शुक्रवार, 9 अक्तूबर 2009

वातायन - अक्टूबर २००९



हम और हमारा समय

फलते नेता - मरता किसान

रूपसिंह चंदेल

पिछले दिनों निजी कंपनियों के मुख्य कार्यकारी अधिकारियों के वेतनमानों को लेकर सरकार की चिन्ता उभरकर सामने आई. कंपनी मामलों के मंत्री श्री सलमान खुर्शीद ने उनके भारी-भरकम वेतनमानों पर चिन्ता प्रकट की . सरकारी हलकों में बहुत दिनों से इस विषय पर मरमराहट थी और इसीलिए खुर्शीद साहब की टिप्पणी को सरकार का दृष्टिकोण माना गया . योजना आयोग के उपाध्यक्ष ने अपनी राय प्रकट करते हुए मुख्य कार्यकारी अधिकारियों के लिए सरकारी सुझावों की बात कही . मुख्य कार्यकारी अधिकारियों के वेतनमानों का इस परिप्रेक्ष्य में गहराई से विश्लेषण किया जा सकता है कि जिन मंत्रियों के कंधों पर देश का बोझ है उन्हें एक सांसद के बराबर वार्षिक वेतन मिलता है जो किसी क्लर्क से अधिक नहीं है . अन्य सुविधाओं को यदि जोड़ा जाए तब यह ग्यारह लाख प्रति माह के लगभग बैठता है. लेकिन इतनी बड़ी जिम्मेदारी ढोनेवाले मंत्री जी का वेतन और सुविधा किसी छोटी कंपनी के मुख्यकार्यकारी अधिकारी से अधिक नहीं बैठता . कहां देश की जिम्मेदारी से हलाकान मंत्री और कहां एक या कुछ कंपनियों का मुख्य कार्यकारी अधिकारी . उसके सामने मंत्री जी का वेतन और सुविधाएं चुटकीभर . इस असुन्तुलन पर सरकार का चिन्तित होना लाजिमी है . उदाहरण के लिए देश के कुछ मुख्य कार्यकारी अधिकारियों के वेतन की चर्चा आवश्यक है . मुकेश अंबानी ने 2008-09 में बावन करोड़ रुपए के लगभग वेतन और भत्ता प्राप्त किया जबकि 2007-08 में यह राशि 44.02 करोड़ थी . इसी दौरान उनके अनुज अनिल अंबानी को 30.02 करोड़ और भारती एयरटेल के सुनील मित्तल को 22.89 करोड़ मिले थे.

सरकार की चिन्ता मुझ जैसे साहित्यकार को भी चिन्तित करती है और सोचने के लिए विवश करती है कि इतने कम वेतन और सुविधा में एक मंत्री या सांसद अपना गुजर बसर कैसे करता होगा . इस समाचार ने मुझे बहुत छकाया . मैंने कुछ जानकारियां उपलब्ध कीं . अर्थ विशेषज्ञ नहीं हूं इसलिए कुछ चूक भी संभव है .

उपलब्ध जानिकारियों से ज्ञात हुआ कि मंत्री जी का वेतन भले ही ऊंट के मुह में जीरा हो लेकिन उन्हें प्राप्त अन्य सुविधाएं ( जो कि आवश्यक भी हैं ) भारी से भारी वेतन पाने वाले मुख्य कार्यकारी अधिकारी से कई गुना अधिक हैं . केंन्द्र के मंत्री जिन बंगलों में रहते हैं उनके किराए का बाजार मूल्य साठ-सत्तर लाख रुपए प्रति माह है . इसके अतिरिक्त निजी स्टॉफ , सेक्योरिटी , गाडि़यां , पेट्रोल , मुफ्त हवाई यात्राएं आदि.....इत्यादि--- यह सब उन्हें बिना किसी जवाबदेही के उपलब्ध होता है . देश की आर्थिक स्थिति ध्वस्त हो रही है , बाढ़ , सूखा , आतंक ... अर्थात् कहीं कुछ भी होता रहे , न उनकी सुविधाएं कम होती हैं और न उनकी कुर्सी डगमगाती है . उनका पद पांच वर्ष के लिए सुरक्षित रहता है . लेकिन एक कंपनी के मुख्य कार्यकारी अधिकारी के साथ ऐसा नहीं होता . वह न केवल कंपनी के शेयर होल्डर्स के प्रति , बल्कि अपने कर्मचारियों और बाजार के प्रति भी जवाबदेह होता है . हमने देखा कि आर्थिक मंदी के कारण दिवालिया हुई कितनी ही कंपनियों -बैंकों के मुख्य-कार्यकारी अधिकारियों को अपने पद से हाथ धोना पड़ा . लेकिन जिस जनता के वोटों से जीतकर एक सांसद मंत्री बनता है , उसके प्रति वह कितनी जिम्मेदारी अनुभव करता है ? उसे उसकी सुध पांच वर्ष बाद ही आती है और तब तक उसके क्षेत्र के कितने ही किसान - मजदूर अपनी परेशानियों के चलते आत्म-हत्याएं कर चुके होते हैं . उसके क्षेत्र का किसान भुखमरी की कगार पर पहुंच रहा होता है ---सरकारी कुनीतियों के कारण दस बीघे खेतों का स्वामी पांच वर्षों में खेत गंवा मजदूर बन चुका होता है जबकि मंत्री जी का बैंक बैंलेंस कई गुना बढ़ चुका होता है . मंत्री ही क्यों सांसदों और विधायकों का भी .

पिछले दिनों एक अन्य समाचार ने भी चैंकाया . समाचार पांच वर्षों में हरियाणा के विधायकों के खातों में पांच करोड़ रुपए जुड़ने का था . कहां से आया यह धन ? और यह वह राशि है जो पत्रकारों की जानकारी में आई . अज्ञात कितनी होगी ? और हरियाणा ही क्यों --- कौन -सा प्रदेश इससे अछूता है ? लूटने के ढंग अलग हो सकत हैं --- लेकिन लुट जनता ही रही होती है .

उत्तर प्रदेश अब ‘बुत प्रदेश’ बनने जा रहा है . जनता की गाढ़ी कमाई के छब्बीस सौ करोड़ रुपए--- और बुत भी उनके नहीं जिनकी कुर्बानियों की बदौलत हम आज स्वतंत्र देश में सांस ले रहे हैं . देश की आजादी के लिए नाना साहब , अजीमुल्ला खां , अजीजन , शमसुद्दीन , तात्यां टोपे , अहमदुल्लाशाह , बेगम हजरत महल , वाजिदअलीशाह , लक्ष्मी बाई आदि ने आजादी के लिए 1857 में प्रथम भारतीय क्रांति की अलख जगाई थी , लेकिन कितनों के बुत लगाए गए ? कानपुर के पास बिठूर में नाना साहब के महल की मात्र एक बची ध्वस्त दीवार ढहने के लिए तैयार है , उसका संरक्षण तक नहीं . जनरल हैवलॉक ने बर्बरता का परिचय देते हुए नाना के महल को जमींदोज करवाकर वहां हल चलवा दिया था . वहां नाना , तांत्या और अजीमुल्ला के स्मारक नहीं बनने चाहिए ? कानपुर में ही गणेश शंकर विद्यार्थी , हलधर बाजपेई आदि की कितनी बुतें लगाई उत्तर प्रदेश सरकार ने ? चन्द्रशेखर आजाद , रामप्रसाद बिस्मिल , अशफाकउल्ला खां , राजेन्द्र लाहिड़ी --- कितने ही क्रान्तिकारी हैं -- कितनों के स्मारक हैं ? इसे राजनैतिक कृतघ्नता ही कहना होगा --- .

सरकार को निजी कंपनियों के मुख्यकार्यकारी अधिकारियों के वेतनमानों और भत्तों की चिन्ता करने की अपेक्षा राजनैतिक भ्रष्टाचार और कदाचार की चिन्ता करने की आवश्यकता है .
******
वातायन के प्रस्तुत अंक में युवा कवि योगेन्द्र कृष्ण की कविताएं और वरिष्ठ कथाकार कृष्ण बिहारी की कहानी .
आशा है अंक आपको पसंद आएगा .

कविता



योगेन्द्र कृष्णा की कविताएं

(कवियों-बौध्दिकों के विरुद्ध एक गोपनीय शासनादेश)

देखते ही गोली दागो

धवस्त कर दो
कविता के उन सारे ठिकानों को
शब्दों और तहरीरों से लैस
सारे उन प्रतिष्ठानों को
जहां से प्रतिरोध और बौद्धिकता
की बू आती हो...
कविता अब कोई बौद्धिक विलास नहीं
रोमियो और जुलिएट का रोमांस
या दुखों का अंतहीन विलाप नहीं
यह बौद्धिकों के हाथों में
ख़तरनाक हथियार बन रही है...
यह हमारी व्यवस्था की गुप्त नीतियों
आम आदमी की आकांक्षाओं
और स्वप्नों के खण्डहरों
मलबों-ठिकानों पर प्रेत की तरह मंडराने लगी है
सत्ता की दुखती रगों से टकराने लगी है...
समय रहते कुछ करो
वरना हमारे दु:स्वप्नों में भी यह आने लगी है...
बहुत आसान है इसकी शिनाख्त
देखने में बहुत शरीफ
कुशाग्र और भोली-भाली है
बाईं ओर थोड़ा झुक कर चलती है
और जाग रहे लोगों को अपना निशाना बनाती है
सो रहे लोगों को बस यूं ही छोड़ जाती है...
इसलिए
कवियों, बौद्धिकों और जाग रहे आम लोगों को
किसी तरह सुलाए रखने की मुहिम
तेज़ कर दो...
हो सके तो शराब की भट्ठियों
अफीम के अनाम अड्डों और कटरों को
पूरी तरह मुक्त
और उन्हीं के नाम कर दो...
सस्ते मनोरंजनों, नग्न प्रदर्शनों
और अश्लील चलचित्रों को
बेतहाशा अपनी रफ्तार चलने दो...
संकट के इस कठिन समय में
युवाओं और नव-बौद्धिकों को
कविता के संवेदनशील ठिकानों से
बेदखल और महरूम रखो...
तबतक उन्हें इतिहास और अतीत के
तिलिस्म में भटकाओ
नरमी से पूछो उनसे…
क्या दान्ते की कविताएं
विश्वयुद्ध की भयावहता और
यातनाओं को कम कर सकीं...
क्या गेटे नाज़ियों की क्रूरताओं पर
कभी भारी पड़े...
फिर भी यकीन न हो
तो कहो पूछ लें खुद
जीन अमेरी, प्रीमो लेवी या रुथ क्लगर से
ताद्युश बोरोवस्की, कॉरडेलिया एडवार्डसन
या नीको रॉस्ट से
कि ऑश्वित्ज़, बिरकेनाऊ, बुखेनवाल्ड
या डखाऊ के भयावह यातना-शिविरों में
कविता कितनी मददगार थी!
कवि ऑडेन से कहो, लुई मैकनीस से कहो
वर्ड्सवर्थ और कीट्स से कहो
कि कविता के बारे में
उनकी स्थापनाएं कितनी युगांतकारी हैं!
पोएट्री मेक्स नथिंग हैपेन...
ब्यूटि इज़ ट्रुथ, ट्रुथ ब्यूटि...
पोएट्री इज़ स्पॉन्टेनियस ओवरफ्लो ऑफ पावरफुल फ़ीलिंग्स...
मीनिंग ऑफ अ पोएम इज़ द बीइंग ऑफ अ पोएम...
बावजूद इसके कि कविता के बारे में
महाकवियों की ये दिव्य स्थापनाएं
पूरी तरह निरापद और कालजयी हैं
घोर अनिश्चितता के इस समय में
हम कोई जोखिम नहीं उठा सकते...
कविता को अपना हथियार बनाने वालों
कविता से आग लगाने वालों
शब्दों से बेतुका और अनकहा कहने वालों
को अलग से पहचानो...
और देखते ही गोली दागो
****

सलाखों के इधर और उधर

पिछले दिनों रात के अंधेरे में
हमारे देश का एक
साफ शफ्फ़ाफ़ सम्मानित शख्स
कारागार में वर्षों से बंद
दोषसिद्ध एक निर्दोष क़ैदी से मिलने गया था...
कैदी से हुई उसकी लंबी और स्याह बातचीत को
सार्वजनिक कर देना देशहित में नहीं था
अदने से उस संतरी के हित में भी नहीं
जिसने इस मुलाक़ात के लिए उससे
सिर्फ पच्चास रुपए लिए थे...
इसीलिए मित्रो
अपने देश की अत्यंत साधारण सी
इस घटना की क्लोज़-अप तस्वीर दिखाते हुए
साहसी उस छायाकार ने
आपसे भी कुछ सवाल किए थे...
जवाब देने के पहले
और भी कुछ अनदेखी अनकही पर
ग़ौर कर लेना ज़रूरी था...
तस्वीर में जो चीज उन्हें
एक-दूसरे से अलग करती थी
वह केवल लोहे की मोटी सलाखें थीं
जिसकी एक तरफ़ वह कैदी
और दूसरी तरफ़ वह शख्स था...
जो चीज उन्हें खुद से भी अलग करती थी
वह उनका सार्वजनिक चेहरा था
इसलिए बहुत कठिन था
तस्वीर से यह निष्कर्ष निकाल पाना
कि उन दोनों में आख़िर
बाहर कौन और भीतर कौन था...
लेकिन मित्रो
जो चीज उन्हें
एक-दूसरे से गहरे जोड़ती थी
वह उनकी बातचीत नहीं
बल्कि बातों के दौरान
अतीत के अंधेरे तलघरों से
उनके शब्दों के बीच
बार-बार कौंधता
सघन संतप्त एक मौन था...
क्या देशहित में आप
अब भी नहीं बता सकते
कि क़ैदी से मिलने गया
वह आदमी कौन था...
या वर्षों से सज़ा काट रहा
वह क़ैदी आखिर क्यों
अंतिम सुनवाई के दौरान भी
कटघरे में खड़ा मौन था...
*****

खाली जगहें

ताजा हवा और रौशनी के लिए
जब भी खोलता हूं
बंद और खाली पड़ी
अपने कमरे की खिड़कियां
हवा और रौषनी के साथ
अंदर प्रवेश कर जाती हैं
जानी-अनजानी और भी कई-कई चीजें
दूर खिड़की के बाहर लटके
सफेद बादल
सड़क के किनारे कब से खड़े
उस विशाल पेड़ की षाखें व पत्तियां
और अंधेरी रातों में
आसमान में टिमटिमाते तारे भी
एक साथ प्रवेश कर जाना चाहते हैं
मेरे छोटे से कमरे में
और हमें पता भी नहीं होता
बाहर की यह थोड़ी सी कालिमा
थोड़ी सी उजास थोड़ी सी हरियाली
झूमती शाखों और पत्तियों का संगीत
कब का बना लेते हैं अपने लिए
थोड़ी सी जगह मेरे तंग कमरे में
हम तो उनके बारे में तब जान पाते हैं
जब कमरे में कई-कई रातें
कई-कई दिन रहने के बाद
अंतत: वे जा रहे होते हैं
छोड़ कर अपनी जगह...
*****

सुख की ये चिंदियां

कहीं भी बना लेती हैं अपनी जगह
वे कहीं भी ढूंढ़ लेती हैं हमें...
हमारी गहनतम उदासियों में
बांटती हैं
खौफ़नाक मौत के सिलसिलों के बीच भी
इस दुनिया में
ज़िंदा बचे रहने का सुख
और भी ढेर सारे नन्हे सुख
अपनी उदासियां...अपनी पीड़ाएं
अपनों को बता पाने का सुख...
बहुत अच्छे दिनों में
साथ-साथ पढ़ी गई
बहुत अच्छी-सी किसी कविता
या किसी जीवन-संगीत की तरह...
रिसते ज़ेहन पर उतरता है
अनजाना अप्रत्याशित-सा कोई पल
किसी चमत्कार की तरह...
गहन अंधकार में भी चमकती
सुख की ये नन्ही निस्संग चिंदियां
हमारी पीड़ाओं के खोंखल में
बना लेती हैं सांस लेने की जगह...
और इसीलिए
हां, इसीलिए हमारे आसपास ज़िंदा हैं
सभ्य हत्यारों की नई नस्लें
यातनाओं और सुख के अंतहीन सिलसिलों में
घालमेल होतीं इंसानियत की नई खेपें...
और जिंदा है
बहुत बुरे और कठिन समय में
किसी सच्चे दोस्त की तरह
जीवन से भरपूर कोई कविता...
हमारे संत्रास और दु:स्वप्नों को
सहलाता-खंगालता बहुत अपना-सा कोई स्पर्श...
****

योगेंद्र कृष्णा





A postgraduate in English Literature, writes poems, short stories and criticism in both Hindi and English. Has published articles, poems & short stories in literary magazines & journals like Kahani, Pahal, Hans, kathadesh, Vagarth, Sakshatkar, Gyanoday, Aksharparv, Pal Pratipal, Outlook, Aajkal, Kurukshetra, Lokmat, Purvagrah, Samavartan, etc. Published works include: Khoi Duniya Ka Suraag, Beet Chuke Shahar Mein (both poetry collections), Gas Chamber Ke Liye Kripya Is Taraf, Sansmritiyon Mein Tolstoy (translations in Hindi from foreign languages). Edited a collection of Nirmal Verma's writings under Collection Series for Tuebingen University, Germany. At present : 82/400, Rajvanshinagar,Patna 800023 Mobile : 09835070164 E-mail yogendrakrishna@yahoo.com yogendrakrishna55@gmail.com

कहानी



कोंचई गुरु....

कृष्ण बिहारी

कांचई गुरु को कौन नहीं जानता...
कोंचई गुरु को सब जानते हैं . कोंचई गुरु अद्भुत हैं . लाजवाब हैं . अनूठे हैं . कोंचई गुरु इलेक्ट्रानिक युग की उत्पत्ति और उपलब्धि हैं . मजे की बात , कोंचई गुरु अकेले और किसी एक जगह नहीं हैं . वह एक जाति हैं . नहीं ; जाति नहीं ; एक जाति की प्रजाति हैं और दुनिया की सभी विकसित जगहों पर मौजूद हैं . कोंचई गुरु यकीनन एक करिश्मा हैं और हैरत में डालने वाले हैं ....
कोंचई गुरु का असली नाम “शरत् है और अवस्था अभी यही कोई चार वर्ष और कुछ दिन . उनके जन्म की तारीख मझे याद नहीं मगर यह पता चला था कि चार-पांच दिन पहले उनका चैथा जन्म-दिन मैक डोनाल्ड में बड़ी धूम-धाम से मनाया गया . पैसे उनके बाप ने खर्च किए मगर कैसे खर्च होंगे और क्या -क्या होगा , यह सब कोंचई गुरु ने स्वयं तय किया था ...
कोंचई गुरु से मेरी पहली मुलाकात उनके जन्म के कुछ घण्टे बाद अस्पताल में हुई थी . वह अपनी मां के बिस्तर के पास ही एक अलग खटोले में लिटाए गए थे . कमरा एयरकण्डीशण्ड था इसलिए उन्हें कम्बल में लपेट-सा दिया गया था . मैंने उनके चेहरे पर झुलते हुए जब कहा , ‘‘का हो गुरु ... कइसी लग रही है ई दुनिया ....?’’ तो उन्होंने आंखें खोलकर झपकानी शुरू कर दी थीं. छोटी-छोटी उन चकित आंखों में सीधे देखते हुए मैंने अगला वाक्य कहा था , ‘‘गुरु ! तुम तो पूरे कोंचई हो ....कोंचई गुरु ....’’ और उसी वक्त से यही नाम उनकी पहचान बन गया . क्या मां-बाप और क्या दादा-दादी ; सबके लिए कोंचई गुरु . ऐसे गुरु कि कुछ बाद में उन्होंने मेरा ही नामकरण कर दिया कोंचई....
’’’’ तीसरे दिन कोंचई गुरु अस्पताल से घर आ गए . माता-पिता की पहली संतान कोंचई गुरु मेरे सहकर्मी के पुत्र हैं . कुछ ऐसा संयोग बना कि उनके घर के पास ही मेरे छोटे बेटे को सप्ताह में तीन दिन विज्ञान विषय की ट्यूशन पढ़ने जाना पड़ा . उसे पढ़ने के लिए पहुंचाने के बाद तब तक क्या करता जब तक वह पढ़कर वापस आता . वह समय मेरा कोंचई के साथ बीतने लगा . बेटे की ट्यूशन तो पूरे दो साल चली लेकिन कोंचई गुरु तो दो साल के होते ने होते मेरे दीवाने हो गए . उनकी आशिकी मुझे महंगी पड़ने लगी . होता यह कि मुझे देखते ही उनकी दुनिया बदल जाती . और जैसा कि मोहब्बत में होता है कि आशिक की हर चीज अच्छी लगती है वैसा ही कोंचई गुरु के साथ हुआ . उन्हें मैं तो अच्छा लगता ही था , मेरा घर , मेरी कार , मेरे बच्चे , यहां तक कि मेरी बीवी भी अच्छी लगने लगी . गजब के डिप्लोमेट कोंचई गुरु कहते , ‘‘ममी , अच्छी वाली आण्टी के घर चलो न ...’’ अपने मां-बाप के साथ आते और “शुरू हो जाते , ‘‘कित्ती अच्छी साड़ी है न ...ममी, आण्टी की साड़ी देखो...और हार .... और चूडि़यां ...खूब सारा सोना पहना है आण्टी ने ....’’

‘‘मैंने भी तो अच्छी साड़ी पहनी है और सोना भी तो ....’’
‘‘पूर्णिमा... तुम कुछ समझती नहीं .... तुम्हारी भी साड़ी अच्छी है मगर आण्टी....आण्टी आप बहुत सुन्दर हैं ...’’ कोंचई गुरु का मन , चाहे तो मां को ममी कहें और चाहें तो नाम से बुलाएं . आण्टी की तारीफ के बाद उनकी फरमाई , ‘‘चाय पिलाइए आण्टी ....’’
‘‘चाय नहीं , दूध....बच्चे दूध पीते हें ....’’
‘‘मैं बच्चा नहीं हूं ...चाय ...’’ और कोंचई गुरु जिदिया जाते हैं . चाय पीने के बाद कहते हें , ‘‘ लांग ड्राइव पर चलो न कोंचई अंकल ...मैं अपकी कार में बैठूंगा .... आपकी कार बहुत अच्छी है ... मुझे बहुत पसंद है ....’’
‘‘कार तो तुम्हारी भी अच्छी है ....’’
‘‘हां , अच्छी तो है मगर .... आपकी कार ...बहुत अच्छी है ....’’
कोंचई गुरु मेरी कार में बैठते हैं . लम्बी ड्राइव से लौटते रात हो गई है . ग्यारह से ऊपर का समय हो गया है . लेकिन उनका मन मुझसे अलग होने का नहीं है , ‘‘आपका घर कित्ता सुन्दर है .... पापा , कोंचई अंकल के फ्लैट की तरह लो न अपना भी फ्लैट....’’
‘‘अब घर चलो ...’’
‘‘नईं ....’’ कोंचई गुरु रोने लगते हैं . अब यह अक्सर होने लगा है . यदि मैं उनके घर से वापस आने लगूं तो या वह मेरे घर से वापस ले जाए जाने लगें तो , उनका नियम हो गया है , मचलते हुए जोर-जोर से रोना . उनके रोने से तकलीफ हाती है . मुझे ही कुछ कठोर होना पड़गा . बच्चे से इतना लगाव ठीक नहीं . कोंचई गुरु तीन वर्ष के हैं....
और , मुझसे अलग होते हुए जार-जार रो रहे हैं ....,,‘‘”शरत्....’’ उनके पापा-मम्मी की सम्मिलित कड़ी आवाज . एक पल के लिए सहमते हैं वह लेकिन फिर वही रोना .
‘‘छोड़ दो, आने दो मेरे पास ...’’ पापा-मम्मी की पकड़ से छूटते ही मेरी ओर . हालांकि उन्हें पकड़े ही कौन था ? एक पुकार चाहिए थी . मिलते ही मेरी बांहों में .
‘‘कोंचई गुरु , कहां आए थे ?’’
‘‘आपके घर ....’’
‘‘फिर आओगे ...?’’
‘‘हां....’’
‘‘ तो रोना बन्द करो ... आज से मेरे लिए रोओग तो मैं तुमसे कभी नहीं मिलूंगा ....’’
‘‘नहीं रोऊंगा ....’’ कोंचई गुरु रोते हुए कानों को हाथ लगाकर ‘प्रामिस’ कर रहे हैं ....
चुप हो गए हैं . अपनी कार की पिछली सीट पर बैठकर बॉय-बॉय कर रहे हैं . कार चल पड़ी है ....
मेरे मना करने के बाद से फिर कभी मुझसे अलग होते हुए कभी नहीं रोए....
न जाने कितनी बार मिल चुके हैं ...
कोंचई गुरु का एडमिशन के.जी. I में करा दिया गया हैं . स्कूल बैग , लंच-बॉक्स और वॉटर बॉटल के साथ स्कूल जाना उन्हें अच्छा लगने लगा है . स्कूल में फेंसी ड्रेस काम्पिटिशन है . वह अपनी टीचर के सामने हैं , ‘‘टीचर , मैं माइकेल जैक्सन बनूंगा ....’’
‘‘कैसे ....?’’
‘‘हैट लगाऊंगा ...यहां तक जूते पहनूंगा और डांस करूंगा ....’’ घुटने से कुछ नीचे हाथ ले जाकर उन्होंने वहां तक लम्बे जूते पहनने की बात समझाई है ...
‘‘डांस करना आता है तुम्हें ...?’’
‘‘कसेट तो लगाइए ...’’
‘‘वह तो अभी नहीं है ....’’
‘‘तो फिर आप गाइए.... लिफ्ट करा दे....’’

टीचर गाने लगी हैं . बच्चों की उत्सुक आंखें देख रहीं हैं और कोंचई गुरु नाच रहे हैं अदनान सामी के गीत ‘थोड़ी-सी तो लिफ्ट करा दे’....
काम्पिटिशन के दिन उन्होंने अपने पापा से कहा , ‘‘चिन्ता मत करो ... मैं डांस कर लूंगा ....अच्छा करूंगा...आप वीडियो अच्छा बनाना....’’
कोंचई गुरु ने माइकेल जैक्सन को मात कर दिया . उन्हें फर्स्ट प्लेस मिली . पापा ने वीडियोग्राफी की और स्कूल फाटोग्रॉफर ने अनेक फोटो लिए...
स्कूल स्पोर्ट में अपने एज-ग्रुप में उन्हें हॉपिंग रेस के लिए चुना गया . घर में धमा-चैकड़ी “शुरू , ‘पापा , चिन्ता मत करो ... मैं दौड़ लूंगा ....’’
कोंचई गुरु दौड़े और खूब दौडे . दूसरे स्थान पर आए . सिलवर मेडेल मिला . पापा से बोले , ‘‘चिन्ता मत करो ... अगली बार गोल्ड मिलेगा ....’’
डन्होंने मुझे फोन किया है , ‘‘कोंचई अंकल , मेरे घर आइए....’’
‘‘बात क्या है ?’’
‘‘आइए तो ...अच्छी चाय पिलाएंगे ...’’
‘‘बाद में आऊंगा ...आज तबीयत ठीक नहीं है ...’’
‘‘क्या हुआ आपको ...?’’
‘‘कफ और कोल्ड....’’
‘‘कोंचई अंकल , थोड़ी-सी ले लीजिए..’’
‘‘क्या ?’’
‘‘ब्राण्डी, व्हिस्की या फिर रम ....चीयर्स कर लीजिए ...ठीक हो जाएंगें ....’’
‘‘वाह गुरु कोंचई .... तुम तो पूरे डॉक्टर हो गए हो....’’
‘‘पापा लेते हैं न वीक-एण्ड को ... मैं भी चीयर्स करता हूं....’’
‘‘तुम क्या पीते हो पापा के साथ ...?’’‘‘खून...खून पीता हूं.... आप पीएंगे खून....आपका खून भी बढ़ जाएगा ... कित्ते दुबले और कमजोर हैं आप ....’’
पता चला कि रूह आफजाह के साथ चीयर्स करते हैं . पापा ने कहा है कि खून पीने से खून
बढ़ता है . “शरीर में ताकत आती है ....
कोंचई गुरु अब के.जी. II में हैं . स्कूल जा रहे हैं पापा की कार में ....
‘‘पापा , तेज चलाओं न ...’’
‘‘क्यों ? चल तो रही है तेज ...’’
‘‘और तेज....’’
‘‘नहीं , इतनी स्पीड ठीक है ....’’
‘‘जल्दी चलो न ....नहीं तो कोई और बैठ जाएगा उसके पास ....’’
‘‘किसके पास ....?’’
‘‘नन्दिता के साथ ....मेरे क्लास में पढ़ती है ...सब उसके पीछे हैं लेकिन वह मेरी गर्ल फ्रेण्ड है ....’’
कोंचई के पापा अवाक् हुए फिर मुस्कराकर उसे देखा . मिलने पर मुझे बताया और कहा , ‘‘यह तो हाल अभी है ...आगे क्या होगा ?’’

‘‘कुछ नहीं होगा ...जिस तरह सभी चीजें उनको अभी मिल रहीं हैं वैसे ही कोंचइन भी मिल गई.... इसमें आश्चर्य क्या है ....’’
‘‘ऐसे ही चलता रहा तो “शादी से पहले तीन-चार तलाक तो हो ही जाएंगे....’’
हम दोनों हंस पड़ते हैं ....
एक “शाम अपने पापा के साथ कोंचई गुरु मेरी कार में थे . सिग्नल पर कार रुकी . मैडस्ट्रियन क्रासिंग से बहुत छोटी स्कर्ट पहने एक युवती गुजरी , ‘‘देखो , श्रीमती कलावती जा रही हैं ....’’ मैंने उनके पापा से कहा . तबसे किसी स्त्री को स्कर्ट पहने देखकर पापा और मम्मी को दिखाते हैं , ‘‘वो दोखे श्रीमती कलावती ....’’
कम्प्यूटर पर चैट करते हैं . दोस्तों को फोन करते हैं . कार्टून और वीडियो गेम्स में उलझे रहते हैं . बच्चे नहीं पुरखे हैं .
जरा- सा दृष्टि उठाएं . आपके आस-पास कोई कोंचई गुरु जरूर होंगे . पिछले दिनों छुट्टियों में भारत गया था . वहां जिस किसी के भी घर गया वहां मुझे कोंचई गुरु हंसते-खेलते मिले ....
अपनी दुनिया में मस्त....
यह दुनिया ही कोंचई गुरुओं की है ...
****
उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जनपद के ग्राम कुंडाभरथ में 29 अगस्त 1954 को जन्म.
कानपुर विश्वविद्यालय से हिन्दी साहित्य में प्रथम श्रेणी में एम.ए.


सन् 1971 में पहली कहानी प्रका”शत , तब से अब तक लगभग सौ कहानियां देश की प्रायः सभी प्रमुख पत्रिकाओं में प्रकाशित .

‘मेरे गीत तुम्हारे हैं,’ ‘मेरे मुक्तक मेरे गीत’ , ‘मेरी लम्बी कविताएं’.

‘रेखा उर्फ नौलखिया’ , ‘पथराई आंखों वाला यात्री’ , ‘पारदर्शियां’ उपन्यास शीघ्र प्रकाश्य .

‘दो औरतें’ , ‘पूरी हकीकत पूरा फसाना’ , ‘नातूर’ और ‘एक सिरे से दूसरे सिरे तक’ कहानी-संग्रह’ प्रकाशित.

आत्मकथा - ‘सागर के इस पार से , उस पार से’ .

आठ एकांकी नाटकों का लेखन और बिरेन्दर कौर और सुभाष भार्गव के साथ निर्देशन .
चर्चित कृतियों की समीक्षाएं , अंग्रेजी से हिन्दी में अनुवाद , लेख , संस्मरण , रिपोर्ताज आदि विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित .

खाड़ी के देशों में पढ़ने वाले भारतीय छात्र-छात्राओं के लिए प्रवेशिका से आठवीं कक्षा तक की पाठ्य-पुस्तक ‘पुष्प-माला’ का लेखन . सहयोगी - डॉ. मोती प्रकाश एवं श्रीमती कांता भाटिया .
बहुचर्चित कहानी ‘दो औरतें’ का नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा , नई दिल्ली द्वारा श्री देवेन्द्र राज ‘अंकुर’ के निर्देशन में मंचन .

अखबार से जीवन-यापन की शुरूआत , अध्यापन , आल इण्डिया रेडियो गैंगटोक से फिर अखबार में काम .
संप्रति अध्यापन
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