सोमवार, 4 मई 2009

वातायन - मई, २००९





हम और हमारा समय

साहित्य में आस्था का प्रश्न
रूपसिंह चन्देल
हम आज क्रूर साहित्यिक समय में जी रहे हैं. आपा-धापी की स्थिति है. एक साहित्यकार दूसरे के कंधों को रौंदते हुए आगे निकलने की विकृत मानसिकता का शिकार है. वह लिखने से अधिक दूसरे को धराशायी करने में अपनी ऊर्जा का अपव्यय कर रहा है. ऎसा इसलिए कि या तो वह कुंठाग्रस्त है या असुरक्षा-भाव का शिकार. असुरक्षा का भाव अपने शब्दों के प्रति अविश्वास और अनास्था से उत्पन्न होता है. अपने लिखे के प्रति अविश्वास और अनास्था उसे पाठकों के प्रति शंकालु बनाती है और यह भाव ही उसे अपनी कृतियों को चर्चा में लाने के लिए विभिन्न प्रकार के अतार्किक हथकंडे अपनाने के लिए विवश करती हैं. यदि वह पूंजीपति या रिश्वतखोर सरकारी अफसर है तब उन सतही हथकंडॊं के साथ ऎसे समीक्षकों, सम्पादकों और पत्रकारों को पटा लेना उसके लिए सहज होता है जो एक बोतल ह्विस्की में बिकने को तैयार रहते हैं. पिछले दस वर्षों में यह प्रवृत्ति अधिक ही बढ़ी है. ऎसे समय में हमें विष्णु प्रभाकर जैसे साहित्यकारों की याद बरबस हो आती है, जिन्होंने आजीवन बिना किसी वाद-विवाद में पड़े केवल और केवल साहित्य सृजन किया और आजीवन चर्चा में बने रहे.

कुछ समय पहले हिन्दी के दो वरिष्ठ साहित्यकार हमारे बीच नहीं रहे-- विष्णु प्रभाकर और यादवेन्द्र शर्मा चन्द्र. विष्णु जी की ही तरह यादवेन्द्र जी भी न केवल मसिजीवी और एक अच्छे साहित्यकार थे, बल्कि एक अच्छे इंसान भी थे -- बेहद मिलनसार. हिन्दी के साथ उन्होंने राजस्थानी साहित्य को भी समृद्ध किया. लेकिन नेताओं की छींक को भी मुख-पृष्ठ पर खबर बनाने वाले हिन्दी के समाचार पत्रों ने यादवेन्द्र शर्मा चन्द्र के लिए एक पंक्ति भी नहीं छापी---- कम से कम दिल्ली के राष्ट्रीय कहलवाने वाले समाचार पत्रों ने तो बिल्कुल ही नहीं. ’वातायन’ और ’रचना समय’ की ओर से दोनों साहित्यकारों को विनम्र श्रद्धांलि.

’वातायन’ के मई अंक में स्व. विष्णु प्रभाकर पर मेरे संस्मरण के अतिरिक्त प्रस्तुत है युवा कवियित्री , कथाकार और पत्रकार सुधा ओम ढींगरा की दस कविताएं और मुक्ति श्रीवास्तव का आलेख - ’इस्लामोफ़ोबिया और राजनीति’.
आशा है अंक आपको पसंद आयेगा.

संस्मरण
हिन्दी साहित्य के स्तंभ पुरुष

रूपसिंह चन्देल
११ अप्रैल, २००९ को हिन्दी साहित्य के वरिष्ठतम लेखक विष्णु प्रभाकर का निधन हो गया. वह गांधीवादी लेखन-परम्परा के अंतिम स्तंभ थे. वह इतने शांत और मृदुभाषी थे कि आश्चर्य होता था. मुझे नहीं लगता कि किसी व्यक्ति की बात तो दूर कभी किसी जानवर को भी उन्होंने सख्त लहजे में डांटा होगा. लंबे, गोरे-चिट्टे (वृद्धावस्था में भी चेहरा अंगारे की भांति देदीप्यमान था) सुडौल-देह-यष्टि के धनी विष्णु जी के साहित्यकार से मेरा परिचय १९६६-६७ (तब मैं हाई स्कूल में था) में ही हो गया था, लेकिन वह उनकी दो-चार बाल-कहानियों तक ही सीमित था. १९७८ में ’आवारा मसीहा’ पढ़ा और मैं उनका मुरीद हो उठा. उन दिनों मैं मुरादनगर में था और साहित्य की ओर लौट रहा था. वहां के साहित्यिक मित्र सुभाष नीरव से विष्णु जी के विषय में सुनता तो उनसे मिलने की आकांक्षा प्रबल हो उठती. मेरे स्व. मित्र प्रेमचन्द गर्ग उनके मुग्ध प्रशंसक थे. गर्ग जी का ताल्लुक भी शायद मुजफ्फर नगर (उत्तर प्रदेश) से था और विष्णु जी का जन्म वहीं हुआ था. अपने नगर-क्षेत्र का कोई व्यक्ति जब किसी भी क्षेत्र में उच्च शिखर पर पहुंच जाता है तब वहां के लोगों में उसकी चर्चा स्वाभाविक है.

मैंने ’आवारा मसीहा’ दोबार पढ़ा और विष्णु जी से मिलने की ललक और प्रबल हो उठी, लेकिन मिल नहीं पाया. ११ अक्टूबर, १९८० को मैं स्थायी रूप से दिल्ली आ बसा. अब किसी से भी मिलना सहज था.

विष्णु जी नियमित (दिल्ली में रहते हुए प्रतिदिन) कॉफी हाउस जाते थे . शनिवार की शाम कॉफी हाउस में साहित्यकारों की होती थी. विष्णु जी जाड़े के दिनों में शाम साढ़े पांच बजे और गर्मियों में कुछ देर से वहां पहुंचते और प्रायः गेट के सामने खुली छत पर एक मेज पर जा बैठते. आध-घण्टा में उनकी मेज के साथ दो-तीन मेजें और जुड़ जातीं और साहित्यकारों का जमघट लग जाता. ये वे दिन थे जब विष्णु जी के साथ नियमित बैठने वालों में वरिष्ठ कथाकार रमाकांत और कवि आलोचक राजकुमार सैनी अवश्य होते थे. विष्णु जी से कुछ दूर गेट से दक्षिण दिशा की ओर मार्क्सवादियों (इनमें कई छद्म मार्क्सवादी भी होते थे बाद में जिनके मुखौटे स्वतः उतर गये थे) का ग्रुप बैठता था और प्रायः देखने आता कि रमेश उपाध्याय जैसे एक-दो को छोड़कर विष्णु जी की ओर कोई अन्य नहीं आता था. इसे वैयक्तिक और वैचारिक संकुचन के अतिरिक्त अन्य कोई संज्ञा नहीं दी जा सकती.

एक शनिवार को शाम छः बजे कंधे से थैला लटकाये (उन दिनों यही फैशन था) मैं पहली बार कॉफी हाउस पहुंचा था. नवम्बर , १९८० की बात है. मेरे साथ सुभाष नीरव थे. विष्णु जी साहित्यकारों से घिरे हुए थे. इस दिन आलोचक डॉ. हरदयाल, डॉ. रत्नलाल शर्मा, वरिष्ठ कथाकार हिमांशु जोशी, कवि कांति मोहन-----लम्बी सूची है --- आदि पहुंचते थे. उस दिन मैंने केवल उनके दर्शन ही प्राप्त किये थे. संवाद नहीं हुआ. संवाद वहां मेरा किसीसे भी नहीं हुआ था, क्योंकि सबके लिए मैं एक अपरिचित चेहरा था.

उसके बाद मैं प्रतिमाह के दूसरे शनिवार कॉफी हाउस जाने लगा था. जाना प्रति शनिवार चाहता था, लेकिन पारिवारिक कारणॊं से यह संभव न था. कभी-कभी सरकारी अवकाश होने पर बीच में भी चला जाता . लेकिन जब भी मैं वहां गया विष्णु जी को लोगों से घिरा ही पाया. वह मेरे चेहरे से तो परिचित हो गये थे लेकिन मैं कौन हूं यह जता पाने में तीन-चार महीने व्यतीत हो गये थे. एक दिन मैं विष्णु जी के पहुंचने से पहले ही कॉफी हाउस जा पहुंचा और गेट के सामने ही एक मेज पर जा बैठा. पांच मिनट बाद ही वह मुझे गेट पर दिखे और जब वह मेरी मेज की ओर बढ़ते दिखे तब मैं उठ खड़ा हुआ था उनके स्वागत के लिए.

"अरे, आप खड़े क्यों हो गये ? बैठें." मेरे सामने कुर्सी पर थैला लटकाते हुए मुस्कराकर वह बोले थे.

बातों का सिलसिला चल पड़ा था. उन्होंने जितना मुझसे पूछा मैंने उससे अधिक उन्हें अपने बारे में बताया. वह मुस्कराते रहे-- एक निर्छ्द्म - सरल और मोहक मुस्कान.

****

विष्णु जी कॉफी हाउस से तीन किलोमीटर दूर कुण्डेवालान में रहते थे, जो अजमेरी गेट से चावड़ी बाजार जाने वाली सड़क पर पड़ता है. अजमेरी गेट से चावड़ी बाजार जाते हुए दाहिनी ओर ऊंचा हवेली-नुमा उनका मकान था, जहां वह किरायेदार थे. लेकिन उनके पास इतनी अधिक जगह थी कि लंबे समय तक मैं उन्हें मकान मालिक ही समझता रहा था. साहित्य जगत में दो चीजें उनके नाम का पर्याय बन चुकी थीं -- एक शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय की उनकी जीवनी ’आवारा मसीहा’ और दूसरा उनका निवास.

मुझे विष्णु जी के और अधिक निकट आने का अवसर मिला १९८२ में जब प्रसिद्ध हिन्दी बाल साहित्यकार डॉ. राष्ट्रबन्धु ने अपनी पत्रिका ’बाल साहित्य समीक्षा’ का एक अंक विष्णु प्रभाकर विशेषांक के रूप में प्रकाशित करने का निर्णय किया और उसकी जिम्मेदारी मुझे सौंप दी, अर्थात उस अंक का अतिथि सम्पादक. सामग्री संचयन, बाल साहित्य संबन्धी उनके विचार जानने के लिए उनका साक्षात्कार आदि के सिलसिले में कई बार मुझे उनसे मिलने कुण्डेवालान जाना पड़ा था.

विष्णु जी साहित्य-साधक पुरुष थे. वह प्रतिदिन सुबह से दोपहर एक बजे तक लिखने-लिखवाने का काम करते थे. लंबे समय से कोई युवक या युवती उनके सहयोग के लिए उनके पास होता था. प्रायः वह सहयोग करने वालों को अच्छे सरकारी-गैर सरकारी संस्थानों में नौकरी दिलवा देते थे. बाद के दिनों में वह लेखन के लिए इन सहयोगियों पर ही निर्भर रहने लगे थे और उन्हें बोलकर लिखवाने लगे थे. मेरे पास उनके अनेक पत्र हैं, जिनमें हस्तलेख उन युवाओं के हैं, विष्णु जी के केवल हस्ताक्षर हैं. लेकिन नवें दशक के उत्तरार्द्ध तक के उनके पत्र उनके ही लिखे हुए हैं. वह हिन्दी के उन इने गिने लेखकों में थे, बल्कि यदि एक मात्र कहूं तो अत्युक्ति न होगी, जो न केवल बाल-साहित्य लिखने के पक्ष में बोलते थे, बल्कि स्वयं प्रभूत मात्रा में बाल साहित्य लिखा भी था. ’बाल साहित्य समीक्षा’ विशेषांक के लिए बातचीत के दौरान बहुत दुखी स्वर में उन्होंने कहा था, "यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हिन्दी के लेखक बाल-साहित्य लिखना हेय समझते हैं. लिखने वाले के प्रति उनका दृष्टिकोण बदल जाता है. जबकि बांग्ला में साहित्यकार ही उसे मानते हैं जिसने बाल-साहित्य भी लिखा होता है. रूस के अनेक लेखकों का अपने बाल-साहित्य लेखन पर गर्व है."

विष्णु जी ने बहु-विधाओं पर कार्य किया. कहना उचित होगा कि शायद ही कोई विधा ऎसी रही होगी जिसमें उन्होंने लेखनी न चलायी हो. उनकी अनेक कहानियां उल्लेखनीय हैं, और ’धरती अब भी घूम रही है’ उनकी विश्वप्रसिद्ध कहानी है. जब मैं उनसे लंबी बातचीत के लिए अपने कवि मित्र अशोक आंद्रे के साथ उनके यहां गया तब उन्होंने विस्तार से इस कहानी के विषय में चर्चा की थी. उन्होंने वह कमरा भी दिखाया था जहां कुछ मित्रों के साथ बैठे वह किसी विषय पर चर्चा कर रहे थे और वही चर्चा बाद में उस कहानी का कारण बनी थीं.

डॉ. कुमुद शर्मा (रीडर , हिन्दी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय) उन दिनों ’साहित्य अमृत’ पत्रिका से जुड़ी हुई थीं और उनका यह जुड़ाव संभवतः स्व. डॉ. विद्यानिवास मिश्र के कारण था, जो पत्रिका के प्रधान सम्पादक थे. कुमुद शर्मा ने एक दिन फोन पर पत्रिका के लिए विश्णु जी का साक्षात्कार लेने का मुझसे आग्रह किया. दरअसल उन्होंने कुछ प्रश्न बना रखे थे और मुझे उन्हीं पर चर्चा करनी थी. मेरे लिए केवल उन पर चर्चा करना कठिन था. विष्णु जी से लंबी बातचीत लंबे समय से मेरे जेहन में थी. समय नहीं निकाल पा रहा था. कुमुद के फोन ने उत्साह बढ़ाया और मैंने अशोक आंद्रे से अनुरोध किया कि वह अपना टेप रेकार्डर और कैमरा संभाल मेरा साथ दें. कमलेश्वर, राजेन्द्र यादव, अजीत कौर (पंजाबी) और एस.एल.भैरप्पा (कन्नड़ -- मैसूर) से बातचीत के दौरान भी अशोक ने मेरा साथ दिया था.

मैंने विष्णु जी से समय ले लिया और सुबह दस बजे मैं अशोक के साथ कुण्डेवालान में था. उस दिन उन्होंने अपने पी.ए. की छुट्टी कर दी थी या उन दिनों उनका कोई पी.ए. था ही नहीं. बातचीत प्रारंभ हुई. पहले प्रश्न के उत्तर के बाद विष्णु जी ने टेप रेकार्डर चेक करने के लिए कहा और टेप ने न सूं की न सां. उसने मौनवृत धारण कर लिया था. अब------ विष्णु जी मुस्कराये ----- वही सरल-निर्छद्म मुस्कान .मैं बोला, " विष्णु जी वक्त तो लगेगा---- लेकिन यदि आप तैयार हों तो आप बोलते रहें और मैं आपके उत्तर लिखता रहूंगा. " वह तैयार हो गये थे.

हमें तीन घण्टे लगे थे, लेकिन हमने विभिन्न विषयों पर खुलकर बातचीत की, जो टाइप के चौंतीस पृष्ठों में समायी थी. ’साहित्य अमृत’ के अंश को (जो छोटा ही था) छोड़कर विष्णु जी का साक्षात्कार टुकड़ों में कई पत्रिकाओं में प्रकाशित हुआ था.

विष्णु जी के साथ कानपुर यात्रा की सुखद स्मृति आज भी ताजा है. कानपुर का ’बाल कल्याण संस्थान’ प्रतिवर्ष फरवरी (प्रायः २७-२८ फरवरी) में हिन्दी और अहिन्दी भाषी बाल साहित्यकारों और नगर के दो प्रतिभाशाली छात्रों को पुरस्कार प्रदान करता है. यह कार्यक्रम डॉ. राष्ट्रबन्धु के सद्प्रयासों से लगभग तीस वर्षों से अबाधरूप से होता आ रहा है. दो दिवसीय कार्यक्रम चार सत्रों में होता है. १९९६में एक महत्वपूर्ण सत्र की अध्यक्षता के लिए विष्णु जी को बुलाया गया था. उसी सत्र में विशिष्ट अतिथि के रूप में मैं भी आमंत्रित था. हमारे साथ स्व.डॉ रत्नलाल शर्मा और दिल्ली विश्वविद्यालय के एक महाविद्यालय में हिन्दी की रीडर डॉ. शकुन्तला कालरा भी थीं.

वह फरवरी की ठंडभरी सुबह थी. शताब्दी एक्स्प्रेस, जो नई दिल्ली रेलवे स्टेशन से सुबह छः बजे के लगभग कानपुर के लिए जाती थी, से हमारा आरक्षण था. डॉ. रत्नलाल शर्मा यद्यपि योजना विभाग से वर्षों पहले अवकाश प्राप्त कर चुके थे, लेकिन किसी युवा से अधिक उत्साह था उनमें. हम सभी को पिक करने का जिम्मा उन्होंने अपने ऊपर लिया था. शर्माजी समय के बहुत पाबंद थे. जब हम विष्णु जी के यहां पहुंचे सुबह के साढ़े पांच बजे थे. उनके घर से स्टेशन मात्र पांच मिनट की दूरी पर था. उस यात्रा के दौरान विष्णु जी ने बचपन से लेकर युवावस्था के अपने अनेक संस्मरण सुनाये थे. उनके साथ वह एक अविस्मरणीय यात्रा थी.

२८ मार्च, १९९७ को सपरिवार मुझे दक्षिण भारत भ्रमण पर जाना था. लगभग सभी जगह मैंने ठहरने की व्यवस्था कर ली थी, लेकिन तिरुअनंतपुरम में कहां ठहरूंगा यह विचार-मंथन चल ही रहा था कि कॉफी हाउस में एक दिन विष्णु जी से इस विषय पर चर्चा हुई. बोले, "इसमें इतना सोचने की क्या बात है. ’केरल हिन्दी प्रचार समिति’ के सचिव डॉ. वेलायुधन नायर (अब स्वर्गीय) से बात कर लो. मेरा नाम ले लेना. कोई कठिनाई न होगी. बहुत ही प्यारे लोग हैं----- हिन्दी वालों का बहुत ही आदर करने वाले.." विष्णु जी के सुझाव पर मैंने केरल सूचना केन्द्र, नई दिल्ली से वेलायुधन नायर साहब का फोन नंबर लिया और विष्णु जी का उल्लेख करते हुए उन्हें अपनी समस्या बतायी. जब उन्हें ज्ञात हुआ कि मैं भी लेखक हूं वह बहुत प्रसन्न हुए. फोन पर छलकती उनकी प्रसन्नता मैं अनुभव कर पा रहा था. उन्होंनें स्टेशन से लेने, ठहरने, घुमाने आदि की जो व्यवस्था की उसका विस्तृत उल्लेख मैंने अपने यात्रा संस्मरण ’दक्षिण भारत के पर्यटन स्थल’ में किया है.

दरअसल विष्णु जी ने हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए अनगिनत बार दक्शिण भारत की यात्राएं की थीं. वहां उनकी बहुत प्रतिष्ठा थी---- विशेषरूप से केरल में. जात-पांत - क्षेत्रवाद, साहित्यिक राजनीति से वह बहुत ऊपर थे. उन्हें यह गर्व था कि उनके घर में बहुएं अहिन्दी भाषी प्रांतों से थीं या उनके घर की लड़कियों के विवाह अहिन्दी भाषियों के साथ हुए थे और वे सब सफल पारिवारिक जीवन जी रहे थे. वह वसुधैव कुटम्बकम मे विश्वास करने वाले व्यक्ति थे.

जैसा कि उल्लेख कर चुका हूं मुझे यह जानकारी बहुत बाद में हुई कि कुण्डेवालान का मकान उनका अपना नहीं था. कॉफी हाउस में एक दिन चर्चा सुनी कि उनके मकान पर रेलवे के एक ठेकेदार माफिया ने कब्जा कर लिया था और विष्णु जी उसके साथ मुकदमा में उलझे हैं. लेकिन उनके चेहरे - बातचीत से कभी ऎसा आभास नहीं मिला था कि वह परेशान थे. उनके चेहरे पर सदैव सरल मुस्कान विद्यमान रहती थी.

पश्चिमी दिल्ली में महाराणा एन्क्लेव में उनका अपना आलीशान मकान था --- यह तभी पता चला था. उनके पुत्र ने विज्ञापन के माध्यम से उसे उस माफिया को किराये पर दे दिया था. कुछ दिनों तक उसने किराया दिया, बाद में देना ही नहीं बंद कर दिया , बल्कि मकान खाली करने से भी इंकार कर दिया. उसने उससे भी आगे जाकर मकान के जाली कागजात तैयार करवाये, उसे विष्णु जी द्वार अपने एक मित्र को बेचा दिखाया , फिर उससे उसने स्वयं खरीद लिया. बात तत्कालीन सांसद शंकरदयाल सिंह के द्वारा गृहमंत्री राजेश पायलट तक पहुंची और जब विष्णु जी से पूछा गया कि आपको किसके विरुद्ध क्या शिकायत है तब वहां भी गांधीवादी भाव से उन्होंने कहा था, "मुझे किसी के खिलाफ कोई शिकायत नहीं है."

अंततः कोर्ट में उस माफिया की जालसाजी सिद्ध हुई थी और उसे जेल भेज दिया गया था. उसके तुरंत बाद विष्णु जी कुण्डेवालान छोड़ अपने घर आ गये थे. गृह-प्रवेश के बाद उन्होंने घर के सामने के पार्क में दावत दी थी, जिसमें बड़ी मात्रा में साहित्यकार-पत्रकार सम्मिलित हुए थे. उसके बाद भी अनेक बार मैं उनके उस आवास में उनसे मिलने गया था. लेकिन वहां पहुंचकर उनका नियमित कॉफी हाउस आने का सिलसिला टूट गया था.

१९९८ में मैंने अपना उपन्यास ’पाथर टीला’ उन्हें समर्पित किया और जब उन्हें भेंट किया तब वह बहुत ही संकुचित हो उठे थे. लेकिन पन्द्रह दिन के अंदर ही उसे पढ़कर उन्होंने उपन्यास की प्रशंसा करते हुए मुझे बधाई दी थी.

हिन्दी साहित्य में सदैव गुटबाजी से दूर ईमानदारी से काम करने वाले व्यक्ति को हाशिये पर डालने की दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति रही है. विष्णु जी सदैव इसका शिकार रहे. जिस साहित्य अकादमी के वह सदस्य रहे थे उसने उनके ’आवारा मसीहा’ की उपेक्षा की थी. ’अर्द्धनारीश्वर’ को भी शायद ही पुरस्कार मिला होता यदि उस बार ज्यूरी में डॉ. शिवप्रसाद सिंह न होते. मीटिगं से लौटकर जब शिवप्रसाद जी होटल पहुंचे थे, मैं उनके कमरे में उनकी प्रतीक्षा कर रहा था. वह बहुत उत्तेजित थे और उनके विरुद्ध बोल रहे थे जो ’अर्द्धनारीश्वर’ का विरोध कर रहे थे . कुछ देर बाद शांत होने पर उन्होंने कहा था, "आखिर ’अर्द्धनारीश्वर’ को पुरस्कार दिलाने में सफलता मिल ही गई."

आजीवन विष्णु जी मसिजीवी रहे. अनेक पीढ़ियों का संग-साथ मिला उन्हें --- जैनेन्द्र जी से लेकर आजकी युवा पीढ़ी तक का . उनकी एक खूबी यह भी थी कि बीमारी से पहले तक वह नये से नये लेखक को पढ़ते रहे थे और अच्छा लगने पर सीधे लेखक को या पत्र-पत्रिका को रचना के विषय में अपनी राय देने में संकोच नहीं करते थे. अपने विचारों पर उनकी आस्था अडिग थी. शायद यही कारण रहा कि मरणॊपरांत उन्होंने अपनी देह ’अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान’ को दान करने का निर्णय किया था.

सच ही वह एक महान लेखक और विशाल हृदय व्यक्ति थे.

11 टिप्‍पणियां:

विजयशंकर चतुर्वेदी ने कहा…

उम्दा संस्मरण. विष्णु प्रभाकर जी को मेरी विनम्र श्रृद्धांजलि! लेखक के तौर पर वह अमर रहेंगे!

बलराम अग्रवाल ने कहा…

घोर उपेक्षा के बावजूद भी जो आदमी न सिर्फ डटा रहे, बल्कि सम्मानजनक मुकाम भी हासिल कर ले, उसमें कितना लोहा होगा आप समझ सकते हैं। वह लोहा अपने किसी भी विरोधी में उन्हें कभी नजर नहीं आया, शायद इसीलिए विपरीत परिस्थितियों में भी वह मुस्कराते रहते थे, जैसे कि जानते हों कि खोखले विरोधों से उनका कुछ बिगड़नेवाला नहीं है। अपनी कृति को तो सभी लोकार्पित करते हैं, देह के लोकार्पण की राह विष्णुजी खोल गए हैं। देखें, कितने बड़बोले उनका अनुसरण करने की हिम्मत जुटा पाते हैं।

PRAN SHARMA ने कहा…

AAPKE LEKH SE HEE PATAA CHALAA HAI
KI PRASHIDH SAHITYAKAR YADVVENDRA
CHANRA SHARMA IS DUNIYAA MEIN
NAHIN RAHE HAIN.YEH HAI HAMAARE
VARISHTH SAHITYAKARON KAA AADAR-
SATKAAR.MARNE KE BAAD BHEE KOEE
YAAD KARNE WAALAA NAHIN HAI.VISHNU
PRABHAAKAR AUR YADVENDRA CHANDRA SHARMA KO MEREE SHRADHHAJLI.
VISHNU PRABHAKAR KE
BAARE MEIN AAPKAA LEKH ULLEKHNIYA
HEE NAHIN,SANGARANIYA BHEE HAI.
NISSANDEH VISHNU PRABHAKAR AAJIVAN
APNE ASOOLON PAR ATAL RAHE HAIN.UN
JAESA VIRLA HEE KOEE SAHITYKAR HOTA
HAI.SHAYAD IQBAL NE YE SHER UNKE
LIYE HEE LIKHAA THAA--
HAZAARON SAAL NARGIS
APNEE BENOOREE PE ROTEE HAI
BADEE MUSHKIL SE HOTA
HAI CHAMAN MEIN DEEDAVAR PAIDA
YADVENDRA CHANDRA SHARMA
KE DIVANGAT HONE PAR MUJHE KISEE
KAA SHER YAAD AAYAA HAI--
BADE SHAUQ SE SUN
RAHAA THAA ZAMAANAA
HAMEE SAU GAYE
DASTAN KAHTE-KAHTE

Atmaram Sharma ने कहा…

कमाल का संस्मरण है. विष्णुजी का व्यक्तित्व परत-दर-परत खुलता जाता है. बड़े आदमी शायद ऐसे ही होते हैं कि उनके बारे में पढ़कर भी गौरव की अनुभूति होती है.

सुभाष नीरव ने कहा…

"साहित्य में आस्था का प्रश्न" शीर्षक तले तुमने जो बात कही है, वह कुछ तथाकथित लेखकों को तुम्हारी बात से चोट पहुँच सकती है पर तुमने बहुत गहरी और सच्ची बात कही है। विष्णू प्रभाकर जी पर तुम्हारा संस्मरण बहुत अच्छा है और पुरानी यादें भी ताज़ा करता है। भाई बलराम अग्रवाल ने बहुत अच्छी बात कही है कि "अपनी कृति को तो सभी लोकार्पित करते हैं, देह के लोकार्पण की राह विष्णुजी खोल गए हैं। देखें, कितने बड़बोले उनका अनुसरण करने की हिम्मत जुटा पाते हैं।"

बेनामी ने कहा…

आ. रूपसिंह चन्देल जी,

"वातायन" की विषय-वस्तु रोचक एवं ज्ञानवर्धक है। विशेष रूप से स्व. विष्णु प्रभाकर जी पर

आपका संस्मरण अत्यन्त रोचक और हिन्दी-साहित्य का एक ऐतिहासिक दस्तावेज सा प्रतीत

होता है। तदर्थ बधाई स्वीकार करें।

शकुन्तला बहादुर

बेनामी ने कहा…

वातायन का मई २००९ अंक देखा. रूप सिंह चंदेल के मान्यवर विष्णु प्रभाकर पर संस्मरण ने इसे बहुत महत्वपूर्ण बना दिया है. रूप सिंह को विष्णु जी से जिस अंतरंगता का सौभाग्य मिला है वह बहुत से लेखकों के लिए ईर्ष्या का विषय हो सकता है और उनमें मैं भी शामिल हूँ. रूप सिंह ने इस संस्मरण में अपने जिन पूंजी पलों को फिर से जी कर हमें सौंपा है निश्चित रूप से हम उस के लिए उनके आभारी हैं.
यहाँ मैं एक बात की ख़ास जगह बनाना चाहूँगा, वह यह, कि रूप ने यहाँ अर्धनारीश्वर का जिक्र बहुत उचित और सार्थक सम्मान से किया है. आवारा मसीहा बेशक एक लाजबाब रचना है लेकिन जो मूल्य सृजन का दायित्व अर्धनारीश्वर के जरिये संभव हुआ है वह विष्णु जी के बड़े सरोकार और उनकी चिन्तनशीलता का प्रमाण है. अर्धनारीश्वर एक कालजयी रचना है, जिसके लिए पीढियां उनकी ऋणी रहेंगी. रूप सिंह चंदेल के संस्मरण ने पाठकों को इस अतिविशेष विरासत कि याद दिला कर एक सार्थक काम किया है. यहाँ मेरा विनम्र निवेदन यह भी है कि मैं आवारा मसीहा को भी साधारण रचना नहीं कह रहा हूँ. साहित्य संसार में उसका भी अपना बहुमूल्य स्थान है.


अशोक गुप्ता

सुरेश यादव ने कहा…

प्रिय चंदेल जी विष्णु प्रभाकर जी के विषय में आप के संस्मरण सहज सार्थक और प्रमाणिक हैं.हिंदी में ऐसे बहुत कम रचनाकार हैं जो उनके जैसा महान हृदय रखते हों आप ने बहुत साडी यादों को ताजाकर दिया एक संवेदना मयस्रंधांजलि के लिए आप को धन्यवाद

योगेंद्र कृष्णा Yogendra Krishna ने कहा…

अच्छे संस्मरण और बिंदास अभिव्यक्ति के लिए बधाई। संयोग से शब्दसृजन पर भी विष्णु प्रभाकर जी ही हैं।

Ila ने कहा…

संस्मरण पढ़ना मुझे विशेष प्रिय है ,इस लिए अब इसके बाद शब्द सृजन पर जाना होगा। विष्णु जी पर बहुत सारी सामग्री पिछले साल पाखी में आई थी तब कौन जानता था कि शिखर पर बैठा यह शब्द साधक अब बस उठकर जाने ही वाला है। उन्हें हमारी विनम्र श्रद्धांजली!
आपने अपने सम्पादकीय में जो प्रश्न उठाए हैं वे वर्तमान साहित्यिक परिदृश्य में बिल्कुल सही हैं । ऐसे बेबाक सम्पादकीय और सुन्दर संस्मरण के लिए बधाई!
इला

बेनामी ने कहा…

प्रिय रूपसिंहजी नमस्कार,

आपका विष्णु प्रभाकर जी पर संस्मरण वातायन में पढ़ा। काफी अच्छा लगा। मुझे कुछ माह पहले ही अपने सहपाठी इंजीनियर से मालूम हुआ था कि विष्णुजी उसके नाना जी है। मैं चाहता था कि विष्णु जी की सारी पुस्तकें पुस्तक.आर्ग पर उपलब्ध करवाऊँ। पर उनसे सीधे जानकारी मिल पाती इसके पहले ही मुझे पता लगा कि वे अस्वस्थ हैं। इसलिए तब मैने अपने मित्र पर भी अधिक जोर डालना उचित नहीं समझा। यदि आपको उनकी सभी रचनाओं के बारे मे जानकारी हो तो अवश्य सूचित करिएगा।

साथ ही एक और सुझाव यह भी है कि जब कभी किसी अन्य लेखक पर लिखें और उनकी पुस्तकें पुस्तक.आर्ग पर हों तो हमारा लिंक अपने ब्लाग के पाठकों की सुविधा के लिए दे सकते हैं। आपको यदि सुझाव अनुचित लगे तो मेरी धृष्टता को क्षमा कीजिएगा।

सादर,

अभिलाष त्रिवेदी (USA)