रविवार, 31 मई 2009

वातायन - जून, २००९


हम और हमारा समय
हिन्दी साहित्य में दूसरों को पढ़ने की परम्परा कम अपने लिखे को पढ़वाने की आकांक्षा अधिक देखने में आती है. प्रायः देखने में आता है कि आलोचक (अपवादस्वरूप कुछ को छोड़कर ) दूसरों के पढ़े से काम चला लेते हैं. यही कारण है कि किसी लेखक की लगातार उन्हीं कहानियों की चर्चा करते रहते हैं जिनकी चर्चा किन्ही कारणों से हो चुकी होती है , भले ही लेखक ने उससे भी अच्छी कहानी/ उपन्यास बाद में लिखा हो. ये उन्हीं कुछ लेखकों के नामों का पिष्टपेषण करते रहते हैं जिनके नाम उनके सामने परोस दिए जाते हैं. यही कारण है कि लेखकों का एक बड़ा वर्ग इनके लिए अछूत बना रहता है. जबकि हकीकत यह है कि वही अछूत वर्ग अच्छा और लंबे समय तक साहित्य के मैदान में टिका रहता है, क्योंकि दूसरों की बैसाखियों के सहारे लंबी यात्रा नहीं की जा सकती .
और पुरस्कार ---- उनकी स्थिति हिन्दी में जितनी दुर्भाग्यपूर्ण है उतनी शायद किसी अन्य भाषा में नहीं है. पुरस्कारों के लिए साहित्यकार बेशर्मी की किसी भी हद तक जा सकने के लिए तैयार रहते हैं. तंत्र- मंत्र और षडयंत्र करते हैं और संस्थाएं और उससे जुड़े पदाधिकारियों के विषय में क्या कहा जाये. शायद वे जुगाड़ के सामने नतमस्तक हो जाने के लिए विवश हो जाते हैं या उनका अपना विवेक ही नहीं होता . कम से कम ’केन्द्रीय साहित्य अकादमी’ का उदाहरण तो दिया ही जा सकता है जहां किसी नोवोदित/नवोदिता की पहली कृति को पुरस्कार से नवाज दिया जाता है जबकि कितने ही वरिष्ठ लेखकों की सुध तक नहीं ली जाती. ’कुरु-कुरु स्वाहा’ , तथा ’कसप’ जैसे कालजयी उपन्यास लिखने वाले मनोहरश्याम जोशी की याद अकादमी को उनकी मृत्यु से पहले आयी. और यदि बात ’हिन्दी अकादमी’, दिल्ली की करें तो कृष्ण बलदेव वैद जैसे वरिष्टतम लेखक की औकात वह साहित्यकार पुरस्कार (इक्कीस हजार) से अधिक आंकने को तैयार नहीं, जबकि कितने ही लल्लू लाल और जगधर लालों को यह पुरस्कार उसने अंधे की रेवड़ी की भांति बांटा . वैद जी की प्रशंसा करनी चाहिए जिन्होंने इस अति विवादित पुरस्कार को लौटाने में कोई संकोच नहीं किया . कश्मीर प्रसंग पर अरुधंती राय का मैं विरोधी हूं लेकिन उन्होंने भी साहित्य अकादमी पुरस्कार लेने से इंकार करके स्तुत्य कार्य किया था.
वातायन के जून अंक में प्रस्तुत है स्व. हजारी प्रसाद द्विवेदी पर युवा कवि राधेश्याम तिवारी का आलेख -’आकाशधर्मी गुरु की परम्परा’, वरिष्ठ चित्रकार और साहित्यकार हरिपाल त्यागी की दो कविताएं और युवा कथाकार और कवियत्री इला प्रसाद की कहानी -’बैसाखियां’.
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आलेख

(आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी : १९ मई, पुण्य तिथि पर विशेष )

आकाशधर्मी गुरु की परम्परा

राधेश्यम तिवारी

डॉ. नामवर सिंह की पुस्तक, ’दूसरी परम्परा की खोज’ मैंने दो बार पढ़ी . पहली बार तब जब मैं इंटर में था और दूसरी बार करीब उसके आठ वर्षों बाद. इसे पढ़ते हुए ही आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के साहित्य को पढ़ने की ललक पैदा हुई थी. उसी क्रम में पहले ’चारु चन्द्रलेख’ एवं ’बाणभट्ट की आत्मकथा’ उपन्यास पढ़े . बाद में ’कबीर’ एवम ’सूर साहित्य’ पढ़ा तो एक पाठक के रूप में द्विवेदी जी से और गहरे जुड़ा. उस समय यह भी लगा था कि एक लेखक से जुड़ने के लिए उससे दैहिक रूप से मिलना जरूरी नहीं है. बल्कि बिना मिले जुड़ना अधिक सुखकर होता है, क्योंकि तब जुड़ने का एक मात्र माध्यम लेखक का साहित्य होता है. दैहिक रूप से मिलने के बाद कई बार बनी-बनाई धारणाएं खंडित होती हैं. ऎसा इसलिए होता है कि लेखकों को हम उसी रूप में देखना चाहते हैं जैसा उनका लेखन होता है. लेकिन दुर्भाग्य से हिन्दी में ऎसा साम्य कम ही लेखकों में देखने को मिलता है. ’दूसरी परम्परा की खोज’ ने द्विवेदी जी के साहित्य से मुझे जोड़ा इसके लिए इस कृति का मैं रिणी हूं. हिन्दी में इसी तरह की एक दूसरी पुस्तक है जिसने मुझे शरदचंद्र के साहित्य से जोड़ा. वह है विष्णु प्रभाकर का ’आवारा मसीहा’ . लेकिन एक पाठक के रूप में द्विवेदी जी की आलोचना पुस्तक एवम निबंधों ने मुझे ज्यादा प्रभावित किया. हांलाकि इसका यह अर्थ नहीं कि उनके उपन्यास किसी भी दृष्टि से कमतर हैं. सच तो यह है कि यह किसी भी पाठक की रुचि पर भी निर्भर करता है कि उसके अध्ययन की दुनिया क्या है. आचार्य द्विवेदी की आलोचना पुस्तक- ’हिन्दी साहित्य की भूमिका’, ’हिन्दी साहित्य: उद्भव और विकास’, ’मेघदूत: एक पुरानी कहानी’, ’सूर साहित्य’, ’कबीर, कालिदास की लालित्य योजना’, ’मध्यकालीन बोध का स्वरूप,’ ’मृत्युंजय रवींद्र’ आदि ने मुझे गहरे प्रभावित किया. उनके निबंधों में आलोक पर्व, कल्पलता, प्राचीन भारत के कलात्मक विनोद, देवदास , कुटज, अशोक के फूल आदि को पढ़ते हुए अक्सर ऎसा लगा कि द्विवेदी जी के निबंधों को प्रत्येक रचनाकारों को अवश्य पढ़ना चाहिए. उनके निबंधों से विषय की गहराई और भाषा का संस्कार तो मिलता है, जिसकी तुलना हम कम से कम हिन्दी के किसी दूसरे निबंधकार से नहीं कर सकते.

’दूसरी परम्परा की खोज’ पढ़ी तो एक बात अनायास ही मन में आयी. वह भी तब जब नामवर जी ने निराला से आचार्य द्विवेदी जी की तुलना करते हुए लिखा है - "द्विवेदी जी और निराला
में अद्भुत समानता है. निराला के बारे में जैसा कि कहा गया है, बंगाल के सांस्कृतिक जागरण से प्रेरणा लेते हुए भी निराला अपने जनपद के लोक जीवन से बहुत गहराई तक सम्बद्ध थे. और उनके जीवन और साहित्य के बहुत से क्रान्तिकारी श्रोत इस लोक जीवन से ही फूटे थे. इसी प्रकार द्विवेदी जी के जीवन और साहित्य का क्रांतिकारी श्रोत स्वयं उनके अपने जनपद बलिया का लोक जीवन है. असल पूंजी यही है . शांति निकेतन ने इसे सिर्फ संस्कार दिया." अर्थात निराला एवं आचार्य द्विवेदी की जड़ें अपनी जमीन से गहरे जुड़ी रहीं. जिस लेखक के जीवन में इस तरह अपनी जमीन और समाज से जुड़ाव नहीं होगा वह आखिर कैसा लेखन करेगा. वह भले ही यह भ्रम पालता फिरे कि उसका लेखक इतना महान है कि सामान्य जन की पहुंच से परे है. उसका संबन्ध किसी खास जगह से न होकर वैश्विक है. पूरे विश्व का बोझ उठाने वाले ऎसे कवि-लेखक बहुत दिनों बाद यह समझ पाते हैं कि उनके पांव के नीचे कोई जमीन नहीं है. सच्चाई तो यह है कि जो लेखक-कवि अपने समाज के प्रति कृतज्ञ नहीं होता वह विश्व के प्रति क्या होगा. निराला और आचार्य द्विवेदी अपनी जमीन के रचनाकार थे. इसीलिए वे बार-बार अपने जनपद में लौटते रहे उन्हें अपनी संस्कृति के उस पक्ष की तलाश थी जिसे कुछ परम्परावादी लोग एक खास वर्ग की पूंजी मान बैठे थे. यानी परम्परा की लाश ढो रहे थे. निराला और आचार्य द्विवेदी ने यह तलाश की कि परम्परा सिर्फ वही नहीं है कि जिसे अब तक लाश की तरह ढोया जाता रहा. वह इससे अलग भी है और वह है मनुष्य की मुक्ति की परम्परा . यानी हमारी परम्परा हमें घेरती नहीं बल्कि हमें मुक्त करती है. इस संबंध में डॉ. नामवर सिंह ’दूसरी परम्परा की खोज’ की भूमिका में लिखते हैं -- "वे आकाशधर्मी गुरु थे. हर पौधे को बढ़ने के लिए उन्मुक्तता देने के विश्वासी. यह उन्मुक्तता ही उनकी परम्परा का मूल स्वर है. लेकिन यह उन्मुक्तता जितनी सहज दिखती है उसे समझ पाना उतना सहज नहीं है." द्विवेदी जी ने इस परम्परा की खोज अपनी ही जमीन से की है. इसके लिए उन्हें कहीं बाहर जाने की आवश्यकता नहीं पड़ी.

इस संदर्भ में एक बात और जो चकित करती है वह यह कि हिन्दी के दो शीर्ष आलोचक डॉ. राम विलाश शर्मा एवं डॉ. नामवर सिंह ने जिन लेखकों पर सर्वाधिक गंभीरता से काम किया है उनमें निराला और आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी हैं. दोनों ही आलोचक घोषित रूप से मार्क्सवादी आलोचक हैं. जबकि इनके आदर्श निराला और आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कभी भी यह घोषणा नहीं की कि वे किसी वाद से जुड़े हैं. फिर भी इनके प्रति इन आलोचकों के जुड़ाव में कोई कमी नहीं रही. डॉ. नामवर सिंह ने लिखा है -- "यह बात तब की है जब १९५० में वे (आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी) शांतिनिकेतन से काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में हिन्दी के प्राचार्य होकर आए और एम.ए. अंतिम वर्ष के छात्र के रूप में मुझे उनके चरणों में बठकर कुछ सीखने का सभाग्य प्राप्त हुआ."

गुरु के चरणॊं में सीखने का यह जो विनम्र भाव है वह कबीर के यहां भी मौजूद है. कबीर तो गुरु को कुछ मामलों में गोविन्द से भी बड़ा मानते हैं. क्योंकि गोविन्द तक पहुंचने का रास्ता गुरु ही बताता है. नामवर जी को गोविन्द की जरूरत नहीं थी, क्योंकि वे मार्क्सवादी हैं .वह ऎसे गुरु के पक्षधर हैं जो ज्ञान के स्तर पर चेतना सम्पन्न हों. आचार्य द्विवेदी वैसे ही गुरु थे.

ऎसे आकाशधर्मी गुरु के प्रति यह कृतज्ञ भाव हमें मनुष्यता के करीब लाता है साथ इससे यह भी बोध होता है कि हमारी परम्परा में मार्क्स से बहुत पहले प्रगतिशील विचार जन्म ले चुका था. जहां से आचार्य द्विवेदी एवम निराला को रचनात्मक ऊर्जा मिलती रही. इसके लिए उन्हें कहीं बाहर झांकने की जरूरत नहीं पड़ी. जीवन के प्रति आस्था और प्रगतिशीलता उनके रक्त में था. उनकी आधुनिक दृष्टि एवं प्रगतिशीलता दिखावटी नहीं थी. नामवर जी लिखते हैं -- "आधुनिकता भी उनके लिए एक नया फैशन नहीं, बल्कि भावबोध के स्तर की वस्तु है." सच तो यह है कि आज ऎसे ही गुरुओं से कुछ सीखने की जरूरत है . ऎसे गुरुओं के साथ जुड़कर ही मुक्ति का मार्ग तलाशा जा सकता है. इनके साथ बंध कर रहना बंधन नहीं मुक्ति है. इस संदर्भ में मुझे अपनी ही कविता की कुछ पंक्तियां याद आती हैं :

’’ऊंचे आकाश में
कुलांचे भरती पतंगें,
सोचती हैं खुद पर
यह बंधन भी, कितना अजीब है
कि दूर-दूर तक लिए फिरता है."
*****
युवा कवि-पत्रकार राधेश्याम तिवारी का जन्म देवरिया जनपद (उत्तर प्रदेश) के ग्राम परसौनी में मजदूर दिवस अर्थात १ मई, १९६३ को हुआ।अब तक दो कविता संग्रह - 'सागर प्रश्न' और 'बारिश के बाद' प्रकाशित. हिन्दी की लगभग सभी महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित।सम्पादन - 'पृथ्वी के पक्ष में' (प्रकृति से जुड़ी हिन्दी कविताएं)पुरस्कार : राष्ट्रीय अज्ञेय शिखर सम्मान एवं नई धारा साहित्य सम्मान.
संपर्क : एफ-119/1, फ़ेज -2,अंकुर एनक्लेवकरावल नगर,दिल्ली-110094
मो० न० – 09350135756

कविता



हरिपाल त्यागी की दो कविताएँ
कभी-कभी
कभी-कभी
मेहरबान हो उठते हैं
फूल क्यारी पर
खुद-ब-खुद
सहमे हुए बच्चे
कभी-कभी उछलने लगते हैं
खुद-ब-खुद
उमंग, उछाह और
किलकारियों के मुक्त छंद में
कभी-कभी
जाल पर फिदा हो जाती हैं
मछलियाँ
खुद-ब-खुद
शब्दों में
भरपूर ताकत के बावजूद
धरी रह जाती है तमाम कोशिश
कभी-कभी
पास... बहुत पास चली आती है कविता
खुद-ब-खुद।

डस्टबिन से उठती आवाज़
मैं आपके द्वारा
छांट दिया गया कूड़ा-कचरा हूँ
क्या आप पुनर्विचार करने का
कष्ट करेंगे जनाब ?
कुछ तो ऐसा भी छूट गया होगा
आपकी पारखी नज़र से
जो मुझ में श्रेष्ठ है
और/बचा हुआ है
आपके उपभोग की वस्तु होने से अभी तक
कुछ तो छूट ही गया होगा
आपकी मदभरी लापरवाह निगाहों से
पूरी चौकसी के बावजूद
कुछ तो...
मालूम से नामालूम तक मैं पसरा पड़ा हूँ
आपके इस डस्टबिन तक ही नहीं
आपके दिमाग तक भी पैठ है मेरी
मैं बता सकता हूँ आप को आपकी औकात
क्या आप गौर फरमाएँगे हुजूर ?
मैं खोल हूँ आपकी उस बुलट का
जिसकी बारूद आपने
जीवनमूल्यों और मानवता के
पेट में उतार दी है
मेरे ही ख़िलाफ आप कर रहे हैं मेरा इस्तेमाल
फिर भी
कुछ तो छूट ही गया होगा आपकी पैनी निगाह से
जो मुझमें और मेरे अलावा अभी शेष है
और काफी है आपका अस्तित्व मिटा देने के लिए
क्या आप पुनर्विचार करेंगे ?
00
उत्तर प्रदेश के बिजनौर जिले के महुवा गांव मे 20 अप्रैल, 1934 को जन्मे हरिपाल त्यागी शिक्षा प्राप्त करने के बाद विवाहोपरान्त 1955 में आजीविका की तलाश में पिता के साथ दिल्ली आ गये. चित्रकला, काष्ठ शिल्प कार्य और लेखन को अभिव्यक्ति का माध्यम चुना. अनेक प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं एवं उल्लेखनीय पुस्तकों में पेण्टिंग्स तथा साहित्यिक रचनाएं प्रकाशित एवं संगृहीत. अनेक नगरों-महानगरों में एकल चित्रकला प्रदर्शनियां आयोजित एवं सामूहिक कला-प्रदर्शनियों में भागीदारी.'आदमी से आदमी तक'(शब्दचित्र एवं रेखाचित्र) भीमसेन त्यागी के साथ सहयोगी पुस्तक. 'महापुरुष' (साहित्य के महापुरुषों पर केन्द्रित व्यंग्यात्मक निबन्ध) एवं रेखाचित्र प्रकाशित.दो उपन्यास, एक कहानी संग्रह तथा संस्मरणॊं की एक पुस्तक शीघ्र प्रकाश्य. 'भारतीय लेखक' (त्रामासिक पत्रिका) का सम्पादन.साहित्य एवं कला के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए अनेक बार पुरस्कृत-सम्मानित. देश-विदेश में पेण्टिंग्स संग्रहित.एफ़- 29, सादतपुर विस्तार, दिल्ली-110094फोन : 011-22961856E-mail : haripaltyagi@yahoo.com

कहानी


बैसाखियाँ

इला प्रसाद
इस बार वह पूरी तरह तैयार हो कर आई थी । एक दिन पहले ही कम्प्यूटर पर देख लिया था , नाइन्टीन सिक्स्टी पर सेन्ट पैट्रिक्स डे की परेड दोपहर दो बजे से शाम चार बजे के बीच थी । रविवार होने की वजह से और सहूलियत थी । उसने कई काम कल ही खत्म कर लिए थे ।
यह आइरिश त्योहार हमेशा उसे होली की याद दिलाता है और मार्च के महीने में होने की वजह से अक्सर ही होली या तो बीत चुकी होती है या फ़िर आनेवाली होती है । सेन्ट पैट्रिक्स डे यानि हरे रंगों की बहार ! हरी शर्ट , हरी टोपी , हरे मोतियों की माला और आँखॊं पर हरे रंग के फ़्रेम का चश्मा । कुछ ने हरा रंग चेहरे पर पोत रखा था । हरा गुलाल भी दिखाई पड़ा । हरियाली सब ओर । वसंत के आगमन की सूचना देता हुआ , संत पैट्रिक ने नाम पर मनाया जाने वाला यह आइरिश त्योहार अब अमेरिका की जिन्दगी का हिस्सा हो चुका है । यूँ तो उसने देखा है कि खुलता हुआ हरा रंग ही - जैसे कि घास का होता है - हर ओर छाया होता है लेकिन हरे के बाकी शेड भी देखने को मिल जाते हैं । अमूमन वह भी उस दिन कोई हरी शर्ट डाल लेती है अपनी ब्लू जीन्स पर और भीड़ में शामिल हो जाती है । उसे यह परेड अच्छी लगती है और यदि परेड के दौरान दर्शकों की तरफ़ फ़ेंके गए चाकलेट, मोतियों की माला, कूपन आदि में से शैमरॉक ( तीन पत्तियों के आकार वाला ) का चिन्ह यदि उसे मिल गया तो वह आम आयरिश की तरह मान लेती है कि यह उसके लिए सौभाग्य लाने वाला है । दरअसल ऐसा ही उसके साथ होता भी आया है। पहली बार वह जबरन इस परेड के दर्शकों में शामिल हुई थी । वह सप्ताह भर का सौदा- सुलुफ़ लेने बाजार निकली थी और लौटते वक्त जाना कि घर तक पहुंचने के रास्ते बन्द हैं । सड़्क पर शेरिफ़ की गाड़ियाँ हार्न देती घूम रही थीं । फ़ुट्पाथों पर लोग जमे थे और किसी भी तरह कार निकालने की गुंजाइश नहीं थी । मजबूरन उसने कार पार्किंग लॉट में कार पार्क की थी और सड़्क के दोनों ओर हजारों की संख्या में खड़े दर्शकों में शामिल हो गई थी । तब उसने पीली शर्ट पहनी हुई थी और कुछ भी हरा नहीं । वह भीड़ से अलग दिखाई दे रही थी कुछ थोडे़ से अन्य लोगों की तरह जो उसी की तरह शायद फ़ंस गये थे । हरे रंग के गुब्बारों और शैमरॊक के चिन्ह से सजी विभिन्न कम्पनियों का इश्तेहार लगाए हुए गाड़ियाँ , जिनकी खुली छतों से ढेर सारे लोग दर्शकों को लक्ष्य कर मालाएँ फ़ेंक रहे थे , एक - एक कर गुजरती रहीं । गुजरती हुई गाड़ियों को वह दिलचस्पी से देखती रही थी । दर्शकों में बच्चे अधिक थे और उनके अभिभावक पिछली पंक्तियों में खड़े चाकलेट आदि लूटने में उनकी सहायता कर रहे थे । एक ट्र्क या कार गुजरती और बीड्स- बीड्स की गुहार मच जाती । हैप्पी सेन्ट पैट्रिक्स डे के नारों से आकाश गूंज उठता । "प्राउड टू बी एन आयरिश " के नारे गुजरती गाड़ियों पर पढ़ कर वह मुस्कराती रही थी । तरह तरह की गाड़ियाँ - कोई जूते के आकार की , कॊई घर बना हुआ ..... बड्लाइट की ट्रक से उस शराब का विज्ञापन करती गाड़ियाँ की-चेन फ़ेंक रही थीं जिसमें कार्डबोर्ड की बडलाइट की बोतल जुड़ी हुई थी । सबकुछ हरे रंग का । बीच-बीच में बच्चों की टोलियाँ खूबसूरत हरे रंग की ड्रेस पहने जिमनास्टिक के करतब भी दिखा रही थीं । कुछ गीत गाते हुए बच्चे भी गुजरे । एक म्यूजिक कम्पनी की गाड़ी कर्णप्रिय धुनें बजाती गुजर गई । कुल मिला कर सुषमा को यह जुलूस बहुत अच्छा लगा था । दर्शनीय!
हालाँकि उसने बाकी लोगों की तरह चिल्लाकर बीड्स नहीं माँगे थे तब भी काफ़ी कुछ उसके पैरों के पास आकर गिरा था । कई रंगों की मोतियों की मालाएँ, चाकलेट और एक टिन की बनी चमकीली तीन पत्ती भी । बीड्स वे लें जो ईसाई हैं , उसे क्या ....! उसने सोचा था किन्तु फ़िर सारा कुछ बटोरती चली गई । वह दिन अच्छा गुजरा था । मन में जैसे हरियाली छा गई थी । बहुत कुछ आँखों के रास्ते भी मन में उतरता है।
जब उसी दिन पोस्ट किए गए रिसर्च पेपर की स्वीकृति की सूचना , करीब महीने भर बाद मिली तो उसने मान लिया कि यह तीन पत्ती सचमुच शुभ शगुन है । अगले साल वह फ़िर से जुलूस देखने गई । उसने भीड के साथ उछल - उछल कर बहुत कुछ लपका था । उसके हाथ कई शैमरॉक के चिन्ह वाले रैपर लगे चाकलेट आए थे । उसके बाद जब अचानक ही एक दिन लुइस आकर उसके पैसे लौटा गया तो वह सोचने पर मजबूर हो गई थी । इस तीन पत्ती के आकार में कुछ तो है । सेन्ट पैट्रिक डे एक शुभ दिन का नाम है। तब से हर साल वह अपनी किस्मत जानने को इस भीड़ में शामिल हो जाती है । फ़िर कोई तीन पत्ती मिलेगी क्या ? कोई चाकलेट ही, जिसके रैपर पर यह चिन्ह बना हो ! बल्कि अब तो वह अपनी मित्र मंडली को भी यह जुलूस देखने के लिए प्रोत्साहित करती है । दूसरी सारी वजहों को किनारे कर देने पर भी यह जुलूस दर्शनीय तो है ही और थोड़ी देर के लिए आप बच्चों में शामिल हो कर खुद भी बच्चे हो जाते हैं ।
यही सब सोच कर उसने वन्दिता को फ़ोन किया था ।
"कल सेन्ट पैट्रिक्स डे है । आ रही है ?"
"वह क्या होता है?"
"कम ऒन यार ! तेरे दो बच्चे हैं और तुझे ही नहीं मालूम ?"
"बता न ।"
सुषमा ने विस्तार से जानकारी दी थी । शैमरॉक और गोल्डेन बीड्स से जुड़े आयरिश विश्वास और संत पैट्रिक के बारे में उसने कम्प्यूटर पर पढ़ा था । ईसाई मान्यताएँ यूँ भी उसके लिए नई नहीं थीं । वह बचपन से ईसाई कान्वेन्ट स्कूळ में पढ़ी थी । ईसाई धर्म भी की भी इतनी शाखाएँ है और एक चर्च दूसरे से अपनी मान्यताओं को लेकर कितने भिन्न हो सकते है उसी जीसस क्राइस्ट पर विश्वास के बावजूद, यह जरूर उसने अमेरिका आने के बाद जाना । यहाँ आकर ईसाइयत के इतने विभिन्न रूप देखने को मिलेंगे यह उसके लिए भारत में रहते हुए कल्पनातीत था । और अभी तो वह अपना सारा ज्ञान वन्दिता के सामने उड़ेल रही थी । लेकिन वन्दिता तो वन्दिता ठहरी । अमेरिका में उसी की तरह पिछले पाँच साल से रहने के बावजूद थोड़ी भी नहीं बदली । अपनी भारतीय मंडली में घूमेगी । हर महीने उसके घर सत्यनारायण कथा या उस जैसा ही कोई उत्सव होगा । विश्व हिन्दू परिषद से जुड़ी होने के कारण भी उसका दायरा काफ़ी बड़ा है । आए दिन भीड़ लगी होती है । कभी कभी सुष को आश्चर्य होता है , कैसे संभालती है यह सबकुछ । दो बच्चे, नौकरी , पति और आए दिन चले आने वाले अतिथि । फ़िर वह हर किसी के घर पूजा में जायेगी भी । यह दीगर बात है कि उसी की वजह से सुष भी कुछ पर्व त्यौहार मना लेती है । होळी - दीवाली में उसके घर चली जाती है तो अकेला नहीं लगता !
"हाँ , हाँ , समझ गई । अरे अभी चैत्र के नवरात्र चल रहे हैं , यह समय तो शुभ होता ही है !"
सुष को लगा यह कभी नहीं सुधरेगी !
'"अरे यार , बच्चों को तो भेज । वे मजे कर लेंगे । सब होते हैं , हिन्दू , मुस्लिम, ईसाई । आयरिश और नन- आयरिश । यह अमेरिका है!"
"अच्छा, अगली बार देखेंगे । अपने सब डिवीजन में होली- मिलन है आज । ड्राइव तो मुझे ही करना होगा न । नाइटीन सिक्सटी बहुत दूर है यहाँ से।"
"तो मिनट मेड पार्क चली जा । डाउन टाउन । वहाँ का जुलूस तो और अच्छा है । तेरा दीपू तो कह रहा था कि उसे मालूम है सेन्ट पैट्रिक्स डे क्या होता है ।"
"हाँ , सब स्कूल में सीख आते हैं । मैं तो बहन परेशान हो गई । वाइ एम सी ए स्विमिंग के लिए ले जाओ । फ़िर कराटे सीखना है । होम वर्क करवाऒ । इन्हें तो फ़ुरसत ही नहीं मिलती । सब मुझे ही करना है ।"
"चल, जाने दे ।"
सुषमा जानती है , वह नहीं आयेगी । न ही बच्चों को उसके साथ जाने देगी । अमेरिका आने के बाद भी भारतीय पति अन्य मामलों में चाहे बदल जाएँ , पत्नी को लेकर भारतीय बने रहते हैं । यह सुविधाजनक है !
लेकिन सुषमा जायेगी । उसे तीन पत्ती चाहिए !
इस बार उसके पास लखनवी अंगूरी रंग का कुर्ता है - उसका सबसे प्रिय और इस वक्त उसने वही पहना हुआ है ।
यह नाइन्ट्न सिक्स्टी अक्सर उसे भ्रमित करता है । पहली बार तो जब सुना था तो उसकी समझ में ही नहीं आया था कि यह संख्या किसी रास्ते को सूचित करती है । अभी भी वह अक्सर गलत मोड़ ले लेती है और गलत रास्ते पर पहुँच जाती है लेकिन आज ऐसा नहीं हुआ । उसने कार सीयर्स के बड़े से गोदाम के पास पार्क की और कार की ट्रंक से कुर्सी निकाल ली । उसे लगा था कि वह लेट हो गई है लेकिन अभी परेड शुरू नहीं हुई थी । कई सारे दर्शक सड़क के दोनों ओर कुर्सियाँ डाले बैठे थे । पार्किंग लॉट में घुसने और निकलने का रास्ता भी कुर्सियों से पटा पड़ा था । वह नाइन्टिन सिक्स्टी के पीछे की तरफ़ से आई थी , इसीलिए घुस सकी थी । बैठनेवालों में तमाम बड़े थे । बच्चों की कतार तो उत्साह से भरी उचक उचक कर सड़्क के उस सिरे पर नजर लगाए थी जहाँ से जुलूस आनेवाला था । उसने एक कोने में अपनी मुड़नेवाली कुर्सी खोली और जम गई । उसके ठीक बगल में एक गोरी वृद्धा आँखों पर शैमरॉक के आकार का हरा चश्मा लगाए हुए है । उसे अपनी ओर देखता पाकर वह मुस्कराई । सुष ने भी इशारा कर दिया - बहुत सुन्दर ! वह खुश हो गई ।
इस बार फ़िर अगर शैमरॉक मिलता है तो जरुर उसका चयन होनेवाला है । वह इन्टरव्यू देगी । अब आगे पढ़ाई करने का उसका इरादा नहीं । वह व्यवस्थित होना चाहती है । अपनी जिन्दगी की अगली पारी खेलना चाहती है । अमेरिका से वापस लौटने का तो प्रश्न ही नहीं उठता । यहाँ की सुविधापूर्ण जिन्दगी की आद्त अब उसे भारत की धूल -पसीने भरी जिन्दगी से किनारा करने पर मजबूर करती है । उसने एक छोटा सा भारत अपने मन में बसा लिया है और उसी के साथ वह जीती चली जा रही है। जीती चली जायेगी । मन के उस कोने में जहाँ उसका देश बसता है ,वह अक्सर घूम आती है । अपने दोस्तों , गली -मुहल्लों , माँ बाप , भाई बहनों, फ़ूल- पौधों से बतिया लेती है और फ़िर अमेरिका में जीने लगती है , जो उसका वर्तमान है । वह जानती है यह उस जैसे तमाम भारतीयों का सच है । और वन्दिता चाहे अपने धर्म को लेकर आग्रही हो , देश को लेकर वह भी नहीं है ।
इस इंटरव्यू को लेकर वह कई दिनों से उधेड़्बुन में है । जाए न जाए । पहले तो लगता रहा था कि बुलावा ही नहीं आयेगा । वह अपने आप को इस स्थिति के लिए तैयार करती रही । इसके अतिरिक्त और कौन कौन सी कंपनियाँ हैं जहाँ वह आवेदन कर सकती है । कितने कम पैसों मे वह गुजारा कर सकती है । बड़ी कम्पनी यानी बड़ा पैसा यानी बड़ी प्रतियोगिता । उसके लिए कितनी गुंजाइश बचती है , वह हिसाब लगाती रही थी और अब जब इन्टर्व्यू में एक सप्ताह रह गया है वह इस जुलूस में अपनी किस्मत जानने आई है । तीन पत्ती मिली तो एयर टिकट बुक करवा लेगी ।
सहसा उसकी नजर अपने दूसरी ओर आकर खड़ी हो गई बारह - तेरह साल की मोटी सी, जो शायद स्पैनिश थी , बच्ची पर पड़ी । उसके दोनों हाथ बैसाखियों पर टिके थे और चेहरे पर गहरी उदासी थी । पहला खयाल जो सुषमा के मन में आया वह यह था कि यदि यह बैसाखियों पर न होती तो मोटापे की समस्या का ईलाज करवा रही होती । पिज्जा खा खाकर मोटे हुए माँ बाप बच्चों को असमय ही मोटापे की समस्या का शिकार बना देते हैं । लेकिन उसकी बगल में खड़ी स्त्री मोटी नहीं थी ।
सुष की कुर्सी की ठीक बगल में उस लड़की ने जगह ली । उसकी आँखें सुषमा से मिलीं लेकिन सुष की मुस्कुराहट के प्रत्युत्तर में वह स्त्री मुस्कुराई । वह लड़की नहीं । सुषमा को एक अजीब सी बेचैनी महसूस हुई । वह उसकी उदासी को समझ सकती थी । जहाँ आगे की लाइन में खड़े बच्चे उछ्ल उछलकर मालाएँ लूट रहे थे, खुशी से चिल्ला रहे थे , यह लड़की प्रस्तर-प्रतिमा सी अपनी बैसाखियों पर बस खड़ी थी । सुष को हैरत हुई कि क्यों नहीं इसकी माँ या अभिभाविका , जो भी यह औरत है , आगे बढ़्कर कुछ बीड़्स , कुछ चाकलेट इसके लिए बटोर लाती है । वह तो ऐसा कर ही सकती है । या कि इसे पीछे ही रोके रखने के लिए , कि यह भीड़ में अपनी और दुर्गति न कराए , वह पीछे खड़ी है ?
जुळूस अपने चरम पर था । सारी चीजें अगली पंक्तियों में खड़े लोगों द्व्रारा लपक ली जातीं । अभी तक सुष तक कुछ नहीं पहुंचा था । और कुछ नहीं तो भी उसे एक तीन पत्ती तो चाहिए , सोचती हुई वह अपनी कुर्सी से उठ कर कुछ आगे बढ़ गई ।
बस थोड़ा ही बढ़ी थी कि एक चाकलेट कैन्डी ठीक उसके पैरों के पास गिरी । वह कोई बच्ची तो नहीं , जो लालीपॉप खाए । उसने वह चाकलेट पीछे मुड़कर उस बच्ची की तरफ़ बढ़ा दी "दिस इज फ़ॉर यू ।"
उस बच्ची के उदास चेहरे पर एक क्षीण मुस्कराह्ट बिजली की चमक सी कौंधकर पल भर में विलीन हो गई ।
सुष ने फ़िर जुलूस की तरफ़ नजर दौड़ाई । लगता नहीं कि उसके हिस्से में कुछ आनेवाला है । इस बार गुजरती गाड़ियों में विज्ञापन ज्यादा है । शैमरॉक के डिजाइन ज्यादा हैं लेकिन कुछ वैसा दर्शकों की तरफ़ नहीं आ रहा । लेकिन शायद यह भी सच नहीं था । छोटे से ट्रक पर बैठे दो बच्चों ने शैमराक के आकार के बैलून फ़ुलाए और एक-एक दोनों दिशाओं में दर्शकों की तरफ़ उछाल दिए । एक बच्चे और दूसरी ओर एक लम्बे आदमी द्वारा वे हवा में ही लपक लिए गए । सुष मायूस हो गई । बस इतना ही तो चाहिए था उसे फ़िर तो वह वापस हो लेती । क्या पता उसी तरह यह बच्ची भी कुछ ऐसा ही सोचकर यहाँ आई हो । उसने मुड़्कर बच्ची की तरफ़ देखा । वह चेहरा भावहीन था । जैसे कॊई उम्मीद कहीं बची ही न हो।
सुष आगे बढ़कर पहली लाइन में खड़े बच्चों की पंक्ति के ठीक पीछे आ गई । बस एक तीन पत्ती , बाकी सबकुछ वह उस बच्ची को दे देगी । तीन पत्ती मिली तो वह इन्टर्व्यू के लिए जायेगी वरना नहीं । इतनी दूर बोस्टन जाऒ , जब कि वहाँ बर्फ़ पड़ रही है, और अगर होना ही नहीं है तो क्या जरूरत है जहमत उठाने की ।
एक सुनहली माला उस तक आ कर गिरी । यह भी शुभ् शगुन है , उसने सोचा और फ़िर पीछे जाकर माला उस बच्ची को दे दी। यह उसकी पहली माला थी, । उसने गले में डाल ली । अबतक अगली पंक्ति के बच्चे मालाओं से लद चुके थे । हरी, सुनहली , नीली , पीली , लाल, बैगनी - हर रंग की मालाएँ । पालिथीन चाकलेटों से भरे ।
विपरीत दिशा में देख रही , उसके पैरों से फ़िर कुछ टकराया । सफ़ेद मोतियों की माला ।
इसे वह अपने लिए रखेगी ।
पीछे खड़ी बच्ची के गले में अब दो मालाएँ थीं । एक उसके साथ की स्त्री ने उठाई थी ।
अगली दो चाकलेट फ़िर सुष ने बच्ची को दे दी । वह फ़िर मुस्कराई । लेकिन थैंक्यू जैसा कोई शब्द उसके मुँह से नहीं निकला । शायद वह बाकी बच्चों से अपनी तुलना कर रही थी जो मालाओं, चाकलेटों ,और तरह तरह के पैकेटों , टी शर्ट आदि से लदे फ़ंदे खुशी से कूद रहे थे ।
गाडियाँ गुजरती रहीं । अब वे पीछे खड़े लोगों को लक्ष्य कर रहे थे । बहुत कुछ पीछे भी पहुँच रहा था । सुष फ़िर से पीछे ह्ट आई थी । और एक एक कर कई मालाएँ वह बटोर चुकी थी । हर गाड़ी के गुजरने के साथ उसकी मायूसी बढ़ती जा रही थी । कोई तीन पत्ती उसे नहीं मिलनेवाली । हालाँकि ऐसी मालाएँ भी फ़ेंकी गई थीं जिनमें तीन पत्ती यानी शैमरॉक गुँथे हुए थे । उसमें से कुछ भी सुष तक नहीं पहुँचा था । एक घंटे के जुळूस का तीन चौथाई पार हो चुका था ।
सुष को लौटना था ।
सहसा बारिश शुरू हो गई । लोग भागने लगे । सुष ने अपनी मालाऎँ गिनीं । एक में सिक्स फ़्लैग का कूपन था । दूसरे से फ़ूलों के आकार की सुगन्धित मोमबत्तियाँ लटक रही थीं एक कूपन के साथ कि वह अपनी मोमबत्ती इस दूकान पर आकर ले जाए । यानि कि जो उसे चाहिए था उसके सिवा बहुत कुछ मिल गया था उसे लेकिन उसके अन्दर का विश्वास जगाने के लिए कुछ नहीं । एक एक कर सारी मालाएँ उसने गले में डाल लीं । उसने पीछे लौटते हुए देखा , उस बच्ची के गले में भी तकरीबन इतनी ही मालाएँ थीं , हालाँ कि वह अपनी जगह से हिली भी नहीं थी , सिवाय एक बार के , जब एक पीली माला उन दोनों के बीच आ कर गिरी थी और सुष ने उससे कहा था "टेक इट ।" तब उसने झुक कर माला उठा ली थी ।
चमकती हुई , शीशे की मोतियों की मालाओं की तरह उस लड़की का चेहरा प्रसन्न्नता से चमक रहा था । मालाओं की चमक शायद अब उसके अन्दर भरने लगी थी । चेहरे पर शान्ति थी। वह मुस्करा रही थी ।
सुषमा ने अपनी बाकी चाकलेट्स भी उसे दे दीं । इतने चाकलेटों का वह करेगी क्या । किसी पर शैमरॉक का चिन्ह भी नहीं !.........
बच्ची ने पहली बार उसे "थैंक यू" कहा ।
शायद उसे उसका इच्छित सबकुछ मिल गया था !
भागते हुए लोगों में वह वृद्धा भी थी जिसने हरा चश्मा पहना था - शैमराक की डिजाइन का । " यह क्या बारिश होने लगी ।" वह सुषमा से अंग्रेजी में बोली ।
"मैं भारतीय हूँ । हमारे यहाँ ऐसी हल्की बारिश को लोग शुभ मानते हैं । "सुषमा ने कहा ।
"अच्छा।" वह वृद्धा प्रसन्नता से मुस्कराई ।
"हाँ । आपको मानना चाहिए कि यह सेन्ट पैट्रिक्स डॆ हैप्पी होने वाला है ।"
"हैप्पी सेन्ट पैट्रिक्स डे ।" वह हँसी ।
कुछ हो न हॊ , सुषमा ने सोचा , उस वृद्धा का विश्वास उसने दुबारा जगा दिया है । अपनी मान्यताओं से जोड़कर । जबकि वह खुद इस बात में यकीन नहीं करती !
आकाश काले बादलों से भरता जा रहा था । वसंत का स्वागत करते पेड़ों में नई पत्तियाँ थीं लेकिन उनका घने छायादार स्वरूप में ढलना बाकी था कि कोई उनके नीचे खड़ा होकर खुद को बारिश से अंशत: ही सही , बचा सके । सुष और वह वृद्धा कुछ दूर तक साथ साथ पार्किंग ळॉट में चलते रहे । काले आसमान के नीचे ,सुष को उसकी दूधिया हँसी बहुत पवित्र सी लगी । उसे घर जाना था । बाकी बचे काम निबटाने थे । वह वृद्धा शायद कुछ और कहना चाहती थी लेकिन सुष आगे बढ़ ली । नीचे हरा रंग अब भी सब तरफ़ फ़ैला था । भागते हुए लोग एक हरी दीवार की मानिन्द नजर आ रहे थे । बैसाखियों पर खड़ी लड़की अब भी गले में मालाएँ पहने शान्त भाव से खड़ी मुसकरा रही थी । शायद उनलोगों की कार आस पास ही कहीं थी । सुषमा ने सोचा, जाने दो । इन्टरव्यू वह दे देगी । घर लौटकर पहला काम एयर टिकट बुक करना । फ़िर इंटरव्यू की तैयारी । आज का दिन तो बीत गया । एक दिन यात्रा का । तो बस पाँच दिन बचे हैं । ठीक से तैयारी करेगी । चयन हो न हो ! जाने का खर्च तो कम्पनी दे ही रही है । और उसे क्या करना है । कड़ी प्रतियोगिता है इसीलिए साहस मरा हुआ है लेकिन यदि सफ़ल हुई तो बॉस्टन अच्छी जगह है । बड़ा पैसा भी है । चलॊ , छोड़ॊ, वह भी क्या अन्धविश्वास पाल रही है !
सहसा उसने मह्सूस किया कि बैसाखियों पर सिर्फ़ वह लड़की नहीं वह खुद भी खड़ी थी और कई सारे अन्य लोग । फ़र्क इतना है कि आज उसकी बैसाखियाँ उतर गईं । । वह मुक्त है -अपने पाँवों से चलने को स्वतंत्र !
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झारखंड की राजधानी राँची में जन्म। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से सी. एस. आई. आर. की रिसर्च फ़ेलॊशिप के अन्तर्गत भौतिकी(माइक्रोइलेक्ट्रानिक्स) में पी.एच. डी एवं आई आई टी मुम्बई में सी एस आई आर की ही शॊध वृत्ति पर कुछ वर्षों तक शोध कार्य । राष्ट्रीय एवं अन्तर-राष्ट्रीय शोध पत्रिकाओं में शोध पत्र प्रकाशित । भौतिकी विषय से जुड़ी राष्ट्रीय एवं अन्तरराष्ट्रीय कार्यशालाओं/ सम्मेलनों में भागीदारी एवं शोध पत्र का प्रकाशन/प्रस्तुतीकरण।कुछ समय अमेरिका के कालेजों में अध्यापन।छात्र जीवन में काव्य लेखन की शुरुआत । प्रारम्भ में कालेज पत्रिका एवं आकाशवाणी तक सीमित।"इस कहानी का अन्त नहीं " कहानी , जो जनसत्ता में २००२ में प्रकाशित हुई , से कहानी लेखन की शुरुआत। अबतक देश-विदेश की विभिन्न पत्रिकाओं यथा, वागर्थ, हंस, कादम्बिनी, आधारशिला , हिन्दीजगत, हिन्दी- चेतना, निकट, पुरवाई , स्पाइल आदि तथा अनुभूति- अभिव्यक्ति , हिन्दी नेस्ट, साहित्य कुंज सहित तमाम वेब पत्रिकाओं में कहानियाँ, कविताएँ प्रकाशित। "वर्तमान -साहित्य" और "रचना- समय" के प्रवासी कथाकार विशेषांक में कहानियाँ/कविताएँ संकलित । डा. अन्जना सन्धीर द्वारा सम्पादित "प्रवासिनी के बोल "में कविताएँ एवं "प्रवासी आवाज" में कहानी संकलित। कुछ रचनाओं का हिन्दी से इतर भाषाओं में अनुवाद भी। विश्व हिन्दी सम्मेलन में भागीदारी एवं सम्मेलन की अमेरिका से प्रकाशित स्मारिका में लेख संकलित। कुछ संस्मरण एवं अन्य लेखकों की किताबों की समीक्षा आदि भी लिखी है । हिन्दी में विज्ञान सम्बन्धी लेखों का अनुवाद और स्वतंत्र लेखन। आरम्भिक दिनों में इला नरेन के नाम से भी लेखन।कृतियाँ : "धूप का टुकड़ा " (कविता संग्रह) एवं "इस कहानी का अंत नहीं" ( कहानी- संग्रह) ।लेखन के अतिरिक्त योग, रेकी, बागवानी, पर्यटन एवं पुस्तकें पढ़ने में रुचि।सम्प्रति : स्वतंत्र लेखन ।सम्पर्क : 12934, MEADOW RUNHOUSTON, TX-77066USAई मेल ; ila_prasad1@yahoo.com

सोमवार, 4 मई 2009

वातायन - मई, २००९





हम और हमारा समय

साहित्य में आस्था का प्रश्न
रूपसिंह चन्देल
हम आज क्रूर साहित्यिक समय में जी रहे हैं. आपा-धापी की स्थिति है. एक साहित्यकार दूसरे के कंधों को रौंदते हुए आगे निकलने की विकृत मानसिकता का शिकार है. वह लिखने से अधिक दूसरे को धराशायी करने में अपनी ऊर्जा का अपव्यय कर रहा है. ऎसा इसलिए कि या तो वह कुंठाग्रस्त है या असुरक्षा-भाव का शिकार. असुरक्षा का भाव अपने शब्दों के प्रति अविश्वास और अनास्था से उत्पन्न होता है. अपने लिखे के प्रति अविश्वास और अनास्था उसे पाठकों के प्रति शंकालु बनाती है और यह भाव ही उसे अपनी कृतियों को चर्चा में लाने के लिए विभिन्न प्रकार के अतार्किक हथकंडे अपनाने के लिए विवश करती हैं. यदि वह पूंजीपति या रिश्वतखोर सरकारी अफसर है तब उन सतही हथकंडॊं के साथ ऎसे समीक्षकों, सम्पादकों और पत्रकारों को पटा लेना उसके लिए सहज होता है जो एक बोतल ह्विस्की में बिकने को तैयार रहते हैं. पिछले दस वर्षों में यह प्रवृत्ति अधिक ही बढ़ी है. ऎसे समय में हमें विष्णु प्रभाकर जैसे साहित्यकारों की याद बरबस हो आती है, जिन्होंने आजीवन बिना किसी वाद-विवाद में पड़े केवल और केवल साहित्य सृजन किया और आजीवन चर्चा में बने रहे.

कुछ समय पहले हिन्दी के दो वरिष्ठ साहित्यकार हमारे बीच नहीं रहे-- विष्णु प्रभाकर और यादवेन्द्र शर्मा चन्द्र. विष्णु जी की ही तरह यादवेन्द्र जी भी न केवल मसिजीवी और एक अच्छे साहित्यकार थे, बल्कि एक अच्छे इंसान भी थे -- बेहद मिलनसार. हिन्दी के साथ उन्होंने राजस्थानी साहित्य को भी समृद्ध किया. लेकिन नेताओं की छींक को भी मुख-पृष्ठ पर खबर बनाने वाले हिन्दी के समाचार पत्रों ने यादवेन्द्र शर्मा चन्द्र के लिए एक पंक्ति भी नहीं छापी---- कम से कम दिल्ली के राष्ट्रीय कहलवाने वाले समाचार पत्रों ने तो बिल्कुल ही नहीं. ’वातायन’ और ’रचना समय’ की ओर से दोनों साहित्यकारों को विनम्र श्रद्धांलि.

’वातायन’ के मई अंक में स्व. विष्णु प्रभाकर पर मेरे संस्मरण के अतिरिक्त प्रस्तुत है युवा कवियित्री , कथाकार और पत्रकार सुधा ओम ढींगरा की दस कविताएं और मुक्ति श्रीवास्तव का आलेख - ’इस्लामोफ़ोबिया और राजनीति’.
आशा है अंक आपको पसंद आयेगा.

संस्मरण
हिन्दी साहित्य के स्तंभ पुरुष

रूपसिंह चन्देल
११ अप्रैल, २००९ को हिन्दी साहित्य के वरिष्ठतम लेखक विष्णु प्रभाकर का निधन हो गया. वह गांधीवादी लेखन-परम्परा के अंतिम स्तंभ थे. वह इतने शांत और मृदुभाषी थे कि आश्चर्य होता था. मुझे नहीं लगता कि किसी व्यक्ति की बात तो दूर कभी किसी जानवर को भी उन्होंने सख्त लहजे में डांटा होगा. लंबे, गोरे-चिट्टे (वृद्धावस्था में भी चेहरा अंगारे की भांति देदीप्यमान था) सुडौल-देह-यष्टि के धनी विष्णु जी के साहित्यकार से मेरा परिचय १९६६-६७ (तब मैं हाई स्कूल में था) में ही हो गया था, लेकिन वह उनकी दो-चार बाल-कहानियों तक ही सीमित था. १९७८ में ’आवारा मसीहा’ पढ़ा और मैं उनका मुरीद हो उठा. उन दिनों मैं मुरादनगर में था और साहित्य की ओर लौट रहा था. वहां के साहित्यिक मित्र सुभाष नीरव से विष्णु जी के विषय में सुनता तो उनसे मिलने की आकांक्षा प्रबल हो उठती. मेरे स्व. मित्र प्रेमचन्द गर्ग उनके मुग्ध प्रशंसक थे. गर्ग जी का ताल्लुक भी शायद मुजफ्फर नगर (उत्तर प्रदेश) से था और विष्णु जी का जन्म वहीं हुआ था. अपने नगर-क्षेत्र का कोई व्यक्ति जब किसी भी क्षेत्र में उच्च शिखर पर पहुंच जाता है तब वहां के लोगों में उसकी चर्चा स्वाभाविक है.

मैंने ’आवारा मसीहा’ दोबार पढ़ा और विष्णु जी से मिलने की ललक और प्रबल हो उठी, लेकिन मिल नहीं पाया. ११ अक्टूबर, १९८० को मैं स्थायी रूप से दिल्ली आ बसा. अब किसी से भी मिलना सहज था.

विष्णु जी नियमित (दिल्ली में रहते हुए प्रतिदिन) कॉफी हाउस जाते थे . शनिवार की शाम कॉफी हाउस में साहित्यकारों की होती थी. विष्णु जी जाड़े के दिनों में शाम साढ़े पांच बजे और गर्मियों में कुछ देर से वहां पहुंचते और प्रायः गेट के सामने खुली छत पर एक मेज पर जा बैठते. आध-घण्टा में उनकी मेज के साथ दो-तीन मेजें और जुड़ जातीं और साहित्यकारों का जमघट लग जाता. ये वे दिन थे जब विष्णु जी के साथ नियमित बैठने वालों में वरिष्ठ कथाकार रमाकांत और कवि आलोचक राजकुमार सैनी अवश्य होते थे. विष्णु जी से कुछ दूर गेट से दक्षिण दिशा की ओर मार्क्सवादियों (इनमें कई छद्म मार्क्सवादी भी होते थे बाद में जिनके मुखौटे स्वतः उतर गये थे) का ग्रुप बैठता था और प्रायः देखने आता कि रमेश उपाध्याय जैसे एक-दो को छोड़कर विष्णु जी की ओर कोई अन्य नहीं आता था. इसे वैयक्तिक और वैचारिक संकुचन के अतिरिक्त अन्य कोई संज्ञा नहीं दी जा सकती.

एक शनिवार को शाम छः बजे कंधे से थैला लटकाये (उन दिनों यही फैशन था) मैं पहली बार कॉफी हाउस पहुंचा था. नवम्बर , १९८० की बात है. मेरे साथ सुभाष नीरव थे. विष्णु जी साहित्यकारों से घिरे हुए थे. इस दिन आलोचक डॉ. हरदयाल, डॉ. रत्नलाल शर्मा, वरिष्ठ कथाकार हिमांशु जोशी, कवि कांति मोहन-----लम्बी सूची है --- आदि पहुंचते थे. उस दिन मैंने केवल उनके दर्शन ही प्राप्त किये थे. संवाद नहीं हुआ. संवाद वहां मेरा किसीसे भी नहीं हुआ था, क्योंकि सबके लिए मैं एक अपरिचित चेहरा था.

उसके बाद मैं प्रतिमाह के दूसरे शनिवार कॉफी हाउस जाने लगा था. जाना प्रति शनिवार चाहता था, लेकिन पारिवारिक कारणॊं से यह संभव न था. कभी-कभी सरकारी अवकाश होने पर बीच में भी चला जाता . लेकिन जब भी मैं वहां गया विष्णु जी को लोगों से घिरा ही पाया. वह मेरे चेहरे से तो परिचित हो गये थे लेकिन मैं कौन हूं यह जता पाने में तीन-चार महीने व्यतीत हो गये थे. एक दिन मैं विष्णु जी के पहुंचने से पहले ही कॉफी हाउस जा पहुंचा और गेट के सामने ही एक मेज पर जा बैठा. पांच मिनट बाद ही वह मुझे गेट पर दिखे और जब वह मेरी मेज की ओर बढ़ते दिखे तब मैं उठ खड़ा हुआ था उनके स्वागत के लिए.

"अरे, आप खड़े क्यों हो गये ? बैठें." मेरे सामने कुर्सी पर थैला लटकाते हुए मुस्कराकर वह बोले थे.

बातों का सिलसिला चल पड़ा था. उन्होंने जितना मुझसे पूछा मैंने उससे अधिक उन्हें अपने बारे में बताया. वह मुस्कराते रहे-- एक निर्छ्द्म - सरल और मोहक मुस्कान.

****

विष्णु जी कॉफी हाउस से तीन किलोमीटर दूर कुण्डेवालान में रहते थे, जो अजमेरी गेट से चावड़ी बाजार जाने वाली सड़क पर पड़ता है. अजमेरी गेट से चावड़ी बाजार जाते हुए दाहिनी ओर ऊंचा हवेली-नुमा उनका मकान था, जहां वह किरायेदार थे. लेकिन उनके पास इतनी अधिक जगह थी कि लंबे समय तक मैं उन्हें मकान मालिक ही समझता रहा था. साहित्य जगत में दो चीजें उनके नाम का पर्याय बन चुकी थीं -- एक शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय की उनकी जीवनी ’आवारा मसीहा’ और दूसरा उनका निवास.

मुझे विष्णु जी के और अधिक निकट आने का अवसर मिला १९८२ में जब प्रसिद्ध हिन्दी बाल साहित्यकार डॉ. राष्ट्रबन्धु ने अपनी पत्रिका ’बाल साहित्य समीक्षा’ का एक अंक विष्णु प्रभाकर विशेषांक के रूप में प्रकाशित करने का निर्णय किया और उसकी जिम्मेदारी मुझे सौंप दी, अर्थात उस अंक का अतिथि सम्पादक. सामग्री संचयन, बाल साहित्य संबन्धी उनके विचार जानने के लिए उनका साक्षात्कार आदि के सिलसिले में कई बार मुझे उनसे मिलने कुण्डेवालान जाना पड़ा था.

विष्णु जी साहित्य-साधक पुरुष थे. वह प्रतिदिन सुबह से दोपहर एक बजे तक लिखने-लिखवाने का काम करते थे. लंबे समय से कोई युवक या युवती उनके सहयोग के लिए उनके पास होता था. प्रायः वह सहयोग करने वालों को अच्छे सरकारी-गैर सरकारी संस्थानों में नौकरी दिलवा देते थे. बाद के दिनों में वह लेखन के लिए इन सहयोगियों पर ही निर्भर रहने लगे थे और उन्हें बोलकर लिखवाने लगे थे. मेरे पास उनके अनेक पत्र हैं, जिनमें हस्तलेख उन युवाओं के हैं, विष्णु जी के केवल हस्ताक्षर हैं. लेकिन नवें दशक के उत्तरार्द्ध तक के उनके पत्र उनके ही लिखे हुए हैं. वह हिन्दी के उन इने गिने लेखकों में थे, बल्कि यदि एक मात्र कहूं तो अत्युक्ति न होगी, जो न केवल बाल-साहित्य लिखने के पक्ष में बोलते थे, बल्कि स्वयं प्रभूत मात्रा में बाल साहित्य लिखा भी था. ’बाल साहित्य समीक्षा’ विशेषांक के लिए बातचीत के दौरान बहुत दुखी स्वर में उन्होंने कहा था, "यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हिन्दी के लेखक बाल-साहित्य लिखना हेय समझते हैं. लिखने वाले के प्रति उनका दृष्टिकोण बदल जाता है. जबकि बांग्ला में साहित्यकार ही उसे मानते हैं जिसने बाल-साहित्य भी लिखा होता है. रूस के अनेक लेखकों का अपने बाल-साहित्य लेखन पर गर्व है."

विष्णु जी ने बहु-विधाओं पर कार्य किया. कहना उचित होगा कि शायद ही कोई विधा ऎसी रही होगी जिसमें उन्होंने लेखनी न चलायी हो. उनकी अनेक कहानियां उल्लेखनीय हैं, और ’धरती अब भी घूम रही है’ उनकी विश्वप्रसिद्ध कहानी है. जब मैं उनसे लंबी बातचीत के लिए अपने कवि मित्र अशोक आंद्रे के साथ उनके यहां गया तब उन्होंने विस्तार से इस कहानी के विषय में चर्चा की थी. उन्होंने वह कमरा भी दिखाया था जहां कुछ मित्रों के साथ बैठे वह किसी विषय पर चर्चा कर रहे थे और वही चर्चा बाद में उस कहानी का कारण बनी थीं.

डॉ. कुमुद शर्मा (रीडर , हिन्दी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय) उन दिनों ’साहित्य अमृत’ पत्रिका से जुड़ी हुई थीं और उनका यह जुड़ाव संभवतः स्व. डॉ. विद्यानिवास मिश्र के कारण था, जो पत्रिका के प्रधान सम्पादक थे. कुमुद शर्मा ने एक दिन फोन पर पत्रिका के लिए विश्णु जी का साक्षात्कार लेने का मुझसे आग्रह किया. दरअसल उन्होंने कुछ प्रश्न बना रखे थे और मुझे उन्हीं पर चर्चा करनी थी. मेरे लिए केवल उन पर चर्चा करना कठिन था. विष्णु जी से लंबी बातचीत लंबे समय से मेरे जेहन में थी. समय नहीं निकाल पा रहा था. कुमुद के फोन ने उत्साह बढ़ाया और मैंने अशोक आंद्रे से अनुरोध किया कि वह अपना टेप रेकार्डर और कैमरा संभाल मेरा साथ दें. कमलेश्वर, राजेन्द्र यादव, अजीत कौर (पंजाबी) और एस.एल.भैरप्पा (कन्नड़ -- मैसूर) से बातचीत के दौरान भी अशोक ने मेरा साथ दिया था.

मैंने विष्णु जी से समय ले लिया और सुबह दस बजे मैं अशोक के साथ कुण्डेवालान में था. उस दिन उन्होंने अपने पी.ए. की छुट्टी कर दी थी या उन दिनों उनका कोई पी.ए. था ही नहीं. बातचीत प्रारंभ हुई. पहले प्रश्न के उत्तर के बाद विष्णु जी ने टेप रेकार्डर चेक करने के लिए कहा और टेप ने न सूं की न सां. उसने मौनवृत धारण कर लिया था. अब------ विष्णु जी मुस्कराये ----- वही सरल-निर्छद्म मुस्कान .मैं बोला, " विष्णु जी वक्त तो लगेगा---- लेकिन यदि आप तैयार हों तो आप बोलते रहें और मैं आपके उत्तर लिखता रहूंगा. " वह तैयार हो गये थे.

हमें तीन घण्टे लगे थे, लेकिन हमने विभिन्न विषयों पर खुलकर बातचीत की, जो टाइप के चौंतीस पृष्ठों में समायी थी. ’साहित्य अमृत’ के अंश को (जो छोटा ही था) छोड़कर विष्णु जी का साक्षात्कार टुकड़ों में कई पत्रिकाओं में प्रकाशित हुआ था.

विष्णु जी के साथ कानपुर यात्रा की सुखद स्मृति आज भी ताजा है. कानपुर का ’बाल कल्याण संस्थान’ प्रतिवर्ष फरवरी (प्रायः २७-२८ फरवरी) में हिन्दी और अहिन्दी भाषी बाल साहित्यकारों और नगर के दो प्रतिभाशाली छात्रों को पुरस्कार प्रदान करता है. यह कार्यक्रम डॉ. राष्ट्रबन्धु के सद्प्रयासों से लगभग तीस वर्षों से अबाधरूप से होता आ रहा है. दो दिवसीय कार्यक्रम चार सत्रों में होता है. १९९६में एक महत्वपूर्ण सत्र की अध्यक्षता के लिए विष्णु जी को बुलाया गया था. उसी सत्र में विशिष्ट अतिथि के रूप में मैं भी आमंत्रित था. हमारे साथ स्व.डॉ रत्नलाल शर्मा और दिल्ली विश्वविद्यालय के एक महाविद्यालय में हिन्दी की रीडर डॉ. शकुन्तला कालरा भी थीं.

वह फरवरी की ठंडभरी सुबह थी. शताब्दी एक्स्प्रेस, जो नई दिल्ली रेलवे स्टेशन से सुबह छः बजे के लगभग कानपुर के लिए जाती थी, से हमारा आरक्षण था. डॉ. रत्नलाल शर्मा यद्यपि योजना विभाग से वर्षों पहले अवकाश प्राप्त कर चुके थे, लेकिन किसी युवा से अधिक उत्साह था उनमें. हम सभी को पिक करने का जिम्मा उन्होंने अपने ऊपर लिया था. शर्माजी समय के बहुत पाबंद थे. जब हम विष्णु जी के यहां पहुंचे सुबह के साढ़े पांच बजे थे. उनके घर से स्टेशन मात्र पांच मिनट की दूरी पर था. उस यात्रा के दौरान विष्णु जी ने बचपन से लेकर युवावस्था के अपने अनेक संस्मरण सुनाये थे. उनके साथ वह एक अविस्मरणीय यात्रा थी.

२८ मार्च, १९९७ को सपरिवार मुझे दक्षिण भारत भ्रमण पर जाना था. लगभग सभी जगह मैंने ठहरने की व्यवस्था कर ली थी, लेकिन तिरुअनंतपुरम में कहां ठहरूंगा यह विचार-मंथन चल ही रहा था कि कॉफी हाउस में एक दिन विष्णु जी से इस विषय पर चर्चा हुई. बोले, "इसमें इतना सोचने की क्या बात है. ’केरल हिन्दी प्रचार समिति’ के सचिव डॉ. वेलायुधन नायर (अब स्वर्गीय) से बात कर लो. मेरा नाम ले लेना. कोई कठिनाई न होगी. बहुत ही प्यारे लोग हैं----- हिन्दी वालों का बहुत ही आदर करने वाले.." विष्णु जी के सुझाव पर मैंने केरल सूचना केन्द्र, नई दिल्ली से वेलायुधन नायर साहब का फोन नंबर लिया और विष्णु जी का उल्लेख करते हुए उन्हें अपनी समस्या बतायी. जब उन्हें ज्ञात हुआ कि मैं भी लेखक हूं वह बहुत प्रसन्न हुए. फोन पर छलकती उनकी प्रसन्नता मैं अनुभव कर पा रहा था. उन्होंनें स्टेशन से लेने, ठहरने, घुमाने आदि की जो व्यवस्था की उसका विस्तृत उल्लेख मैंने अपने यात्रा संस्मरण ’दक्षिण भारत के पर्यटन स्थल’ में किया है.

दरअसल विष्णु जी ने हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए अनगिनत बार दक्शिण भारत की यात्राएं की थीं. वहां उनकी बहुत प्रतिष्ठा थी---- विशेषरूप से केरल में. जात-पांत - क्षेत्रवाद, साहित्यिक राजनीति से वह बहुत ऊपर थे. उन्हें यह गर्व था कि उनके घर में बहुएं अहिन्दी भाषी प्रांतों से थीं या उनके घर की लड़कियों के विवाह अहिन्दी भाषियों के साथ हुए थे और वे सब सफल पारिवारिक जीवन जी रहे थे. वह वसुधैव कुटम्बकम मे विश्वास करने वाले व्यक्ति थे.

जैसा कि उल्लेख कर चुका हूं मुझे यह जानकारी बहुत बाद में हुई कि कुण्डेवालान का मकान उनका अपना नहीं था. कॉफी हाउस में एक दिन चर्चा सुनी कि उनके मकान पर रेलवे के एक ठेकेदार माफिया ने कब्जा कर लिया था और विष्णु जी उसके साथ मुकदमा में उलझे हैं. लेकिन उनके चेहरे - बातचीत से कभी ऎसा आभास नहीं मिला था कि वह परेशान थे. उनके चेहरे पर सदैव सरल मुस्कान विद्यमान रहती थी.

पश्चिमी दिल्ली में महाराणा एन्क्लेव में उनका अपना आलीशान मकान था --- यह तभी पता चला था. उनके पुत्र ने विज्ञापन के माध्यम से उसे उस माफिया को किराये पर दे दिया था. कुछ दिनों तक उसने किराया दिया, बाद में देना ही नहीं बंद कर दिया , बल्कि मकान खाली करने से भी इंकार कर दिया. उसने उससे भी आगे जाकर मकान के जाली कागजात तैयार करवाये, उसे विष्णु जी द्वार अपने एक मित्र को बेचा दिखाया , फिर उससे उसने स्वयं खरीद लिया. बात तत्कालीन सांसद शंकरदयाल सिंह के द्वारा गृहमंत्री राजेश पायलट तक पहुंची और जब विष्णु जी से पूछा गया कि आपको किसके विरुद्ध क्या शिकायत है तब वहां भी गांधीवादी भाव से उन्होंने कहा था, "मुझे किसी के खिलाफ कोई शिकायत नहीं है."

अंततः कोर्ट में उस माफिया की जालसाजी सिद्ध हुई थी और उसे जेल भेज दिया गया था. उसके तुरंत बाद विष्णु जी कुण्डेवालान छोड़ अपने घर आ गये थे. गृह-प्रवेश के बाद उन्होंने घर के सामने के पार्क में दावत दी थी, जिसमें बड़ी मात्रा में साहित्यकार-पत्रकार सम्मिलित हुए थे. उसके बाद भी अनेक बार मैं उनके उस आवास में उनसे मिलने गया था. लेकिन वहां पहुंचकर उनका नियमित कॉफी हाउस आने का सिलसिला टूट गया था.

१९९८ में मैंने अपना उपन्यास ’पाथर टीला’ उन्हें समर्पित किया और जब उन्हें भेंट किया तब वह बहुत ही संकुचित हो उठे थे. लेकिन पन्द्रह दिन के अंदर ही उसे पढ़कर उन्होंने उपन्यास की प्रशंसा करते हुए मुझे बधाई दी थी.

हिन्दी साहित्य में सदैव गुटबाजी से दूर ईमानदारी से काम करने वाले व्यक्ति को हाशिये पर डालने की दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति रही है. विष्णु जी सदैव इसका शिकार रहे. जिस साहित्य अकादमी के वह सदस्य रहे थे उसने उनके ’आवारा मसीहा’ की उपेक्षा की थी. ’अर्द्धनारीश्वर’ को भी शायद ही पुरस्कार मिला होता यदि उस बार ज्यूरी में डॉ. शिवप्रसाद सिंह न होते. मीटिगं से लौटकर जब शिवप्रसाद जी होटल पहुंचे थे, मैं उनके कमरे में उनकी प्रतीक्षा कर रहा था. वह बहुत उत्तेजित थे और उनके विरुद्ध बोल रहे थे जो ’अर्द्धनारीश्वर’ का विरोध कर रहे थे . कुछ देर बाद शांत होने पर उन्होंने कहा था, "आखिर ’अर्द्धनारीश्वर’ को पुरस्कार दिलाने में सफलता मिल ही गई."

आजीवन विष्णु जी मसिजीवी रहे. अनेक पीढ़ियों का संग-साथ मिला उन्हें --- जैनेन्द्र जी से लेकर आजकी युवा पीढ़ी तक का . उनकी एक खूबी यह भी थी कि बीमारी से पहले तक वह नये से नये लेखक को पढ़ते रहे थे और अच्छा लगने पर सीधे लेखक को या पत्र-पत्रिका को रचना के विषय में अपनी राय देने में संकोच नहीं करते थे. अपने विचारों पर उनकी आस्था अडिग थी. शायद यही कारण रहा कि मरणॊपरांत उन्होंने अपनी देह ’अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान’ को दान करने का निर्णय किया था.

सच ही वह एक महान लेखक और विशाल हृदय व्यक्ति थे.

कविताएं



सुधा ओम ढींगरा की दस कवितायें
१) रात भर
रात भर
यादों को
सीने में
उतारती रही,
चाँद- तारों
को भी
चुप-चाप
निहारती रही.
शांत
वातावरण
में न
हलचल हो कहीं,
तेरा नाम
धीरे से
फुसफुसा कर
पुकारती रही.
तेरी नजरें
जब भी
मिलीं
मेरी नज़रों से,
उन क्षणों को
समेट
पलकों का सहारा
देती रही.
उदास
वीरान
उजड़े
नीड़ को,
अश्रुओं
कुछ आहों
चंद सिसकियों से
संवारती रही.
जीवन की
राहों में
छूट गए
बिछुड़ गए जो ,
मुड़-मुड़ के
उन्हें देखती
लौट आने को
इंतज़ारती रही.
२)रिश्ते
तुमने कितनी ज़ल्दी
इस अनाम एहसास को
नाम दे दिया,
रिश्ते में बांध दिया.
मैंने तो सिर्फ़ इतना कहा था
कि तुम मेरे दिल के क़रीब हो
क्या दिल के क़रीब सिर्फ़ रिश्ते होते हैं?
वो एहसास वे जज़्बात
जो अँकुरित हुए ही थे,
जिन्हें पलना था,
बढ़ना था,
पल्लवित और
परिमार्जित होना था,
परवान चढ़ना था
अपने शैशवकाल में ही
रिश्तों की सूली पर टँग गए.
भावनाएँ-संवेग
खुले रहकर भी मर्यादित रह सकते हैं
फिर बंधना-बाँधना क्यों?
शायद तुमने सामाजिक ज़रूरत समझी होगी,
मैं ऐसा समाज निर्मित करूँगी
जहाँ औरत सिर्फ़ माँ, बेटी, बहन, पत्नी या
प्रेमिका ही नहीं
एक इन्सान,
सिर्फ़ इन्सान हो,
उसे इसी तरह
जाना, पहचाना और परखा जाए ।
३)क्या पाया.......
खुशियाँ ढूँढने चले
ग़म राह में गड़े थे.
ग़मों को चुन कर हटाया
दर्द साथ ही खड़े थे.
दर्द से रिश्ता जोड़ा
आँसू झर-झर झड़े थे.
आँसुओं को जब समेटा
दिन जीवन के कम पड़े थे.
४)अलगाव
साथ-साथ इकठ्ठे चले
दुनिया जीतने हम.
सीढ़ी दर सीढ़ी
चढ़ते गए--
पीछे न मुड़े हम.
बुलंदियाँ छूने
ऊँचे उठे--
बेखबर उड़ते ही रहे हम.
प्रेम, समझौता भूल
अस्तित्व-व्यक्तित्व से--
टकराते रहे हम.
स्वाभिमान मेरा
अहम् तुम्हारा--
अकड़ी गर्दनों से अड़े रहे हम.
अकाश से तुम
धरती सी मैं--
क्षितिज तलाशते रहे हम.
भोर की लालिमा
साँझ की कालिमा--
डगमग सा जीते रहे हम.
बेतुकी बातों का मुद्दा
बना निस्तेज से प्राणी--
भावनाओं को चोट पहुँचाते रहे हम.
असमान छूते
नीड़ तलाशते--
चोंच से चोंच लड़ाते रहे हम.
वक्त ने झटका दिया
हाथ छूटा, साथ टूटा--
दिशाओं अलग में चल दिए हम.
मैं कहाँ और
तुम कहाँ चल दिए
कहाँ से क्या हो गये हम.
दुनिया तो दूर, स्वयं को भी
जीतने के काबिल न रहे हम.

५)नज़रों से ओझल
मंदिरों के घंटे
मस्जिदों की अज़ाने
शून्य चीरते
हवाओं संग गूँजते
बुलाएँ ऐसे जैसे शाम को सहर.
सुखद क्षणों में भूलें
दुखद पलों में पुकारें
गम की लहरों में
खोजें उसका ठौर
ढूँढें ऐसे जैसे रात को पहर.
हर गाँव
हर बस्ती में
है उसका बसर
फिर क्यूँ भटके इधर-उधर
खोजें ऐसे जैसे सागर को लहर.
झलक न पाई उसकी
पढ़ डाले वेद-पुराण
नज़रों से ओझल रहा
देखा हर द्वार
कम रही
शायद आराधना
पाया न ऐसे जैसे आँसूं को नज़र.
६ )खिलवाड़
दिन की आड़ में
किरणों का सहारा ले
सूर्य ने सारी खुदाई
झुलसा दी.
रात ने धीरे से
चाँद का मरहम लगा
तारों के फहे रख
चाँदनी की पट्टी कर
सुला दी.
७ )वादा किया होगा
धीरे -धीरे
जो कत्ल हुआ होगा
दर्द जाने उसने कितना पिया होगा .
संवेदनशील क्षणों में
स्वार्थ के वजूद को देख
चैन अपना
औरों के नाम किया होगा.
स्वागत में पतझड़ के
झड़ गए पत्ते
उड़ गए आँधी संग
दम तो उसका,
जो फिर भी खड़ा रहा होगा.
समय के थपेड़े
जीवन की बेरहम तरंगें
जान पाएँगी कहाँ
तोड़ा जो घरौंदा होगा.
दहलीज़ ही से जो
लौट यात्रा को गए
यकीनन उन्हें
घर खाली सा लगा होगा.
चाँद से तो नम न होगी
वादों की ज़मीं
आँचल जब किरणों से
भरने का वादा किया होगा.

८ )मजबूरी
न कहने की मजबूरी
दिल पर भारी है.
कुछ कहने की मजबूरी
बुद्घि पर भारी है.
रिश्तों के टूटने की मजबूरी
आत्मा पर भारी है.
रिश्तों को निभाने की मजबूरी
विवेक पर भारी है.
ऐसी मजबूरी की मजबूरी
क्यों निभाना ज़रूरी है?
९)बचा लो इन्हें
तेज़ हवाओं से
डर कर
कहीं बुझ न जायें
दीए,
बचा लो उन्हें
करके साया
दुआओं का .
दिल के
ज़ख्म
दिल में ही
रहने दो
न जान ले
इन्हें कोई
तेरी अदाओं से.
छुपा लो
ख़ुद को
ख़ुद में
या पर्दे में
पता फिर भी
जान ही लेंगे
इन फिज़ाओं से.
रूह छोड़ने
लगती है जब
घरौंदा अपना
नहीं पलट कर आती
वह सदाओं से.

(यह कविता ईराक युद्ध में शहीद हुए नौजवान सिपाहियों को समर्पित हैं. इसे नार्थ-कैरोलाइना (अमेरिका) के सैनिक संस्थान समारोह में पढ़ा गया था.)
१०) माँ की फरियाद
सूरज से कहो
रौशनी न दे
अंधेरों में रह लूंगी.
चाँद से कहो
चाँदनी न दे
बिन चाँदनी जी लूंगी.
तारों से कहो
अपनी चमक न दें
रास्तों में भटक लूंगी.
ऋतुओं से कहो
रंग बदलना छोड़ दें
बेरंगी ही रह लूंगी.
सब दुःख सह लूंगी
पर बेटा मेरा लौटा दो मुझे
वह सिर्फ़ देश प्रेमी और
सिपाही ही नहीं, इन्सान भी है.
२० वर्ष भी पूरे नहीं
किए उसने,
लड़ने का ही नहीं
जीने का भी हक़ है उसे.
*****
सुधा ओम ढींगरा
सुधा ओम ढींगरा का जन्म--जालंधर , पंजाब (भारत) में हुआ.
शिक्षा- बी.ए.आनर्ज़, एम.ए. ,पीएच.डी ( हिंदी ) , पत्रकारिता में डिप्लोमा.
लेखन विधायें--कविता, कहानी , उपन्यास , इंटरव्यू , लेख एवं रिपोतार्ज.
प्रकाशित साहित्य--मेरा दावा है (काव्य संग्रह-अमेरिका के कवियों का संपादन ) ,तलाश पहचान की (काव्य संग्रह ) ,परिक्रमा (पंजाबी से अनुवादित हिन्दी उपन्यास), वसूली (कथा- संग्रह हिन्दी एवं पंजाबी ), सफर यादों का (काव्य संग्रह हिन्दी एवं पंजाबी ), माँ ने कहा था (काव्य सी .डी ). पैरां दे पड़ाह , (पंजाबी में काव्य संग्रह ), संदली बूआ (पंजाबी में संस्मरण ). १२ प्रवासी संग्रहों में कविताएँ, कहानियाँ प्रकाशित.
अन्य गतिविधियाँ एवं विशेष--विभौम एंटर प्राईसिस की अध्यक्ष , हिन्दी विकास मंडल (नार्थ कैरोलाइना) के न्यास मंडल में हैं. अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी समिति (अमेरिका) के कवि सम्मेलनों की राष्ट्रीय संयोजक हैं. 'प्रथम' शिक्षण संस्थान की कार्यकारिणी सदस्या एवं उत्पीड़ित नारियों की सहायक संस्था 'विभूति' की सलाहकार हैं. हिन्दी चेतना (उत्तरी अमेरिका की त्रैमासिक पत्रिका) की सह- संपादक हैं. पत्रकार हैं -अमेरिका से भारत के बहुत से पत्र -पत्रिकाओं एवं वेब पत्रिकाओं के लिए लिखतीं हैं. अमेरिका में हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए अनगिनत कार्य किये हैं. हिन्दी पाठशालाएं खोलने से ले कर यूनिवर्सिटी में हिन्दी पढ़ाई. इंडिया आर्ट्स ग्रुप की स्थापना कर हिन्दी के बहुत से नाटकों का मंचन कर लोगों को हिन्दी भाषा के प्रति प्रोत्साहित कर अमेरिका में हिन्दी भाषा की गरिमा को बढ़ाया है. अनगिनत कवि सम्मेलनों का सफल संयोजन एवं संचालन किया है. रेडियो सबरंग ( डेनमार्क ) की संयोजक. टी.वी , रेडियो एवं रंगमंच की प्रतिष्ठित कलाकार. पुरस्कार- सम्मान-- १) अमेरिका में हिन्दी के प्रचार -प्रसार एवं सामाजिक कार्यों के लिए वाशिंगटन डी.सी में तत्कालीन राजदूत श्री नरेश चंदर द्वारा सम्मानित. २) चतुर्थ प्रवासी हिन्दी उत्सव २००६ में ''अक्षरम प्रवासी मीडिया सम्मान.'' ३) हैरिटेज सोसाइटी नार्थ कैरोलाईना (अमेरिका ) द्वारा ''सर्वोतम कवियत्री २००६'' से सम्मानित , ४) ट्राईएंगल इंडियन कम्युनिटी, नार्थ - कैरोलाईना (अमेरिका ) द्वारा ''२००३ नागरिक अभिनन्दन ''. हिन्दी विकास मंडल , नार्थ -कैरोलाईना( अमेरिका ), हिंदू- सोसईटी , नार्थ कैरोलाईना( अमेरिका ), अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी समिति (अमेरिका) द्वारा हिन्दी के प्रचार -प्रसार एवं सामाजिक कार्यों के लिए कई बार सम्मानित.संपर्क--101 Guymon Ct., Morrisville, NC-27560. U.S.A.E-mail-sudhaom9@gmail .comPhone-(919) 678-9056
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आलेख




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इस्लामोफ़ोबिया और राजनीति

मुक्ति श्रीवास्तव

गुजरात के चुनाओं के बारॆं में तमाम प्रतिक्रियाएं ’हिन्दुत्व’ के बैकलेश की बात कर रही थीं लेकिन जो बात प्रायः रेखांकित नहीं हो रही थी, वह यह थी कि ये चुनाव सिर्फ गोधरा के बाद हुए चुनाव नहीं हैं--- ये चुनाव ११ सितम्बर और १३ दिसम्बर के बाद हुए पहले चुनाव थे. ’गोधरा’ के प्रचार तंत्र ने उस अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय प्रचार तंत्र का स्थानीय अनुवाद और पुष्टि की जो इन घटनाओं के बाद इस्लामोफ़ोबिया को फैलाने की लगातार कोशिश कर रहा था.

भले लोग गोधरा-सिंड्रोम को गुजरात से बाहर फैलने नहीं देने के लिए तो उत्सुक थे, लेकिन इस इस्लामोफ़ोबिया के राष्ट्रीयकरण या अंतरराष्ट्रीय़करण के विरुद्ध एक ताकतवर प्रतिकारात्मक अभियान छेड़े बिना. एक अच्छा-खासा धर्म अतिरेक की मीडिया भाषा में बदनाम कर दिया गया और उसके विरुद्ध तथाकथित धर्म-निरपेक्ष शक्तियां खामोश रही हैं. दोहरापन क्या ज़बर्दस्त था? गोधरा की प्रतिक्रिया तो निंदा के लायक थी, लेकिन वर्ल्ड ट्रेड सेण्टर की प्रतिक्रिया स्वीकार्य. क्या जितनी अतार्किकता गोधरा प्रतिक्रिया में थी, उससे कहीं ज्य़ादा अतार्किकता अमेरिका की तथाकथित ’दीर्घस्थाई स्वतंत्रता’ (एड्योरिंग फ्रीडम) में नहीं थी ? इस प्रतिक्रिया में ४००/५०० मुसलमान मरे तो हमारा सिर शर्म से झुक गया और उस प्रतिक्रिया में हज़ारों निर्दोष और अबोध अफग़ानी मारे गए तो वह गर्व करने योग्य था. यदि गोधरा का हिसाब एक पैशाचिक प्रतिक्रिया में चुकाना बर्बर है तो ओसामा-बिन-लादेन या अलकायदा का हिसाब अफग़ानी मासूमों की जान से चुकाना कैसे ’सभ्यता का संघर्ष’ बन जाता है ?

अगर अटलबिहारी बाजपेयी कहते हैं कि गोधरा काण्ड की मुस्लिम समाज में पर्याप्त निंदा नहीं हुई तो हमारी (सेक्यूलर) पार्टियों को यह कथन आपत्तिजनक लगता है, लेकिन यही बात जब मार्गरेट थ्रैचर ने ४ अक्टूबर, २००१ को कही कि ११ सितम्बर, २००१ की घटना की मुस्लिम समाज ने पर्याप्त निंदा नहीं की-तो हमारे हरेक के फटे में टांग अड़ाने वाले बुद्धिजीवियों को यह कथन सुपाच्य लगा.

यह ’पर्याप्तता’ का तर्क ग़ज़ब है ? क्या इसके मापने का कोई यंत्र है ? काफी कुछ तो इसी पर निर्भर करता है कि मापता कौन है. लेकिन एक बार मान भी लें कि पर्याप्त निंदा नहीं हुई तो क्या इससे किसी को मारने का लाइसेंस मिल जाता है ?

हमारा अंग्रेजी़ मीडिया यदि औपनिवेशिक मानसिकता से मुक्त होने का दावा करता है, तो वह यह बताये कि क्यों वह नरेन्द्र मोदी को खलनायक बनाता है और बुश को नायक जबकि नरेन्द्र मोदी तो उत्तेजित भीड़ की स्वतःस्फूर्त प्रतिक्रिया का दावा कर सकते हैं लेकिन जॉर्ज बुश राज्य-प्रायोजित प्रत्याक्रमण के स्पष्ट पैरोकार हैं. एक को संदेह का लाभ भी नहीं , दूसरे को नंगे होने के बाद भी राजा कहा जा रहा है. आज अमेरिका अल्जीरिया की प्रजातांत्रिक रूप से चुनी हुई सरकार को मान्यता नहीं दे रहा क्योंकि वे ’फण्डामेंटलिस्ट’ हैं. लेकिन कल इसी आधार पर वह नरेन्द्र मोदी की सरकार को अमान्य कर सकता है. उसे इसके लिए सी.आई.ए. की रपट की ज़रूरत भी नहीं होगी, हमारे अंग्रेज़ी मीडिया की रपटें काफ़ी होंगी.

यह एक धर्म है जिसने विश्व के एक बड़े हिस्से में लोगों को जीवनाधार वैसे ही दिया है, जैसे दूसरे हिस्सों में दूसरे धर्मों ने दिया. जैसे दूसरे धर्म आंतरिक ध्वंस का शिकार हैं, वैसे यह धर्म भी. लेकिन इसके कुछ मुट्ठी भर उन्मादियों के राक्षसी कर्मों का अभिशाप जितना इस धर्म के निरीह अनुयायियों को भुगतना पड़ रहा है, उतना अन्य किसे ?

पिछले साल २८ जुलाई को अटलांटा में ओलंपिक सेंटेनिएल पार्क में एक पाइप बम फट तो मध्य-पूर्व के बहुत से मुस्लिम न केवल पूछताछ के लिए धर लिए गए, बल्कि सेंटेनिएल, टेक्सास में एफ.बी.आई. एजेंटों ने उनके घरों की तलाशी भी ली. मध्य-पूर्व माने क्या : अरब, कुर्द, तुर्क या सीरियाई, ईरानी, फिलीस्तीनी या मुस्लिम या बहाई ? पूर्वाग्रह बारीकियां नहीं देखता--ईरानी और सीरियाई में, मिस्री या मोरक्कन में, शिया में या सुन्नी में उसे कोई फ़र्क़ नज़र नहीं आता. खा़सकर अमेरिकी पूर्वाग्रह जिसे ओसामा-बिन-लादेन और सिखों की पगड़ी तक में फ़र्क़ करने तक का औसत ज्ञान नहीं है-- ज्ञानाधारित समाज के निर्माण के तमाम दावों के बावजूद. कश्मीर में बुरका़ न पहनने पर बलात्कार, हत्या और सिर कलम कर देने की घटनाएं दिसम्बर में घटीं. यह उससे भी बदतर आतंरिक त्रासदी थी, जो हरियाणा में गौओं के मामलों में दलितों की हत्या में देखने में आई भले ही भारत का मीडिया इस आंतरिक त्रासदी को दिखाने में चुप रहा. इसकी रपट एक घटना की तरह हुई, एक प्रवृत्ति की तरह नहीं, लेकिन हरियाणा की घटना को प्रवृत्ति की तरह बरतकर चाबुक चलाए गए. इटली के राष्ट्रीय लोकसेवा समाचार प्रसरण ने कार्डिनल जिओकोमो बीफी का वह कथन प्रसारित किया कि ’मुस्लिम हमारी मानवता का अंग नहीं हैं.’ वेल्स में शहर के मध्य में दो मस्जिदों को बंद कर देने की बात उठी क्योंकि उनका शहर के बीच में होना ’सार्वजनिक ख़तरा’ समझा गया, जिससे लोग ’भयभीत’ हैं. टेलीलोम्बार्डिया ने यह ’विचार’ ख़ूब जो़र-शोर से प्रसारित किया कि यूरोपीय समुदाय के देशों में मुस्लिमों का प्रवेश बंद कर दिया जाना चाहिए. हमारे अटलबिहारी बाजपेयी की ही तरह इटली के प्रधानमंत्री बर्लुस्कोनी ने सार्वजनिक मंच से मुस्लिमों के विरुद्ध ’अपनी सभ्यता की श्रेष्ठता’ का दावा किया. जर्मन चान्सलर हेल्मुट कोल ने तो साफ़-साफ़ कहा कि बॉन और पेरिस दोनों के लिए उत्तरी अफ्रीका के इस्लामिक आंदोलन बढ़ती हुई चिंता का श्रोत हैं और उन पर ध्यानपूर्वक नज़र रखी जा रही है. बेल्जियम के गृहमंत्री जोसेफ माइकल ने कहा कि हमें रोमन जनता की तरह वही ख़तरा है कि हम बर्बर जातियों जैसे - अरबों, मोरक्को, स्लावों और तुर्कों के द्वारा रौंदे जाएंगे. जेक्यूस शिराक के प्रमुख सलाहकार पियरे ले-लो -उचे ने मुस्लिम संसार में बढ़ते हुए कट्टरपंथ और तानाशाही के खतरों के प्रति चेताया है. ब्रिटेन के यूरोप मामलों के मंत्री पीटर हैने ने कहा कि ब्रिटेन का मुस्लिम समुदाय एकांतवादी (आइसोलेशनिस्ट) है. मिडिल ईस्ट क्वार्टर्ली के संपादक डेनियल पाइप्स ने तो अमेरिकी प्रशासन को उकसाया कि पूर्व में अमेरिका ने दक्षिण को वाम के विरुद्ध समर्थन दिया था, अब उसे नव ’दक्षिण ’(इस्लामिक कट्टरपंथियों) के विरुद्ध पुराने वाम का सहयोग लेना चाहिए. इस तरह देखा जाए तो ११ सितम्बर, २००१ की घटना के बाद अलकायदा पर नहीं, इस्लाम पर निशाना साधने की खेदजनक और शैतान अतार्किकता विश्वभर में देखी जा रही है. अरिजोना में सिख गैस स्टेशन के मालिक को डलास में मारा गया. पाकिस्तानी युवा और फिनिक्स में मरा मिस्री दुकानदार सभी उसी अतार्किकता के चेहरे हैं, जो गोधरा के बाद गुजरात में देखी गई. भारत में तो मीडिया ने गोधरा के बाद निर्दोष मुस्लिम की यातना-कथा को उजागर किया किन्तु अमेरिका के राष्ट्रीय अखबार गाहे-बगाहे ऎसे आप्त वाक्य बोलते रहे --’इस्लाम में क्षमा की ईसाई अवधारणा अनुपस्थित है’ या ’मुस्लिम संस्कृतियों में वाद-विवाद एवं व्यक्तिगत स्वातंत्र्य का विचार ही नहीं है’ या ’इस्लाम अद्वितीतः ऎसा धर्म है, जो सब प्रकार की हिंसा का समर्थन करता है.’ जिस समय गुजरात में दंगों की नृशंसता की आलोचना हमारे अखबारों और चैनल पर छाई हुई थी, उसी समय चीन में मुसलमान युवकों को उनके आखिरी भोजन में अल्कोहल मिलाकर, आधी बेहोशी के दौरान, खुली लॉरी में मृत्यु-पर्यन्त घसीटा जा रहा था और भीड़ हंस रही थी. लेकिन चीन के द्वारा मानवाधिकारों के उतने ही नृशंस उल्लंघन का कोई उल्लेख हमारे वामपंथी बुद्धिजीवियों और बहुत ही तेज चैनलों के द्वारा नहीं हो रहा था.

इटली के प्रधानमंत्री मानवाधिकारों के मामले में जितनी आसानी से इस्लाम की तुलना में स्वयं की सभ्यता को श्रेष्ठ कह सके, क्या उतनी आसानी से वे उसे चीन या रूस की तुलना में बेहतर बता सकेंगें, जहां मुस्लिम मानवाधिकारों का नृशंस हनन ११ सितबंर, २००१ के बाद और तीव्र हो गया है. गुजरात यदि अस्वीकार्य है तो चेचेन्या कैसे स्वीकार्य हो सकत है ? लेकिन बंधकों को ज़हरीली गैस सुंघाने वाले पुतिन नायक हैं और नरेन्द्र मोदी खलनायक . इस्लामोफोबिया को उचित ठहराना यदि ’आनुवंशिक प्रि-प्रोग्रामिंग’ या ’जैविक अवश्यता’ के नाम पर पश्चिमी मीडिया को लगता है तो लगभग यही तर्क ओसामा-बिन-लादेन का है. इस मीडिया से अच्छे टोनी ब्लेयर थे, जिन्होंने कहा कि यह ’इस्लामी आतंकवादियों’ का काम नहीं है, बस आतंकवादियों का काम है. क्या ओसामा, गाजी बाबा या मसूद अज़हर जैसे नरपिशाच स्व-घोषित मुस्लिम हैं या सच्चे मुस्लिम ? लेकिन मीडिया पश्चिम में ’डॉक्ट्रिन’ पर आधारित आतंकवाद की बात वैसे ही करता है जैसे भारत में वह ’डॉक्ट्रिन’ पर आधारित सांप्रदायिकता की.

दोनों ही जगह संघर्षों के मूल में ’विचार’ को केन्द्र बताया जाता है -विचारहीनता को नहीं. प्रकारान्तर से धर्म पर टिप्पणी की जाती है उनका भेद-विभेद संघर्ष के मूल में है, कि लोग धर्मों पर झगड़ते ही रहे हैं; जबकि तथ्य यह है कि विश्व के १० सबसे भीषण युद्धों , नरसंहारों व अत्याचारों में मारे गये २५० मिलियन लोगों में से मात्र २ प्रतिशत धर्मानुप्रेरित संघर्षों में मरे हैं. लेकिन बिना इस मिथक को प्रचारित किए मीडिया, वामपंथियों और बुद्धिजीवियों के एक बहुछपित वर्ग को तुष्टि नहीं होती.

फिर उन्हें इस बात की शिकायत भी होती है कि उनके इस प्रचार का विनियोग मोदी जैसे चतुर सुजान राजनीतिज्ञों ने अपने पक्ष में कर लिया है. दंगों की विवेचना यदि संतुलन बनाकर स्वयं संवाददाता नहीं कर सकता तो वह उन पीडि़तों-प्रभावितों से संतुलन की अपेक्षा कैसे कर सकता है कि जिनके परिवार या समुदाय का कोई निकटतम व्यक्ति मारा गया है. संतुलन झूठ का नाम नहीं है. संतुलन स्वतंत्रता है--- अपनी लेखनी को किसी भी स्वर्थ-समूह की अपेक्षाओं का बंधक न बनने देने कि आज़ादी.

हम़जा यूसुफ जैसे ख्यात इस्लामी विद्वान ने सही ही कहा कि मीडिया ने चरमपंथियों पर ध्यान केन्द्रित किया, न कि मुख्यधारा पर. यही बात गुजरात के संदर्भ में कही जा सकती है, जहां मात्र कुछ स्थानों पर हुई पाशविकता को इस तरह अतिप्रचारित किया गया कि मानों गांधी का गुजरात सब जगह और सब समय के लिए कहीं खो गया. मोदी की ’गौरव-यात्रा’ सेल्फ-ग्लोरिफिकेशन की एक ऎसी यात्रा थी, जो इस अतिप्रचार की पृष्ठभूमि में क्षतिपूरक रूप से ज़रूरी हो गई थी. कौन नहीं करता यह सेल्फ-ग्लोरिफिकेशन ? क्या पश्चिमी मीडिया ने ११ सितम्बर, २००१ की घटना के बाद इसका एक भी मौका छोड़ा ? वहां तो इस घटना के बाद आत्मसंदर्भी एवं आत्म-बधाई -मूलक श्रेष्ठता भाव के एक से एक नजारे देखने में आये. क्या आपने कभी गौ़र किया कि अब ’पश्चिम’ किस तरह ’अंतरराष्ट्रीय समुदाय’ के रूप में संदर्भित किया जाता है ? ८००० निः शस्त्र मुस्लिमों को अभी-अभी श्रेब्रेनिला के नरसंहार में मारने पर तो कभी ईसाइयत के ’हिसंक स्वभाव’ की चर्चा नहीं हुई. लेकिन अलकायदा के आक्रमण से इस्लाम हिंसक हो गया और गुजरात के कुछ हिस्सों में हिंसा भड़कने से हम. यदि ऎतिहासिक अनुभव इसके लिए जिम्मेदार हैं तो इन्क्वीजीशन, जिहाद, सेंट बार्थोलोम्यू नरसंहार, उपनिवेशीकरण जेनोसाइड, दासता, नेपोलियन के युद्धों , सर्फडम, प्रथम विश्वयुद्ध हो लो-कॉस्ट, द्वितीय विश्वयुद्ध में छः करोड़ लोगों का मरना, आणविक बम, वियतनाम और इराक का विनाश करते हुए जब वे ’क्षमा और करुणा के अवतार ’ हैं तो इस्लाम में ऎसी क्या खराबी है कि इटली के प्रधानमंत्री श्री सिल्वियो बर्लुस्कोनी कहें कि मुस्लिम सभ्यता यूरोप और इसके इतिहास से कमतर है. दुराग्रह की हालत इस कदर संगीन है कि पौली टॉयनबी का लेख ब्रिटेन के एक अखबार में जब ’उन्माद के पालने’ शीर्षक के साथ प्रकाशित होता है तो उसमें एक चित्र शीर्षक को चरितार्थ करने के लिए दिया गया है. इस चित्र में एक मुस्लिम महिला नमाज पढ़ रही है. नमाज पढ़ना, मंदिर में आरती या चर्च में प्रेयर या गुरुद्वारे में अरदास करना सब ईश्वरोन्मुखता के विविध स्वरुप हैं. सिर्फ नमाज पढ़ने की, उन्माद के साथ स्टिरियोटाइपिंग कैसे हो सकती है.

कबीर और रहीम, रसखान और जायसी का इस्लाम हिंसक इस्लाम कैसे हो सकता है ? मोहम्मद रफ़ी और मीनाकुमारी , उस्ताद अलाउद्दीन खां और अज़हरुद्दीन का इस्लाम हिंसक इस्लाम कैसे हो सकता है ? यह सआदत हसन मंटो और साहिर लुधियानवी का इस्लाम है, यह गा़लिब और बशीर बद्र का इस्लाम है. यह मेरी सबीहा दीदी और आपके जुम्मन चाचा का इस्लाम है. हम अपनी स्मृति और संस्कार के संसार को इनसे खारिज कर ओसामाओं से कैसे भर लें. लेकिन शीतयुद्ध के खत्म होने से ठण्डा हुआ शस्त्र व्यापार ओसामा के भय से ही चमकेगा. गालिब के दीवान से नहीं. पहले लाल खतरे के नाम से हथियार बेचे, अब इस्लामी खतरे के नाम पर बेचेंगे. इन्हीं ने १९७६ और १९८५ के बीच सऊदी अरब, कुवैत, संयुक्त अरब अमीरात और ओमान से २१० बिलियन डॉलर का खर्च सुरक्षा पर करवाया था. पॉल मॉडेल, ज्यू-डिथ मिलर, बर्नार्ड लुई, मार्टिन क्रैमर, पैट राबर्टसन, यूसेफ बुदेंस्की जैसे लेखक लगातार पश्चिमी सरकारों को इस्लामी देशों के ’रैडिकल राजनीतिक इस्लाम’ के खतरों से आगाह करने वाले लेख लिखकर इस रोमांच को बढ़ाते रहेंगे. इस रोमांच की अपनी आर्थिकी है.

इस्लाम को शत्रु के रूप में देखने की जगह जीवन में पार्टनर की तरह देखना होगा. मुस्लिम विरोधी पुर्वाग्रह के अंतर्राष्ट्रीय सैलाब के प्रिप्रेक्ष्य में देखना होगा कि किस तरह से भारत में रैह्टारिक नई प्रासंगिकताएं प्राप्त कर अपनी संकीर्णता को अपडेट करते चल रहा है. यह भी देखें कि नेताओं और धर्माधारित संगठनों के अलावा मीडिया ने इस ध्रुवीकरण में कितनी मदद की है. क्या अभी ब्रिटेन में जून, २००१ में ओल्ड हैम और बर्नले में दंगे नहीं हुए थे या इसके थोड़े ही बाद ब्रेडफोर्ड में या कुछ और पहले ब्रिक्सटन , साउथहाल और टौक्स्टेथ, ऑक्सफोर्ड, कार्डिक और लीड्स में. इन दंगों में पुलिस के रेसिस्ट बरताव के तथ्य भी रिकार्ड हुए. लेकिन क्या कोई भी आलोचना उसे ’राज्य प्रायोजित’ कहने की हद तक पहुंची ? किन्तु जब भारत की बात आती है तो एक फैशनेबल जुमला सभी तर्कों और तथ्यों पर हावी हो जाता है. कई संस्थाएं आनन-फानन में गठित होती हैं और ऎसे महान निष्कर्षों पर पहुंचती हैं कि लगता है, चलने से पहले ही उन्होंने इन जुमलों को तैयार कर रखा था. एक संस्था है -”इंटरनैशनल इनीशिएटिव फार जस्टिस इन गुजरात’. इसकी एक सदस्या हैं, न्यूयॉर्क सिटी यूनिवर्सिटी की विधि प्राध्यापक रोंड का-पे-लॉन . ये कहती हैं कि "हिन्दुत्व की शक्तियों द्वारा प्रक्षेपित ताकतवर आदमी’ की छवि गुजरात के दंगों में हुई सेक्सुअल हिंसा के पीछे जिम्मेदार है." अब ओसामा और उसकी गैंग इस्लाम का प्रमाण नहीं है तो गुजरात के कुछ नराधम शोहदे हुन्दुत्व का प्रमाण कैसे हो सकते हैं ? ऎसी ही अतिशयोक्तियां और सामान्यीकरण वे चारा हैं जिनसे ध्रुवीकरण की गाय पुष्ट होती है. क्या उसी न्यूयॉर्क की ब्रुकलिन डायोसिस के बिशप थामस डेली ने २४ जून, २००२ को रेक्टरी में आई एक महिला के साथ जो बलात्कार किया, उसका सामान्यीकरण करना ईसाइयत का अपमान नहीं होगा ? या बोस्टन की न्य़ूटन उपनगरी के रेवरेण्ड पॉल शेनले ने १९७९ से १९८९ के बीच लड़कों का जो यौन शोषण किया, उसका सामान्यीकरण करना ईसाइयत का अपमान न होगा? ईसाइयत के प्रमाण ईसा मसीह और मदर टेरेसा हैं या ये लॉस एंजिल्स के रेवरेण्ड जी.पैट्रिक जीमॉन जैसे लोग जो सेक्सुअल अब्यूज के लिए अदालत के सामने खड़े हैं या रेवरेण्ड-पो-लिएंतो बर्नाबी जैसे पादरी, जो एक युवा लड़की का बलात्कार कर फरार हैं. भारत में ’नाम्बाल’ जैसी कोई संस्था नहीं है और यह खुदा का शुक्र है कि यहां निकृष्ट प्रवृत्ति को दार्शनिकीकृत नहीं किया जाता.

लेकिन दूसरों की क्यों बात करें, जब अपने ही अपनों को चोट पहुंचाने में व्यस्त हैं. आजकल धर्मों के बारे में आंतरिक द्रोह करने वाले लोगों का बाजार गर्म है. कोई हिन्दू लेखक हनुमान को प्रथम आतंकवादी कहता है. नाईजीरिया में एक इस्लामी अखबार का हल्का कथन २०० से ज्यादा आदमियों की जान ले बैठता है. २३ दिसम्बर, २००२ को बी.बी.सी. ने एक वृत्तचित्र दिखाया कि जीसस को जन्म देते वक्त वर्जिन मैरी सिर्फ १३ वर्षों की थी और एक रोमन सैनिक के द्वारा बलात्कार किए जाने के बाद वह गर्भवती हुई थी. ध्यान दें कि ये सब द्रोह, धर्मों की किसी अत्यंत गंभीर भीतरी पड़ताल का नतीजा नहीं हैं -- ये सब फ्रीका दिखने-दिखाने की तलब से पैदा हुए हैं. ये विज्ञान और विश्लेषण की प्यास का परिणाम नहीं हैं, ये विवाद की प्यास का परिणाम हैं. ध्रुवीकरण की शक्तियां इन विवादों से अपने आपको ज्यादा पुनर्गठित करती हैं . धर्म टी.आर.पी. रेटिंग्स पाने के लिए नहीं बनाए गए थे. उन्हें प्रतिदिन के सेन्सेशन के लिए व्यवहृत करने की महत्वाकांक्षा न उनके प्रवर्तकों की थी, न उनके अनुयायियों की. एक नमाज़, एक शिवस्तोत्र, एक मॉस आत्मा की ठण्डक, राहत और स्थैर्य है - लेकिन आत्मा कैमरे की पकड़ में कहां आती है ?
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डी.एन.- २/११, चार इमली, भोपाल - ४६२०१६ (म.प्र.)
( साभार -सम्बोधन (त्रैमासिक) - अप्रैल - जून, २००९)
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