शुक्रवार, 5 दिसंबर 2008

कहानी

छलावा

क्षितिज शर्मा

किस्सा बहुत पुराना नहीं है, एकदम नया भी नहीं.

मध्यवर्गीय ताक-झांक से खरोंच-खरोंचकर खबरें लाने में परिपूर्ण हमारे मित्र पूर्णानंद, उन्हें रोचकता देने के लिए रस-सिद्धान्त के नित्य नए आयाम ला पटकने में प्रायः भरतमुनि को भी पटकनी दे देते हैं. उनकी इस रसप्रियता से मेरा विश्वास दृढ़ होता जा रहा है कि कहानी का जन्म इसी ताक-झांक से हुआ होगा.

हो सकता है खोजी पत्रकारिता भी यहीं से निकली हो.

जो किस्सा यहां कहानी बनने जा रहा है, उसे पूर्णानंद जी ने मुझे कई टुकड़ों में सुनाया है. स्त्री -पुरुष-सबंन्धों के किस्सों को तो कोई अनाड़ी भी अपनी चेपियों से चमका सकता है. जब सुनानेवाला पूर्णानंद जैसा सिद्धहस्त हो तो कहानीकार को उनकी नौतिक टिप्पणियों को हटाकर मानवीय सरोकारों और संवेदनाओं के साथ कल्पना की उड़ान भरने में कितनी देर लगती है!

किस्से के घुमाव-दर-घुमाव वाले तोड़-मरोड़ से कहानी का आरंभ यों हो सकता है-

वह उन्नीस सौ छिहत्तर का साल था. महीना था नवम्बर . तरीख अठारह थी . दिल्ली के लिहाज से बुरा मौसम नहीं था . सुहावने दिन थे - न पंखे की जरूरत थी, न रजाई की. दिन में धूप की चिन्ता किए बगैर घूम-फिर सकते थे. रात में भी नौ-दस बजे तक टहलकदमी का आनंद लिया जा सकता था, बशर्तें आप के पास एकाध साथी हो और बाहर जैसी रंगत आपके भीतर भी हो-- अपरिचित शहर के अकेलेपन की उदासी में डूबे कमरे की बास हरदम आपसे चिपकी न रह रही हो.

"सुनिए, बेबी को बुखार है. आपके पास समय हो तो....." वसुधा के दबे-सहमे अनुरोध ने उदासी में डूबे कमरे में कई विद्युत-चुम्बकीय तरंगें प्रवाहित कर दी थीं. बास का गंदलापन किसी महक के तले दब गया था.

वसुधा की बात पूरी होने से पहले ही चन्द्रप्रकाश समझ गया था-- वह डॉक्टर के पास चलने को कह रही है. लेकिन उसकी उपस्थिति से किसी वशीकरण में-सा आया, स्वर को सही मायने में ग्रहण नहीं कर पा रहा था. इतने दिनों के प्रवास ने वसुधा को लेकर जो अविश्वास पैदा कर दिया था, चुम्बकीय शक्ति के आकर्षण के सामने वह न पूरी तरह टूट पा रहा था, न अपनी जड़ों पर मजबूती से खड़ा रह पा रहा था.

चन्द्रप्रकाश की नासिका और मन सुगंध से भर गए. आंखें विश्वसनीयता को खोजने में सिकुड़ी रहीं.

"सुनिए....!" वसुधा के नए शब्दों ने आंखों की सिकुड़न को फैलाव दिया तो वह झटपट ऎसे खड़ा हो गया जैसे इतनी देर से इसी अवसर की प्रतीक्षा में बैठा हो. उसकी तत्परता में मौका हाथ से छूट न जाए की जल्दबाजी भी आ गई.

वह पैरों में चप्पल डालने को लपक लिया.

"चलो!" कह तो उसने दिया, आवाज में लोच नहीं आई-- स्वर ऊंचा चला गया. उसे अफसोस हुआ. अपने को सुधारने के अंदाज में उसने आवाज को धीमा और मुलायम किया, 'बुखार तेज था तो पहले बताती! अब पता नहीं डॉक्टर की दुकान खुली भी होगी या नहीं.----- देखते हैं, नहीं तो अस्पताल चलेंगे." आवाज में अपनापन तो आ गया, मादकता फिर भी नहीं घुल पाई.

बेबी को वाकई तेज बुखार था. एक सौ चार से कम तो क्या ही रहा होगा, "बाप रे----! इसका तो बदन तप रहा है! बड़ी गलती की तुमने----- बताती तो सही!"

वसुधा ने उसकी तरफ पलक उठाकर देखा-भर, बोली नहीं. शायद बेबी के बुखार ने उसे ज्यादा ही चिन्तित कर दिया है--- चन्द्रप्रकाश ने अनुमान लगाया. तभी अहसास भी हो गया, उसे अपने लहजे से बुखार को और तेज नहीं बनाना चाहिए था. इस समय जरूरत तो उसके दुःख को खुद ओढ़कर उसे चिन्तामुक्त करने की थी.

बाहर निकलते समय बेबी को उसकी गोदी से अपनी बाहों में लेते हुए वह नए सिरे से जागृत हो रही पुरानी अनुभूतियों की ओर लौटने लगा था. क्षण भर को चिंतित स्थितियां आत्मकेंद्रित हो रही लहरों में दब गईं.

"हमारी बिटिया रानीका बुखार तो अभी हो जाएगा छूमंतर----." वह उद्वेलित मन का उल्लास था जो बेबी को दुलार से पकड़ते वक्त स्वतः स्फुटित हुआ था.

यहां मैं पूर्णानंद जी की निर्लज्ज टिप्पणियों का जिक्र नहीं करूंगा. वे सर्वविदित हैं--- उनमें नया कहने को कुछ भी नहीं हैं. मैं वही बता रहा हूं जो पूर्णानंद जी के संकेतों से देख रहा हूं. चन्द्रप्रकाश, इस बार बोलने में भूल नहीं हुई कि आनंदित दृष्टि वसुधा की ओर डालता है और सपाट चेहरे पर मलीन हो आए कोमल चिन्हों को ढूंढ़ने की कोशिश करता है. वहां कुछ न पाने पर मंथर गति से ठहराव की ओर चलता स्थिर हो जाता है.

गली अब पार हो गई थी---- मेन रोड आ गया था. चन्द्रप्रकाश बेबी को कंधे के सहारे लिए आगे चल रहा था. वसुधा पीछे थी, करीब पांच दस गज के फासले पर. सर्दी नहीं थी. जैसा कि पहले बताया है, महीना नवंबर का था . पर रात होने के करण हवा में जुछ तेजी थी. थोड़ी नमी थी और हल्की -सी ठंडक भी. मेन रोड के खुलेपन में हवा को और तेज बहने के लिए जगह मिल गई थी. उससे वसुधा थोड़ा और सतर्क हो गई. उसने बेबी को शॉल से ढक दिया और इसी में वह चन्द्रप्रकाश से पूरी तरह छू गई. चन्द्रप्रकाश की स्थिरता बेग पा गई और स्पंदन की जिन तरंगों को वह छिपाना चाहता था वे जग जाहिर होने को उतावली हो आईं.

उसी से बचने के लिए उसने दूर खड़े रिक्शावाले को आवाज दे दी.

रिक्शावाले को डॉक्टर सेठी की दुकान पर चलने को कह उसने बातचीत का सिलसिला आगे बढ़ाना चाहा, "योगेश कब तक लौटेंगे बाहर से ?"

"कह नहीं सकती, शायद कल ही आ जाएं."

जवाब में रस नहीं , खिंचाव था. वह खिंचाव चन्द्रप्रकाश के भीतर तक चला गया-- उसे असहज कर गया. उपेक्षित हो आने के दंश में, उस स्थिति को नहीं पा सकने की बेचैनी भी शामिल हो गई, जिसके लिए वह अचानक व्याकुल हो उठा था.

उसने उड़ती नजरों से वसुधा को देखा. वह रिक्शे पर जितना हो सकता था उतना फासला बनाकर सिकुड़ी बैठी थी. निगाहें रिक्शावाले की बगल से होती हुई सड़क के खुरदरेपन से टकरा रही थीं. चेहरा परेशानियों से घिरा जान पड़ रहा था. चन्द्रप्रकाश को कोफ्त-सी हो उठी-- ऎसा भी क्या है? बेबी की तबीयत इतनी खराब तो नहीं है! मौसम बदलता है तो बच्चे बीमार हो ही जाते हैं.---- हो सकता है बेबी को इतना तेज बुखार पहली बार हुआ हो, इसलिए वसुधा ज्यादा घबरा गई हो. वरना तय है, मुझसे कहने की बजाय वह पहले घरेलू नुस्खे आजमाती. कम से कम एक रात और इंतजार करती. कल तक तो योगेश के लौटने की सम्भावना थी ही.

****

वसुधा के व्यवहार से कभी-कभी मन इतना खिन्न हो जाता कि चन्द्रप्रकाश सोचता है--- इस शहर में तबादला होना ही दुर्भाग्यपूर्ण रहा. जब तक यहां नहीं आया था तो पुराना समय बीत ही चुका था. उसके कुछ अर्थहीन और संदर्भहीन-से अवशेष ही बचे थे दिमाग में, जो यदा-कदा भूले-बिखरे हादसों की तरह ध्यान में आ जाते थे और इसका हल्का असर दिखाकर जल्दी ही विलीन भी हो जाते थे. कोई असर अगर बचा रहना भी चाहता था, तो मीरा--उसकी पत्नी, अपनी खिलखिलाहट से उसे मिटा देती थी. चन्द्रप्रकाश सोचता था--- परिपक्वता का भी अपना स्थान होता है. समय का बदलाव भी यही है कि आदमी हालात के हिसाब से ढल जाता है. मुझे ही देख लो, ट्रेनिंग के बाद पोस्टिंग अपने ही शहर में हो गई. विवाह हो गया और जल्द ही एक बच्ची का पिता बन गया. जिंदगी दो-चार क्रियाओं में बंध गई. न फालतू का वक्त रहा, न फालतू का सोच-विचार.

यहां आते ही एक बार फिर भीतर के उसी झंझावात से उलझना पड़ा. लगा, वसुधा के करीब आने के अलावा मुक्ति का और कोई रास्ता नहीं बचा है. उसकी तथाकथित परिपक्वता ने उसे धोखा दे दिया. ऎन मौके पर पल्ला झाड़ गई. चन्द्रप्रकाश छिटककर युवावस्था के मुहाने पर जा पहुंचा. वह खुद अचंभित था-- बीते दिन वर्तमान की सभी स्थितियों को नकारने को आतुर थे. हादसों के असरों को मिटा देनेवाली मीरा की खिलखिलाहटों के अर्थ अचानक बदल गए थे. वे मीरा के होंठ थे ही नहीं, उनकी चमक वसुधा से उधार ली हुई थी. अपने सम्मोहन में वे बता रहे थे, उसकी परिपक्वता मीरा में वसुधा को स्थापित करने की कवायद थी.

मीरा को मीरा के रूप में कब देखा उसने?

सवाल तेज रौशनी की तरह कौंधा. वह उद्वेलित ही हो आया. बेचैनी में उठे उसके हाथों ने वसुधा के किवाड़ों पर इतनी दस्तकें दे डालीं कि शहर गूंज उठा, पर अफसोस! वसुधा ने सुना ही नहीं.

वह बंद किले की मजबूत दीवारों और फाटकों में भीतर घुस सकने लायक दरारों को खोजते-खोजते पस्त हो गया. घायल सिपाही की तरह बिस्तर पर पड़ा भयावहता को देखता रह गया. एक धारणा स्थायित्व पा गई कि इस शहर में वसुधा से अलग रहना असम्भव है और यहां से भाग जाना बिलकुल ही मुश्किल .

पूर्णानंद जी उसके हावभाव पर चकित हैं. --'तो पट्ठे का पुराना चक्कर है. उनकी टिप्पणी में लोच है--- आवाज में हकलाहट--'शादीशुदा होने के बाद भी ! ' अपनी मध्यवर्गीय नौतिकताओं की ऎसी-तैसी होते देख उन्होंने जितना कहा और जितना कहने को उनके भीतर था, उससे कथा के सूत्र पकड़ना बड़ा आसान हो गया. थोड़ी-बहुत कल्पना तो 'सच्ची कहानियों' में भी जड़नी पड़ती है.

**

कथा का विगत यह है कि महीना-भर पहले चन्द्रप्रकाश का तबादला इस शहर में हो गया. शहर उसके लिए अपरिचित था-- पहली बार यहां आ रहा था. हिचक स्वाभाविक थी--- छोटे शहर की अपने दायरे में सिमटे रहने का मजा देनेवाली डरपोक मानसिकता थी.

पर मामला नौकरी का था. प्रमोशन मिली थी. हिचक को पिताजी ने तोड़ दिया. सहारे की गठरी दे दी, "सीधा वसुधा के वहां जाना. वे लोग रहने का प्रबंध कर देंगे. थोड़े दिन काटो, फिर वापसी की कोशिश करेंगे."

जाने का निश्चय तो तभी कर लिया था, प्रमोशन का पत्र मिलते वक्त ही उत्साह पुराने दिनों के ध्यान में लौट आने की गुदगुदी से बढ़ा. स्मृति-पटल पर मोटे अक्षरों में अंकित हो गया था-- कभी वसुधा और मेरे बीच निकट सम्बन्ध थे. मैं वसुधा था और वसुधा मैं थी.

उस रात रेल की बर्थ पर लेटे-लेटे पूरा युग जी गया वह. अतीत ने अपना कुछ भी नहीं छिपाया. सब-कुछ उसके सामने उघाड़ दिया. सवेरे गाड़ी से उतरते वक्त ध्यान में वसुधा ही थी. मुझे अचानक देखकर सकपका न जाए! अगर अकेली हो तो रो ही न पड़े!---- हो सकता है कुछ बदलाव आ गया हो. सुना है एक बच्ची हो गई है. हमारी पिंकी से शायद थोड़ी बड़ी है.---- हो सकता है बच्ची ने भीतर के खालीपन को भर दिया हो! फिर भी विगत से छुटकारा मिला है किसी को? मैं भूला कुछ----.'

यहां आकर पता चला वसुधा के पापा ने उसके आने की सूचना उन्हें पहले ही दे दी थी. उन्होंने बगल के मकान में उसके लिए कमरे का प्रबंध भी कर लिया था.

उसने आते ही वसुधा की प्रतिक्रिया जाननी चाही. चेहरे पर कोई हाव-भाव नहीं था. गहराई से ढूंढ़ने खोजने का अवसर नहीं था. वसुधा ऎसा अवसर दे भी नहीं रही थी. काम में ज्यादा ही व्यस्त थी. चन्द्रप्रकाश के मन ने कहा---- उसके आने से वसुधा को कोई फर्क नहीं पड़ा है.

उसके उदास और मलिन होने के लिए इतना काफी था. समय का जरा-सा अंतराल परिचय के सारे चिन्ह मिटा देता है. उसने अपने-आपसे पूछा-- अभी कल ही की तो बात है-- बसुधा और मेरे परिवार में कितनी घनिष्ठता थी? रोज का आना-जाना था. मेरे जाने पर वसुधा खिल जाती थी. उसने कब चाहा, मैं उसके घर से जल्दी लौट जाऊं? उलझाकर रोक देने के कई बहाने थे उसके पास.

कल और आज का अंतर अजनबीपन को इतना गहरा गया कि दिल्ली उसे डराने ही लगी. स्थिति असहनीय-सी बन आई. दिन अवसाद में डूबने लगे.

बचने के लिए सहारा बनी बेबी. बेबी अगर उससे घुल-मिल न गई होती, तो हर वक्त उपेक्षित महसूस करने का दंश नर्वस ब्रेकडाउन करा ही देता.

दफ्तर के बाद का समय बेबी के साथ खेलने में गुजर जाता था. यह कई मायनों में अच्छा हुआ. चन्द्रप्रकाश को अवसाद से बाहर निकलने का मौका तो मिला ही, इस जुड़ाव से योगेश और उसके बीच भी परिचय हो गया.बातचीत के लिए छोर ढूंढ़ने की बात नहीं रह गई.

अपरिचित तो वसुधा रह गई. पता नहीं, उसके पास काम ही इतना था या चन्द्रप्रकाश के जाने पर नया काम निकल आता था. उसकी व्यस्तता कम नहीं होती थी.

यह व्यस्तता चन्द्रप्रकाश को मथ देती थी. घुटन हो जाती थी. वहां बैठना मुश्किल हो जाता था. अपना ही अंतर कोचोटता था-- तू यहां के लिए एक अवांछनीय तत्व है. किस रिश्ते की डोर पकड़े बैठा है यहां? चाहता क्या है--- और क्या मिल सकता है जबर्दस्ती भीतर घुस आए आदमी को? कौन है यह औरत? वसुधा तो नहीं है!

-- तो यह तड़प, यह अवसाद उस औरत में वसुधा को लौटा लाने की उत्कंठा है.

"हां, है----." भीतर गूंजी चीख उसे उत्तेजित कर जाती है. उसका रंग सूर्ख हो जाता है. आंखों में पानी की परतें जमा होने लगती हैं. धीरे-धीरे उसमें पारदर्शी झरोखे बन जाते हैं, जिनसे टुकड़ों-टुकड़ों में उस पार का अपार संसार दिखने लगता है. शरीर में रक्त संचार तीव्र हो जाता है.हाथ बेचैनी के मद में से आए वसुधा की ओर बढ़ने को तत्पर हो जाते हैं कि उसे झकझोरकर उसकी स्मृति को लौटा लाएं. चीखकर कहे उससे-पहचानो मुझे! मैं चन्द्रप्रकाश हूं! तुम्हारा चन्द्रप्रकाश !---- और तुम वसुधा हो. तुम्हें वसुधा ही बने रहना होगा. नहीं तो मैं आत्महत्या कर लूंगा या भाग जाऊंगा यहां से और वहां से भी -- सब को छोड़कर----! नहीं चाहिए मुझे कुछ वसुधा के सिवा.

****

पारदर्शी झरोखे पर धीरे-धीरे पर्दा गिरता है. सुर्खी को घुलने में फिर भी वक्त लग जाता है. इतना ही वक्त लगता है उसे चन्द्रप्रकाश की जून पाने में. लम्बी दौड़ के बाद हांफते-हांफते थमने में शरीर जैसे निढाल हो जाता है. वैसी ही गति में आ गया चन्द्रप्रकाश अब आतुर आंखों से बस इतना ही पूछना चाहता है--'विगत का कुछ भी याद नहीं वसुधा तुम्हें?'

पर वसुधा की व्यस्तता ने इतना पूछने का मौका भी नहीं दिया. कभी चाय का कप पकड़ाते पुरानी मुस्कान का एक अंश जरूर दिख जाथा था, 'पापा का पत्र आया है, आपकी खबर पूछी है.'

पता नहीं भीतर पनपता अजाबीपन का तनाव था या हवा-पानी का बदलाव, यहां आने के दस-पन्द्रह दिन बाद बीमार पड़ गया. शिथिलता तो पहले दिन से ही महसूस हो रही थी, ताप अब चढ़ा दस बारह दिन की हरारत के बाद. ठीक उसी तरह का बुखार था, कंपकंपी वाला, जैसा कॉलेज के दिनों में आया था---- एम.ए. प्रीवियस के पेपर के बाद. एक बार तो वह घबरा ही गया था. मम्मी-पापा बाहर गये हे थे, बुखार एक सौ चार से नीचे आने को तयार नहीं था. पर धीरज रखने को एक आसरा था-वसुधा.

सवेरे छः बजे से रात नौ बजे तक दसियों चक्कर लगा जाती थी. चाय, नाश्ता, खाना, दवा, सब जिम्मा खुद ओढ़ लिया था. कड़क नर्स बन गई. मरीज को रत्ती-भर भी छूट नही थी अपनी मनमर्जी करने की. डंडा तगड़ा था--- जैसा डॉक्टर ने कहा है, वही होगा---- क्योंकि जिम्मेदारी मेरी है. पूरे दिन के ताप का हिसाब होता था उसके पास और डॉक्टर को देने के लिए हर घड़ी का उतार-चढ़ाव होता था.

यहां इस कंपकंपाते बुखारे में उसका आसरा थे-- एक रजाई और एक कंबल. कभी-कभी बेबी के स्नेह-भरे कोमल हाथ - 'बुखार आया अंकल को' के मधुर स्वर. सुबह-शाम योगेश आ जाते थे. डॉक्टर के पास वही ले गए थे.

वसुधा तीसरे दिन सवेरे आई थी, चाय और थोड़े बिस्कुट लेकर, "कैसी है तबीयत?" एक नीरस औपचारिकता थी.

पर चन्द्रप्रकाश को उसमें भी एक आनंद की अनुभूति हुई. हवा का एक ताजा झोंका आया. ताप को कुछ कम कर गया, लेकिन कंपकंपी को बढ़ा गया.

"पहले से बैटर हूं." जो कहने का मन हुआ, वह भीतर ही घुमाता रह गया. शब्द मर गए. सांस के साथ आह! जैसी थकन बाहर निकली और वापसी में अजीब किस्म की छटपटाहट को अंदर खींच ले गई.

इच्छा थी वसुधा से और बहुत कुछ पूछे. पर शुरुआत के लिए कोई सिर पकड़ने की बजाय हड़बड़ी में खुद भी औपचारिकता ही निभा पाया, "चाय की बेकार तकलीफ की."

शायद इस हड़बड़ी में 'चुप रहने से संवाद स्थापित होना असम्भव है ' की एक बेचैनी ही थी. एक दिक्कत शब्दों के न रहने से भी आ रही थी. आखिर सम्प्रेषण का माध्यम क्या हो?

"वे जल्दी में थे, दफ्तर के काम से बाहर जाना था. कह गए थे आपको चाय दे आऊं और खाने के लिए पूछ लूं."

वसुधा ने मौन ही नहीं तोड़ा, उसके भीतर बन आई एक सुखद तस्वीर को भी ध्वस्त कर दिया. रंगों का गीलापन एक-दूसरे में ऎसे समा गया कि उन्होंने अपनी पहचान तो खोई ही, सुंदरता का नामोनिशान भी मिटा दिया. ताप कुछ और चढ़ आया. कल से खाई दवाइयों का असर खत्म हो गया. मुंह का स्वाद ऎसा बिगड़ा कि शब्दों से भी बदबू आने लगी.

"खाने को क्या बना दूं?" वसुधा ने पूछा.

"कुछ नहीं, मन नहीं कर रहा." जबर्दस्ती धकेले गए सूखे शब्दों में रस तो नहीं ही था, दम भी नहीं था. उन्हें सुनने के लिए सचेत कानों की जरूरत थी.

वसुधा का तो रोम-रोम सतर्क था. तभी उसने होंठों से सूत-भर की दूरी तय कर पा रहे शब्दों को ग्रहण कर लिया था. चन्द्रप्रकाश के पूरी तरह रजाई में दुबक जाने से पहले ही उसके कदम दरवाजे को उलटने लगे थे.

क्रिया और प्रतिक्रिया एक-दूसरी के स्वभाव से पूर्ण परिचित थीं. उन्हें उतार-चढ़ाव के मायने खोजने की जरूरत नहीं थी--- यह कहानीकार का 'वर्जन' है. पूर्णानंद जी का 'वर्जन' है--- हर प्रेमी-प्रेमिका नाटक करते हैं. सैकड़ों फिल्मों में हमने देखा है. यहां भी देख लेना, वही होगा.

आगे की कथा पर पूर्णानंद जी उछल पड़े-- देखा, हमने क्या कहा था?

करीब डेढ़ घंटे बाद वसुधा फिर आई थी, बेबी को लेकर. चन्द्रप्रकाश पत्रिका के पन्नों में उलझा हुआ था.

"बेबी आपको याद कर रही थी. बार-बार आपके पास आने की जिद कर रही थी."

चन्द्रप्रकाश थोड़ा उत्साहित हुआ. बेबी को पुचकारा . झुककर उसे उठाया और पलंग पर बैठा लिया.

उसे गम्भीर देख, बेबी चुप-चुप-सी उसे देख रही थी. वह हल्के से मुस्कराया, "हमारी रानी बिटिया को अंकल की याद आती है?"

"खाने को कुछ मन नहीं? थोड़ा ले लेते!" वसुधा ने दूर खड़े-खड़े पूछा.

"ऊं-हूं!" उसने गर्दन नहीं उठाई . बेबी को पुचकारने में लगा रहा.

***

आज रिक्शे में वह उसके इतने करीब बैठा था कि अतीत की ओर लौटने से बच नहीं सकता था. विगत वर्तमान को अपने में समा लेने की ताकत पा गया था. चन्द्रप्रकाश उस शक्ति के आगे लाचार था. भावुकता विवश किए हुई थी. उसे हर हालत में अतीत को सत्य ठहराना था. मुंह खुलना बाकी था, शब्द जीभ पर आए बैठे थे. इतने अपरिचित तो नहीं हैं हम वसुधा! मेरी स्थिति तुमसे अलग नहीं है. विवाहित हूं, एक बच्ची का बाप हूं. पर सामाजिक रिश्तों से भिन्न आत्मीय रिश्ते भी होते हैं--- आंतरिक तृष्णा की तृप्ति के लिए. सामाजिक -पारिवारिक सम्बन्धों की सार्वजनिकता, उनमें नितांत निजी क्षणॊं की तुष्टि की गुंजाइश कहां छोड़ती है! उनमें समाहित दायित्वों और मर्यादाओं के तटबन्ध अवरोधक की तरह बार-बार संयमित व्यवहार के लिए चेताते रहते हैं. वे आत्मीय सम्बंध ही हैं जो तटबंधों को उच्छलित लहरों की तरह एक ही छलांग में लांघ जाते हैं-- सुख और आनंद की विलक्षण अनुभूतियां दे जाते हैं---- और तुम हो कि लहरों के पंख काट देना चाहती हो.

रिक्शा डॉक्टर की दुकान पर पहुंच गया था. चन्द्रप्रकाश को भी भावुकता से बाहर निकल आना पड़ा.

"कब से है बुखार?" डॉक्टर ने पूछा था.

"कल से....." जवाब वसुधा ने दिया.

डॉक्टर के जांच परीक्षण करने तक दोनों टुकुर-टुकुर देखते रहे.

"कोई ज्यादा गंभीर बात तो नहीं...? " इस बार चन्द्रप्रकाश ने पूछा था.

"नहीं---- आप लोगों ने ध्यान नहीं दिया. तकलीफ एक-आध दिन पहले से है. निमोनिया होने की संभावना है. दवा से आराम आ जाएगा. फिर भी, आराम न आया तो सबेरे फिर ले आइए."

दवा लेकर वे फिर रिक्शे में बैठ गए. चन्द्रप्रकाश थोड़ा उत्साहित हो आया था, जैसे डॉक्टर से हुई बातचीत से समर्थन पा गया हो. उसे लगा-- भीतर उमड़ती बात की हत्या, अपनी हत्या है. रिक्शा के लिए अतीत ही उसका संबल था. वर्तमान उसे सिरे से ही नकार दे, यह उसके बर्दाश्त से बाहर था.

उसने उत्तेजना को थामा और शालीनता के आवरण में अपना दावा ठोक देने का तरीका पा लिया, "मौसम बदलने पर थोड़ा सावधान तो रहना ही चाहिए. याद है ना, जरा सी लापरवाही से कॉलेज के दिनों में मैं कितना बीमार हो गया था! अगर तुम न होती तो----."

अब विगत को, वसुधा के आज के चेहरे को पढ़ना था. बाकी का समर्थन और साहस वहीं से प्राप्त होना था.

वह चेहरा सपाट तो नहीं था. कुछ स्याह था, कुछ सफेद . कुछ लालिमा लिए हुए था, कुछ पीलापन. खिला बिल्कुल नहीं था. मुर्झाया हुआ कहना भी गलत होगा. ... लेकिन चन्द्रप्रकाश के लिए उसमें कुछ नहीं था-- इतना उसने पढ़ लिया था.

अपने पढ़े को जांचने के लिए उसने फिर उधर नजर उठाई. कोई परिवर्तन नहीं था. आंखें डूबी हुई थीं. किसी अवसाद में नहीं, शायद चिन्ता में. बेबी को उसने कसकर पकड़ रखा था. बार-बार खिसक रहे शॉल से बेबी को ढकने में लगी हुई थी.

अब चन्द्रप्रकाश के अवसाद में डूबने की बारी थी. पर वह अवसाद से पहले बेचैन कर देनेवाली उत्तेजना में जा पहुंचा-- ऎसा भी क्या है कि नहीं बोलने की कसम खा ली है? कुछ असम्भव तो नही चाह रहा हूं मैं. अच्छे मित्र-परिचितों जैसे रसभरे दो बोल ही तो थे. उसके लिए इतनी उपेक्षा!

उसने खीझी हुई आंखों से उसकी ओर देखा तो अपना ही हृदय डोलने लगा. चेहरे के रंग गड़बड़ाए हुए थे. उसमें एक ठहराव था-- झील-सी स्थिरता थी. उसे लगा, वहां एक पवित्र मूर्ति रखी हुई है जिस पर गुस्सा करना पाप है.

कसे हुए दिमाग को खुलापन देने के लिए उसने आंखें मींची ही थी कि रिक्शा ठक से रुक गया . घर आ गया था.

वसुधा बेबी को अंदर ले गई तो बोझ जैसे भारी कदमों में संगत कर बैठा. उसे भी दवा का लिफाफा पकड़े अंदर जाना पड़ा.

बेबी को पलंग पर लिटाकर उसने चन्द्रप्रकाश से बैठने को कहा और खुद किचन की ओर लपकी . चन्द्रप्रकाश पलंग के पास बैठा बेबी के सिर पर हाथ फेरता रहा. वह पानी चम्मच लाई तो उसने बेबी को दवा पिला दी. संवाद को शब्दों की जरूरत ही नहीं पड़ी.

खाली कप पलंग के नीचे खिसकाकर वह उठ खड़ा हुआ. कदम बाहर को मुड़ ही रहे थे कि वसुधा ने पीछे से पुकार दिया, "सुनिए----."

वह ठिठका. कदमों के साथ चेहरा भी उसकी ओर मुड़ गया.

"आप कहीं और रहने का प्रबंध नहीं कर सकते?"

वह अवाक निरंतर उसे देखता रह गया. वसुधा के स्वर, लहजे और चेहरे पर फिर आए कंपन को वह देख ही नहीं पाया. टूटे कांच के टुकड़ों-सा सपने को बटोरने में ही लगा रहा.

सिर घूम गया, पूरी तरह.

वहां से फटाफट निकल भागने के अलावा उसके पास और कोई विकल्प नहीं था.

***

किस्से को चरम तक पहुंचाने में पूर्णानंद जी के ताक झांकी खोजी स्वभाव का कायल मैं बेशक नहीं हूं, पर सूचनाओं के लिए मुझे उनका आभार प्रकट करना चाहिए. लेकिन मैं उनकी टिप्पणियों से परेशान हूं. वह मेरी संवेदनशीलता को ही चुनौती देने लगते हैं. अब भी वह चुप नहीं हैं. नैतिकता का डंडा लिए चन्द्रप्रकाश को जबर्दस्ती खदेड़ने में लगे हुए हैं. टिप्पणी उन्होंने ठोक दी है-- प्रेमी और पागल पिटे बिना रास्ते पर आ ही नहीं सकते. और क्या कहती यह औरत! शालीनता से दुत्कार तो दिया, पर वाह रे मोटी खाल वाले मर्द-- टला नहीं , डटा रहा, पड़ोस में.

इसलिए कथा के चरम पर आ जाने पर भी, उसे आगे बढ़ाने की मजबूरी आ पड़ी है मुझ पर.

हुआ यों-- पराजित पस्त-सा चन्द्रप्रकाश अपने कमरे तक आते-आते पूरी तरह टूट चुका था. शब्दों के अर्थ धीरे-धीरे खुले थे. उनकी गूंज दीवारों से टकराकर प्रतिगूंज के रूप में कानों पर हथौड़े की तरह बज रहे थे. उनकी अप्रियता ने कमरे की बास को असहनीय बना दिया था. अजनबीपन खड़ा होकर खुद ही बोलने लगा था. उसकी भयावहता कमरे से ही नहीं, शहर से ही भाग जाने को कह रही थी.

चन्द्रप्रकाश न बैठ सका, न लेट सका. भीतर का एक कोना जो उपेक्षित और अकेला कर देनेवाली स्थितियों से उत्पन्न हीनता से लगातार लड़ रहा था, चन्द्रप्रकाश का संवाद उसी से बना हुआ था. निर्णय भी उसी की बातचीत से निकला कि इस कमरे में एक दिन भी नहीं रहना है. कल ही दो चार दिन के लिए किसी होटल में चले जाना है. इस बीच दफ्तर के सहयोगियों की मदद से कमरा तलाशना है. महीने-दो महीने में तबादला हो गया तो ठीक, वरना तरक्की की ऎसी-तैसी! पुराने पद पर अपने शहर लौट जाना है.

सामान उसने रात में ही बांध लिया था. सिर्फ बिस्तर बचा था गोल करने को. उसे सवेरे करना था-- रात कट जाने के बाद.

नींद तो नहीं आई, पर मन शांत रहा. अजनबीपन अपने-आप सहम गया. दृढ़ निश्चय के आगे करतब दिखाने का मौका नहीं पा रहा था. कमरे में बास थी--- चन्द्रप्रकाश ने उसकी ओर भी ध्यान नहीं दिया. उसका असर भी अपने-आप खत्म हो गया.

सवेरे चन्द्रप्रकाश अलसाया-सा उठा. आंख खुलते ही नजर बंद कमरे के चुंधले में पसरी पड़ी बीती रात पर पड़ी. उसने चेहरा हथेलियों से ढका और बंद आंखों के भीतर से सीधा खड़े होने की ताकत बटोर ली.

चाय -नाश्ते का सामान रात ही बंध चुका था. उसके लिए अब बाहर ही खाना था. उसने गली में कदम रखा ही था कि योगेश अपने दरवाजे पर खड़े दिख गए. वे रात की गाड़ी से लौट आए थे.

उन्हें देख वह एक कदम झिझका. उसका शिष्टाचार लौटता, योगेश ने पहले ही अभिवादन कर दिया, "नमस्ते, चन्द्रप्रकाश जी! सवेरे-सवेरे बिना नहाए-धोए---."

"यों ही, जरा बाहर तक टहलने..... आप कब लौटे?"

"अभी आया हूं. पांच बजे पहुंचा घर. लेकिन आप परेशान से क्यों नजर आ रहे हैं? अरे भाई, कोई गुस्ताखी हो गई दिल्लीवालों से?"

अपने हंसमुख स्वभाव के मुताबिक योगेश ने कहा, तो चन्द्रप्रकाश सकुचा गया. वह तो हंसी-मजाक के लिए तैयार नहीं था. दूसरा, एक चोर रात से ही भीतर बैठ गया था, जिसे अपने पकड़े जाने का डर था. वह चन्द्रप्रकाश को सहज नहीं होने दे रहा था.

"असल में चाय बनाने का मूड नहीं था. सोचा, बाहर चाय पीने के बहाने थोड़ा चहलकदमी कर लूंगा." असहज मन ने जल्दी छुटकारा पाने की तत्परता में कह दिया.

"जब घर है तो बाहर भटकने की क्या जरूरत है? अंदर आइए, यहां बैठ के पीते हैं चाय."

विवश था चन्द्रप्रकाश. भीतर जाने को बिल्कुल इंकार कर चुके पैरों को योगेश के पीछे घसीटना पड़ा.

"स्वास्थ्य तो ठीक है?" योगेश ने पूछा.

"स्वास्थ्य को क्या होना है." उखड़ी-सी हंसी में चन्द्रप्रकाश बोला.

"तो आप ही ठीक नहीं हैं. दिल्ली बेगानी ही बनी रही आपके लिए. इतनी बुरी जगह तो नहीं है यार! राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री तक यहीं रहना पसंद करते हैं. थोड़ा दिल लगाओगे तो दिल्ली फिर कहीं नहीं जाने देगी आपको."

योगेश उसे सहज करने की जितनी कोशिश कर रहे थे, वह उतना ही असहज होता जा रहा था. एक जकड़न-सी हो आई थी भीतर, जो एक ही रट लगाए हुए थी. - 'तुम यहां के लिए अवांछनीय तत्व हो. जितनी जल्दी हो सके, उठ लो, सुखी रहोगे.'

"असल में बात यह है योगेश भाई, मैंने तय कर लिया है-- एक महीना और कोशिश करूंगा. तबादला हो गया तो ठीक , नहीं तो लोअर पोस्ट पर घर लौट जाऊंगा. तब तक के लिए दफ्तर के पास ही जगह ढूंढ़ता हूं, यहां से आने-जाने की दिक्कत है." यह साफगोई बेकार की लाग-लपेट में से सहानुभूति बटोरने की बजाय, भाग निकलने की जल्दबाजी थी.

"अरे!" योगेश चौंक ही गए.

"हां, मैंने सामान बांध लिया है. शाम तक निकला जाऊंगा. " यह वसुधा से अधूरे टुट गए संवाद को पूरा कर, दोनों की एक-दूसरे से मुक्ति का ऎलान था.

इसकी घोषणा पर योगेश सन्न रह गए. हत्प्रभ से उसे देखते रह गए. वसुधा भी जो चाय लेकर आई थी,क्षण भर को ठिठकी. बिना गर्दन उठाए वापस किचन को लौट गई.

चाय का दौर खामोशी में चला- एक मूक संवाद भी चलता रहा दोनों के बीच. योगेश ने मन में सोचा-- पदोन्नति रोज नहीं मिलती. कैरियर के लिए लोग अपना देश तक छोड़ देते हैं. सरी उम्र विदेशों में कट जाती है. एक ये चन्द्रप्रकाश हैं----.

चन्द्रप्रकाश ने कहा-- 'यहां योगेश बनकर तो कोई भी रह सकता है, आनंद से. चन्द्रप्रकाश बनकर रहना असम्भव है!'

कप उठाने आई वसुधा को योगेश ने कहा, "वसुधा, तुम समझाओ भाई , तुम्हारे मायके के हैं. हो सकता है दिल्ली इतनी रूखी हो कि बाहर से आए हुओं के प्रति बेरहमी दिखाती हो. पर हमारा तो इनसे यही कहना है-- निर्णय जो भी लो, इनका मामला है. लेकिन , जब तक आप दिल्ली में हैं,हम आपको यहां से जाने नहीं देंगे. वरना लोग क्या कहेंगे हमसे--- ससुराल के एक आदमी को भी खुश नहीं रख सके?"

योगेश के ठट्ठे पर चन्द्रप्रकाश और वसुधा को चुप ही रहना था.

यह चन्द्रप्रकाश के दिल्ली में जम जाने की नींव का पहला मजबूत पत्थर था.

पूर्णानंद जी चन्द्रप्रकाश पर कितनी ही लानतें फेंकें, सच यही है __ योगेश ने चन्द्रप्रकाश को अकेलेपन से बाहर निकालने का निर्णय ले लिया था. वे जानते थे चन्द्रप्रकाश का इसी पद पर वापस तबादला संभव नहीं है. उसके इस शहर से उखड़ने का जो कारण उनकी समझ में आया था, उसका निदान उन्होंने अपने तरीके से कर दिया. चन्द्रप्रकाश की जानकारी के बगैर पत्र लिखकर उसकी पत्नी और बच्ची को यहां बुलवा लिया.

ये कुछ दिन असहजता से भरे थोड़ी बेचैनी के थे.

पत्नी और बच्ची को अचानक देख चन्द्रप्रकाश सकपकाया . कुछ दिनों तक अपनी स्थिति को समझ ही नहीं पाया. भटकता रहा. वसुधा मरीचिका बन गई थी और मीरा उसके उखड़े स्वभाव को चिंता में मलिनता से सांवली हो आई थी--- वसुधा के साफ रंग के आगे अपना आकर्षण खो रही थी.

पिंकी को तो खैर बेबी मिल गई थी खेलने के लिए. योगेश ने चन्द्रप्रकाश की मनोदशा को पकड़ ही रखा था. उन्हें विश्वास था अकेलेपन के दंश से बाहर निकलते ही चन्द्रप्रकाश की दिनचर्या स्थायित्व पा जाएगी.

चन्द्रप्रकाश के डूबे मन की व्यथा पर चिंता व्यक्त करने और शहर के परायेपन को काटने के लिए मीरा को भी सिर रखने के लिए कंघा मिल गया था, वसुधा का.

वसुधा के संकट की सीमा नहीं थी. मीरा के प्रेम-अपनत्व का मान रखना था, तो भीतर छिपे चोर को भी बचाना था. मीरा की चर्चा का केन्द्र चन्द्रप्रकाश था, जिसे वसुधा स्मृति में आने से ही रोकने के प्रयत्न में जुटी हुई थी.

मीरा, चन्द्रप्रकाश और योगेश -- तीन डोरों से बंध गई वसुधा अपने लिए स्वतंत्र रास्ता चुन लेने को अब कतई आजाद नहीं रह गई. चन्द्रप्रकाश के आने से पहले तक योगेश, बेबी और घर-- कभी-कभी थोड़े-से रिश्तेदार और अड़ोस-पड़ोस उसके स्वभाव को मृदु, कोमल तथा मिलनसार बनाए हुए थे. चिड़चिड़ाहट से रहित जीवन में एक बहाव था. स्मृति में कुछ अवरोध -रुकावट भी थे, पर वे इतने प्रबल नहीं हो पाते थे कि बहाव की धारा को रोक दें या दिशा बदलने को बाध्य कर दे. अब सब उलट गया. बहाव में गति रही न दिशा. वसुधा के नियंत्रण में कुछ भी नहीं रहा जैसे. भीतर जो था उबाल लेता हुआ. उसे न मीरा के सामने कह सकती थी न योगेश के सामने. चन्द्रप्रकाश तो मूल ही था, उसको क्या कहती-- तुम चले क्यों नहीं गए उस रात के बाद----? चन्द्रप्रकाश चला भी जाता---- तो भी क्या वसुधा चैन पा जाती?

कुछ सवाल अपनी सहजता के कारण ही कठिन हो जाते हैं. पूर्णानंद जी ने झूठ कह दिया--- योगेश एक दिन और लेट हो जाते तो किस्सा खत्म ही था. चन्द्रप्रकाश चला जाता और कभी लौटकर नहीं आता यहां.

पूर्णानंद जी के तर्क से सहमत होना मेरे लिए असंभव है. सवाल तो अपनी जगह पर ही रहा-- चन्द्रप्रकाश सचमुच चला जाता? वसुधा चुपचाप रहती ? शब्दों की वक्रता और भाव की भंगिमाओं से भी कुछ नहीं कहती? चन्द्रप्रकाश के जाने के बाद उन दोनों के लिए भी किस्सा खत्म हो गया होता?

अनबूझी पहेलियों का दबाव था या संवेदनशीलता ही उस पर हावी हो गई थी कि वसुधा का नर्वस ब्रेकडाउन ही हो गया.उस दिन भी योगेश बाहर गए हुए थे कंपनी के काम से. मीरा ने चन्द्रप्रकाश के ऑफिस फोने कर दिया था.
चन्द्रप्रकाश के घर पहुंचने तक वसुधा भय, घबराहट, बेचैनी और इन सबके ऊपर उदासी-भरी विरक्ति से इतनी दहशत में आ गई थी कि एक क्षण को भी अकेले रहना मुश्किल हो रहा था. मीरा की गोद में सिर रखे वह उसे ऎसे कसकर पकड़े हुए थी, जैसे मीरा भागने को तत्पर हो और वह उसका गला दबोचने को मीरा के उठने का ही इंतजार कर रहा हो.

चन्द्रप्रकाश खुद भी इस दौर के करीब से गुजर चुका था.जानता था यह अवसाद के कारण है और इसका इलाज मनोचिकित्सक के पास है. डॉक्टर के निरीक्षण और दवा के असर को देखने के इंतजार में थोड़ा-सा समय मिला. मन से कमजोर हो आई वसुधा चन्द्रप्रकाश से बोल गई, "आप भी मेरे कारण परेशान हैं ना! बहुत नाराज हैं मुझसे....?"

चन्द्रप्रकाश ने शायद कहा था, "तुमसे नाराज होने का कोई सवाल ही नहीं है. तुम बहुत सोच-विचार न करो, मन दुःखी होता है.---- वादा करो आज से हम अच्छे पारिवारिक मित्रों की तरह रहेंगे. अपने पारिवारिक कर्तव्यों का निर्वाह करते रहेंगे.कुछ क्षण अपने लिए भी निकाल लेंगे. एक-दूसरे से नाराज न होंगे--- कोई शिकायत नहीं करेंगे."

यह संक्षिप्त संवाद दोनों की रिक्तता को भर गया. भीतर जो अतृप्ति थी-- जिसकी तृष्णा सुख-चैन को ही सोखे दे रही थी, तृप्ति पा गई. भविष्य का अदृश्य, अपरिभाषित सम्बन्ध जीवन पा गया. उसकी प्रगाढ़ता अटूट रहने की प्रतिज्ञा करने लगी. उसको अब अपने ही शब्दों की जरूरत नहीं रही. दूसरे संदर्भों , दूसरों से कहे शब्द भी उनके बीच संवाद स्थापित कर देते थे.

उनकी आत्मतुष्टि के लिए इतना-भर काफी था.

आगे उनकी आकांक्षाएं कहां तक पहुंचीं--- मन, आत्मा और दैहिक स्तरों का विभाजन हम नहीं करते. उसकी बात करना भी अनुचित है. प्रेम-कहानी में भावपूर्ण उदात्त रूप ही रोचक और सुंदर लगता है.

पूर्णानंदों की मध्यवर्गीय शंकालु नजरें कुछ भी अर्थ निकाल सकती हैं-- इतना कि कहानी कभी खत्म ही न हो. पर आश्चर्य, सन उन्नीस सौ छियहत्तर-सतहत्तर से सन दो हजार आने तक पूर्णानंद भी अथक प्रयत्न के बावजूद उनके भाव-जगत की कोमल दीवारों को नहीं भेद पाए. जितनी जानकारी उनके पास है,उतनी सबके पास है. जैसे वसुधा और चन्द्रप्रकाश अवसाद के अंधेरे से तभी बाहर निकल आए थे उस संक्षिप्त संवाद में एक-दूसरे को अपना हृदय दिखा देने के साथ ही. थोड़ी -बहुत आशाएं अपेक्षाएं और दमित किस्म की इच्छाएं तो बरसों की एकरसता के तले दब गए पति-पत्नी के नीरस हो जाते सम्बन्धों में भी अबूझ रह जाती हैं.उतने शिकवे शिकायतें उनके आकर्षण के लिए जरूरी भी थे.

अब यह बताना भी जरूरी है कि चन्द्रप्रकाश का मन दिली में रम गया था. पूर्णानंद जी की बात को ही सही मान लेते हैं--- वसुधा के कारण. मीरा का मन चन्द्रप्रकाश के मन की प्रतिछाया था, उसे तो रमना ही था. दोनॊं परिवारों के सबंधों को प्रगाढ़ होने में कोई दिक्कत नहीं रह गई थी. थोड़ी सावधानी चालाकी वसुधा और चन्द्रप्रकाश को बरतनी थी. एक सांकेतिक भाषा का आविष्कार करना था, जिसके लिए उन्हें प्रयस करना ही नहीं पड़ा. भाव और भावनाओं की त्योंरियों ने इतनी सघन-सुगठित निजी भाषा दे दी थी कि पूर्णानंद जैसे खोजी भी गच्चा खा गए. शायद छिपाने की संयमता और व्यक्त होने की अधीरता की लुका-छिपी ने ही उन्हें जीवंत और आकर्षक बनाए रखा-ऎसा हमारा अनुमान है.

बातचीत के लिए सम्बोधन भी मिल गए. चन्द्रप्रकाश अंकल हो गए थे और वसुधा आंटी. नामॊं की जरूरत ही नहीं रही.

योगेश के पास समय नहीं था. प्राइवेट नौकरी में भागमभाग अधिक थी. महीने में बाहर के दो-दीन चक्कर मामूली बात थे. दिमाग कंपनी के व्यापार -मालिक के निर्देशों में उलझा रहता था. अब तो कंपनी की नई ब्रांच में मैनेजर होकर हैदराबाद चले गए हैं. साल-दो साल वहां रहना ही पड़ेगा.

चन्द्रप्रकाश की सरकारी नौकरी है. समय मिल जाता है. विभागीय पदोन्नति के लिए पढ़ना-लिखना भी पड़ता है. शिक्षा और नौकरी के सम्बन्ध का अच्छा ज्ञान है उसे. बच्चों की पढ़ाई और राय-मशविरा करने में वसुधा और योगेश को चन्द्रप्रकाश पर निर्भर रहने में निश्चिंतता ही मिल रही है.

वसुधा और मीरा के बार-बार के उलाहनों से मकान बन गए हैं साथ साथ अगल-बगल में. चिंता लड़कों की उच्च शिक्षा पूरी होने पर नौकरी पाने की है. पर पहले बेटियों की शादी करनी है.उनकी बढ़ती उम्र और अपनी बढ़ती सफेदी ने कुछ असाध्य रोगों को भी आमंत्रित कर दिया है.

योगेश को कोई बीमारी तो नहीं बताते. लेकिन फोन पर बेटी -बेटे और वसुधा की चिंता व्यक्त करने का उनका तनाव-भरा थका अंदाज उन्हें रोगमुक्त कहने में हिचकता है. चन्द्रप्रकाश को मधुमेह की शिकायत हो रही है और वसुधा का रक्तचाप कभी-कभी उतार-चढ़ाव पकड़ लेता है. मीरा अपने बेफिक्र स्वभाव के कारण बची हुई है.

लेकिन अपने पूर्णानंद का पुराना ताकी झांकी रोग चरम पर पहुंच गया है वर्षों बाद उन्हें कुछ सूत्र दिखाई देने लगे हैं.

बात कुछ भी नहीं है. डॉक्टर की सलाह पर थोड़ी ढीलम-ढिलाई के बाद सवेरे की सैर का पक्का नियम बना चुके चन्द्रप्रकाश को देख बच्चों ने वसुधा को भी उकसा दिया, "मम्मी , अकेले तो आप जाती नहीं थीं. अब अंकल जी के साथ निकल जाया करो सैर को. बहुत फायदा होगा आपको ब्लड प्रेशर में."

पूर्णानंद जी इसी से चकित हैं. उतावले हुए जा रहे हैं. --- अब तो खुल्लम खुल्ला---- सवेरे के एकांत मे-- न कोई डर, न हिचक. पता नहीं क्या गुल-----.

अब उन्हें कैसे समझाऊं--- उम्र खुद एक ढाल है. बहुत सारे अपवादों को यों ही टाल देती है. सम्बन्धों का भी वही स्वरूप नहीं रह जाता जो आपने शुरू में देखा था. अर्थ और जरूरतें बदलती हैं, तो व्यवहार की गंभीरता नुक्ताचीनी की गुंजाइश नहीं छोड़ती. आप खरोंचते रहें--- चिकनाहट वाली सपाट परत से कुछ नहीं निकाल पाएंगे, इसलिए शांत रहिए,एकदम चुप, कहानी इससे आगे नहीं बढ़ सकती.

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वरिष्ठ कथाकार क्षितिज शर्मा का जन्म १५ मार्च, १९५० को अल्मोड़ा (उ०प्र० - अब उत्तराखण्ड) में हुआ था. शिक्षा - बी.एस.सी, एम.ए. (हिन्दी).

प्रकाशित कृतियां : ताला बन्द है, समय कम है, उत्तरांचल की कहानियां, गोरखधंधा (कहानी संग्रह), उकाव, पगडंडियां (उपन्यास), भवानी के गांव का बाघ, पामू का घर (बाल उपन्यास).

पुरस्कार / सम्मान : भवानी के गांव का बाघ के लिए हिन्दी अकादमी दिल्ली का बाल साहित्यकार पुरस्कार.

: 'उकाव' (उपन्यास) के लिए आर्य स्मृति साहित्य सम्मान.

: 'पगडंडियां' के लिए हिन्दी अकादमी , दिल्ली का कृति सम्मान.

सम्प्रति : 'दि सण्डे पोस्ट' में साहित्य सम्पादक.

संपर्क : १००/२ ए, गांवड़ी एक्सटेंशन, दिल्ली -११००५३

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