गुरुवार, 2 जुलाई 2009

वातायन - जुलाई, २००९


हम और हमारा समय

कामरेड ! आप चुप क्यों हैं ?

देश लुट रहा है -- वे मौन हैं . ऎसे हर अवसर पर उनके चेहरों पर चुप्पी चिपक जाती है. देश हित और सर्वहारा की माला जपने वाली उनकी जुबान पर ताला क्यों लटक जाता है जब सर्वहारा के हित में खर्च किये जाने वाले धन से कोई सिरफिरा और भ्रष्ट राजनीतिक अपनी, अपनी पार्टी के चुनाव चिन्ह और पार्टी के संस्थापक की मूर्तियां गढ़ा और खुदा रहा होता है. जिस धन का वह आपराधिक दुरुपयोग कर रहा होता है वह धन आम लोगों का होता है -- टैक्स के रूप में उनसे उगाहा गया धन. एक लोकतांत्रिक देश में ऎसा हो, इससे बड़ी शर्मनाक बात और क्या हो सकती है. यहां सद्दाम हुसैन की याद ताजा हो उठती है. उसने भी अपने बुत गढ़वाये और खुदवाये थे. सद्दाम तानाशाह था और एक तानाशाह ही कानून और जनता की उपेक्षा कर ऎसे समाज विरोधी कार्य कर सकता है. हमे नहीं भूलना चाहिए कि हर तानाशाह भ्रष्ट होता है. अपने भ्रष्ट कारनामों को वह अपनी तानाशाही की ओट देता है. और यह भी इतिहास सिद्ध है कि हर तानाशाह का दुखद पतन होता है.
वे जिन्हें प्रधानमंत्री बनाना चाहते थे उन्होंने यह कर डाला. यदि वे उन्हें प्रधानमंत्री बनाने में सफल हो जाते तब देश की क्या स्थिति होती कल्पना की जा सकती है.

धन के ऎसे दुरुपयोग को रोकने और दुरुपयोग करने वालों के लिए कठोर दण्ड का प्रावधान किये जाने के लिए यदि संविधान परिवर्तन की आवश्यकता हो तो वह किया जाना चाहिए. लेकिन संभव है तब उस परिवर्तन के विरोध में कामरेड मुखर हो उठें. लेकिन अभी आप चुप क्यों हैं कामरेड ! देश हित सर्वोपरि है या व्यक्तिहित ? पिछली गलतियों से सबक लेते हुए आप आगे आयें और कुछ और नहीं तो भर्त्सना के दो शब्द ही कहें वर्ना इसके लिए भी इतिहास आपको याद रखेगा, किस रूप में यह आप स्वयं सोच सकते हैं.
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वातायन के जुलाई, २००९ अंक में प्रस्तुत है - मेरे द्वारा अनूदित और संवाद प्रकाशन मेरठ/मुम्बई से शीघ्र प्रकाश्य संस्मरण पुस्तक - ’लियो तोल्स्तोय का अंतरंग संसार’ में संग्रहीत जी.ए.रुसानोव का संस्मरण, वरिष्ठ कवयित्री अंजना संधीर की पांच कविताएं और वरिष्ठ कवि-कथाकार सुभाष नीरव की कहानी.
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मेरे अनुरोध पर वातायन के लिए अंजना जी की कविताएं प्रसिद्ध कहानीकार और कवयित्री इला प्रसाद (यू.एस.ए.) ने उपलब्ध करवायीं हैं. इसके लिए मैं उनका हृदय से आभारी हूं. कविताओं के विषय में इलाजी की छोटी -सी टिप्पणी कविताओं से पूर्व दृष्टव्य है.
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संस्मरण
यास्नाया पोल्याना की यात्रा
(२४-२५ अगस्त, १८८३)

जी.ए. रुसानोव
(गव्रील अन्द्रेयेविच रुसानोव (१८४६-१९०७) एक वकील,
ऑस्त्रोगोझ्स्क के प्रथम सदस्य , फिर खारकोव बार के सदस्य और तोल्स्तोय के अंतरंग मित्र )
अनुवाद : रूपसिंह चन्देल

------उसके बाद तोल्स्तोय इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि नयी पीढ़ी---- सौम्य पेरोव्स्की जैसे सभी ----बरबादी की ओर बढ़ रहे थे, कि उन्होंने प्रकाश नहीं देखा, कि उन्हें शिक्षित कर सही मार्ग पर वापस लाना आवश्यक था.

"शायद आपका कहना ठीक है." मैं बोला, "फिर भी नौजवानों के प्रिय लेखक शेद्रिन हैं. वह उन्हें दूसरों की अपेक्षा अधिक पसंद करते हैं क्योंकि वह राजनीति और समसामयिक मामलों में रुचि लेते हैं."

"और वह उनके प्रेम के पात्र हैं " तोल्स्तोय ने अपने विचार रखे, "मुझे स्वयं शेद्रिन प्रिय हैं. एक लेखक के रूप में वह विकास कर रहे हैं. उनके नवीनतम कार्य में विषाद के संकेत खोजे जा सकते हैं."

फिर बातचीत तुर्गनेव की ओर मुड़ गयी थी.
"क्या तुर्गनेव नास्तिक हैं ?" मैंने पूछा.

"ओह, हां," तोल्स्तोय ने उत्तर दिया ," तुर्गनेव एक भले , प्रतिभा-सम्पन्न और विशाल हृदय वाले व्यक्ति हैं---- मैं उन्हें प्रेम करता हूं और उनके प्रति खेद अनुभव करता हूं---- वह इतना अधिक बीमार हैं --- तुमने सुना इन दिनों वह कैसे हैं ?"

"मैंने अखबारों से प्राप्त नवीनतम समाचार उन्हें बताया. "मैंने वह पढ़ा है " तोल्स्तोय बोले.

"वे कहते हैं कि रूसियों का एक दल उन्हें देखने जायेगा और यह कि ---- एर---- उसका नाम क्या है ? ओगियर ? ---- उन्हें कॉमेडी पढ़कर सुनायेंगे. प्रहसनों के लिए अच्छा समय !" निन्दात्मक स्वर में उन्होंने टिप्पणी की. बहुत अधिक समय नहीं बीता, जब वह पेन पकड़ने की क्षमता रखते थे. उन्होंने मुझे बहुत ही सहृदय और प्रेरणास्पद पत्र लिखा था कि लिखना बंद नहीं करूं."

"और आपने लिखने का विचार किया ? मेरा मतलब कथा-साहित्य ."

"हां, निश्चय ही. यदि कोई व्यक्ति लिख सकता है, उसे अवश्य लिखना चाहिए. यदि कोई व्यक्ति बोल सकता है तो उसे अवश्य बोलना चाहिए."

"क्या यह सही है कि आप समाचार पत्र और अपने कार्यों की समीक्षाएं नहीं पढ़ते ?"

"ऎसा है. लेकिन हाल में मैंने नियम में परिवर्तन किया है. रुस्काया मिस्ल में ग्रोमेस्का का आलेख पढ़ा. एक उत्कृष्ट आलेख है."

फिर सेल्फ में रखी अपनी पुस्तकों की ओर इशारा करते हुए उन्होंने कहा :

"मुझे भय है कि सामान्यतः हमारा और विशेष रूप से मेरा कुछ भी शेष नहीं रहेगा."

"आप ऎसा क्यों कहते हैं ?" मैंने विस्मित होते हुए पूछा.

"क्योंकि हम इतना अधिक लिखते हैं. ध्यान से देखो हम सभी ने विपुल मात्रा में लिखा है. सदियों तक जो कुछ बचा रहता है वह मात्रा में विशाल कभी नहीं होता."

"शेक्सपीयर के विषय में क्या सोचते हैं ?" मैंने पूछा.

"शेक्सपीयर मुझे कभी बहुत प्रिय नहीं रहा ---- शेक्सपीयर के बारे में इतना संभ्रम फैलाया गया कि उसके विरुद्ध बोलने का साहस कोई भी नहीं जुटा पाता. लेकिन मैंने उसके विषय में कभी अधिक नहीं सोचा."

बातचीत के दौरान ---- मैंने रूसी और फ्रांसीसी आलोचकों द्वारा उनके विषय में व्यक्त विचारों का उल्लेख किया .

"बहुत देर से" मेरे कथन के उत्तर में तोल्स्तोय ने कहा, "मेरे प्रति उनके हृदय परिवर्तित देखकर मुझे कुछ आश्चर्य हुआ था. पहले उन लोगों ने निर्दयतापूर्वक मुझे बुरा-भला कहा और एक विचारक के रूप में मुझे स्वीकार करने से इंकार कर दिया था. याद करो ’वार एण्ड पीस" . वह सब कैसा था ? उन दिनों मैं ऎसी चीजों पर सोच-विचार करता था.अन्नेन्कोव का आलेख याद है ? कई पहलुओं से वह बदनाम करने वाला था, लेकिन अन्य सभी आलोचकों की भर्त्सना के बाद मैंने आराम के साथ उसे पढ़ा था---- उन्होंने किस प्रकार मेरी भर्त्सना की थी. मैं उन सब खराब चीजों को याद भी नहीं करना चाहता जो उन्होंने ’अन्ना कारनिना’ के विषय में लिखी थीं.’

अन्ना कारनिना के विषय में दो दिन पूर्व ट्रेन में एक छात्रा द्वारा व्यक्त कुतूहलपूर्ण विचार की मुझे याद हो आयी और मैंने तोल्स्तोय से कहा :

"वे कहते हैं कि ’अन्ना कारनीन” को ट्रेन के नीचे फेंक देना आपकी हृदयहीनता है. निश्चय ही आप उससे यह अपेक्षा नहीं कर सकते कि वह आजीवन उस उबाऊ अलेक्सेई अलेक्जान्द्रोविच की कैद में रहती ."

तोल्स्तोय मुस्कराये.

"इसने मुझे याद दिला दिया कि एक बार पुश्किन ने अपने एक मित्र से क्या कहा था. ’तुम्हे पता है तात्याना ने मेरे साथ क्या चालाकी की थी ?’ वह बोले थे, ’उसने शादी कर ली थी. उससे मैं यह अपेक्षा बिल्कुल नहीं करता था.’ अन्ना कारेनिना में मैंने बिलकुल वही बात कही है. उन्होंने उसी रूप में चीजें की जिस रूप में वे वास्तविक जीवन में करते बजाय इसके कि जैसा मैं उनसे करवाता."

"काउण्टेस पास्केविच द्वारा ’वार एण्ड पीस’ के फ्रेंच अनुवाद के बाद फ्रेंच आलोचकों के दृष्टिकोण में आए परिवर्तन को देखकर मुझे प्रसन्नता हुई " उन्होंने कहना जारी रखा. मास्को प्रदर्शनी में मुझसे मिलने वाले फ्रांसीसी लोगों ने जो विचार व्यक्त किये उससे मैं आश्चर्यचकित था. मैं महसूस कर सका कि ’वार एण्ड पीस’ में अभिव्यक्त मेरे ऎतिहासिक दृष्टिकोण को स्वीकृति मिलनी प्रारंभ हो गयी है. तुम्हे याद है जब पहली बार पुस्तक प्रकाशित हुई तब उसे किस प्रकार ग्रहण किया गया था ?"

"मुझे याद है, लेकिन दूसरी धारणाएं भी हैं. " उदाहरण के लिए , स्वर्गीय पोपोव के विचार, जिन्होंने १८१२ के युद्ध का इतिहास लिखा और जो पूरी तरह से अभी तक प्रकाशित नहीं हुआ. ’दि नीवा’ में मैंने उनके विचार पढ़े थे."

"पोपोव कौन थे ? अंद्रेई निकोलायेविच ? हां, वह क्या सोचते थे, उन्होंने मुझे बताया था."

इस बिन्दु पर बातचीत का विषय बदल गया था, लेकिन क्या यह मुझे याद नहीं. केवल यह कहना याद है कि किस प्रकार गोन्चारोव की लेखकीय गतिविधियों की पचासहवीं वर्षगांठ के अवसर पर महिलाओं का एक प्रतिनिध मंडल उनके अभिनंदन के लिए उनसे मिला था, और यह कि विलंब से ही सही पढ़ने के प्रति लोगों की अभिरुचि में इतनी उन्नति हुई है कि किसी लेखक के विषय में लोगों को किसी आलोचक के मूल्याकंन की अब दरकार नहीं रही है.

"गोंचारोव को लिखते हुए पचास वर्ष हो चुके ?"

"जी हां ."

"मुझे यह जानकारी नहीं थी. मुझे गोंचारोव के लिए खेद अनुभव हो रहा है. वह इतने बूढ़े और अकेले हैं और भुला दिए गये हैं----- वह बहुत कष्ट पा रहे हैं."

"किससे ?"
"घोर अपमान से ."
मैं पुनः तोल्स्तोय के काम पर वापसे लौट आया और बोला, "दूसरी चीजों के साथ उनका ’चाइल्ड हुड’ और तुर्गनेव का ’ए हण्टर्स स्केचेज’ लगभग एक ही समय प्रकाशित हुए थे. (ए हण्टर्स स्केचेज १८४७-५२ के मध्य और ’चाइल्डहुड’ १८५२ में ) और जब कि ’ए हण्टर्स स्केचेज’ में चित्रण के कई अनाधुनिक अंश हैं (उदाहरण के लिए छोटे बच्चे ’बेझिन मीड’ का भावुक चित्रण) जबकि चाइल्डहुड में अनाधुनिकता या उस जैसा होने की जोखिम नहीं दिखती . इस पर तोल्स्तोय ने उत्तर दिया कि उनका ’चाइल्डहुड’ चाशनी जैसा है (मुझे आशंका है कि तोल्स्तोय ने ठीक यही शब्द इस्तेमाल नहीं किया था, लेकिन जो भी किया था उसका भाव यही था) . स्वभावतः मैंने मौन स्वीकृति नहीं दी और अपना प्रतिरोध दर्ज किया. तोल्स्तोय ने आगे कोई टिप्पणी नहीं की.

अंत में उन्होंने कहा कि "तुर्गनेव की जिस एक मात्र पुस्तक को मैं पसंद करता हूं वह है ’ए हण्टर्स स्केचेज’ . निश्चित ही कोई भी लोक जीवन की अभिव्यक्ति उस तरह नहीं कर सकता जैसा कि उन्होंने किया है. मैंने उनके शेष कार्य का अधिक अध्ययन नहीं किया , और मेरा विश्वास है कि वह उन्हें अधिक समय तक जीवित नहीं रखेगा. मुझे लगता है कि भावी पीढ़ियों के लिए तुर्गनेव उतने ही अल्पज्ञात होंगे जितना जुकोव्स्की. हालांकि वह अत्यधिक भले , और स्नेही और अनुग्रही हैं, और उन्होंने बहुत से लोगों की सहायता की है."

उनकी गद्य कविताओं की चर्चा करते हुए उन्होंने आगे कहा --

"मैंने उन्हें प्रसन्नतापूर्वक पढ़ा, लेकिन सोचा कि तीस वर्ष पहले उन्होंने अधिक प्रभाव डाला होता."

मैंने "सांग ऑफ लव ट्रम्फैण्ट" का उल्लेख किया. तोल्स्तोय ने विषय को घृणित ठहराया.

"लेव निकोलायेविच , क्या आपने नताशा रोस्तोवा का रूपचित्र जीवन से खींचा था." मैंने पूछा.

"अधिकांशतया."

"और आंद्रेई बोल्कोन्स्की ?"

"नहीं, उसका नहीं---- मेरे कुछ चरित्र जीवित आदर्श से ग्रहण किये हैं, कुछ नहीं. पहले वाले कम सफल हुए. यद्यपि जीवन से चित्रण सदैव अधिक सजीव होता है. लेकिन वे एकपक्षीय हो जाते हैं."

"आपके प्रारंभिक दौर में, ’वार एण्ड पीस’ से पहले , बहुत से प्रतीतात्मक उद्धरण मिलते हैं, जबकि ’वार एण्ड पीस’ में कुछ , और ’अन्ना कारनिना’ में बिलकुल ही नहीं हैं."

"एक दिन व्यक्ति को मजुर्कस (Mazurkas) से बाहर विकास करना ही होता है. " मुस्कराते हुए लेव निकोलायेविच ने कहा.

हमारी बातचित दॉस्तोएव्स्की पर आ टिकी.

"नोट्स फ्राम अ डेड हाउस ’ (दॉस्तोएव्स्की ) प्रशंसा योग्य कार्य है, लेकिन उनके दूसरे कामों के विषय में मैं अधिक नहीं सोचता." तोल्स्तोय बोले, "कुछ विशिष्ट स्थानों की ओर मेरा ध्यान खींचा गया, और वास्तव में वे अद्भुत थे, लेकिन संपूर्णता में --- संपूर्णता में मैंने उन्हें भयानक पाया. कृत्रिम भाषा, मूल चरित्र खोजने का सतत प्रयास, फिर उनका स्थूल चित्रण. मुख्य बात यह, कि दॉस्तोएव्स्की संलाप और संलाप करते हैं, और अंत में पाठक अपने को कोहरे में पाता है कि वह कहना क्या चाहते थे."

"आपने ’दि करमाज़ोव ब्रदर्श पढ़ा’ ?"

"उसे समाप्त नहीं कर सका ."

"उस पुस्तक के साथ परेशानी" मैं बोला , "यह है कि उसके सभी चरित्र, १५ वर्ष की लड़की से लेकर, सभी एक ही ढंग से बोलते हैं---- लेखक के ढंग से ."

"न केवल वे एक ही और समान ढंग से , लेखक के स्वर में बोलते हैं, बल्कि वे एक ही और समान विचार व्यक्त करते हैं जैसा कि लेखक करता है और क्रत्रिम भाषा में."

"लेकिन ’क्राइम एण्ड पनिशमेण्ट’ उनका अच्छा उपन्यास है . उसके विषय में आपके क्या विचार हैं. "

"क्राइम एण्ड पनिशमेण्ट ? हां, वह अच्छा है. लेकिन जब आप प्रारंभ के कुछ चरित्रों को पढ़ लेते हैं, तब आप जान जाते हैं कि पूरे उपन्यास में उसीका अनुकरण होगा शेष उसीका दोहराव होता है जो आप प्रारंभ में पढ़ चुके होते हैं."

"लेव निकोलायेविच, आपका ’चाइल्डहुड’ बच्चों को पढ़ने के लिए दिए जाने के लिए किस उम्र के बच्चों को दिया जाना आप उचित मनते हैं."

"किसी आयु के नही."

"किसी आयु के नहीं."

"मैं सोचता हूं नहीं. मैं मानता हूं ’चाइल्डहुड’ और ’ब्वॉयहुड’ पुस्तकें बच्चों के लिए नहीं हैं. ’दि प्रिजनर ऑफ कॉकेशस’, और ’झिलिन’ (zhylin) और कोस्तिलिन (Kostylin) --- वे भिन्न हैं. " तोल्स्तोय बोले, "मैं उन दोनों पुस्तकों को प्यार करता हूं ,हालांकि इन्हें और अच्छा लिखा जा सकता था."

"किस रूप में ?"

"भाषा और सरल की जा सकती थी. कुछ अकलात्मक लोक अभिव्यक्तियों को बदला जा सकता था, लेकिन मैं ऎसा नहीं कर सकता. मैं सदैव ऎसा ही लिखता हूं." हल्की मुस्कान के साथ वह बोले.

"नहीं." क्षणभर रुककर तोल्स्तोय आगे बोले, "वार एण्ड पीस’ के अतिरिक्त कोई भी ऎतिहासिक उपन्यास लिखने में मुझे सफलता नहीं मिली. मैंने ’पीटर दि ग्रेट’ के समय को लेकर उपन्यास लिखना चाहा, फिर दिसम्बरवादियों को लेकर. ’पीटर दि ग्रेट’ के काल को विषय बनाकर लिखने में मैं असमर्थ रहा क्योंकि वह बहुत पहले की बात थी . हमसे बिलकुल भिन्न लोगों के हृदय और मर्म के रहस्य को समझना मेरे लिए बहुत कठिन था. और दिसम्बरवादियों पर लिखना ठीक उसके विपरीत कारणों से कठिन प्रतीत हुआ. वे बहुत निकट और बहुत जाने समझे थे. बड़ी मात्रा में उस समय के विवरण, संस्मरण और पत्र मेरे पास हैं और मैं निश्चित ही उनको लेकर छटपटाता रहता हूं."

"दिसम्बरवादियों पर लिखे जाने वाले उपन्यास में छोटा निकोलई बोल्कोन्स्की एक चरित्र के रूप में नहीं होता ?"

"ओह, हां," तोल्स्तोय ने कहा. उनके चेहरे पर प्रसन्न मुस्कान फैल गयी थी. फिर कुछ क्षण रुककर , "और इस प्रकार मैंने आपके ऑस्त्रोगोज्स्क की यात्रा कभी नहीं की. दिसम्बरवादियों पर अपने उपन्यास के संबन्ध में निश्चित रूप से मैं ऑस्त्रोगोज्स्क जाना चाहता था."

"तेव्याशॉव्स ने मुझे यह बताया था . आप उनके साथ ठहरना चाहते थे. क्या ऎसा नहीं था ?"

"नहीं. कौन तेव्याशॉव्स ? तेव्याशॉव्स कौन हैं ? आह, हां. रेलेयेव, लगता है, तेव्याशॉव्स के साथ उसका विवाह हुआ है ?"

"जी."

"क्या आपका ऑस्त्रोगोज्स्क इतनी उन्नत और समृद्ध जगह है, जैसा कि मुझे बताया गया था."

"मैं क्या कहूं ! निजी तौर पर मैं उसे ऎसा नहीं पाता."

इस बिन्दु पर किसी कारण से बातचित पुनः तुर्गनेव की ओर मुड़ गयी थी.

"उनका प्रकृति चित्रण असाधारण है." मैं बोला.
"अतुलनीय." तोल्स्तोय ने अनुमोदन किया.

फिर हमने फ्लॉबर्ट और डॉडेट के विषय में चर्चा की. तोल्स्तोय ने कहा कि उन्हे डॉडेट (Daudet) का ’इवान्गेलिस्ते’ (Evangeliste) पसंद नहीं आया था, लेकिन बहुत समय पहले उन्होंने फ्लाबर्ट का ’मादाम बावेरी ’ (Madame Bovary) पढ़ा था, और हालांकि वह यह भूल गये थे कि उसका विषय क्या था लेकिन उन्हें यह याद था कि उन्होंने उसे पसंद किया था.

अन्य बातों के साथ उन्होंने कहा --

"मैंने एक कहानी छोटे बच्चों के लिए लिखी है. मैं प्रायः इसे उन्हें सुनाता हूं. उसमें केवल यही बात कही गयी है कि एक छोटा बालक था, जिसे सात खीरे मिले. उसमें से उसने सबसे छोटे को सबसे पहले खाया, फिर उसके बाद वाले को, फिर उसके बाद----- इस प्रकार उसने सभी खा लिए. आप बच्चों की प्रसन्नता तब देख सकते हैं जब मैं उस स्थान पर पहुंचता हूं जहां वह बालक आखिरी सबसे बड़े खीरे को खाना प्रारंभ करता है." और हंसते हुए तोल्स्तोय ने बाहें फैलाकर बताया कि आखिरी खीरा कितना बड़ा था.

हम पुनः कला पर चर्चा करने लगे और तोल्स्तोय लेर्मेन्तोव के विषय में बताने लगे.

"कितने दुख की बात है कि उनकी मृत्यु युवावस्था में हो गयी. उसमे कितनी जबर्दस्त प्रतिभा थी. उसने क्या नहीं किया. वह उन लोगों की भांति सीधे शुरू हो गया था जिन्हें सम्पूर्ण सामर्थ्य प्राप्त होती है. उसके लेखन में आपको कुछ भी सतही नहीं मिलेगा." उन्होंने कहा, "सतही चीजें लिखना बहुत सहज है, लेकिन उसका प्रत्येक शब्द इस प्रकार लिखा गया है मानो उसे नैसर्गिक प्रतिभा प्राप्त थी."

’तुर्गनेव एक साहित्यिक व्यक्ति थे, " तोल्स्तोय ने आगे कहा , "पुश्किन भी थे, लेकिन गोंचारोव तुर्गनेव से अधिक साहित्यिक व्यक्ति थे. लेर्मेन्तोव और मैं साहित्यिक व्यक्ति नहीं हैं."

इस बातचीत के दौरान मैंने अपना अनुभव बताया कि पुश्किन को पढ़ते हुए एक ऎसे व्यक्ति की उपस्थिति की प्रतीति होती है जो चतुर, अच्छे स्वभाववाला, प्रसन्न और यद-कदा विनोदशील था.

"सच" तोल्स्तोय ने कहा

दुख प्रकट करते हुए हमने तुर्गनेव की बीमारी पर चर्चा की.

"कुछ दिन पहले तक वह हृष्ट-पुष्ट और स्फूर्तिवान वृद्ध व्यक्ति थे." तोल्स्तोय ने कहा.

"वर्डोट के साथ उनके सम्बन्ध कैसे हैं ?"

"मुझे बताया गया, विशुद्ध आध्यात्मिक." तोल्स्तोय ने उत्तर दिया.

"मैंने सुना कि उनके एक बेटी है ."

"लेकिन वह वर्डोट की नहीं है. " तोल्स्तोय बोले, "और पुत्री के विषय में कुछ संदेह हैं. मुझे उनके लिए बहुत खेद है."

"आप ऎसा इसलिए कहते हैं क्योंकि वह खराब स्थिति में हैं ."

"वह नहीं जानते कि कितनी ईमानदारी से वर्डोट उनकी देखभाल करती है. निश्चित ही कुछ ऎसे क्षण अवश्य होंगे जब वह सोचती होगी, ’यदि अंत तेजी से आ जाए."

"लोग लिखते हैं कि वह रूस लौटने का स्वप्न देखते हैं."

"हां, तुर्गनेव ने अंत में स्पष्ट अनुभव किया ----." तोल्स्तोय ने कहना प्रारंभ किया, लेकिन वाक्य अधूरा छोड़ दिया. "फ्रांस के एक घर में रह रहे उस वृद्ध व्यक्ति का विचार घृणित और दयनीय है. हां, रूस में होने की ललक है उनमें ---- वह इस ललक को पूरा नहीं कर सकते."

"उन्होंने लिखा कि एक ऑपेरा हाउस से उन्हें जोड़ने के लिए एक टेलीफोन लगाया गया है."

"आह, हां . वह खराब स्थिति में हैं." तोल्स्तोय ने दोहरया, "सोचिए, एक बूढ़ा व्यक्ति मर रहा है, मृत्यु से भयभीत है वह और टेलीफोन द्वारा ऑपेरा संगीत में सांत्वना खोजता है. निश्चित ही बहुत तुच्छ सांत्वना---."

हमने टेलीफोन के भविष्य पर चर्चा प्रारंभ कर दी.

"महत्वपूर्ण और चमत्कारिक भविष्य." तोल्स्तोय बोले, " रेलवे और टेलीग्राफ बड़ा परिवर्तन लाये, लेकिन टेलीफोन इनसे भी बड़ा परिवर्तन लायेगा."

"आप ऎसा कैसे सोचते हैं ?"

"निम्न बातों की आप कल्पना करें. जार जनता को संदेश देना चाहते हैं. वह बोलते हैं और एक साथ शब्दशः वह संदेश रूस की प्रत्येक क्षेत्रीय सरकारों के प्रशासनिक केन्द्रों में सुना जाता है."

हमने रूस की वर्तमान स्थिति पर चर्चा प्रारंभ की.

"यह विस्मयकरी है. विस्मयकारी इसलिए कि सेण्ट पीटर्सबर्ग में क्या हो रहा है !" तोल्स्तोय ने कहा, " जार अलेक्जेंण्डर को जनता की भलाई के लिए कुछ करने की सलाह देने के बजाय, अधिकारी वर्ग रोड़े अटकाने के हर संभव प्रयत्न करते रहे. जनता असंतुष्ट , आशान्वित, हताश थी और उसमें कुछ उत्तेजना थी. जार की स्थिति बैर योग्य नहीं थी . उसके पूर्ववर्तियों ने उसके लिए चीजें खराब कर दीं थीं. उसने खराब चीजों से किसानों को मुक्त किया. लोगों की दृष्टि में वह हीरो बन गया. लेकिन वर्तमान जार उनके लिए कुछ भी करने का इच्छुक नहीं है, फिर भी उन्हें उससे अपेक्षाएं हैं. सारी बातें आश्चर्यजनक हैं. आश्चर्यजनक अंधापन. केवल एक बात जो वह उनसे कह सकता है -- "आभिजात्यवर्ग की आज्ञा मानो." वह किसानों से कहता है कि कृषि अनुदान में वृद्धि की अपेक्षा मत करो ; क्योंकि कुछ नहीं होगा. ऎसी बातें कहने का साहस उसमें कैसे होता है ? . किसानों की यह मांग है. हर व्यक्ति इस विषय पर बातें कर रहा है और लिख रहा है, और वह इस प्रकार की बातों से इंकार करता है . वह अपने शब्द वापस लेने के लिए विवश हो सकता है ? संभव है वह परिदृश्य से पूरी तरह ओझल हो जाये---- वह मर सकता है ---- और तब अनुदान में वृद्धि हो सकती है, अथवा काफी समय बाद प्रशासनिक व्यवस्था परिवर्तित हो सकती है, और जानते हो तब क्या होगा ?" तोल्स्तोय का स्वर उत्तेजित था.

हम शेद्रिन के विषय में पुनः बातें करने लगे.

"तुमने उनका नवीनतम ग्राम्यगीत पढ़ा ?" उन्होंने पूछा, "मीनिकाओं का संकट याद है ?"

"निश्चय ही " मैंने उत्तर दिया, "और उन छैलों की भी ."

"एक आनंदप्रद चीज," तोल्स्तोय बोले, और छैलों के विषय में एक छोटा-सा अंश उद्धृत किया. "वह अच्छा लिखते हैं. " उन्होंने निष्कर्ष दिया, "और वह कितनी मौलिक भाषा प्रयोग करते हैं !"

"जी" मैंने सहमति प्रकट करते हुए कहा, "दॉस्तोएव्स्की की भाषा भी मौलिक है."

"ओह, नहीं," तोल्स्तोय ने विरोध किया, "शेद्रिन की भाषा बहुत ही सुस्पष्ट , उत्तम, विशुद्ध जन- भाषा है, जबकि दॉस्तोएव्स्की की कृत्रिम और अस्वाभाविक है."

"----- मैंने एक सूचना पढ़ी थी कि इस वर्ष कला पर एक आलेख खुदोजेस्त्वेन्नी जर्नल को आप देने वाले हैं. क्या यह सच है ?"

"हां, मैंने एक आलेख का वायदा किया था. मैं नहीं जानता कि उन्होंने इस सूचना को प्रकाशित क्यों किया. मैंने सम्पादक से कहा था कि ऎसा नहीं करें, लेकिन उन्होंने मेरे अनुरोध की उपेक्षा की. आलेख लिखा जा चुका है, लेकिन मुझे उस पर एक दृष्टि और डालनी है और उसमें संशोधन करना है. मैं उसे यों ही नहीं दे सकता, और उसके लिए समय की अपेक्षा होगी जो कि इस समय मेरे आस नहीं है."

"मेरा विश्वास है कि तुर्गनेव अपने काम पर बार-बार दृष्टि डालते थे." मैंने कहा.

"न---हीं---s---s ." तोल्स्तोय ने हिचकते हुए कहा. "वह तेजी से लिखते थे और बहुत कम संशोधन करते थे . मैंने उनकी ’वर्कबुक्स’ देखी थीं. वह ’बाउण्ड कॉपी-बुक्स’ में लिखते थे. उहोंने मुझे दिखाया था."

"मैं इस बात के प्रभाव में था कि वह गोगोल की (लेखन) पद्धति के अनुसार लिखते थे ." मैं बोला.

"गोगोल की पद्धति क्या थी ?"

"गोगोल रचनाकारों को सलाह देते थे कि अपने पहले ड्राफ्ट को वह छुपाकर रख दें और लंबा समय गुजर जाने के बाद उसे पुनः उठायें , उसे संशोधित करें, और उसे भी रख दें, फिर उसे संशोधित करें और फिर रख दें ----- और लगातार ---- कम से कम आठ बार ---- ऎसा करें"

"यह एक अच्छी पद्धति है---- किसी पाण्डुलिपि का कुछ समय तक अनछुआ पड़ा रहना. आप जब उसे दोबारा पढ़ते हैं तब दृष्टि भिन्न हो चुकी होती हैं."
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कविताएं



अंजना संधीर की पांच कविताएं

( अंजना जी की कविताओं में भाषा का सहज प्रवाह है और मौलिकता भी। अपने परिवेश और सोच, दोनों का सम्मिलित सुन्दर शब्द- चित्र हैं उनकी कविताएँ। उनमें धार है और वे सीधे चोट करती हैं। मुझे बेहद अच्छी लगती हैं. - इला प्रसाद (यू.एस.ए.)


(१) अमरीका हड्डियों में जम जाता है

वे ऊँचे-ऊँचे खूबसूरत "हाइवे"
जिन पर चलती हैं कारें--
तेज रफ़्तार से,कतारबद्ध, चलती कार में चाय पीते-पीते,
टेलीफ़ोन करते, 'टू -डॊर' कारों में,रोमांस करते-करते,
अमरीका धीरे-धीरे सांसों में उतरने लगता है।

मूँगफ़ली और पिस्ते का एक भाव
पेट्रोल और शराब पानी के भाव,
इतना सस्ता लगता है सब्जियों से ज्यादा मांस
कि ईमान डोलने लगता है।
मँहगी घास खाने से तो अच्छा है सस्ता मांस ही खाना
और अमरीका धीरे-धीरे स्वाद में बसने लगता है।

गर्म पानी के शावर
टेलीविजन के चैनल, सेक्स के मुक्त दृश्य,
किशोरावस्था से 'वीकेन्ड' में गायब रहने की स्वतंत्रता
'डिस्को' की मस्ती, अपनी मनमानी का जीवन,
कहीं भी, कभी भी, किसी के भी साथ
उठने- बैठने की आजादी......
धीरे-धीरे हड्डियों में उतरने लगता है अमरीका।

अमरीका जब साँसों में बसने लगा
तो अच्छा लगा, क्योंकि साँसों को पंखों की
उड़ान का अंदाजा हुआ।
और जब स्वाद में बसने लगा अमरीका
तो सोचा खाओ, इतना सस्ता कहाँ मिलेगा ?
लेकिन अब जब हड्डियों में बसने लगा है अमरीका,
तो परेशान हूँ।

बच्चे हाथ से निकल गए,वतन छूट गया!
संस्कृति का मिश्रण हो गया ।
जवानी बुढ़ा गई,सुविधाएँ हड्डियों में समा गईं
अमरीका सुविधाएँ देकर हड्डियों में समा जाता है!!

व्यक्ति वतन को भूल जाता है
और सोचता रहता है--
मैं अपने वतन को जाना चाहता हूँ।
मगर, इन सुखॊं की गुलामी तो मेरी हड्डियों में
बस गई है।
इसीलिए कहता हूँ कि
तुम नए हो,
अमरीका जब साँसों में बसने लगे,
तुम उड़ने लगो, तो सात समुंदर पार
अपनों के चेहरे याद रखना।
जब स्वाद में बसने लगे अमरीका,
तब अपने घर के खाने और माँ की रसोई याद करना ।
सुविधाओं में असुविधाएँ याद रखना।
यहीं से जाग जाना.....
संस्कृति की मशाल जलाए रखना
अमरीका को हड्डियों में मत बसने देना ।
अमरीका सुविधाएँ देकर हड्डियों में जम जाता है!र

(2) तुम अपनी बेटियों को......
तुम अपनी बेटियों को
इन्सान भी नहीं समझते
क्यों बेच देते हो अमरीका के नाम पर?
खरीददार अपने मुल्क में क्या कम हैं कि.....
बीच में सात समुंदर पार डाल देते हो?
जहाँ से सिसकियाँ भी सुनाई न दे सकें
डबडबाई आँखॆं दिखाई न दे सकें
न जहाँ तुम मिलने जा सको
न कोई तुम्हें कुछ बता सके
कभी वापस आएँ भी तो
लाशॆं बने शरीर....जिन पर गहने और
मंहगे कपड़े पड़े हों.....!
तुम्हारी शान बढ़ाएँ और तुम्हारे पास भी
बिना रोये लौट जाएँ
उसी सोने के पिंजरे में
जहाँ अमरीका की कीमत
मजदूरी से भी चुकता नहीं होती !
(3) कैसे जलेंगे अलाव
ठंढे मौसम और
ठंढे खानों का यह देश
धीर-धीर मानसिक और शारीरिक रूप से भी
कर देता है ठण्ढा।
कुछ भी छूता नहीं है तब
कँपकँपाता नहीं है तन
धड़कता नहीं है मन
मर जाता है यहाँ , मान, सम्मान और स्वाभिमान।
बन जातीं हैं आदतें दुम हिलाने की
अपने ही बच्चों से डरने की
प्रार्थनाएँ करने की
छूट जाते हैं सारे रिश्तेदार
भूळ जाती है खुशबू अपनी मिट्टी की
बुलाता नहीं है तब वहाँ भी कोई।
आती नहीं है चिट्टी किसी की
जिनकी खातिर मार डाला अपने स्वाभिमान को।
उड़ जाते हैं वे बच्चे भी
पहले पढ़ाई की खातिर
फ़िर नौकरी, फ़िर ढूँढ़ लेते हैं साथी भी वहीं ।
बड़ी मुश्किलों से बनाए अपने घर में भी
लगने लगता है डर
अकेले रहते।
सरकारी नर्सें आती हैं, कामकाज कर जाती हैं।
फ़ोन कर लेते हैं कभी
आते नहीं हैं बच्चे ।
उनके अपने जीवन हैं
अपने माँ-बाप, भाई-बन्धु और देश तो
पहले ही छॊड़ आये थे वो
अब ये भी छूट गए
माया मिली न राम!
सोचते हैं
धोबी के कुत्ते बने, घर के न घाट के।
घंटों सोचते रह्ते हैं।
खिड़की से पड़ती बर्फ़ धीरे-धीरे
हड्डियों पर भी
पड़ने लगती है।
काम की वजह से मजबूरी में
खाया बासी खाना उम्र भर
रहे ठण्ढे मौसम में
अब सबकुछ ठंढा -ठंढा है
मन पर पड़ी ठंढक में
भला सोचिए, कैसे जलेंगे अलाव?
(4) सभ्य मानव
ईसा!
मैं मानव हूँ।
तुम्हें इस तरह सूली से नीचे नहीं देख सकता!

नहीं तो तुममें और मुझमें क्या अंतर?
बच्चों ने आज
कीलें निकाल कर तुम्हें मुक्त कर दिया
क्योंकि नादान हैं वे
तुम्हारा स्थान कहाँ है
वे नहीं जानते
वे तो हैरान हैं
तुम्हें इस तरह कीलों पर गड़ा देखकर
मौका पाते ही,
तुम्हारी मूर्ति क्रास से अलग कर दी उन्होंने
पर मैं...
मैं सभ्य मानव हूँ
दुनिया में प्रेम, ममत्व, वात्सल्य, उपदेश,
सूली पर टँगा ही उचित है
अत: आओ,
बच्चों की भूल मैं सुधार दूँ
तुम्हें फ़िर कीलों से गाड़ दूँ
क्रास पर लटका दूँ
ताकि, तुम ईसा ही बने रहो।
(5) ओवरकोट
काले-लम्बे
घेरदार ,सीधे
विभिन्न नमूनों के ओवर कोट की भीड़ में
मैं भी शामिल हो गई हूँ।
सुबह हो या शाम, दोपहर हो या रात
बर्फ़ीली हड्डियों में घुसती ठंढी हवाओं को
घुटने तक रोकते हैं ये ओवरकोट।
बसों में,सब वे स्टेशनों पर इधर-उधर दौड़ते
तेज कदमों से चलते ये कोट,
बर्फ़ीले वातावरण में अजब सी सुंदरता के

चित्र खींचते हैं।
चाँदी सी बर्फ़ की चादरें जब चारों ओर बिछती हैं
उन्हें चीर कर जब गुजरते हैं ये कोट
तब श्वेत-श्याम से मनोहारी दूश्य
ऐसे लगते हैं
मानों किसी गोरी ने
बर्फ़ीली चादरों को नजर से बचाने के लिए
ओवरकोट रूपी तिल लगा लिया हो!
*****

डाo अन्जना संधीर का जन्म १ सितम्बर, को रुड़की (उत्तर प्रदेश) में हुआ था.
बहुआयामी प्रतिभा की धनी अंजना जी मनोविज्ञान में पी . एच .डी हैं.
लेखन : हिन्दी, अंग्रेजी, गुजराती और उर्दू में समान अधिकार से लेखन। कई विधाओं - गजल,
कविता, संस्मरण, निबंध, अनुवाद, सम्पादन एवं हिन्दी शिक्षण पाठ्य-पुस्तक लेखन- में एक साथ सक्रिय।
प्रकाशित कृतियाँ - "बारिशों का मौसम", "धूप छाँव और आंगन", "मौजे-सहर", "तुम मेरे पापा जैसे नहीं हो" "अमरीका हड्डियों
में जम जाता है", " संगम" "अमरीका एक अनोखा देश", लर्न हिन्दी एंड हिन्दी फ़िल्म सांग्स","अहमदाबाद से अमरीका"। दूरदर्शन के लिए "स्त्री- शक्ति" सीरियल का निर्माण।
"यादों की परछाइयाँ" और "इजाफ़ा" का उर्दू
से हिन्दी में अनुवाद।
सम्पादन: " प्रवासी हस्ताक्षर", "सात समुन्दर पार से", ये कश्मीर है", प्रवासिनी के बोल " और "प्रवासी - आवाज"।
पुरस्कार: गुजरात उर्दू साहित्य- अकादमी पुरस्कार , गुजरात हिन्दी साहित्य अकादमी पुरस्कार, "तुलसी
सम्मान"(लखनऊ), "अदिति साहित्य शिखर सम्मान"(गाजियाबाद), अखिल भारतीय कविसभा(दिल्ली) का "काव्यश्री" और "विक्रमशिला" का "साहित्यभूषण" पुरस्कार। उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा पुरस्कृत। इसके अतिरिक्त अमेरिका की विभिन्न संस्थाओं द्वारा विदेश में हिन्दी-
सेवा के लिए कई बार पुरस्कृत।
व्यवसाय : पत्रकारिता से आरम्भ कर अमेरिका में कोलम्बिया विश्वविद्यालय , न्यूयार्क में कई वर्षॊं तक हिन्दी का अध्यापन। आठवें विश्व हिन्दी सम्मेलन, न्यूयार्क में उल्लेखनीय भूमिका। "विश्व मंच पर
हिन्दी" का सम्पादन और प्रवासी-हिन्दी साहित्यकारों की पुस्तक-प्रदर्शनी का आयोजन।
संपर्क : एल-१०४, शिलालेख सोसाइटी, अहमदाबाद - ३८०००४
गुजरात, भारत
ईमेल; anjana_sandhir@
yahoo.com

कहानी




रंग बदलता मौसम

सुभाष नीरव

पिछले कई दिनों से दिल्ली में भीषण गरमी पड़ रही थी लेकिन आज मौसम अचानक खुशनुमा हो उठा था। प्रात: से ही रुक-रुक कर हल्की बूंदाबांदी हो रही थी। आकाश काले बादलों से ढका हुआ था। धूप का कहीं नामोनिशान नहीं था।
मैं बहुत खुश था। सुहावना और खुशनुमा मौसम मेरी इस खुशी का एक छोटा-सा कारण तो था लेकिन बड़ा और असली कारण कुछ और था। आज रंजना दिल्ली आ रही थी और मुझे उसे पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन पर रिसीव करने जाना था। इस खुशगवार मौसम में रंजना के साथ की कल्पना ने मुझे भीतर तक रोमांचित किया हुआ था।
हल्की बूंदाबांदी के बावजूद मैं स्टेशन पर समय से पहले पहुँच गया था। रंजना देहरादून से जिस गाड़ी से आ रही थी, वह अपने निर्धारित समय से चालीस मिनट लेट चल रही थी। गाड़ी का लेट होना मेरे अंदर खीझ पैदा कर रहा था लेकिन रंजना की यादों ने इस चालीस पैंतालीस मिनट के अन्तराल का अहसास ही नहीं होने दिया।
परसों जब दफ्तर में रंजना का फोन आया तो सिर से पांव तक मेरे शरीर में खुशी और आनन्द की मिलीजुली एक लहर दौड़ गई थी। फोन पर उसने बताया था कि वह इस रविवार को मसूरी एक्सप्रेस से दिल्ली आ रही है और उसे उसी दिन शाम चार बजे की ट्रेन लेकर कानपुर जाना है। बीच का समय वह मेरे संग गुजारना चाहती थी। उसने पूछा था- ''क्या तुम आओगे स्टेशन ?''
''कैसी बात करती हो रंजना ! तुम बुलाओ और मैं न आऊँ, यह कैसे हो सकता है ? मैं स्टेशन पर तुम्हारी प्रतीक्षा करता खड़ा मिलूँगा।''
फोन पर रंजना से बात होने के बाद मैं जैसे हवा में उड़ने लगा था। बीच का एक दिन मुझसे काटना कठिन हो गया था। शनिवार की रात बिस्तर पर करवटें बदलते ही बीती।
करीब चारेक बरस पहले रंजना से मेरी पहली मुलाकात दिल्ली में ही हुई थी- एक परीक्षा केन्द्र पर। हम दोनों एक नौकरी के लिए परीक्षा दे रहे थे। परीक्षा हॉल में हमारी सीटें साथ-साथ थीं। पहले दिन सरसरी तौर पर हुई हमारी बातचीत बढ़कर यहाँ तक पहुँची कि पूरी परीक्षा के दौरान हम साथ-साथ रहे, साथ-साथ हमने चाय पी, दोपहर का खाना भी मिलकर खाया। वह दिल्ली में अपने किसी रिश्तेदार के घर में ठहरी हुई थी। तीसरे दिन जब हमारी परीक्षा खत्म हुई तो रंजना ने कहा था- ''मैं पेपर्स की थकान मिटाना चाहती हूँ अब। इसमें तुम मेरी मदद करो।''
पिछले तीन दिनों से परीक्षा के दौरान हम दिन भर साथ रहे थे। अब परीक्षा खत्म होने पर रंजना का साथ छूटने का दुख मुझे अंदर ही अंदर साल रहा था। मैंने रंजना की बात सुनकर पूछा- ''वह कैसे ?''
''मैं दिल्ली अधिक घूमी नहीं हूँ। कल दिल्ली घूमना चाहती हूँ। परसों देहरादून लौट जाऊँगी।'' कहते हुए वह मेरे चेहरे की ओर कुछ पल देखती रही थी।
मैं उसका आशय समझ गया था। उसके प्रस्ताव पर मैं खुश था लेकिन एक भय मेरे भीतर कुलबुलाने लगा था। बेकारी के दिन थे। घर से दिल्ली में आकर परीक्षा देने और यहाँ तीन दिन ठहरने लायक ही पैसों का इंतज़ाम करके आया था। मेरी जेब में बचे हुए पैसे मुझे रंजना के साथ पूरा दिन दिल्ली घूमने की इजाज़त नहीं देते थे।
''दिल्ली तो मैं भी पहली बार आया हूँ, इस परीक्षा के सिलसिले में। घूमना तो चाहता हूँ पर...।''
''पर वर कुछ नहीं। कल हम दोनों दिल्ली घूमेंगे, बस।'' रंजना ने जैसे अन्तिम निर्णय सुना दिया। परीक्षा केन्द्र इंडिया गेट के पास था। वह बोली, ''कल सुबह नौ बजे तुम यहीं मिलना।''
यूँ तो मुझे परीक्षा समाप्त होते ही गांव के लिए लौट जाना था, पर रंजना की बात ने मुझे एक दिन और दिल्ली में रुकने के लिए मजबूर कर दिया। मैं पहाड़गंज के एक छोटे-से होटल में एक सस्ता सा कमरा लेकर ठहरा हुआ था। जेब में बचे हुए पैसों का मैंने हिसाब लगाया तो पाया कि कमरे का किराया देकर और वापसी की ट्रेन का किराया निकाल कर जो पैसे बचते थे, उसमें रंजना को दिल्ली घुमाना कतई संभव नहीं था। बहुत देर तक मैं ऊहापोह में घिरा रहा था- गांव लौट जाऊँ या फिर ...। रंजना की देह गंध मुझे खींच रही थी। मुझे रुकने को विवश कर रही थी। और जेब थी कि गांव लौट जाने को कह रही थी।
फिर मैंने एक फैसला किया। रुक जाने का फैसला। इसके लिए मुझे गले में पहनी सोने की पतली-सी चेन, अपनी जेब कट जाने का बहाना बनाकर पहाड़गंज में बेचनी पड़ी थी। यह चेन माँ ने मुझे अपनी सोने की एक चूड़ी तुड़वाकर बनवा कर दी थी। माँ और बापू को बताने के लिए मैंने एक बहाना गढ़ लिया था कि शहर में भीड़भाड़ में आते-जाते किसी ने साफ कर दी या कहीं गिर गई। यह कैसा आकर्षण था ? रंजना और मेरी मुलाकात अभी थी ही कितने दिन की ? मात्र तीन दिन ही तो हम मिले थे। पर कुछ था मेरे अन्दर कि मैं यह सब कुछ करने को तैयार हो उठा।
अगले दिन मैं समय से निश्चित जगह पर पहुँच गया था। रंजना भी समय से आ गई थी। वह बहुत सुन्दर लग रही थी। उसका सूट उस पर खूब फब रहा था। उसके चेहरे पर उत्साह और उमंग की एक तितली नाच रही थी। एकाएक मेरा ध्यान अपने कपड़ों की ओर चला गया। मैं घर से दो जोड़ी कपड़े लेकर ही चला था। मेरी पैंट-कमीज और जूते साधारण-से थे। मन में एक हीन भावना रह रह कर सिर उठा रही थी। मेरे चेहरे को पढ़ते हुए रंजना ने कहा था, ''तुम कुछ मायूस-सा लगते हो। लगता है, तुम्हें मेरे संग दिल्ली घूमना अच्छा नहीं लग रहा।''
''नहीं, रंजना। ऐसी बात नहीं।'' मेरे मुंह से बस इतना ही निकला था।
हम दोनों ने उस दिन इंडिया गेट, पुराना किला, चिड़िया घर, कुतुब मीनार की सैर की। दोपहर में एक ढाबे पर भोजन किया। सारे समय हँसती-खिलखिलाती रंजना का साथ मेरे तन-मन को गुदगुदाता रहा था।
साल भर बाद इंटरव्यू के सिलसिले में हम फिर मिले थे। हम फिर पूरा एक दिन दिल्ली की सड़कों पर घूमते रहे थे। इसी दौरान रंजना ने बताया कि उसके बड़े भाई यहाँ दिल्ली में एक्साइज विभाग में डेपूटेशन पर आने वाले हैं। उसने मुझे उनका पता देते हुए कहा था कि मैं उनसे अवश्य मिलूं।
कुछ महीनों बाद मुझे दिल्ली में भारत सरकार के एक मंत्रालय में नौकरी मिल गई। मैं रंजना के बड़े भाई साहब से उनके ऑफिस में जाकर मिला था। वह बड़ी गर्मजोशी से मुझसे मिले थे। उनसे ही पता चला कि नौकरी की ऑफर तो रंजना को भी आई थी, पर इस दौरान देहरादून के केन्द्रीय विद्यालय में बतौर अध्यापक नियुक्ति हो जाने के कारण उसने दिल्ली की नौकरी छोड़ दी थी। मैं उन्हें अपने ऑफिस का फोन नंबर देकर लौट आया था। मुझे रंजना का दिल्ली में नौकरी न करना अच्छा नहीं लगा था। फिर भी, मुझे उम्मीद थी कि रंजना से मेरी मुलाकात अवश्य होगी। कुछ माह बाद रंजना के बड़े भाई साहब दिल्ली से चंडीगढ़ स्थानांतरित हो गए। अब रही-सही उम्मीद भी जाती रही। लेकिन, परसों जब अचानक रंजना का फोन आया तो मेरी उम्मीद जैसे जिन्दा हो उठी।
ट्रेन शोर मचाती हुई प्लेटफॉर्म पर लगी तो मैं अपनी यादों के समन्दर से बाहर निकला। रंजना ने मुझे प्लेटफॉर्म पर खड़ा देख लिया था। ट्रेन से उतरकर वह मेरी ओर बढ़ी। आज वह पहले से अधिक सुन्दर लग रही थी। सेहत भी उसकी अच्छी हो गई थी। सामान के नाम पर उसके पास एक बड़ा-सा अटैची था और कंधे पर लटकता एक छोटा-सा काला बैग। उसने कुली को आवाज़ दी। मैंने कहा, ''कुली की क्या ज़रूरत है। तेरे पास एक ही तो अटैची है। मैं उठा लूंगा।'' और मैंने अटैची पकड़ लिया था।
प्लेटफॉर्म पर चलते हुए रंजना ने कहा, ''मनीष, मेरे पास चार-पाँच घंटों का समय है। कानपुर जाने वाली शाम चार बजे वाली गाड़ी की मैंने रिजर्वेशन करा रखी है। ऐसा करती हूँ, सामान मैं यहीं क्लॉक रूम में रखवा देती हूँ और रिटायरिंग रूम में फ्रैश हो लेती हूँ। फिर चलते हैं, ठीक।''
मुझे रंजना का यह प्रस्ताव अच्छा लगा। मैं जहाँ रह रहा था, वह जगह स्टेशन से काफी दूर थी, वहाँ आने-जाने में ही दो घंटे बर्बाद हो जाने थे। रिटायरिंग रूम में फ्रैश होने के बाद रंजना ने अटैची को क्लॉक-रूम में रखवाया और फिर हम दोनों स्टेशन से बाहर निकले। सवा ग्यारह बजे रहे थे। मैंने पूछा- ''किधर चलें ?''
“मनीष, मुझे कुछ ज़रूरी शॉपिंग करनी है पहले।“
“ठीक है… कहाँ चलना है ?” मैंने पूछा ।
''करोल बाग चलते हैं।'' रंजना जैसे पहले से ही तय करके आई थी।
मैंने एक ऑटो वाले से बात की और हम करोल बाग के लिए चल दिए। ऑटो में सट कर बैठी रंजना की देहगंध मुझे दीवाना बना रही थी। मैंने चुटकी ली, ''पहले से कुछ मुटिया गई हो। टीचर की नौकरी लगता है, रास आ गई है।''
''तुम्हें मैं मोटी नज़र आ रही हूँ ?'' रंजना ने ऑंखें तरेरते हुए मेरी ओर देखकर कहा।
''मोटी न सही, पर पहले से सेहत अच्छी हो गई है। और सुन्दर भी हो गई हो।''
''अच्छा ! पहले मैं सुन्दर न थी ?''
''मैंने यह कब कहा ?''
''अच्छा बताओ, तुम्हें मेरी याद आती थी?'' हवा से चेहरे पर आए अपने बालों को हाथ से पीछे करते हुए रंजना ने पूछा।
''बहुत! मैं तो तुम्हें भूला ही नहीं।''
''अच्छा !'' इस बार रंजना की मुस्कराहट में उसके मोती जैसे दांतों का लिश्कारा भी शामिल था।
''तुमने दिल्ली वाली नौकरी की ऑफर क्यों ठुकराई ? यहाँ होती तो हम रोज मिला करते।''
''दरअसल मुझे दफ्तर की दिन भर की नौकरी से टीचर की नौकरी बहुत पसंद है। इसलिए जब अवसर मिला, वह भी केन्द्रीय विद्यालय का तो मैं उसे ठुकरा न सकी।''
तभी, ऑटो वाले ने करोलबाग के एक बाजार में ऑटो रोक दिया। हम उतर गए। ऑटो वाले को रंजना पैसे देने लगी तो मैंने रोक दिया। पैसे देकर हम दोनों बाजार में घूमने लगे। रंजना कई दुकानों के अन्दर गई। सामान उलट-पुलट कर देखती रही। कीमतें पूछती रही। भाव बनाती रही। उसे देखकर मुझे लगा, रंजना को शॉपिंग का अच्छा तजुर्बा हो जैसे। हमें बाजार में घूमते एक घंटे से ऊपर हो चुका था लेकिन रंजना ने अभी तक कुछ भी नहीं खरीदा था। मैंने पूछा, ''रंजना, तुम्हें लेना क्या है ?''
उसने मेरी ओर देखा और हल्का-सा मुस्करा दी। फिर, वह उसी दुकान में जा घुसी जहाँ हम सबसे पहले गए थे। वह कपड़ों की दुकान थी। काफी देर बाद उसने दो रेडीमेड सूट खरीदे। पैसे देने लगी तो मैंने उसे रोक दिया। थोड़ी न-नुकर के बाद वह मान गई। मैंने पैसे दिए और सूट वाले थैले पकड़ लिए। फिर वह एक और दुकान में गई और तुरन्त ही बाहर निकल आई। वह मुझे बाजू से पकड़कर खींचती हुई -सी आगे बढ़ी और एक दूसरी दुकान में जा घुसी। उसने दो साड़ियाँ पसंद कीं। इस बार उसने अपना बटुआ नहीं खोला। साड़ियाँ कीमती थीं, मैंने पैसे अदा किए और हम दुकान से बाहर आ गए। बाहर निकलकर वह बोली, ''शॉपिंग करना कोई आसान काम नहीं ।''
फिर वह फुटपाथ पर लगी दुकानों पर झुमके, बालियाँ और नेल-पालिश देखने लगी। पूरा बाजार घूम कर उसने दो-चार चीजें खरीदीं। मैंने घड़ी की तरफ देखा- दो बजने वाले थे।
''मनीष, मुझे जूती खरीदनी है।'' रंजना के कहने पर मैं उसे जूतियों वाले बाजार में ले गया। थैले उठाये मैं उसके पीछे-पीछे एक दुकान से दूसरी, दूसरी से तीसरी और तीसरी से चौथी दुकान घूमता रहा।
रंजना के संग घूमना हालाँकि मुझे अच्छा लग रहा था पर मैं एकांत में बैठकर उसके साथ बातें भी करना चाहता था। रंजना को लेकर जो स्वप्न मैंने देखे थे, उनके बारे में मैं उसे बताना चाहता था। मैंने सोचा था, रंजना घंटा, डेढ़-घंटा शॉपिंग करेगी, फिर हम किसी रेस्तरां में बैठकर लंच के साथ-साथ कुछ बातें भी शेयर करेंगे। समय मिला तो किसी पॉर्क में भी बैठेंगे। पर मेरी यह इच्छा पूरी होती नज़र नहीं आती थी।
रंजना तीन बजे तक सैंडिल ही पसंद करती रही। सैंडिल लेकर जब हम सड़क पर आए तो उसे जैसे एकाएक कुछ याद हो आया। वह रुक कर बोली, ''मनीष, एक चीज़ तो रह ही गई।''
''क्या ?'' सामान उठाये मैंने पूछा।
मेरे चेहरे पर आई खीझ को जैसे उसने पढ़ लिया था, बोली, “बस, आखिरी आइटम…छोटा-सा अटैची या बैग लेना है।''
मैं कुछ न बोला। चुपचाप उसके पीछे-पीछे चलने लगा।
मुझे जोरों की भूख लगी हुई थी। मैंने पूछा, ''रंजना, तुम्हें भूख नहीं लगी? कुछ खा लेते हैं कहीं बैठ कर।''
उसने पहली बार अपनी कलाई पर बंधी घड़ी की ओर देखा था और समय देखकर हड़बड़ा उठी थी।
''नहीं-नहीं, मनीष। देर हो जाएगी। तीन बीस हो रहे हैं। चार बजे की ट्रेन है। अब ऑटो लो और चलो यहाँ से।''
ऑटो कर जब हम स्टेशन पहुँचे पौने चार हो रहे थे। उसने फटाफट क्लॉक रूम से अपना अटैची लिया। छोटा-छोटा सामान अपने हाथों में ले कर बोली, ''जल्दी करो, मनीष। कहीं गाड़ी न छूट जाए।''
ट्रेन प्लेटफॉर्म नंबर तीन पर लगी हुई थी। सामान उठाये मैं रंजना के पीछे-पीछे सीढ़ियाँ चढ़ने लगा। मेरी साँस फूल रही थीं। एकबार मन हुआ, कुली को बुला लूँ। लेकिन दूसरे ही क्षण अपने इस इरादे को रद्द करके मैं रंजना के पीछ-पीछे चलता रहा। लगभग दौड़ते हुए रंजना ने अपना कोच ढूँढ़ा। यह एक टू-टायर डिब्बा था। मैंने उसके सारे सामान को उसकी सीट पर और सीट के नीचे व्यवस्थित करके रख दिया था। खिड़की के पास बैठ कर अब वह रूमाल से अपने माथे का पसीना पोंछ रही थी। ट्रेन छूटने में कुछ मिनट ही बाकी थे।
मैं डिब्बे से नीचे उतरा और रंजना के लिए पानी की बोतल लेने दौड़ा। पानी की बोतल लेकर लौटा तो देखा- प्लेटफॉर्म पर खड़ा एक युवक खिड़की के पास बैठी रंजना से बातें कर रहा था। दोनों की पीठ मेरी ओर थी। उनके बीच होती वार्तालाप ने मेरे कदम जहाँ के तहाँ रोक दिए।
''मुझे पहचाना ? मैं राकेश का दोस्त, कमल। राकेश जब आपके घर आपको देखने गया था, मैं उसके साथ था।''
''ओह आप !''
''मैं लखनऊ जा रहा हूँ। पिछले डिब्बे में मेरी सीट है। मैंने आपको डिब्बे में चढ़ते देख लिया था। आप किधर जा रही हैं ?''
''कानपुर।''
''कौन रहता है वहाँ ?''
''मेरी मौसी का घर है कानपुर में। उनकी बेटी का विवाह है। मेरे घरवाले बाद में आएँगे, मैं कुछ पहले जा रही हूँ।''
''वह कौन है जो आपके साथ आया है ?''
''वो... वो तो बड़े भाई साहब का कोई परिचित है। यहीं दिल्ली में नौकरी करता है। भाई साहब ने फोन कर दिया था। बेचारा सुबह से मेरे संग कुलियों की तरह घूम रहा है।''
मेरे अंदर जैसे कुछ कांच की तरह टूटा था। कहाँ मैं अपनी दोस्ती को रिश्ते में बदलने के सपने देख रहा था और कहाँ रंजना ने मुझे दोस्त के योग्य भी नहीं समझा।
सिगनल हो गया था। वह युवक अपने डिब्बे में चला गया था। मैंने आगे बढ़कर खिड़की से ही पानी की बोतल रंजना को थमाई और धीमे स्वर में पूछा, ''कौन था ?''
''मेरे मंगेतर का दोस्त।'' रंजना ने मुस्कराते हुए बताया ही था कि ट्रेन आगे सरकने लगी। रंजना ने हाथ हिलाकर ‘बॉय-बॉय’ करने लगी। आगे बढ़ती ट्रेन के साथ मैं कुछ दूर तक दौड़ना चाहता था, पर न जाने मेरे पैरों को क्या हो गया था। वे जैसे प्लेटफॉर्म से ही चिपक गए थे। मैं जहाँ खड़ा था, वहीं खड़ा रह गया- जड़वत-सा !
धीमे-धीमे गाड़ी रफ्तार पकड़ती गई। मेरे और रंजना के बीच का फासला लगातार बढ़ता चला गया। देखते देखते रंजना एक बिंदु में तबदील हो कर एकाएक अदृश्य हो गई।
मैं भारी कदमों से स्टेशन से बाहर निकला। मुझे बेहद गरमी महसूस हुई। इस मौसम को न जाने अचानक क्या हो गया था। सवेरे तो अच्छा-भला और खुशनुमा था, पर अब आग बरसा रहा था। क्या वाकई मौसम गरम था या मेरे अंदर जो आग मच रही थी, यह उसका सेक था ?
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जन्म: 27–12–1953, मुरादनगर (उत्तर प्रदेश)शिक्षा: स्नातक, मेरठ विश्वविद्यालयकृतियाँ: ‘यत्कचित’, ‘रोशनी की लकीर’ (कविता संग्रह)‘दैत्य तथा अन्य कहानियाँ’, ‘औरत होने का गुनाह’‘आखिरी पड़ाव का दु:ख’(कहानी-संग्रह)‘कथाबिंदु’(लघुकथा–संग्रह),‘मेहनत की रोटी’(बाल कहानी-संग्रह)लगभग 12 पुस्तकों का पंजाबी से हिंदी में अनुवाद, जिनमें“काला दौर”, “कथा-पंजाब – 2”, कुलवंत सिंह विर्क की चुनिंदा पंजाबी कहानियाँ”, “पंजाबी की चर्चित लघुकथाएं”, “तुम नहीं समझ सकते”(जिन्दर का कहानी संग्रह), “छांग्या रुक्ख”(बलबीर माधोपुरी की दलित आत्मकथा) और “रेत” (हरजीत अटवाल का उपन्यास) प्रमुख हैं।सम्पादन अनियतकालीन पत्रिका ‘प्रयास’ और मासिक ‘मचान’ ।ब्लॉग्स: सेतु साहित्य( उत्कृष्ट अनूदित साहित्य की नेट पत्रिका )http://www.setusahitya.blogspot.com/वाटिका(समकालीन कविताओं की ब्लॉग पत्रिका)http://www.vaatika.blogspot.com/साहित्य सृजन( साहित्य, विचार और संस्कृति का संवाहक)http://www.sahityasrijan.blogspot.com/
गवाक्ष (हिंदी–पंजाबी के समकालीन प्रवासी साहित्य की प्रस्तुति)
http://www.gavaksh.blogspot.com/सृजन–यात्रा ( सुभाष नीरव की रचनाओं का सफ़र)http://www.srijanyatra.blogspot.com/पुरस्कार/सम्मान: हिन्दी में लघुकथा लेखन के साथ-साथ पंजाबी-हिन्दी लघुकथाओं के श्रेष्ठ अनुवाद के लिए ‘माता शरबती देवी स्मृति पुरस्कार, 1992’ तथा ‘मंच पुरस्कार, 2000’ से सम्मानित।सम्प्रति : भारत सरकार के पोत परिवहन मंत्रालयमें अनुभाग अधिकारी(प्रशासन)।सम्पर्क: 372, टाईप–4, लक्ष्मी बाई नगर, नई दिल्ली–110023ई मेल: subhashneerav@gmail.comhttp://www.subhneerav@gmail.com/दूरभाष : 011–24104912(निवास)09810534373