रखा है - पतली, छरहरी और गोरी-सी स्नेहा! माता-पिता की इकलौती संतान, कॉलेज में पढ़ रही है। गृह-कार्य में दक्ष है। क्या पासपोर्ट, वीजा और लंदन के बोझ के नीचे उसकी स्नेहा दम तोड़ देगी?
निशा उठकर कमरे से बाहर आ गई है। 'क्या कर रहे हो? ......यह क्या? अभी खाना खुरू भी नहीं किया?'
'अभी तो गरम ही नहीं किया।'
'क्या कर रहे हो इतनी देर से? ......अभी तक ड्रिंक खत्म नहीं हुआ?'
'बस यूं ही, ज़रा फ़िल्म देखने बैठ गया था।'
'अच्छा तुम बैठो, खाना मैं गरम कर लाती हूं।'
'नहीं, तुम क्यूं नाहक परेशान होती हो, मैं ख़ुद ही गरम करके खा लूंगा, जाओ, तुम सो जाओ।'
'तुम्हें पता तो है, जब तक तुम बिस्तर में नहीं आ जाते मुझे नींद नहीं आती! ......मैं खाना गरम कर लाती हूं।'
अजीब संबंध हैं, रजनीकांत और निशा के बीच। चाहे दिन-भर एक दूसरे से बात भी न करें, किंतु रात को बिस्तर में निशा को जब तक उसका हक ना मिल जाए, उसे तृप्ति नहीं होती। वह प्यार भी तर्क की कसौटी पर चाहती है। निशा की बात ने रजनीकांत की भूख ही उड़ा दी है।
निशा अपनी सफ़ेद झीनी नाइटी पहने रजनीकांत का भोजन ले आई। रजनीकांत को एक विचित्र सी आदत है। वह खाने के साथ, पानी के स्थान पर ठंडा दूध पीता है।......भारत में भी तो दूध के वतन में ही रहता था।......निशा की नाइटी उसकी मांसलता को ढक नहीं पा रही है। हैरी के जन्म के निशान निशा के शरीर पर साफ़ दिखाई दे रहे हैं। इन सबसे बेखबर रजनीकांत भोजन शुरू कर देता है।
दूध के गिलास में स्नेहा दिखाई देती है, तो सामने साक्षात निशा दिखाई दे रही है। निशा चाह रही है कि रजनीकांत शीघ्रता से भोजन समाप्त करे और उसे अपनी बाहों में भर ले, लेकिन रजनीकांत के चिंताग्रस्त दिमाग को न तो भोजन में रूचि है और न ही निशा में। मन-ही-मन वह जानता है कि अपना कर्तव्य तो उसे निभाना ही पड़ेगा, नहीं तो, अगले दो दिन लड़ाई-झगड़े की भेंट चढ़ जाएंगे......निशा के हिसाब से जैसे सुबह का नाश्ता, दोपहर और रात का भोजन और नींद आवश्यक है; उसी तरह हर रात बिस्तर का आनंद भी आवश्यक है, और फिर वह सोचती है कि वह यह सब अपने पति से ही तो मांगती है, व्याभिचार तो नहीं करती। अच्छा है कल रविवार है, कल रजनीकांत देर तक सोएगा और......नाश्ता भी गरम और ताज़ा करेगा।
नाश्ते से पहले रात की नींद रजनीकांत को सपनों के उड़नखटोले पर बिठाकर वतन वापस ले आई। वहां वह सब कुछ देख सकता है, महसूस कर सकता है। उसकी छोटी बहन शालिनी मां के साथ अपने दु:ख-दर्द बांट रही है। शालिनी का पति उसकी गोद में दो बच्चियां डालकर, उसे इस संसार की कठोर सच्चाइयों का सामना करने के लिए अकेली छोड़ गया है। आज मां के जिस पत्र ने उसे परेशान कर रखा है, उसमें यही तो लिखा है।
रजनीकांत पत्र का उत्तर पाने की मां की बेचैनी को महसूस करता है......।
'शालिनी बेटी, डाकिया आया था क्या?'
'हां मां, वह तो पांच बजे ही चक्कर लगा गया था।'
'रजनी की कोई चिट्ठी-पत्री आई?'
'नहीं मां, आज तो कोई भी चिट्ठी नहीं आई।'
'मैंने उसे लिखा है बेटी, कि तेरी बच्चियों की यूनिफ़ार्म सिलवानी है और फिर छत भी ठीक करवानी है। पिछली बरसात में तो बहुत पानी टपक रहा था।'
'मां, भैया को क्या वहां कम दिक्कतें होंगी ? जितना बड़ा शहर होगा, मुसीबतें भी तो उतनी ही अधिक होंगी।'
'वो तो मैं भी समझती हूं बेटी, मगर इस वक्त उसके अलावा मदद की उम्मीद और कहां से कर सकती हूं। अब तो उसे गए कई साल हो गए। अब तक तो सैटल हो गया होगा।''......मां, मैं कल दूध की सोसायटी में गई थी, शायद मुझे वहां काम मिल जाए।'
'अच्छा!.. .. मैं तो कहती हूं जहां रहे सुखी रहे, कभी कोई परेशानी उसे छुए भी नहीं।'
परेशानी तो रजनीकांत को बिस्तर पर करवटें बदलने को मजबूर कर रही थी।......बेबस और लाचार रजनीकांत! निशा अपने हिस्से का सुख पाकर कितनी चैन की नींद सो रही है। अब यदि रजनीकांत बिस्तर छोड़कर सारी रात दूसरे कमरे में भी बैठा रहे, तो भी निशा को कुछ पता नहीं चलेगा।
यह सब रजनीकांत के ही साथ क्यों हो रहा है? महेश, नयन, प्रफुल्ल और महेंद्र सभी तो उस जैसा जीवन जी रहे हैं। फिर वो लोग क्यों नहीं परेशान होते? ......क्यों वही उलझनों के धागों में फंसा रहता है? क्या उन सबकी पत्नियां भिन्न प्रकृति की हैं? किंतु ऐसा भी तो नहीं है। कम-से-कम उसे यह तसल्ली तो है कि वह निशा का पहला पति है, दीपक की पत्नी का तो यह तीसरा विवाह है, दीपक कह भी रहा था, 'रजनी भाई, तुम मेरी दिक्कत नहीं समझोगे। मैं सेकेंड-हैंड से भी गया गुजरा हूं। मेरे पास तो थर्ड-हैंड पत्नी है।......लंदन में बसने की समस्या न होती तो जल्दबाज़ी में यह विवाह कभी नहीं करता। मन में इतनी कचोट उठती है कि बरदाश्त से बाहर हुई जाती है।'
नादान है दीपक भी। इतना भी नहीं समझता कि मनुष्य चाहे पांचवीं मंज़िल से नीचे गिरे या फिर सातवीं मंज़िल से, चोट एक जैसी ही लगती है, और फिर हम शापित लोगों की विडंबना तो यह है कि हम अपने दिल की चोट किसी को दिखा भी नहीं सकते। हमें तो सब यूं ही सहना है, और जीवित भी रहना है।
कहने को तो महेश भी ठीक ही कहता है, 'यह जीवन किसी ने हम पर थोपा तो नहीं हैं हमने सब कुछ सोच-समझकर यह जीवन चुना है। फिर शिकायत कैसी? ......अपने वतन में तो ग्रेजुएट होकर भी किसी नौकरी का जुगाड़ नहीं कर पा रहे थे। यहां तो कुलीगिरी करके ही, ओवर-टाइम मिला के दो हज़ार पाउंड महीना कमा लेते हैं।......एक लाख बीस हजार रुपए एक महीने में! ......अपने देश में तो इतना एक साल में भी नहीं कमा सकते थे। बात जब सीधी-सीधी अर्थशास्त्र की हो तो हालात से समझौता तो करना ही पड़ेगा। घर से इतनी दूर केवल परेशान होने तो नहीं आए हैं।'
वतन से दूर! ... दूर की तो बहन थी, जीजा तो बहुत दूर का था। जब लंदन के हवाई अड्डे 'हीथ्रो' पर उतरा था तो दंग रह गया था। इतना विशद्-विशाल एयरपोर्ट! मुंबई का हवाई अड्डा तो उसके सामने बच्चा-सा महसूस होने लगा था। बहन और जीजा उसे अपनी बड़ी-सी कार में लेने आए थे। मन-ही-मन लड्डू बनाने लगा था, 'कल मेरी भी ऐसी बड़ी-सी कार होगी......।' जीजा का घर वैम्बले में है। लंदन की सड़कों को देखते, गोरी मेमों को निहारते और एक जैसे दिखने वाले मकानों के सामने से गुजरते रजनीकांत वैम्बले पहुंच गया। वैम्बले की सड़कों पर तो भारतीय ही अधिक दिखाई दे रहे थे या फिर अफ्रीकी।...... क्या यह लंदन है!
आवभगत दो दिन तक चली, फिर जीजा ने दुकान दिखाने की पेशकश रखी। जीजा की दुकान है जिसमें सिगरेट, चाकलेट, कार्ड, समाचार-पत्र, जूस, अंडे, बिस्कुट, न जाने क्या-क्या बिकता है। एक कोना हरी सब्जियों का भी है। गांव में तो सब्ज़ीवाले सड़क किनारे टोकरी में सजाकर सब्ज़ियां बेचते थे; बहुत हुआ तो रेहड़ी लगा ली। यहां सब्ज़ियां बंद छत के नीचे......।
बंधुआ मज़दूरों की सिर्फ कहानियां सुना करता था रजनीकांत। यदि प्रेमचंद जीवित होते तो रजनीकांत के जीवन पर भी एक नया 'गोदान' लिख देते। बस चार महीने बीते थे। वो चार सालों जैसे क्यों लग रहे थे! उन चार महीनों का एक पल भी तो रजनीकांत का अपना नहीं था। रजनीकांत......बी.ए. पास, सात समुद्र पर, इतनी दूर, अपनी दूर की बहन के घर मुंडू बन गया था......मुंडू!
एक चिंता और भी थी। वीज़ा के केवल दो महीने बाकी थे। यदि इन दो महीनों में विवाह नहीं हुआ तो घर वापस लौट जाना होगा। टिकट के पैसे भी व्यर्थ जाएंगे......जीजा तो जीजा, यह बहन भी उसके विवाह के बारे में बात नहीं करती। अभी तक तो उसे एक बार भी पगार नहीं मिली। बस, जेब-ख़र्च से ही काम चलाना होता है। वैसे तो उसे भी ख़र्चने का समय कहां मिलता था। उस पर स्नेहा की याद हर समय उसके मन के भीतर एक अपराध-बोध का नासूर पालने लगी। उसकी रवानगी के समय स्नेहा की आंसुओं से भरी आंखें रजनीकांत के साथ लंदन आ गई थीं। वे एक जोड़ी आंखें कभी किसी दीवार पर चिपककर उसे घूरती रहतीं तो कभी दुकान में रखी हर वस्तु आंखें बनकर सवाल पूछने लगतीं, कभी बिस्तर आंखें बनकर काटने लगता और कभी जब वह शीशा देखता जिसमें चेहरा तो उसका अपना होता किंतु आंखें स्नेहा की दिखाई देतीं।
इतनी परेशानियों से जूझते रजनीकांत को संयोग से निशा के माता-पिता मिल गए। एक विवाह की दावत में बहन और जीजा उसे साथ ले गए थे। वहां बातों ही बातों में माता-पिता ने रजनीकांत को पसंद कर लिया। निशा को तो रजनीकांत गांव का भोंदू ही लगा था। फिर रजनीकांत वय में भी तो निशा से करीब तीन वर्ष छोटा था। एक ओर वीज़ा का बचा डेढ़ महीना, दूसरी ओर तीन वर्ष बड़ी पत्नी! मां-बाप के जीवन-स्तर को ऊंचा उठाने की चाह ने, लंदन में बसने की मजबूरी ने सप्ताह-भर बाद ही रजिस्ट्रार के दफ्तर में विवाह के प्रमाण-पत्र पर हस्ताक्षर करवा दिए। पार्टी का सारा खर्चा भी निशा के माता-पिता ने ही वहन किया। बहन और जीजा तो बस अतिथियों की तरह आए और चले गए। रजनीकांत के माता-पिता, भाई-बहन कोई भी नहीं पहुंच पाया।
......रजनीकांत ही कहां पहुंच पाया, जब अचानक उसके पिता चल बसे। यह अपराध-बोध प्रेत बनकर उसे कचोटता रहता है। वह किसी को भी दोष नहीं दे पाता।......बस हालात......! कब तक हालात की ढाल के पीछे छिपता रहेगा? क्या कभी मर्द बनकर हालात को बदलने की चेष्टा की है उसने? वह एक कमज़ोर मध्यवर्गीय जीव है।
निशा को तो इस विवाह में कोई रुचि थी ही नहीं । उसने साफ़-साफ़ अपने माता-पिता को अपने मन की बात बता दी। मां-बाप की चिंता दूसरी ही थी। बेटी तीस पार कर चुकी है। विवाह की उम्र तो निकलती जा रही है। बिरादरी में काबिल लड़के मिलते ही कहां हैं! लड़की कहीं ग़लत राह पर न निकल जाए। हसु भाई की छोकरी तो एक गोरे के साथ भाग गई थी और दस महीने बाद ही तलाक हो गया। केशव भाई की पुत्री जो घर से भागी तो सीधी पाकिस्तान जाकर रुकी। इन ख़तरों से बचने का एकमात्र उपाय उन्हें रजनीकांत में ही दिखाई दिया। उन्होंने बेटी को समझा भी दिया, 'निशा बेटी, शादी होते ही अलग घर ले लेना। पांच साल से पहले रजनीकांत ब्रिटिश पासपोर्ट के लिए एप्लाई नहीं कर सकता। तब तक उसे तुम्हारा ग़ुलाम बनकर रहने की आदत हो जाएगी।'
बस, यही तो नहीं हो पाया! दास का जीवन जीने के बावजूद रजनीकांत के भीतर का स्वाभिमानी इन्सान अभी भी जीवित है। उसकी अंतरात्मा अभी भी उसे कचोटती रहती है। गांव के घर की चूती हूई छत में से टपकते हुए पानी की बूंदें आज भी उसके सीने पर अंगारों की तरह गिरती हैं।
वह यह सोचकर परेशान होता रहता है कि उसके और उसके पुत्र हर्षद के बीच रिश्तों का कोई तंतु भी नहीं जुड़ पा रहा है। यहां तक कि निशा उसे इस नाम से बुलाती तक नहीं। वह तो उसे हैरी ही कहकर पुकारती है। रजनीकांत को ऐसे नाम कुत्तों के लिए ही ठीक लगते हैं।
'अगर तुम्हें अपने बेटे का नाम हैरी पसंद नहीं तो अपनी मां से शिकायत करो मुझसे नहीं।'
'मां से?'
'हां, उसी से! मैंने तो उस वक्त भी कहा था कि हर्षद नाम लंदन में नहीं चलेगा। कोई माडर्न नाम रख लेते हैं पर तुम्हें तो अपनी मां का हुक्म, क्वीन एलिजाबेथ का फरमान लगता है न! ......भुगतो अब!'
भुगत ही तो रहा है। कई बार सोच चुका है कि वह तो पुत्र को हर्षद कहकर ही बुलाएगा; ......किंतु इस नाम से बेटा उत्तर ही नहीं देता। निशा ने उसके दिमाग में बैठा दिया है कि उसका नाम हैरी है......बस! ......निशा की एक विशेषता का लोहा तो रजनीकांत भी मानता है। बला की तशक्ति की मालकिन है निशा! उसके तर्कों के सम्मुख हर बार रजनीकांत मुंह ताकता रह जाता है।
'देखो रजनी, मुझे इमोशनली ब्लैकमेल करने की कोशिश मत किया करो। हर बात का कोई-न--कोई कारण तो होता ही है। इसलिए या तो मुझसे अपनी बात मनवा लो या फिर मेरी बात मान जाओ। यह ढुलमुल काम नहीं चलेगा।'
रजनीकांत अपनी पत्नी को यह नहीं समझा पाता कि जीवन दो-जमा-दो चार की तरह सरल नहीं है। विवाह के बंधनों के बाद मनुष्य को जीवन में कई समझौते करने पड़ते हैं। और यह समझौते एकतरफ़ा नहीं हो सकते। पति-पत्नी दोनों को मिल-जुलकर विवाहित जीवन को संवारना होता है। समझौतों के बिना विवाह नाम की संस्था चल ही नहीं सकती। रजनीकांत इस मामले में भी निशा को ग़लत क़रार नहीं कर पाता क्योंकि वह अपने माता-पिता को भी तर्क की कसौटी पर ही खरा सोना साबित करती है। रजनीकांत अपनी मां और बहन के प्रति उठाई गई तर्क की लड़ाई हर बार हार जाता है और अभी भी हार रहा है। रजनीकांत यह तय नहीं कर पा रहा कि मां को पैसे भेजे तो कैसे? उसकी तो पगार भी बैंक के 'ज्वाइंट एकाउंट' में आती है। वहां से अगर पैसे निकलवाता है तो निशा को तो पता चलेगा ही।...... फिर बढ़ेगा तनाव!
कल हर्षद का जन्मदिन है। यदि उसने पैसे भेजने की बात की तो सुबह से ही घर का माहौल तनाव से भर जाएगा। वह समझ नहीं पाता कि पुत्र के जन्मदिन को लेकर वह उत्साहित क्यों नहीं हो पाता? क्यों उसे हैरी विरोधी पार्टी का सदस्य-सा लगता है? ......वह नन्हीं जान तो उसका कुछ नहीं बिगाड़ता।
जब से लंदन में विवाह हुआ है, किश्तों का जीवन जीने को अभिशप्त है रजनीकांत।......मकान की किश्त, टी.वी, फ़्रिज, कार, बीमा और क्रेडिट कार्ड - सबकी किश्तें! ......इतरी सारी किश्तों में बंटकर रह गया है रजनीकांत! ......किश्तों-किश्तों जीवन!
उसके जीवन का ढर्रा भी अपने मित्रों से कुछ विशेष भिन्न नहीं है। फिर भी, एक मूलभूत अंतर तो है कि उसके मित्र इस जीवन से प्रसन्न तो हैं, पर रजनीकांत परेशान! वह जानता है, पत्नी सुबह से ही हर्षद के जन्मदिन की गहमागहमी में व्यस्त हो जाएगी। यदि ऐसे में पैसे भेजने की बात करेगा तो बहस तो होगी ही।
'अरे, आज भी मुंह फुलाए बैठे हो, आज तो हैरी का जन्मदिन है; आज तो तुम्हें खुश होना चाहिए!......क्या बात है?'
'कोई ख़ास बात नहीं।'
'तो आम बात ही बता दो।'
'कुछ भी तो नहीं।'
'तुम्हें पता है रजनी, आज हैरी का केक, क्रिकेट-बैट के शेप में बनवाया है, बड़ा होकर हमारा बेटा इंग्लैंड की क्रिकेट टीम का मेम्बर बनेगा।'
'केक की शेप से भी भला कभी कोई खिलाड़ी बना है?'
'तुम्हें तो जीने का कोई शौक ही नहीं है। बूढ़े हो गए हो इस भरी जवानी में।'
'मां की चिट्ठी आई है।'
'ओह! तो यह बात है......अबकी बार क्या लिखा है मांग-पत्र में?'
'निशा, ढंग से बात करो।'
'जो लोग मेरे पुत्र के जन्मदिन की खुशी में पलीता लगाएं, वो लोग ही बेढंगे हुए। उनके लिए क्या ढंग की बात हो सकती है?'
'निशा, जबसे छोटी विधवा हुई है मां का तनाव और जिम्मेदारी दोनों बढ़ गईं हैं मां की थोड़ी जिम्मेदारी तो हमें बांटनी चाहिए ना?'
'चलो, अभी तो जन्मदिन की तैयारी करो। इस बारे में कल बात करेंगे।'
रजनीकांत जानता है, कल तक निशा तर्कों की एक पूरी फौज तैयार कर लेगी। बात कल भी लटकने वाली ही है। उसे अच्छी तरह पता है कि वह निशा के तर्कों के सामने टिक नहीं पाएगा। जब-जब वह निशा को प्यार का वास्ता देता है तो वह तुनककर जवाब देती है, 'तुम्हारे प्यार के बदले में मैं भी तो तुम्हें प्यार देती हूं।......' विवशता की छटपटाहट रजनीकांत को सांस नहीं लेने देती। वह उठकर कमरे से बाहर आ जाता है। एक बार फिर से गिलास में व्हिस्की डालने की सोचता है फिर एक झटके से उस विचार को दिमाग़ से बाहर निकाल फेंकता है।
निशा के दिमाग़ में अभी तक कुछ बातें घर किए बैठी हैं। रजनीकांत आज तक उन बातों का समाधान नहीं कर पाया।
'तुम्हारी मां ने तो मुंह-दिखाई तक नहीं दी, और तो और हैरी के मुंडन पर भी अपने पर्स में हाथ नहीं डाला। हमारा तो एक ही पुत्र है।'
निशा तो अपनी सास को अपने परिवार का हिस्सा तक मानने को तैयार नहीं। उसके अनुसार उनका परिवार तो बस उन तीनों को लेकर ही है। जब-जब रजनीकांत निशा से शिकायत करता है कि वह हर्षद और उसके बीच संबंध नहीं बनने देती तो तर्क उसके चेहरे पर चिपक जाता है, 'ज़िम्मेदारी कभी सौंपी नहीं जाती......उसे आगे बढ़ कर अपने सिर लेना होता है।'
अचानक स्नेहा आकर उसके सामने खड़ी हो जाती है। रजनीकांत उन आंखों का सामना नहीं कर पाता है। अब तो स्नेहा का समाचार भी नहीं मिलता, कहां होगी?
'मैं निशा को तलाक दे दूंगा'। मन-ही-मन एक नया संकल्प कर लेता है रजनीकांत। अब तो ब्रिटिश पासपोर्ट मिल चुका है। निशा मेरा क्या बिगाड़ सकती है? अब यह जीवन नहीं जिया जाता। समुद्री फेन की तरह संकल्प ढह भी जाता है। रजनीकांत अपने मध्यवर्गीय बौड़मपन की उड़ान को अच्छी तरह पहचानता है। वह कुछ नहीं कर पाएगा, हालात से समझौते करता जाएगा।
स्नेहा एक बार फिर सामने आ खड़ी होती है। गांव की मिट्टी की सुगंध, सरसों के पीले फूल और खेत-सभी अपनी तरफ बुला रहे हैं। रजनीकांत बुड़बुड़ाने लगता है, 'अब तो यहां एक पल भी नहीं रहूंगा, मैं वापस जाऊंगा। मूझे नहीं खाना क्रिकेट बैट वाला केक - मुझे बाजरे की रोटी और पालक का साग ही चाहिए।...... यह दुनिया, यह लोग सब मेरे लिए अजनबी हैं...... मेरा गांव मुझे बुला रहा है।'
रजनीकांत का बुड़बुड़ाना रुका तो सामने शीशे में से उसका अपना ही चेहरा बोलता दिखाई दिया, 'रजनीकांत, तुम कुछ नहीं करोगे, न तो तुम अपनी पत्नी को छोड़ोगे और न यह देश - तुम और तुम्हारे दोस्त यह जीवन जीने के लिए अभिशप्त हो।......अपनी-अपनी पत्नियों के साथ रहना तुम्हारी नियति बन गया है, तुम चाहकर भी इस जीवन की सुविधाओं को छोड़ नहीं सकते। तुम उन लोगों में से हो जो रोज़ शाम को शराब के गिलास पर सवार होकर अपने देश वापस चले जाते हैं और सुबह होते ही जब नशा उतर जाता है ठंडी रोटी खाकर वेयर-हाउस पहुंच जाते हैं। गांव और मुल्क, अब सिर्फ़ तुम्हारे ख़यालों में रह सकते हैं। तुम्हारी वापसी अब मुमकिन नहीं। तुम्हें यहीं जीना है और एक दिन मर भी जाना है।'
रजनीकांत को कुछ सुनाई नहीं दे रहा......!

जन्म : 21 अक्टूबर 1952 को पंजाब के शहर जगरांव
शिक्षा : दिल्ली विश्विद्यालय से बी.ए. (ऑनर्स) अंग्रेज़ी, एवं एम.ए. अंग्रेज़ी, कम्पयूटर कार्य में डिप्लोमा ।
प्रकाशित कृतियाँ : काला सागर (1990) ढिबरी टाईट (1994), देह की कीमत (1999) यह क्या हो गया ! (2003), बेघर आंखें (2007) -सभी कहानी संग्रह। ये घर तुम्हारा है... (2007 - कविता एवं ग़ज़ल संग्रह) ढिबरी टाइट नाम से पंजाबी, इँटों का जंगल नाम से उर्दू तथा पासपोर्ट का रंगहरू नाम से नेपाली में भी उनकी अनूदित कहानियों के संग्रह प्रकाशित हुए हैं। अंग्रेज़ी में : 1. Black & White (biography of a banker – 2007), 2. Lord Byron - Don Juan (1976), 3. John Keats - The Two Hyperions (1977)
कथा (यू.के.) के माध्यम से लंदन में निरंतर कथा गोष्ठियों, कार्यशालाओं एवं साहित्यिक कार्यक्रमों का आयोजन । लंदन में कहानी मंचन की शुरू‏आत वापसी से की। लंदन एवं बेज़िंगस्टोक में, अहिंदीभाषी कलाकारों को लेकर एक हिंदी नाटक हनीमून का सफल निर्देशन एवं मंचन ।
74-A, Palmerston Road
Harrow & Wealdstone
Middlesex UK
Telephone: 020-8930-7778 / 020-8861-0923.
E-mail: kahanikar@gmail.com , kathauk@gmail.com
Website: www.kathauk.connect.to

रिपोर्ट

तेजेन्द्र शर्मा का साहित्य ब्रिटेन से हमारा परिचय करवाता है

मोनिका मोहता

"तेजेन्द्र शर्मा ने मित्रता निभाने की कोई सीमाएं नहीं बना रखीं। किसी की भी सहायता करते समय वे कोई हद मुक़र्रर नहीं करते। उनके द्वारा रचे साहित्य की सबसे बड़ी ख़ूबी यही है कि उसके विषय यहां ब्रिटेन की ज़मीन से जुड़े हैं। उनकी कहानियां, कविताएं, ग़ज़लें ब्रिटेन की ज़िन्दगी से हमारा परिचय करवाती हैं।" यह उदगार व्यक्त किये भारतीय उच्चायोग की मन्त्री – संस्कृति एवं नेहरू केन्द्र की निदेशिका श्रीमती मोनिका मोहता ने। अवसर था एशियन कम्यूनिटी आर्ट्स द्वारा आयोजित कार्यक्रम सृजनात्मकता के तीन दशक जिसमें कथाकार, कवि एवं ग़ज़लकार तेजेन्द्र शर्मा के व्यक्तित्व के विभिन्न पहलुओं पर विस्तार से चर्चा की गयी।
मोनिका मोहता ने तेजेन्द्र शर्मा को नेहरू केन्द्र का मित्र और उनके अपने परिवार का सदस्य बताते हुए अपने कवि पति मधुप मोहता द्वारा विशेष तौर पर तेजेन्द्र के व्यक्तित्व पर लिखी गयीं चार पंक्तियों के माध्यम से तेजेन्द्र शर्मा का परिचय कुछ यूं दिया – इक दिया तूफ़ान में जलता रहा / इक शजर सेहरा में भी खिलता रहा / वो कहानी की रवानी है ग़ज़ल की गूंज भी / इक कलम का कारवां, चलता रहा।
कार्यक्रम अपने घोषित समय पर शुरू हो गया तो खचाखच भरे हॉल के दर्शकों को हैरानी हुई। वे सोचने लगे कि अब कार्यक्रम समाप्त भी समय पर ही हो जायेगा। किन्तु ऐसा हुआ नहीं। प्रत्येक वक्ता ने अपने निर्धारित समय से बहुत अधिक समय लिया और जम कर तेजेन्द्र के व्यक्तित्व को श्रोताओं के साथ बांटा।
कार्यक्रम की शुरूआत में एशियन कम्यूनिटी आर्ट्स की अध्यक्षा काउंसलर ज़कीया ज़ुबैरी ने सभी गण्यमान्य अतिथियों का स्वागत करते हुए बताया कि उनकी संस्था कथा यू.के. के साथ मिल कर हिन्दी और उर्दू के बीच की दूरियां पाटने के प्रयास कर रही है। वे साहित्य एवं संस्कृति के माध्यम से दो मुल्कों के नागरिकों के दिलों की दूरियों को दूर करने में विश्वास करती हैं। तेजेन्द्र शर्मा को एक चलती फिरती संस्था का नाम देते हुए उन्होंने तेजेन्द्र की दूसरों की सहायता करने की प्रकृति की सराहना की। तेजेन्द्र की कहानियां उन्हें आधुनिक कहानी का सर्वोत्तम उदाहरण लगती हैं।
वेल्स के डा. निखिल कौशिक ने तेजेन्द्र की ग़ज़ल ये घर तुम्हारा है.... (गायिका – मीतल पटेल, संगीत – अर्पण) और साथ ही तेजेन्द्र का एक साक्षात्कार भी पर्दे पर दिखाया। बाद में अपने पॉवर-पाइण्ट प्रेज़ेन्टेशन के माध्यम से डा. कौशिक ने इस बात पर ज़ोर दिया कि तेजेन्द्र परिवार के मूल्यों के प्रति कटिबद्ध हैं। वे अपने रिश्ते पूरी शिद्दत से निभाते हैं और फिर वसुदैव कुटुम्बकम के आधार पर अपने परिवार का विस्तार भी करते हैं। उन जैसे कई मित्र तेजेन्द्र के विस्तृत परिवार का हिस्सा हैं।
बी.बी.सी हिन्दी विभाग के पूर्व अध्यक्ष श्री कैलाश बुधवार ने तेजेन्द्र पर अपनी बात कुछ यूं कही, "तेजेन्द्र की जिस ख़ूबी का मैं सबसे ज़्यादा क़ायल हूं, वो यह कि वह वन-मैन एन्टरप्राइस हैं। जो भी किया है अकेले दम, सिंगल-हैण्डिड। उनके पीछे कोई गॉडफ़ादर, कोई प्रोमोटर नहीं, कोई गुट नहीं जिसका उन्हें सहारा हो। जब इस मुल्क में आये थे, तो किसी को नहीं जानते थे। सिर पर हाथ रखने वाला कोई नहीं था। मगर आज अंतर्राष्ट्रीय इन्दु शर्मा कथा सम्मान की जो धूम हैं, उसके नाते जो भी लेखक या संपादक भारत से लन्दन आता है, उनसे मिलना चाहता है।"
भारतीय उच्चायोग के हिन्दी एवं संस्कृति अधिकारी श्री राकेश दुबे ने तेजेन्द्र शर्मा के साथ अपनी निजी मित्रता की बात करते हुए अपनी विशिष्ट शैली में कहा, "“काला सागर” की गहराई से शुरु कि‍या जो कहानी लेखन का सफ़र तो फि‍र रुके नहीं, अपनी लेखनी की “ढि‍बरी टाइट” करते हुए लि‍खते रहे, नौकरी भी करते रहे, घर भी चलाते रहे । साहि‍त्‍य साधना में ऐसे जुटे कि‍ अपनी “देह की कीमत" न जानी। फि‍र मुम्‍बई के “ईंटों के जंगल” से नि‍कलकर महारानी वि‍क्‍टोरि‍या के देश में आ बसे । बीबीसी पर उनकी धमक सुनाई पड़ी; जीवन की गाड़ी भी धीरे धीरे पटरी पर दौड़ने लगी । लेकि‍न वे शान्‍त कहां बैठने वाले थे; कहने लगे लोगों से कि‍ अपने “पासपोर्ट का रंग” न देखो, जहॉं रह रहे हो वहॉं की बात सुनो, समझो, कहो क्‍योंकि‍ “ये घर तुम्‍हारा है” । तेजेन्‍द्र जी की नज़र भवि‍ष्‍य पर है, कदम ज़मीन पर और सोच गंगा जमुनी संस्‍कृति‍ की पोषक । वे यह दुआ करते रहे हैं कि‍ उनकी रचनाओं के संदेश की “बेघर आंखें” हर रचनाकार की आंखें बन जाएं और परस्‍पर मेल मि‍लाप की भावना से हम साथ साथ आगे बढ़ें।"
बी.बी.सी. रेडियो हिन्दी की वर्तमान अध्यक्षा डा. अचला शर्मा ने चुटकी लेते हुए कहा कि तेजेन्द्र की अच्छाइयों के बारे में इतना कुछ कहा जा चुका है कि वे तेजेन्द्र की किसी कमज़ोरी की तरफ़ इशारा करना चाहेंगी। उन्होंने तेजेन्द्र शर्मा के व्यक्तितव के विविध पहलुओं पर प्रकाश डालते हुए उनके पत्रकार रूप की चर्चा की। तेजेन्द्र शर्मा के नवीनतम कहानी संग्रह बेघर आंखें का ज़िक्र करते हुए अचला जी का कहना था कि तेजेन्द्र अब एक सधे हुए कथाकार हैं। क़ब्र का मुनाफ़ा, एक बार फिर होली, मुझे मार डाल बेटा, कोख का किराया, पापा की सज़ा आदि कहानियों में वे ब्रिटेन के भारतीय, पाकिस्तानी एव गोरे चरित्रों का बख़ूबी चित्रण करते हैं। तेजेन्द्र एक सशक्त कहानीकार, नाटककार, अभिनेता और पत्रकार होने के साथ साथ एक सफल आयोजक भी हैं जो अपने व्यक्तित्व की सहजता के कारण सभी को अपने साथ ले कर चलने की क्षमता रखते हैं।
उर्दू के मूर्धन्य विद्वान प्रोफ़ेसर अमीन मुग़ल ने तेजेन्द्र के कहानीकार रूप की बहुत गहराई से पड़ताल की, "वह (तेजेन्द्र) आपको दुःखों की दुनिया की सैर करवाता है। सैर, जो दिल्ली के फूल वालों की सैर नहीं है बल्कि एक सफ़र है जहां रास्ते के हर दरीचे (खिड़की) में सलीबें गड़ी हुई हैं, पत्थरों पर चलना पड़ता है और राह में कोई कहकशां (आकाश गंगा) नहीं है।"... "तेजेन्द्र एक पैदायशी कहानी बाज़ है। बड़े रिसान से बात कहना और किरदारों की सोच के धारे के साथ बहना और पढ़ने वालों को बहा ले जाना उसका कमाल है।"
सनराईज़ रेडियो के महानायक रवि शर्मा ने अपने विशिष्ट अंदाज़ में तेजेन्द्र को एक दाई की संज्ञा दे डाली। उनका कहना था कि तेजेन्द्र स्वयं तो लिखते ही हैं बल्कि जो लोग बिल्कुल भी नहीं लिखते, उन्हें लिखने को प्रेरित भी करते हैं। उन्हें दूसरे का लिखा देख प्रसन्नता महसूस होती है, जलन नहीं।
मशहूर पत्रकार, मंच कलाकार एवं निर्देशक परवेज़ आलम ने तेजेन्द्र शर्मा की कहानी कैंसर का ड्रामाई अन्दाज़ में पाठ कर श्रोताओं से वाहवाही लूटी। सोनी टेलिविज़न से जुड़ी यासमीन क़ुरैशी ने कार्यक्रम का दक्ष संचालन किया।
तेजेन्द्र शर्मा की ऑडियो बुक (यानि की बोलने वाली किताब) सी.डी. का विमोचन 81 वर्षीय नेत्रहीन हिन्दी प्रेमी श्री मदन लाल खण्डेलवाल ने किया। उनका कहना था कि एम.पी. 3 तरीके से रिकॉर्ड की गयी इन कहानियों को स्वर देने वाले कलाकारों ने कहानियों को जीवन्त बना दिया है। उन्होंने ज़कीया ज़ुबैरी जी को धन्यवाद दिया कि उन जैसे लोगों के लिये कम से कम लन्दन के हिन्दी जगत में किसी ने सोचा तो। उन्होंने कहानियों को ब्रेल पद्धति में प्रकाशित करवाने का सुझाव भी दिया।
कार्यक्रम में शिरक़त कर रहीं हुमा प्राइस ने टिप्पणी की, "जब वक्ताओं ने तेजेन्द्र के विषय में बात करनी शुरू की तो यह साफ़ ज़ाहिर होता जा रहा था कि इस इन्सान को बहुत लोग प्यार करते हैं – पुरुष, महिलाएं, हिन्दू, मुसलमान, भारतीय, पाकिस्तानी, सभी। कुछ ही समय में वातावरण में फैल गई उष्मा से यह ज़ाहिर होता था कि लोग अपनी भाषाई और धार्मिक भिन्नताओं से कहीं ऊपर उठ कर इस एक व्यक्ति की उपलब्धियों के गीत गा रहे हैं। उनके आपसी मतभेद उन्हें तेजेन्द्र और ज़कीया पर अपना प्यार उंडेलने से नहीं रोक पाये।
तेजेन्द्र की कुछ ग़ज़लों को बहुत सुरीली और क्लासिकल बन्दिशों में प्रस्तुत किया श्री सुभाष आनन्द (एम.बी.ई) हवा में आज जो उनसे थी मुलाक़ात हुई / तपते सहरा में जैसे प्यार की बरसात हुई (राग केदार), शमील चौहान (उपाध्यक्ष – एशियन कम्यूनिटी आर्ट्स) - घर जिसने किसी ग़ैर का आबाद किया है एवं बहुत से गीत ख़्यालों में सो रहे थे मेरे... सुरेन्द्र कुमार ने। सुरेन्द्र कुमार ने एक सरप्राइज़ आइटम के तौर पर ज़कीया ज़ुबैरी का लिखा एक पुरबिया गीत (जाए बसे परदेस हो सइयां, दिल को लागा रोग) भी प्रस्तुत किया जिसे श्रोताओं ने बहुत सराहा।
कार्यक्रम में अन्य लोगों के अतिरिक्त श्री माधव चन्द्रा (मंत्री - भारतीय उच्चायोग), श्री मधुप मोहता (काउंस‍लर– भारतीय उच्चायोग), डा. कृष्ण कुमार, सोहन राही, रिफ़त शमीम, हुमा प्राईस, जगदीश मित्तर कौशल, कृष्ण भाटिया, सफ़िया सिद्दीक़ी, बानो अरशद, आसिफ़ जीलानी, मोहसिना जीलानी, डा. नज़रुल इस्लाम बोस, अशफ़ाक अहमद, राज चोपड़ा, मन्जी पटेल वेखारिया, तनवीर अख़तर, कौसर काज़मी, इन्द्र स्याल, स्वर्ण तलवार, अनुराधा शर्मा, वेद मोहला, भारत से पधारे डा. जे.सी. बत्तरा, और पाकिस्तान से आये सरायकी भाषा के विद्वान जनाब ताज मुहम्मद लंगा एवं सलीम अहमद ज़ुबैरी उपस्थित थे।
-अनिता चौहान

अगला अंक
-“हम और हमारा समय” के अंतर्गत “मैं क्यों लिखता हूँ” की अगली कड़ी में कथाकार रमेश कपूर का आलेख।
-वरिष्ठ कथाकार हिमांशु जोशी की कहानी “पाषाण गाथा” तथा अन्य सामग्री ।