रविवार, 29 नवंबर 2009

वातायन - दिसम्बर २००९



हम और हमारा समय

बचेगें अंततः शब्द ही.....

रूपसिंह चन्देल

मेरा आलेख ‘‘स्मृति पुरस्कारों का मायाजाल’ जब वातायन में और फिर कमर मेवाड़ी द्वारा सम्पादित ऐतिहासिक पत्रिका ‘सम्बाधन’ में प्रकाशित हुआ , कुछ साहित्यकार मुझसे नाराज हो गए . उसके बाद जब ‘साहित्य ’शिल्पी’ में मेरा साक्षात्कार (साक्षात्कर्ता - अमित चैधरी) प्रकाशित हुआ , कुछ लोगों ने तब भी प्रत्यक्ष और परोक्षरूप से अपना विरोध दर्ज किया . ये वे लोग थे जो किसी न किसी रूप में किसी न किसी पुरस्कार से संबद्ध थे और आज भी हैं . मैं अपनी बात पर आज भी कायम हूं और मानता हूं कि हिन्दी में निजी स्तर पर दिए जाने वाले पुरस्कारों में ‘पहल’ सम्मान एक मात्र ऐसा सम्मान था , जिस पर विवाद की गुंजाइश नहीं . लेकिन भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार , जिसे कल तक निर्विवादित माना जाता था , पर वरिष्ठ कवि-आलोचक विष्णु खरे के आलेख ने बहुत कुछ उद्घाटित कर दिया है . मैं अपने इस विचार पर आज भी कायम हूं कि ‘भारतीय ज्ञानपीठ’ पुरस्कार पर भी प्रश्न चिन्ह नहीं लगाया जा सकता , जबकि बिरला फाउण्डेशन का व्यास सम्मान श्रीलाल शुक्ल के बाद अपनी गरिमा खोता गया है . हिन्दी साहित्य में बातें पानी की भांति बहती सभी कोनों-कोतरों तक पहुंच जाती हैं . जब इतने बड़े संस्थानों के पुरस्कार प्रभावित होते हैं तब उन स्वयंभू पुरस्कारों के विषय में अनुमान लगाया जा सकता है , जो एक व्यक्ति द्वारा तय किए-दिए जाते हैं , जिसका वह स्वयं बादशाह , वजीर और गुलाम होता है .
हिन्दी में सरकारी और गैर सरकारी पुरस्कारों की संख्या सैकड़ों में है और उन साहित्यकारों की संख्या भी कम नहीं है जिनकी दृष्टि न केवल पुरस्कारों पर टिकी होती है बल्कि वे उस प्रतिभा को अर्जित कर चुके होते हैं जिसके बल पर वे निरंतर पुरस्कार पाने में समर्थ रहते हैं . जिस कृति पर उन्हें पुरस्कार झटकना होता है , उसकी ओर पुरस्कार देने वाली संस्था का ध्यान आकर्षित करने के लिए किसी भी छल -छद्म का सहारा लेने के गुण में उन्हें प्रवीणता हासिल होती है . वे स्वयं ही कृति पर मुकदमा दर्ज करवाने से लेकर उसकी प्रतियां जलवा देते हैं . कुछ जेबी पत्रकारों से अपने सताये जाने की रिपोर्टिगं करवा देते हैं . संस्थाएं यदि इससे भी प्रभावित नहीं होतीं तब वे अपने किसी परिचित के माध्यम से संस्थाओं को प्रभावित करने का प्रयत्न करते हैं और सफल रहते हैं . ‘पुरस्कार साहित्यकार से बड़े नहीं होते या पुरस्कार किसी के बड़ा साहित्यकार होने की गारण्टी नहीं होते ’ जैसे आदर्श वाक्यों को वे कूड़दान में फेक देने योग्य समझते हैं . पत्र-पत्रिकाओं से बातचीत के दौरान पुरस्कारों की राजनीति और उनके पतन की भर्सना करने वालों में वे ही सबसे आगे होते हैं .
निःसंदेह साहित्य अकादमी , हिन्दी अकादमी (दिल्ली) , उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान आदि सरकारी संस्थाओं का इस मामले में जितना पतन हुआ है , वह आश्चर्यकारी है . हिन्दी अकादमी के एक सचिव के कार्यकाल में एक अपुष्ट सूचना के अनुसार कुछ पुरस्कारों के लिए कमीशन तय किए जाते थे . लेकिन निजी स्तरों पर दिए जाने वाले पुरस्कारों में अनेकों की पुष्ट सुचनाएं हैं कि पुरस्कृत व्यक्ति को जो चेक दिया जाता है वह उसीका होता है या उतने का चेक या राशि उससे पहले ही ले ली जाती है . सच यह है कि हर दिन पत्र-पत्रिकाओं में पुरस्कारों की सूचनाएं प्रकाशित होती हैं , लेकिन आम पाठक की क्या बात शायद ही साहित्यकार उन पर दृष्टि निक्षेपण करते हों . स्पष्ट है कि साहित्यिक पुरस्कारों की बाढ़ और उन्हें पाने और देने के लिए किए जाने वाले पतनोन्मुख प्रयासों से भयानकरूप से साहित्यिक पुरस्कारों का अवमूल्यन हुआ है . मित्र ज्ञान प्राकाश विवेक के शब्दों में कहना चाहता हूं कि - ‘‘बचेगें अंततः शब्द ही .........किसी भी रचनाकार का मूल्यांकन उन्हीं से होगा न कि उसे प्राप्त पुरस्कारों से ....’’
अतः प्रतिबद्ध लेखक को पुरस्कारों की दौड़ से दूर केवल रचना पर विश्वास करना चाहिए . अनेक उदाहरण हैं कि पुरस्कारों को झपटने की दौड़ में कल तक शामिल कितने ही साहित्यकार औधें मुंह गिरे और आज तक उठ नहीं पाए . जो आज दौड़ रहे हैं उनका क्या होगा कहने की आवश्यकता नहीं . समय ही सबसे बड़ा निर्णायक होता है .
******
वातायन के इस अंक में प्रस्तुत है - वरिष्ठ कथाकार द्रोणवीर कोहली से आजकल की सम्पादक सीमा ओझा की बातचीत और युवा कवि राधेश्याम तिवारी की कविताएं .
आशा है अंक आपको पसंद आएगा .
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कविता


राधेश्याम तिवारी की दो कविताएं
(१)
लौटकर जब आएंगे
लौटकर जब आएंगे
तो यही नहीं रहेंगे
उस समय हमारे बाल
कुछ सफेद हो चुके होंगे
गालों की लाली भी
कुछ कम हो चुकी होगी
और चलने की गति में भी
कुछ परिवर्तन हो चुका होगा
लेकिन यह परिवर्तन
इस बात पर भी निर्भर करेगा
कि तब तक हमारे घुटने
और दिल का दर्द कैसा है
लौटकर जब आएंगे
तो यह भी बतलाएंगे
कि चिकित्सक के निर्देशानुसार
हम भोजन में नमक और चीनी
कितनी मात्रा में ले रहे हैं
लेकिन यह इस बात पर भी
निर्भर करेगा कि तब तक
मधुमेह और रक्तचाप की
क्या स्थिति है
लैटकर जब आएंगे
तो जरूरी नहीं कि
आप मुझे देखकर
इसी तरह मुस्कराएंगे
यह इस बात पर भी
निर्भर करेगा कि
तब तक आपके पास
खुशी कितनी बची हुई है
लौटकर जब आएंगे
तो उस समय तक
घर के सामने खाली प्लाटों में
बहुत से प्रियजनों के मकान
बन चुके होंगे
उन बड़े-बड़े मकानों में
टेलीफोन भी लग चुके होंगे
लेकिन संवाद इस बात पर
निर्भर करेगा कि तब तक
उनके पास प्रेम की पूंजी
कितनी बची हुई है .
(२)
जूते की यात्रा
(एक)
मेरे बाएं पांव का जूता
रास्ते में ही कहीं रह गया है
वह थक गया था चलते-चलते
कि उसकी नजर
एक भूखे-नंगे
और निहत्थे आदमी पर पड़ी
वह आदमी गुस्से से कांप रहा था
ठीक उसी समय जूता
मेरे पांव से निकलकर
चुपके से उसके पास
चला गया
यह जूते की
साहसिक यात्रा थी
कि वह पांव से निकलकर
हाथ तक पहुंच गया .
(दो)
अब मेरे एक ही पांव में
बचा है जूता
क्या करूं इस एक जूते का
जो पूरी तरह नंगे हैं
वे भी यह देखकर हंसेंगे
कि मेरा एक ही पांव नंगा है
सोचा , पूछ लेता हूं जूते से ही
कि अब क्या करना चाहिए ?
जूते ने कहा-
’शैतान नहीं , सामाजिक हूं मैं
इसलिए अपने जोड़ीदार से
नहीं रह सकता अलग .’
(तीन)
मेरे एक पांव का जूता
जब कहीं छूट गया
तो दूसरे ने भी
पांव में रहने से
मना कर दिया
मैंने कहा -
‘हूं न मैं तुम्हारे साथ
पड़े रहो पांव में चुपचाप’
जूते ने अपनी नजर
टेढ़ी कर कहा -
‘इतना ही प्रेम है अगर
तो क्यों नहीं रख लेते
मुझे सिर पर’
यह जूते की
सबसे आक्रामक
यात्रा थी .
*****
युवा कवि-पत्रकार राधेश्याम तिवारी का जन्म देवरिया जनपद (उत्तर प्रदेश) के ग्राम परसौनी में मजदूर दिवस अर्थात १ मई, १९६३ को हुआ।अब तक दो कविता संग्रह - 'सागर प्रश्न' और 'बारिश के बाद' प्रकाशित. हिन्दी की लगभग सभी महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित।सम्पादन - 'पृथ्वी के पक्ष में' (प्रकृति से जुड़ी हिन्दी कविताएं)पुरस्कार : राष्ट्रीय अज्ञेय शिखर सम्मान एवं नई धारा साहित्य सम्मान .संपर्क : एफ-119/1, फ़ेज -2,अंकुर एनक्लेवकरावल नगर,दिल्ली-110094मो० न० – 09313565061


बातचीत

वरिष्ठ कथाकार द्रोणवीर कोहली से सीमा ओझा की बातचीत

पुरस्कार मिलते नहीं , लिए या झटके जाते हैं

द्रोणवीर कोहली

द्रोणवीर कोहली लगभग 77 बरस के हो रहे हैं, लेकिन अपनी सही जन्मतिथि नहीं जानते. पैदाइश इनकी वर्तमान पाकिस्तान के कैंपबेल ज़िले के निहायत बीहड़ गांव 'थोहा मार्ह्म ख़ां' में हुई, जहां बैलगाड़ी तक नही जा सकती थी .मातृभाषा इनकी 'अवाणकी' अथवा 'अवाणकारी' है, जिसमें तत्सम-तद्भव, पालि, प्राकृत, अपभ्रंश के शब्दों का बाहुल्य है. बताते हैं कि अष्टाध्यायी प्रणेता पाणिनी का जन्मस्थान 'शलातुर' उसी क्षेत्र में था.
देश-विभाजन के उपरांत एक कस्बे में मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण करके रोज़ी-रोटी की जुगाड़ में दिल्ली चले आए और टाइपिस्ट-क्लर्क की नौकरी पा गए. संयोग से प्रकाशन विभाग में . नौकरी के साथ-साथ सांध्यकालीन कॉलेज में दाख़िला ले कर पहले राजनीतिशास्त्र में बीए(आनर्स) किया . फिर हिंदी में एमए . संयोग ही था कि यह अपने अध्यवसाय से भारतीय सूचना सेवा में चुने गए जिसमें इन्होंने 'बाल भारती,' 'आजकल,' 'योजना,' 'सैनिक समाचार' साप्ताहिक जैसी पत्रिकाओं का संपादन किया . कुछ अर्से तक आकाशवाणी के समाचार विभाग में वरिष्ठ संवाददाता तथा हिंदी समाचार एकांश के प्रभारी संपादक और पत्र सूचना कार्यालय में डेपुटी प्रिंसिपल इनफरमशन आफ़िसर भी रहे . लेकिन समय से पांच वर्प पूर्व अवकाश ग्रहण करके आजकल स्वतंत्र लेखन और भ्रमण करते हैं .

इनकी प्रकाशित रचनाओं में मुल्क अवाणों का, चौखट, काया-स्पर्श, तकसीम, वाह कैंप, नानी, ध्रुवसत्य (उपन्यास); जमा-पूंजी (कहानी-संग्रह); बुनियाद अली की बेदिल दिल्ली, राजघाट पर राजनेता, हाइड पार्क (रिपोर्ताज) सम्मिलित हैं . लघु उपन्यास अरंगेत्रम् प्रकाशनाधीन है . बच्चों के लिए रचनाओं में लोककथाएं, कंथक, मोर के पैर, डाक बाबू का पार्सल, घड़ियालों की बारात तथा किशोरों के लिए टप्परगाड़ी शामिल हैं। अनूदित रचनाओं में फ्रेंच लेखक ज़ोला का बृहद उपन्यास 'उम्मीद है, आएगा वह दिन,' ' ज़लमार साइडरबा का उपन्यास 'डॉक्टर ग्लास, ' बच्चों के लिए चांग तइन-यी के दो उपन्यास 'करामाती कद्दू तथा जंगली-मंगली, ' फ्रांसिस ब्राउन की 'नानी की अद्भुत कुर्सी, ' कैप्टन मैरियट का 'वनवासी बच्चे, ' कार्लो कोलोडी का 'पिनोकियो 'आदि कुछ रचनाएं हैं .

यह बातचीत अंशत: गुड़गांव में उनके निवास-स्थान पर और अशत: लोधी रोड स्थित 'आजकल' के कार्यालय में हुई . इसे प्रस्तुत कर रही हैं, 'आजकल' की संपादक सीमा ओझा
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सीमा ओझा - आप रचनाशील साहित्यकार हैं . आपने कहानियां-उपन्यास, रिपोर्ताज आदि लिखे हैं . अनुवाद-कार्य किया . पत्रकारिता की . संपादन-कार्य भी किया . आपका जीवन काफ़ी संघर्षशील रहा है . अपनी शिक्षा-दीक्षा और आरंभिक जीवन के बारे में कुछ बताना चाहेंगे .

द्रोणवीर कोहली - क्या बताऊं, हमारे परिवार में पीढ़ियों से ऐसा कोई व्यक्ति दिखाई नहीं देता जो लेखक तो छोड़िए, अधिक पढ़ा-लिखा ही हो . मूलत: हम लोग पश्चिमी पंजाब के जिस बीहड़ इलाके से संबंध रखते हैं, वहां आना-जाना ऊंट-घोड़ी-खच्चर पर होता था . लड़के गांव के मदरसे में उर्दू पढ़ते थे . लड़कियां गांव की 'धरमसाल' (गुरुद्वारा) में 'भाई' या ग्रंथी से थोड़ी-बहुत गुरमुखी सीख लेती थीं . वहां हिंदी पढ़ने-पढ़ाने का सवाल ही नहीं उठता था . हमारे पुरखे पढ़ने-लिखने के नाम पर मुज़ेरों को कर्ज दे कर उर्दू में 'इष्टाम' (स्टैंप पेपर) लिखते-लिखवाते थे। संयोग से हम गांव से रावलपिंडी जैसे शहर आ गए . पिता आर्यसमाज के प्रभाव में थे . एक बेटे को गांव से ही गुरुकुल भेज चुके थे . यहां आ कर छठे बेटे यानि मुझे भी गुरुकुल भिजवा दिया जो मुझे कारागार से कम नहीं लगता था . वहां से मैं भागता रहता था. बरसात के दिनों में दो रोटी मांगो, तो एक-डेढ़ मिलती थी . बड़ी कठिनाई से दो-ढाई साल वहां व्यतीत किए. लेकिन बाल्यकाल में गुरुकुल में बिताई इस छोटी अवधि में मैंने ऐसा बहुत कुछ सीखा जो बाद में मेरे बहुत काम आया . वहां पाणिनीय अष्टाध्यायी के पांच अध्याय कंठस्थ किए थे . लघुसिध्दांतकौमुदी पढ़ी थी . मूल संस्कृत में हितोपदेश -पंचतंत्र आदि की कहानियों का रस लिया था . फिर इतनी छोटी उम्र में गुरुकुल के एक कमरे के पुस्तकालय को संभालने का काम भी किया . वहीं पर दृष्टांतसागर जैसी किताबें पढ़ने की चाट लगी . फिर रावलपिंडी जैसे शहर में हिंदी का धुंआधार प्रचार होता था . मुफ्त पुस्तकें दी जाती थीं. वहीं से मैंने प्रयाग की कोविद परीक्षा पास की . डीएवी स्कूल में आठवीं-नौंवीं कक्षा में हमारे हिंदी अध्यापक कोई शास्त्री जी हुआ करते थे . एक दिन कक्षा के बाहर खड़ा करके उन्होंने मुझे तीन डिक्टेटर किताब पकड़ाई, जिसमें हिटलर, स्तालिन और मुसोलिनी की जीवनियां थीं . किताब देते हुए उन्होंने यह अद्भुत बात कही थी, ''इसे पढ़ो और संपादक बन जाओ .'' यह मेरे लिए घोर अचरज का विषय है कि तब तक न तो मैं लिखता था, न स्कूल की कोई पत्रिका निकलती थी . क्या शास्त्री जी ने मेरा मस्तक देख कर यह भविप्यवणी की थी?
सीमा ओझा - फिर आपके लेखन की शुरुआत कैसे हुई ?

द्रोणवीर कोहली- मैं लेखक भी संयोग से ही बना हूं। देश-विभाजन के बाद छोटे-से कस्बे शाहाबाद मारकंडा में 1948 में मैट्रिक पास करके मैं निपट बेयारो-मददगार ('अकेला, जरीदा ओ बिलकुल अकेला, अकेला वो चौड़े समंदर के ऊपर') भटकता हुआ दिल्ली आया। कोई ठौर-ठिकाना नहीं था . चारों तरफ़ मेरे जैसे फटेहाल रिफ्यूजी ही रिफ्यूजी मंडराते दिखाई पड़ते थे। कुछ दिन सड़क पर भी सोया . यहीं पर दूर-पार का एक युवक साइकिल पर छोटा टाइपराइटर रख कर दुकान-दुकान जा कर चिट्ठियां टाइप करता था . उसी के कहने पर मैंने अंग्रेज़ी टाइप करना सीखा , और फिर यह भी संयोग कि पहली-पहली नौकरी भी मिली , तो प्रकाशन विभाग में , फरवरी 1949 में , जिसका कार्यालय उन दिनों पुराना सचिवालय में था (इससे पहले वह निकटस्थ राजपुर रोड पर हुआ करता था ) . और यह भी संयोग ही कहिए कि मुझे पहला काम दफ्तर में आने-जाने वाली डाक छांटने का मिला . मैं कुछ नहीं जानता था कि वहीं से 'आजकल ' 'बाल भारती' तथा 'विश्वदर्शन' जैसी पत्रिकाएं निकलती थीं . डाक में हिंदी, उर्दू, अंग्रेज़ी लेखकों की रचनाएं, उनके पत्र, लेखकों के पारिश्रमिक के लिए तकाजे, संपादकों के जवाबी पत्र आदि आते-जाते थे . लेखकों के अमूमन पोस्टकार्ड ही आते थे जिनमें पारिश्रमिक न मिलने या कम मिलने की शिकायतें होती थीं . संपादकों की चिटिठयां टाइप हो कर आती थीं . लिफ़ाफ़ों पर पते लिखते-लिखते, डाक-टिकट लगाते-लगाते अनायास ही मैं उन्हें पढ़ता रहता था . फिर उत्सुकतावश डाक में आने वाली और लौटाई जाने वाली रचनाओं को भी देखने लगा . यहां पत्रों से अनोखी बात यह पता चली कि लेख-कहानी-कविता-नाटक लिखने वालों को पारिश्रमिक मिलता है. मुझमें लिख कर पैसा पाने का पहला बीज यहीं पड़ा . फिर डाक में ढेर-सारी देश-विदेश की पत्र-पत्रिकाएं भी आती थीं - कई भाषाओं में, क्योंकि उन दिनों प्रकाशन विभाग में अनेक देशी -विदशी भाषाओं में सामग्री छपती थी . मैं इन पत्रिकाओं को खोल कर पढ़ता रहता था और फिर एक-आध दिन बाद उसी रैपर में यथास्थान भेज देता था . जो पत्रिका मुझे अच्छी लगती थी, उसे उड़ा भी लिया करता था, जिसके कारण शुरू-शुरू में तत्कालीन संपादकों का - चंद्रगुप्त विद्यालंकार, मन्मथनाथ गुप्त, केशवगोपाल निगम, सावित्री देवी वर्मा, जोश मलीहाबादी, अर्श मल्सियानी, जगन्नाथ आज़ाद, बलवंत सिंह, ए एस रामन (कला आलोचक और बाद में इलस्ट्र्रेटिड वीकली के संपादक) का कोपभाजन भी बनना पड़ा. (शारदा प्रसाद, शरदेंदु सान्याल, भवानी सेन गुप्त उर्फ चाणक्य सेन, प्रयाग नारायण त्रिपाठी तो बहुत बाद में आए). ये महानुभाव अपनी डाक के बारे में बड़े उतावले रहते थे. अकसर मैं डाक छांट रहा होता, तो सिर पर आ कर खड़े हो जाते थे - देवेंद्र सत्यार्थी को छोड़ कर . याद नहीं पड़ता कि सत्यार्थी जी कभी इशू एंड डिस्पैच ब्रांच में पधारे हों . (चलते-चलते बता दूं कि उन दिनों सत्यार्थी जी शोफ़र ड्रिवन गाड़ी पर आते थे, जबकि संपादक का वेतन 720 रुपए था) . यहीं मेरे हाथ लंदन से आने वाली एक साहित्यिक पत्रिका का फारसी साहित्य विशषांक लगा था जिसकी एक कहानी में और नई कहानी की बृहत्त्रयी के एक नामचीन लेखक की कहानी में मुझे काफी साम्य मिला था और इसके बारे में मेरी एक टिप्पणी से काफ़ी वावेला मचा था . इसके अलावा, डाक में प्रकाशन विभाग से छपने वाली पत्रिकाएं भी लौट कर आती रहती थीं . उन लौटी प्रतियों से पहली बार 'आजकल', 'विश्व-दर्शन' 'बाल भारती' आदि के दर्शन किए। इन्हें पढ़ता, तो कहानी-कविता लिखने की ललक होती . नजीजतन करीब अठारह साल की उम्र में मैंने नव-विवाहित जोड़े के संबंध-विच्छेद पर 'नीरा' शीर्षक से कहानी लिख मारी और गिरह से पैसा ख़र्च करके उसे टाइप भी करवाया. भाषा अत्यंत दुरूह और संस्कृतनिष्ठ थी . यह कहानी मैंने अनुनय-विनय करके 'बाल भारती' की उप-संपादिका श्रीमती सावित्री देवी वर्मा को पढ़ने को दी . पहले तो उन्हें विश्वास ही नहीं हुआ कि डाक की छंटाई करने वाला यह पंजाबी छोकरा आठ-नौ पेज की कहानी लिख सकता है. पढ़ने के बाद तो धड़धड़ाती हुई मेरे कमरे में आईं और लगीं मेरी लानत-मलामत करने - अभी तेरी मसें भी नहीं भीगीं और चला है पति-पत्नी के संबंधों पर कहानी लिखने! डांट-डपट और फिर प्यार से उन्होंने समझाया कि लेखक बनना चाहता है, तो जानी-पहचानी स्थितियों पर लिख . फिर यह उपदेश दे कर गईं कि पहले बच्चों के लिए छोटी-छोटी कहानियां लिखना सीख.
सीमा ओझा - उनकी सलाह मानी ?
द्रोणवीर कोहली- उनकी नेक सलाह हृदयंगम करते हुए मैंने बच्चों के लिए कहानी लिखी . उन्हें दिखाने की हिम्मत नहीं हुई . सीधे 'मनमोहन' में भेज दी . जब पत्रिका संपादक सत्यव्रत जी का स्वीकृतिपत्र आया, तो मैं बल्लियों उछला . मेरा पहला प्रयास ही सफल हुआ था और जब मार्च 1950 के अंक में इसके छपने की सूचना मिली, तो उस दिन सुबह-सुबह मैं लाल कुआं से दौड़ा-दौड़ा फ़तहपुरी चौक में अख़बार वाले के यहां पहुंचा . बता नहीं सकता पहली बार अपना नाम छपा हुआ देख कर मै किस तरह सातवें आसमान पर था . उस क्षण और स्थिति का आज मैं बखान करने में सक्षम नहीं हूं . कह लीजिए वैसी ही खुशी हासिल हुई थी, जैसी कि मां-बाप को पहली संतान के दर्शन मात्र से होती है . और फिर उसके लिए जब सात रुपए का मनीआर्डर आया था, जब मेरा मासिक वेतन ही करीब 115 रुपए था, तो वैसा ही आह्लाद हुआ था, जैसा कि खुल जा सिमसिम कहने पर गुफ़ा का दरवाज़ा खुलने पर हीरे-जवाहरात से भरी पेटी मिलती है . आज रायल्टी और पारिश्रमिक की हज़ारों की रकम से भी वह खुशी हासिल नहीं होती जो तब हुई थी . वैसे, लेखन से अर्जित पैसे का मूल्य कुछ और ही होता है . एक बार मैं 25 रुपए के पारिश्रमिक का चैक जेब में लिए जनपथ पर जा रहा था, तो लगता था कि इस रकम से मैं सारा बाज़ार ख़रीद सकता हूं .

सीमा ओझा - आपने जो पहली बाल-कथा लिखी, उसके बारे में कुछ बताइए .
द्रोणवीर कोहली -यह कहानी मैंने अपनी दादी के बारे में लिखी थी . और यह भी संयोग था कि वह व्यंग्य-कथा बन गई . दादी से मेरी कभी बनी नहीं . उसे अभिमान था कि वह धनाढय परिवार से आई है . मेरी मां ग़रीब परिवार से आई थी . बताते हैं कि सास-बहू में कभी बनी नहीं . मुझे जन्म देने के करीब एक साल बाद ही मां का देहांत हो गया था. सचमुच, दादी का मायका अमीर था. पार्टीशन के बाद पाकिस्तान से सूचना मिली थी कि लुटेरों ने उनकी हवेली की दीवारें और फर्श खोद कर ढेर सोना-चांदी और नकदी निकाली थी. दादी के एक भाई को अंग्रेज़ों से रायबहादुर की उपाधि मिली थी और पिंडी में मरी रोड जैसे राजमार्ग पर उसकी कोठी थी . दादी थी भी बड़ी हृष्टपुष्ट . अपनी सेहत का रहस्य यह बताती थी कि गांव में वह कच्चे बैंगन खूब खाया करती थी . कहती थी इतनी मोटी थी कि दरवाज़े में से निकल ही नहीं सकती थी . बस, दादी की खिल्ली उड़ाने की ख़ातिर ही मैंने पहली बाल-कथा लिखी . मैंने तो उसका शीर्षक रखा था 'दादी की कहानी'। छपी वह 'गांव' नाम से थी .
इसके बाद 'मनमोहन' में ही मेरी एक-दो कहानियां छपीं. उसके बाद कुछ समय तक मेरा लिखना रुक-सा गया था .सत्यव्रत जी लेखकों के प्रति बड़े स्नेहशील थे . आप चकित होंगी यह जान कर कि मुझ जैसे नौसिखिए लेखक को वयोवृध्द संपादक ऐसी चिट्ठी लिखते हैं जो किसी म्रियमाण लेखक में भी प्राण फूंक सकती है . कहानी के लिए तकाज़ा करते हुए उन्होंने पोस्टकार्ड पर यह लिख कर भेजा था: ''मेरी झोली खाली है''. ऐसे कर्तव्यनिष्ठ संपादक आजकल कहां! संपादक का रवैया, ख़ासकर उदीयमान लेखकों के प्रति, लेखक को आसमान पर उठा भी सकता है और नीचे पटक भी सकता है . 'बाल भारती' और 'आजकल' में मैंने उनके चरणचिह्नों पर चलने का थोड़ा-बहुत प्रयास किया .
सीमा ओझा - जहां तक मैं जानती हूं, 'गांव' जैसी कोई कहानी आपके किसी संग्रह में नहीं है .
द्रोणवीर कोहली - नहीं है . वास्तव में आरंभिक दौर में मैंने काफ़ी बड़ी संख्या में बच्चों के लिए कहानियां लिखी थीं . उन्हें किसी संग्रह में इसलिए नहीं दिया कि उन्हें मैं दुबारा सुधार कर लिखना चाहता हूं . कुछ अधकचरी हैं, कुछ स्वयं मुझे अच्छी नहीं लगीं. चलते-चलते आपको यह भी बता दूं कि बड़ों के लिए मैंने बीसेक कहानियां लिखी हैं . लेकिन मेरे संग्रह 'जमा-पूंजी' में कुल 12 कहानियां हैं . बाकी कहानियों को पुस्तकाकार छपवाना मैंने उचित नहीं समझा .
सीमा ओझा -यह चमत्कार नहीं था कि जिस संस्था में आपने एक छोटी-सी नौकरी से प्रवेश किया, वहीं से छपने वाली पत्रिकाओं के संपादक भी बने .
द्रोणवीर कोहली - चमत्कार नहीं, संयोग है . मैंने बताया न कि मेरे जीवन में संयोग का बड़ा हाथ रहा है . यह भी संयोग ही था कि 'बाल भारती' का संपादन करने वाली जिन श्रीमती सावित्री देवी वर्मा ने पहले मुझे लताड़ा था और मुझे लिखने के लिए प्रेरित किया था, उन्हीं के हाथों से मैंने 'बाल भारती' का कार्य-भार संभाला - 1969 में . वह मार्मिक क्षण मेरे हृदय-पटल पर खुद कर रह गया है . सावित्री जी ने डबडबाई आंखों और अत्यंत वेदना-भरे स्वर में कहा था : '' जिस लड़के को मैंने कलम पकड़ना सिखाया, वह अब 'बाल भारती' निकालेगा!'' वास्तव में, हुआ यह था कि सावित्री जी की अपने सीनियर (अशोकजी) से पटरी नहीं बैठी थी और उन्हें लगभग अपमानित करते हुए उन्होंने 'बाल भारती' से हटाया था . उनका बिदाई का संदेश भी नहीं छपने दिया था . लेकिन सावित्री जी की सदाशयता देखिए कि जब मेरा पहला अंक आया, और उन्हें अच्छा लगा, तो उन्होंने मेरी पीठ ठोंकते हुए कहा था : ''ख़ूब काम संभाला है .'' उनके स्वर में वही खुशी थी जो संतान को थाती सौंपते हुए झलकती है . कभी-कभी कमंद ऐसे टूटती है .

सीमा ओझा -लेखन की शुरुआत आपने बाल-साहित्य से की . कहा जाता है कि शुरुआती दौर को छोड़ दें, तो बाद में आपका योगदान इस क्षेत्र में अत्यल्प रहा . ऐसा क्यों हुआ ? आपने अपने कहानी-संग्रह 'जमा-पूंजी' में लिखा है : ''बच्चों या किशोरों के लिए लिखने में तो मैं मुंह के बल गिरा हूं .'' क्षमा करें, इस कथन में घोर निराशा की झलक मिलती है . आपने 'टप्परगाड़ी' जैसा सफल किशोर उपन्यास लिखा है . 'डाक बाबू का पार्सल' रचना दी . 'देवताओं की घाटी' दिल्ली की हिंदी अकादमी ने पुरस्कृत हुई . उत्तर प्रदेश से 'कंथक' पुरस्कृत हुआ . इंडो-रशियन लिटरेरी क्लब ने बाल-साहित्य में मूल्यवान योगदान के लिए आपको सम्मानित किया . फिर भी, आपको यह बात किस कारण लिखनी पड़ी ? फिर इन दिनों आपकी कोई बाल-रचना भी सामने नहीं आई .
द्रोणवीर कोहली – बच्चों और किशोरों के लिए लिखना बड़ा दुष्कर कार्य है। एक बार मैं संघ लोक सेवा आयोग में किसी पद के लिए साक्षात्कार देने गया था . बोर्ड में हरिवंश राय बच्चन बैठे थे . उन्होंने मेरी बाल-पुस्तकें देखीं और पन्ने उलटने-पलटने के बाद गहरी सांस छोड़ते हुए भारी निराशा के स्वर में यह बात कही थी, '' बच्चों के लिए लिखना बड़ा कठिन काम है .'' स्वीकार करता हूं, इस एक वाक्य ने मेरा आत्मविश्वास डिगाया . मैं काफ़ी सेंसिटिव और कमज़ोर किस्म का आदमी हूं . फिर एक और घटना घटी . 'मनमोहन' में दो-तीन रचनाएं छपवाने के बाद 'बालसखा' में भी कहानी छपी, जिसके लिए उन्होंने पारिश्रमिक नहीं दिया . मैंने याद दिलाया, तो वहां से चार रुपए का मनीआर्डर आया, इस उपालंभ के साथ कि आपसे अनुबंध तो हुआ नहीं था, फिर भी चार रुपए भेज रहे हैं . मन इतना खट्टा हुआ कि उसके बाद आज तक मुझे किसी से पारिश्रमिक मांगने में बड़ा संकोच होता है . फिर अवचेतन में शायद शैलेष मटियानी का यह कथन भी है कि बच्चों के लिए लिख कर ''तृप्ति नहीं होती'' . समुचित धन-मान-प्रोत्साहन भी तो नहीं मिलता . इससे भी बढ़ कर अधिकतर बाल-पुस्तकों की तस्वीरें, छपाई, काग़ज़, जिल्दबंदी ऐसी होती है कि मन प्रसन्न नहीं होता . बाल-साहित्य को आज भी यथोचित महत्व नहीं दिया जाता . पांचवें-छठे दशक में मेरी जो किताबें छपीं, उनके चित्रों को देखेंगी, तो समझ जाएंगी . कलाकार को समुचित पारिश्रमिक नहीं दिया जाता . जब आप कलाकार के पेट में दाना नहीं डालेंगे, तो वह चित्रों में जान कैसे डालेगा . कलाकारों और लेखकों के हाथ में कुछ रुपल्ली उसी तरह पकड़ा दी जाती है, जिस तरह बच्चे को झुनझुना पकड़ाया जाता है . एक बार कहीं बाल पुस्तकें सबमिट की जानी थीं . आनन-फानन में किताबें मैन्यूफेक्चर की जाने लगीं . एक बड़े प्रकाशक ने एक आर्टिस्ट को बैठा कर चित्र बनवाने षुरू किए . मेरी भी एक पुस्तक थी . यह देख कर मुझे घोर निराशा हुई थी कि घंटे-भर में उस धनीधोरी ने कवर समेत भीतरी चित्र बना कर डाल दिए थे . स्थिति यह है . फिर भी, पता नहीं क्या सोच कर एक सुप्रसिध्द बाल-लेखक और संपादक ने पुस्तक लिख कर यह सिध्द करने का प्रयास किया है कि हिंदी बाल साहित्य ''स्वर्णयुग की ओर'' जा रहा है . शायद आप जानती हों, 'एलिस इन वंडरलैंड' के लेखक और कलाकार ने एक साथ बैठ कर पुस्तक की रूपरेखा बनाई थी. तभी वह कालजयी रचना कहलाई . कम से कम हिंदी में मैं ऐसी एक भी रचना का नाम नहीं ले सकता . आपने हिंदी अकादमी से पुरस्कृत जिस पुस्तक का ज़िक्र किया, वह - आप हैरान होंगी यह जान कर - पूरे दस साल बाद जा कर छपी . ऐसे में कौन स्थापित लेखक बच्चों के लिए लिखना पसंद करेगा . न पैसा मिलता है, न शोहरत मिलती है . 'बाल भारती' के संपादन-कार्य में मैंने कई बड़े लेखकों को अप्रोच किया . बड़ी कठिनाई से मन्नू भंडारी, कृश्न चंदर तथा एक-दो अन्य लेखक हाथ आए .
सीमा ओझा -अंग्रेज़ी बाल-साहित्य से आपका खासा परिचय लगता है . अंग्रेज़ी में लिखने की कभी कोशिश नहीं की ? सुना है, आप 'सैनिक समाचार' के अंग्रेज़ी संस्करण के संपादक रहे हैं .
द्रोणवीर कोहली – आरंभ में मेरी रुचि बाल-साहित्य में थी, इसलिए मैं काफ़ी बड़ी संख्या में अंग्रेज़ी बाल पुस्तकें पढ़ा करता था - यहां तक कि बाहर से भारी खर्च करके 'क्रिटिकल हिस्टरी आफ़ चिल्डे्रंस लिटरेचर' (624 पृष्ठ) मंगाई और उसका बड़े मनोयोग से अध्ययन किया . फिर प्रकाशन विभाग में अंग्रेज़ी रचनाओं को टाइप किया करता था, इसलिए अंग्रेज़ी में लिखने की लालसा हुई थी . पहले एक लंबा लेख दिल्ली पर लिखा . अजमेरी गेट पर बस न मिलने के कारण एक लड़की के साथ अगले स्टाप तक बातें करते हुए जो भावनाएं मन में आई थीं, उन्हें लिपिबध्द किया था . बाद में 'मनमोहन' में प्रकाशित रचना का अनुवाद करके दैनिक 'स्टेट्स्मैन' के बाल-स्तंभ 'प्लेटाइम' में भेजा, जो उन दिनों बड़ा लोकप्रिय था . वह छपी और पचास रुपए का चेक आया, तो अपार हर्ष के साथ यत्किंचित विषाद भी हुआ कि देखो, हिंदी और अंग्रेज़ी के लेखकों के साथ कैसा भेदभाव होता है . 'मनमोहन' से उसके लिए संभवत: आठ रुपए ही मिले थे . उसके बाद दो-तीन और बाल-रचनाएं 'स्टेट्स्मैन में छपीं . मैंने अंग्रेज़ी में लिखना इसलिए छोड़ दिया कि यह अनुभव किया कि अंग्रेज़ी मेरी अभिव्यक्ति की भाषा नहीं है .
सीमा ओझा - प्राय: नए लेखक कविता लिखने में प्रवृत्त होते हैं . आपने ........
द्रोणवीर कोहली – आज हंसी आती है, यह सोच कर कि मैंने भी उस दौर में कविता लिखने का प्रयास किया था . एक कविता लिखी और भेजी भी तो 'आजकल' में, जिसका सार यह था कि मेरी वीणा के तार टूट गए हैं, मैं गाऊं, तो कैसे गाऊं . सत्यार्थी जी ने या केशवगोपाल निगम ने झाड़ तो नहीं पिलाई, चुपचाप कविता लौटा दी . उसे फिर कहीं भेजने का साहस नहीं हुआ . एक बार बच्चों के लिए भी कविता लिखी थी . हुआ यह था कि मैं साइकिल निकाल कर दफ्तर के लिए निकल ही रहा था कि ज़ीने में खड़ी मेरी तीनेक बरस की चचेरी बहन ने तुतलाते हुए मुझसे एक पैसा मांगा और मैंने दिया नहीं था . चलते-चलते उस वक्त बच्ची की आंखों में जो विषाद देखा, और जिस तरह मेरी आत्मा को डंक लगा, उसी ने मुझसे यह कविता लिखवाई, जिसकी आरंभिक पंक्ति थी : 'भइया, कितने निष्ठुर हो तुम' . सौभाग्य से प्रयागनारायण त्रिपाठी ने कविता में यथोचित संशोधन करके उसे 'बाल भारती' में छपवा दिया . उसके बाद दो और बाल-कविताएं अप्रकाशित पड़ी हैं . एक कविता में सावित्री-सत्यवान की कथा है . सावित्री जंगल में भटकते हुए कैसे भयभीत होती है : 'पत्ता एक खटकता भी, तो, कान खड़े हो जाते थे, अंधकारमय वनाली में नेत्र लखने भिड़ जाते थे' . एक लंबी बाल-कविता बगिया लगाने वाले एक बूढ़े के बारे में है . प्रभाकर करके छंदशास्त्र की थोड़ा-बहुत जानकारी हुई थी . तुकबंदी में मन नहीं लगा और फिर आज तक कभी कविता लिखने का मन नहीं बनाया . हां, अच्छी कविताओं का अनुवाद करने का मन करता है .
सीमा ओझा -आपके किशोरोपयोगी उपन्यास 'टप्परगाड़ी' को तो काफ़ी पसंद किया गया . साप्ताहिक हिंदुस्तान में यह धारावाहिक छपा था और बताते हैं कि धर्मवीर भारती ने भी इसको सराहा था .
द्रोणवीर कोहली – संयोग से भारती जी की चिट्ठी मेरे सामने है . अचरज कि उन्होंने यह उपन्यास पढ़ा और उसके बारे में अपनी सुचिंतित राय भी दी, इस तरह: ''उस समय की संस्कृति के छोटे-छोटे विस्तारों का सजीव वर्णन, अनेक अविस्मरणीय पात्र और कहानी में बिना किसी 'गिमिक' के बांधे रखने की क्षमता, बिना पढ़े रहा ही नहीं गया . इसके दो अर्थ हो सकते हैं . या तो मूलत: यह स्टैंडर्ड पाठक का उपन्यास है, उसे किशोरों का उपन्यास कहना आपकी विनम्रता या हिचक है या फिर मैं मूलत: अभी भी कहीं किशोर अवस्था से उबरा नहीं हूं, यानि परिपक्वता पानी बाकी है .'' भारती जी के कथन से मुझे लगता रहता है कि किशोरों के लिए लिखने का गुण भी मुझमें नहीं है.
सीमा ओझा -इसकी भूमिका में आपने संकेत किया है कि सोलह साल में इसे पूरा किया है आपने .
द्रोणवीर कोहली – वास्तव में 'टप्परगाड़ी' नौसिखिए लेखक की कार्यशैली का नमूना है. तब भी और अब भी बंध कर लिखना मुझे आता नहीं . बार-बार काट-पीट कर लिखने की आदत-सी बन गई नहीं . कई बार गुड़गोबर हो जाता है. यह भी प्रकाशन विभाग में क्लर्क-जीवन की देन है . इस दफ्तर से प्रकाशित होने वाली अंग्रेज़ी पत्रिकाओं और पुस्तक-पुस्तिकाओं की संशोधित पांडुलिपियों को टाइप करने का काम करना पड़ता था . अनजाने में ही मैं सीख रहा था कि भाषा को सुधारा कैसे जाता है . अंग्रेज़ी के कई अधकचरे सहसंपादक (उन दिनों इनकी संख्या ही अधिक थी) ऐसे थे जो एक ही लेख को बार-बार सुधार कर पुन: टाइप करवाते रहते थे . एक संपादक तो ऐसे थे चिट्ठी इस तरह लिखवाते थे : ''थैंक्यू वेरी मच फ़ार योर लेटर...'' लेकिन पता नहीं इस वाक्य में उन्हें क्या खामी लगती थी कि उसे बदल कर कर देते थे : ''आइ टेक दिस अपरचुनिटि टु थैंक यू...'' आदि-आदि . फिर प्रकाशन विभाग के डायरेक्टर डॉ शषधर सिन्हा भारी कांट-छांट किए बिना जाने कोई रचना जाने नहीं देते थे . जवाहरलाल नेहरू जी के भाषणों के ग्रंथ 'इंडिपेंडेंस एंड आफ़टर' का संपादन उन्होंने और शीलाधर ने किया था और मैंने उनकी संपादित पांडुलिपि देखी है . जवाहरलाल जी तक यह माजरा पहुंचा था . सुनते थे कि उन्होंने यह कह कर अनुमोदन किया था कि जब तक डॉ सिन्हा वहां हैं, मैं निश्चिंत हूं . कहने का तात्पर्य यह कि संशोधित पांडुलिपियों को टाइप करके मैंने संपादन करना सीखा .

यह एक प्रभाव था . दूसरा प्रभाव खुशवंत सिंह का था जो 'योजना' के संपादक थे. कुछ समय तक मैं उनका पीए रहा . 'योजना' का संपादकीय लिखने के लिए वह दरवाज़ा बंद करके बैठ जाते थे और आध- पौन घंटे में संपादकीय हाथ से लिख कर मुझे देते थे . आश्चर्य! न तो उनकी हस्तलिपि में, न टाइपशुदा कापी में कोई काट-छांट करते थे . अफ़सोस कि खुशवंत जी की शैली तो नहीं सीखी,शषधर सिन्हा जी की आदत अपना ली .
सीमा ओझा -'टप्परगाड़ी' जैसी रचना के लिए प्रेरणा आपको कहां से मिली? ऐसी कहानी लिखने का ख़याल कैसे आया ? आप इतिहास के विद्यार्थी तो कभी रहे नहीं .
द्रोणवीर कोहली – 'टप्परगाड़ी' की कहानी इतिहास की किसी घटना को ले कर नहीं लिखी गई है . मैं उस परिवेश का चित्रण करना चाहता था जिसमें मैं जनमा-पला . मेरा लड़कपन बीता रावलपिंडी जैसे शहर में, जहां से प्राचीन तक्षशिला के खंडहर करीब बीस मील या तीसेक किलोमीटर परे थे . स्थानीय लोग इसे टकसला या टसकला याशाह नीं ढेरी बोलते थे पता नहीं लड़कपन में ऐसा क्या आकर्षण था कि मैं घर से भाग कर तक्षशिला गया था और वहां के खंडहरों में पूरा दिन भटकता फिरा था . इधर आ कर एकाएक एक दिन ख़याल आया कि क्यों न अपने पुराने परिवेश की पृष्ठभूमि को ले कर कोई कहानी-उपन्यास लिखूं - वह भी बड़ों के लिए नहीं, बच्चों या किशोरों के लिए . पहले संस्करण में मैंने इस बारे में नौ पृष्ठ की भूमिका लिखी है . एक तो इसलिए , दूसरे, यह उपन्यास एक इतिहास-काल को उसके समूचे जनपदीय परिवश के माध्यम से उजागर करता है . एक ग्रामीण दंपती अपनी जन्मांध कन्या के उपचार के लिए टप्परगाड़ी पर बैठ कर तक्षशिला के लिए रवाना होता है . रास्ते में उसे जो मुसीबतें झेलनी पड़ती हैं और तक्षशिला में उस पर जो विपदा आती है, इसकी कहानी है यह . तत्कालीन जनजीवन का माहौल पकड़ने के लिए सबसे पहले मैंने जातक कथाओं के छहों खंड आद्योपांत पढ़े . मार्शल का तक्षशिला पर लिखा ग्रथ पढ़ा, डॉ मोतीचंद्र का ग्रंथ 'प्राचीन वेषभूषा' पढ़ा और भगवतशरण उपाध्याय का 'सार्थवाह' ग्रंथ पढ़ा . बीच-बीच में महाभारत भी पढ़ता रहा . यहां तक कि ग्रीक युध्द कला की पुस्तक विशेष रूप से लंदन से मंगवाई, जिसका उपयोग मैं नहीं कर सका . सिकंदर के बारे में लिखे कुछ अंग्रेज़ी उपन्यासों का भी अवगाहन किया . इसी तुफ़ैल में 1960 में शुरू की गई कहानी काटते-पीटते, चलते-रुकते कहीं 1976 में जा कर पूरी हुई . साप्ताहिक हिंदुस्तान के संपादक मनोहरश्याम जाशी को इतनी पसंद आई कि उन्होंने अपने मुखपृष्ठ पर इसकी घोपणा करके एक अंक में इसका संक्षिप्त रूप छापा और 1979 में यह उपन्यास पुस्तकाकार छपा . करीब ढाई सौ पृष्ठों के 'टप्परगाड़ी' के सजिल्द संस्करण की कीमत अठारह रुपए रखी गई थी . लेकिन प्रकाशक को लगा था कि इस तरह की बड़ी रचना इतने महंगे दामों में कोई नहीं खरीदेगा . उन्होंने मेरे मुंह पर यहां तक कह डाला था कि ''हमसे तो बड़ी ग़लती हो गई इसे छाप कर .'' मैं इतना हतोत्साह हुआ कि इसके आगे के खंड के लिए सामग्री एकत्र कर ली थी, उसे आज तक हाथ नहीं लगाया. जब कोई छापने वाला नहीं, तो समय क्यों बरबाद किया जाए . आप हंसेंगी . पाठक भी हंसेंगे . लेकिन यह असलियत है . अब कहीं 2009 के अंत में 'टप्परगाड़ी' का दूसरा संस्करण आ सकता है . मैं समझता हूं हिंदी में किशोर साहित्य न पनपने का एक कारण प्रोत्साहन का अभाव है . प्रकाशकों की रुचि नहीं है ऐसा साहित्य छापने में .
सीमा ओझा -बच्चों के लिए कोई नई रचना ?
द्रोणवीर कोहली – दो-ढाई साल पहले मैंने 'मटकी मटका मटकैना' नाम से एक लधु उपन्यास लिखा था . लेकिन वह अभी तक छपने की राह देख रहा है . पांडुलिपि प्रकाशक के पास पड़ी है . बस, एक बात का डर है कि उसके चित्र कोटि के नहीं बनेंगे. इसलिए प्रकाशक से निवेदन किया है कि उसे बिना चित्रों के छापा जाए, हालांकि यह अनर्गल-सी बात है कि बच्चों की किताब चित्रहीन हो, लेकिन परिस्थितिवश ऐसा मुझे कहना पड़ा . सोचता हूं, इसी बहाने जल्दी छप भी जाएगी .
सीमा ओझा -आपने मौलिक लेखन के अलावा, अनुवाद कार्य भी किया है.
द्रोणवीर कोहली – मैंने बच्चों की और बड़ों की पुस्तकों का अनुवाद किया है - रियाज़ करने की ख़ातिर . जब आप किसी अच्छी रचना का अनुवाद करते हैं, तो उससे कुछ सीखते हैं . सबसे पहले मैंने चीनी उपन्यासकार चांग तइन-यी के बाल-उपन्यास 'करामाती कद्दू' का अनुवाद किया . यह रचना मुझे इसलिए अच्छी लगी थी कि इसमें इस अद्भुत मनोरंजक शैली में शिक्षा दी गई थी कि लगता ही नहीं कि लेखक ऐसा कर रहा है . यह रचना 'साप्ताहिक हिंदुस्तान' में अठारह सप्ताह तक छपी . लेकिन खेद है इसकी कोई प्रति मेरे पास भी नहीं है . किसी के पास हो, तो मुझे दें . इसी लेखक की ऐसी ही एक और रचना 'जंगली-मंगली' का भी अनुवाद किया है . कार्लो कोलोदी के इटैलियन क्लासिक 'पिनोकियो' का भी अनुवाद हाल ही में पूरा किया है . वैसे तो कई लेखकों ने 'पिनोकियो' को हिंदी में प्रस्तुत किया है, लेकिन जितने पाठ मेरी नज़र से गुज़रे, वे अधूरे या संक्षिप्त हैं . मैंने इसका पूरा अनुवाद किया है . हिंदी पाठकों की सुविधा के लिए नामों का कहीं-कहीं भारतीयकरण ज़रूर कर दिया है .
इनके अतिरिक्त फ्रेंच लेखक ज़ोला की क्लासिक रचना 'जर्मिनल' का 'उम्मीद है आएगा, वह दिन' शीर्षक से अनुवाद किया है . पांच सौ पृष्टों के इस उपन्यास का अनुवाद मैंने दो-तीन प्रयोजनों से किया . एक तो फ्रांस में अठारहवीं सदी के आसपास कोयला-खानों की जो दुर्दशा थी, वैसी आज भी हमारी कुछ कोयला-खानों में पाई जाती है . यह दिखाने के लिए मैंने इस रचना को हाथ में लिया . दूसरे मैं यह दिखाना चाहता था कि इतना बड़ा लेखक, इतना बड़ा थीम हाथ में लेता है, लेकिन विचारधारा के चक्कर में पड़कर किस तरह इसके समूचे प्रभाव को नष्ट करता है . यहां मैं अशोक वाजपेयी का कथन उध्दृत करते हुए कहूंगा कि इस रचना में ''साहित्यानुराग से अधिक वैचारिक आग्रह'' है .

इसके अतिरिक्त, स्वीडिश लेखक ज़लमार साइडरबरय की सर्वश्रेप्ठ समझी जानी वाली रचना 'डॉक्टर ग्लास' प्रकाशनाधीन है . कई लेखकों की कहानियों का भी अनुवाद समय-समय पर छपता रहा है .
सीमा ओझा -सुना है आपने प्रकाशन विभाग में अपने लंबे अनुभवों का चित्रण किसी उपन्यास में किया है .
द्रोणवीर कोहली – भारतीय सूचना सेवा के अंतर्गत - 1949 से 1985 - लंबे काल तक मैंने प्रकाशन विभाग में काम किया . मैं आजकल जो कुछ भी हूं, इस अनुपम संस्था की बदौलत ही हूं . फिर यह कैसे हो सकता था कि मेरे संघर्ष और रचनात्मक जीवन का बहुत बड़ा हिस्सा कहीं बीते, ख़ासकर जहां रहते हुए मैंने कलम पकड़नी सीखी, उस पर मैं कलम न चलाता . 'ध्रुवसत्य' नाम से हाल ही में प्रकाशित अपने उपन्यास में मैंने प्रकाशन विभाग में प्रवेश और उन दिनों के परिवेश का चित्रण करने का प्रयास किया है . लेकिन 1949 से डेढ़-एक बरस के अनुभव ही इसकी पृष्ठभूमि में हैं . काल ने इजाज़त दी, तो अगला खंड भी लिखूंगा .
सीमा ओझा -'बाल भारती' और 'आजकल' में अपने संपादन-काल के कुछ खट्टे-मीठे अनुभव बताएं .
द्रोणवीर कोहली – 'बाल भारती' का मेरा संपादन काल बड़ा सुखद रहा . पत्रिका का काम अचानक सौंपा गया था . रचनाएं जुटाने और चित्र आदि बनवाने के लिए कड़ा संघर्ष करना पड़ता था . अकसर चित्रकार सहयोग नहीं करते थे .हमेशा टाल-मटोल करते रहते थे . लेकिन चित्र बनाते भी चालू किस्म के थे . लेकिन मैं उनका पिंड नहीं छोड़ता था . लेकिन यह संघर्ष आनंदप्रद था . मुझे तो पत्रिका निकालने में इतना सुख मिलने लगा था कि मेरा अपना लेखन छूट गया था. अतिशयोक्ति और अपने मुंह मुंह मिट्ठू बनना न समझें, तो उठते-बैठते मैं उसके बारे में ही सोचता रहता था . बाल लेखन यदि कठिन काम है, तो बाल पत्रिका निकालना उससे भी बड़ा दायित्व है . मैं तीन-चार पत्रिकाओं के संपादन-कार्य से संबध्द रहा हूं . इनमें 'बाल भारती' का काम मुझे अधिक दायित्वपूर्ण और आनंददायक लगता था . एक उदाहरण से यह स्पष्ट करना चाहूंगा . यदि 'आजकल' जैसी साहित्यिक पत्रिका में कोई भाषा-त्रुटि रह जाती है, तो उसे लेखक की शैली मान कर नज़रअंदाज़ किया जा सकता है . लेकिन बच्चों की पत्रिका में यदि भाषा या व्याकरण की ग़लती रह जाती है, तो उसका ठीकरा संपादक के सिर फोड़ा जाता है. इस दृष्टि से यह अधिक दायित्वपूर्ण कार्य है. कभी-कभी बड़े-बड़े लेखकों का अकारण कोपभाजन बनना पड़ता था . एक बार सोहनलाल द्विवेदी ने संभवत: फ़रवरी के अंत में बसंत पर कविता भेजी थी, जो छपाई की विवशताओं को देखते हुए मई-जून के अंक से पहले छप नहीं सकती थी . मैंने विनम्र निवेदन के साथ उन्हें यह लिखा कि अभी समय है, आप इसे किसी दैनिक पत्र में छपवा लें. तत्काल उन्होंने यह लिख भेजा था : ''आज तक किसी संपादक ने मेरी रचना नहीं लौटाई .'' ऐसी दुरूह स्थितियों का भी सामना करना पड़ता था.
'आजकल' में मेरा कार्यकाल अति संक्षिप्त रहा . कुछ लेखक पत्रिका से कट गए थे - कुछ तो विचारधारा के कारण सरकारी पत्रिका में लिखने से कन्नी काटते थे . लेकिन मैं ऐसे कुछ लेखकों का भी सहयोग प्राप्त करने में सफल हुआ . मैंने उनसे मात्र यह निवेदन किया कि इसमें सरकार की नीतियों के खिलाफ़ कुछ न लिखें, न इसमें कोई अश्लील या भदेस किस्म की रचनाएं छपेंगी . मुझे खुशी है कि मुझे हर विचारधारा के लेखकों का सहयोग मिला . नामवर सिंह ने भी अपना लेख दिया था . दूसरे, मैं किसी के दबाव में झुका नहीं - न लेखकों के, न अपने सीनियर अधिकारियों के . 'आजकल' साहित्यिक पत्रिका है, यह जानते हुए भी मेरे एक सीनियर अधिकारी ने मुझे उसके मुखपृष्ठ पर दो बार सत्ताधारी नेताओं के चित्र छापने के लिए मौखिक आदेश दिए, जिनका पालन मैंने नहीं किया . शिकायत निदेशक तक पहुंची . मुझे खुशी है कि दोनों बार दोनों निदेशकों ने मेरे फैसले का समर्थन किया .

मैंने सप्तकों पर एक अंक निकाला था . 'अज्ञेय' जी ने थोड़ी नाराज़गी इस लिए प्रकट की थी कि कहते थे कि मुझे उनसे पूछ लेना चाहिए था कि किन लेखकों से लिखवाना है . लेकिन उन्होंने इस बारे में कोई शिकायत नहीं की, हालांकि कर सकते थे . लेखकों को पत्रिका से जोड़ने के लिए मैं हर महीने बीस लेखकों के पास पत्रिका भिजवा कर उनसे सहयोग की प्रार्थना करता था . इसका अच्छा फल निकला . जो नहीं लिखते थे, उन्होंने भी लिखने का आश्वासन दिया . राजेंद्र यादव ने एक बार मुझसे कहा था - तुम सबको साथ ले कर चले हो . फिर इलाचंद्र जोशी जी का दो पन्नों का पत्र आया था, जिसमें 'आजकल' और मेरे जैसे अज्ञात संपादक के बारे में जिज्ञासा की गई थी . हां, नेमिचंद्र जैन ने यह ज़रूर लिख भेजा था कि 'आजकल' अभी ऐसी पत्रिका नहीं बनी कि उसे ख़रीद कर पढ़ा जाए . धर्मवीर भारती जी ने कुछ अंक देख कर यहां तक लिख भेजा था कि जी करता है कि 'आजकल' के दफतर में आ कर संपादक जी को बधाई दूं...
सीमा ओझा -यह गौरव की बात है कि 'आजकल' को सरकारी पत्रिका होते हुए भी शुरू से ही लेखकों का स्नेह मिला है .
द्रोणवीर कोहली – निस्संदेह . इसका एक प्रमुख कारण मैं यह समझता हूं कि मेरे पूर्ववर्ती और बाद के संपादकों ने जिस निष्ठा से साहित्य की सेवा की है, उसका ऐतिहासिक महत्व है . हां, बीच-बीच में इसका रूप बिगड़ा ज़रूर है, जब यह साहित्यिक पत्रिका न रह कर शुध्द रूप से ''सरकारी'' पत्रिका बन कर रह गई थी लेकिन लेखकों को यहां से हमेशा समुचित आदर-मान मिला है . फिर मुझे याद नहीं पड़ता कि 'आजकल' का प्रकाशन कभी स्थगित हुआ हो . यह बहुत बड़ी बात है . उन दिनों हिंदी पत्रिकाएं लेखकों को पारिश्रमिक नहीं देती थीं . जो देती भी थीं, तो पत्रपुष्प के रूप में . 'आजकल' ही ऐसी पत्रिका थी जिसने हर लेखक को समुचित पारिश्रमिक देना शुरू किया . मैं समझता हूं, 'आजकल' की लोकप्रियता का एक कारण यह भी था जिस कारण उसे शुरू से ही लेखकों का सहयोग मिलने लगा था . 'आजकल' की प्रतिष्ठा कितनी है, और इससे जुड़ने के लिए लोग किस तरह लालायित रहते हैं, उसक एक उदाहरण देखिए . हमारे एक सहयोगी 'आजकल' का संपादक बनने को बड़े लालायित रहते थे . कहते थे, ''अहा, 'आजकल' का संपादक होना बात ही कुछ और है .'' उनकी अंतिम इच्छा इस तरह पूरी नहीं हुई, क्योंकि उन्नति की सीढ़ियां चढ़ते-चढ़ते संपादक के पद से भी आगे वह प्रकाशन विभाग के डायरेक्टर हो गए थे .
सीमा ओझा -सुनते हैं, भारती जी के साथ आपके मधुर संबंध थे . आपने धर्मयुग में लिखा भी काफ़ी है .
द्रोणवीर कोहली – धर्मवीर भारती में एक गुण यह था कि वह लेखकों के पीछे पड़ कर उनसे लिखवा लिया करते थे . यह मैं अपने अनुभव से जानता हूं . मुझे लगता है कि मेरी दो रचनाएं - 'टप्परगाड़ी' तथा 'चौखट' पढ़ कर ही उन्होंने मुझे धर्मयुग में नियमित रूप से लिखने के लिए कहा था . 'चौखट' उपन्यास उन्हें पसंद तो नहीं आया था, लेकिन उसकी रिपोर्ताज शैली उन्हें पसंद थी . मेरे कई लंबे-लंबे रिपोर्ताज उन्होंने 'धर्मयुग' में छापे . यही नहीं, दिल्ली की गतिविधियों पर उन्होंने मुझसे नियमित स्तंभ 'बेदिल दिल्ली' भी लिखवाया जो चिरकाल तक मेरे 'बुनियाद अली' छद्म नाम से छपता था . मुझे इस बात की खुशी है कि मैं भारती जी का विश्वासपात्र बना - यहां तक कि कुछ मनचले किस्म के लोग मुझे 'छोटे भारती' भी कहने लगे थे . मैंने जब समय से दस साल पहले सरकारी नौकरी छोड़ने की बात सोची थी, तो भारती जी ने यह कह कर मुझे रोका था : ''देखिए, ऐसी हालत में रोज़ी-रोटी के लिए आप प्रकाशकों और संपादकों की दया पर निर्भर करेंगे, सोच लें।'' बड़ी नेक सलाह थी . मैंने तत्काल अपनी आर्थिक स्थिति को थोड़ा व्यवस्थित करना शुरू किया और पांच साल बाद जा कर स्वेच्छया सेवानिवृत्ति ली . यदि मैं ऐसा न करता, तो सोचता हूं जो लिखा है - अच्छा या बुरा - वह मैं न लिख सकता .
सीमा ओझा -अभी-अभी आपने पत्रकारिता का ज़िक्र किया . अगर इसे पिटा-पिटाया सवाल न समझें, तो पत्रकारिता और साहित्यिक लेखन में परस्पर कोई विरोध है ?
द्रोणवीर कोहली – मैं तो ऐसा नहीं समझता. पत्रकारिता एक ऐसा स्कूल है जो साहित्यकार को सामग्री जुटाने और एकाग्रचित्ता हो कर लिखना सिखाता है . कुछ लोग ग़लत सोचते हैं कि पत्रकारिता साहित्यिक शैली को भ्रष्ट करती है . फणीीश्वरनाथ रेणु कल्पनाशील साहित्यकार होने के साथ-साथ कुशल पत्रकार भी थे . उनके लिखे रिपोर्ताज भाषा-शैली एवं प्रस्तुति के लिए आज भी पढ़े जा सकते हैं . अमेरिकन उपन्यासकार जाह्न स्टीनबेक एक अख़बार की तरफ़ से कैलिफोर्निया में श्रमिक असंतोष और भूमि-समस्या की रिपार्टिंग करने गए थे . वहां न जाते, तो उन्हें 'ग्रेप्स आफ़ राथ' के लिए आधारभूत सामग्री न मिलती जिस पर उन्हें नोबेल पुरस्कार मिला . गैब्रियल गार्शीया मार्क्वेज़ आज भी नियमित स्तंभ लिखते हैं . उनकी नई लघु औपन्यासिक कृति 'मेमोरीज़ आफ़ माइ मेलनकली व्होर्स' का प्रमुख पात्र एक पत्रकार, यानि स्वयं मार्क्वेज़ हैं . अरविंद अडिग को 'व्हाइट टाइगर' पर मैनबूकर पुरस्कार मिला है . वह 'टाइम' पत्रिका के स्टिंगर थे . पत्रकारिता करते हुए अरविंद को बिहार और उत्तर प्रदेश के गांवों में जो अनुभव हुए, उन्हीं के आधार पर उन्होंने यह उपन्यास लिखा है . ये कुछ ही उदाहरण हैं कि पत्रकारिता साहित्यिक लेखन को भ्रष्ट नहीं करती, बल्कि उसके लिए कच्ची सामग्री उपलब्ध कराती है .
सीमा ओझा -साहित्यिक पुरस्कारों की राजनीति के बारे में हर तबके के लेखकों में असंतोष देखने को मिलता है .
द्रोणवीर कोहली – मैं बताता हूं . अमूमन लेखक पुरस्कार देने वाली अकादमियों अथवा संस्थाओं की निंदा करते हैं. वास्तव में, दोष इन अकादमियों का नहीं, पुरस्कारों की सिफारिश करने वाली समितियों का है जिनमें लेखक अपने-अपने मोहरें चलते हैं . यानि लेखक स्वयं कसूरवार हैं . कुछ लेखक ऐसे हैं जो दंद-फंद करके हर समिति में पहुंच जाते हैं . वह इसलिए कि इस स्थिति को वे प्रकाशकों के यहां भुना सकते हैं . अकादमियां तो मात्र डाकघर हैं . 'मुझे चांद चाहिए' शुध्द रूप से सिनेमाई अंदाज़ में लिखा गया उपन्यास है, जो मेरी समझ में साहित्य अकादेमी के योग्य नहीं था . फिर भी उसे यह पुरस्कार मिला . इसके लिए अकादेमी को दाष नहीं दूंगा . लेखक के मित्रों को दीजिए जिन्होंने उसकी सिफ़ारिश की . कई बार एक-आध किताब छपवाने वाले लेखक या ''हिंदी-सेवी'' पुरस्कृत होते रहते हैं . वास्तव में, पुरस्कार मिलते नहीं, लिये या झटके जाते हैं . अपनी बात बताऊं? मुझे यूपी से बाल-पुस्तक 'कंथक' पर कभी पुरस्कार मिला था . कैसे मिला ? वास्तव में, वह मिला नहीं, दिलवाया गया था . उन दिनों उत्तर प्रदेश में सुचेता कृपालानी मुख्यमंत्री थीं . उनके मुंहलगे सूचना अधिकारी और मेरे मित्र कष्प्णचंद्र मेरी बाल-पुस्तक 'कंथक' उठा कर ले गए थे और उन्होंने अपने रसूख से मुझे पुरस्कार दिलवाया था . तो पुरस्कारों की यह स्थिति है . एक बार विष्णु प्रभाकर ने भी काफ़ी हाउस में बैठे नए-नए पुरस्कृत लेखक को बधाई देने के बजाय यह कह कर लज्जित किया था कि तुमने फलां-फलां लेखक का पुरस्कार छीना है.
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जन्म १९३२ के आसपास रावलपिण्डी के निकट एक दुर्गम एवं उपेक्षित ग्रामीण क्षेत्र में हुआ. देश-विभाजन के उपरान्त दिल्ली आगमन जहां किशोरावस्था बीता और शिक्षा-दीक्षा हुई. भारतीय सूचना सेवा के दौरान विभिन्न पदों पर काम करने के अतिरिक्त, 'आजकल', 'बाल भारती', 'सैनिक समाचार' जैसी पत्रिकाओं का सम्पादन किया. कुछ समय तक आकाशवाणी में वरिष्ठ संवाददाता तथा हिन्दी समाचार विभाग के प्रभारी सम्पादक भी रहे.
आजकल स्वतन्त्र लेखन.
प्रकाशित कृतियां : *काया-स्पर्श, चौखत, तकसीम, वाह कैंप, नानी, ध्रुवसत्य, उम्मीद है (उपन्यास).*जो़ला के उपन्यास 'जर्मिनल' का अविकल हिन्दी अनुवाद - आएगा वह दिन.* जमा-पूंजी. (कहानी संग्र).*टप्पार गाड़ी, देवताओं की घाटी, डाक बाबू का पर्सल, कंथक (किशोरोपयोगी/बालोपयोगी).*मोर के पैर (लोककथाएं).
संपर्क : एस-२३/६ डी.एल.एफ. सिटी,गुणगांव- १२२००२हरियाणा.मोबाइल : ०९८१०८१५७९१

रपट



राधेश्याम तिवारी की कविताओं में बेहद सादगी है.

कुंवर नारायण

पटना से आरती सिंह

राधेश्याम तिवारी की कविताओं में बेहद सादगीपूर्ण संघर्ष की चेतना है। इनकी कविताओं से भाषा में मैत्रीपूर्ण व्यवहार का सुखद अहसास होता है। कविता में यह सादगी बहुत मुश्किल से मिलती है। यह टिप्पणी प्रख्यात हिंदी कवि कुँवर नारायण की है। गत दिनों पटना में राधेश्याम तिवारी की नई कविता पुस्तक, ‘इतिहास में चिडि़या’ का विमोचन करते हुए उन्होंने ये बातें कहीं थीं। कुंवर नारायण ने कहा कि भाषा की यह सादगी राधेश्याम तिवारी की कविताओं की सबसे बड़ी ताकत है। उन्होंने कहा कि भाषा को अपनी बात कहने देना चाहिए। उस पर अनावश्यक दबाव देने से कविता बिगड़ जाती है।

इस अवसर पर नई धारा के संपादक एवं कवि-आलोचक डॉ. शिवनारायण ने कहा कि राधेश्याम तिवारी हमारी पीढ़ी के महत्वपूर्ण कवि हैं। इनकी कविताएं अपने गहरे अर्थबोध के कारण हमें दूर तक ले जाती हैं . उन्होंने कहा कि संप्रेषणीयता के अलावा राधेश्याम तिवारी की कविताओं की सबसे बड़ी विशेषता उनकी जनपक्षधरता है, जो हमें सम्मोहित करती है। इस अवसर पर अन्य वक्ताओं में परेश सिनहा, अशोक कुमार सिन्हा, ममता मेहरोत्रा आदि थे।

इस अवसर पर तिवारी ने अनेक कविताएं सुनाईं, जिसे श्रोताओं ने मन से सराहा .
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मंगलवार, 3 नवंबर 2009

वातायन - नवम्बर ’२००९



हम और हमारा समय

धर्म , परंपरा , बाजारवाद और भ्रष्टाचार

रूपसिंह चन्देल

पिछले तीस वर्षों में और विशेषरूप से एन.डी.ए. सरकार के दौरान धर्म और परंपरा के नाम पर बाजारवाद ने तेजी से पैर फैलाए जिससे साधारणजन भी अप्रभावित नहीं रहा . पहले उपहारों का आदान-प्रदान सम्पन्न लोगों के चोंचले माने जाते थे , लेकिन आज हर व्यक्ति 'गिफ्ट' खरीदने के लिए पंक्ति में खड़ा दिखाई देता है भले ही उसे कर्ज लेना पड़ा हो . इस बाजारवाद ने अमीर-गरीब के बीच की खाई और चौड़ी की है . कुछ लोग यह तर्क दे सकते हैं कि जब उत्पादन बढ़ता है तब रोजगार के अवसर भी उपलब्ध होते हैं , लेकिन उत्पादन बढ़ने से मजदूर की जेब का वजन नहीं बढता . हां , उत्पादक और उसे बेचने वाले का खजाना अवश्य बढ़ रहा होता है . यह आश्चर्यजनक तथ्य है कि दुकानों में काम करने वाले सेल्स ब्वॉय को एक हजार से लेकर ढाई हजार रुयए तक ही वेतन मिलता है , और यह यदि कानपुर-पटना की हकीकत है तो यही हकीकत दिल्ली -मुम्बई की भी है . लाला अपनी तोंद पर हाथ फेरता रहता है और लेबर सुबह आठ बजे से रात नौ बजे तक एक पैर पर खड़ा काम करता रहता है . फैक्ट्रियों में काम करने वालों को पांच-छ: हजार से अधिक वेतन नहीं मिलता , जबकि उद्योगपति के खातों में करोड़ों जुड़ते जाते हैं .

बाजारवाद ने परंपराओं को भी विकृत किया है . पहले होली-दीवाली और दशहरा में लोग एक-दूसरे से प्रेमपूर्वक मिलते थे . आज लोग उपहार लादे रिश्तेदारों , मित्रों और परिचितों के यहां जाते हैं और उपहार पकड़ा (यदि उसे फेकना कहा जाए तो अधिक उपयुक्त होगा और अब प्राय: यह काम नौकरों को सौंप दिया गया है ) उल्टे पांव लौट लेते हैं . वास्तविकता यह है कि उपहार देने की परंपरा बढ़ी है , प्रेम घटा है . गरीबों की संख्या बढ़ी है तो अमीरों की संख्या में भी अप्रत्याशित वृध्दि हुई है . इसने धार्मिक पाखंडियों के बाजार को भी गर्माया है . गली , चौराहों और नुक्कड़ों पर ऐसे लोगों की दुकानें सज गई हैं जो न केवल भविष्य विचारते हैं बल्कि पूजा-पाठ द्वारा लोगों की समस्याओं के समाधान भी सुझाते हैं . कल तक जो राहजनी , छेड़छाड़ करते थे आज वे तिलक लगाकर भविष्यवक्ता बन बैठे हैं . इन पोंगा-पंडितों ने लोगों मेें इस कदर धर्मभीरुता पैदा कर दी है कि हर दूसरा व्यक्ति अपनी जन्म कुण्डली थामें उनकी चौखट पर मत्था टेक रहा होता है . इनके द्वारा बताए गए अनुष्ठानों के परिणामस्वरूप टनों कचरा यमुना-गंगा के हवाले होता रहता है और सरकारों से लेकर विश्वसंस्थाएं उनकी सफाई के लिए करोड़ों रुयए खर्च करती रहती हैं , लेकिन गंगा-यमुना का गंदा होना बदस्तूर जारी है . इसका मुख्य कारण यह है कि इनकी सफाई के लिए मिलने वाली राशि केवल कागजों में ही खर्च होती है . वह धन जाता कहां है यह बात नेता और अफसर ही बता सकते हैं .

धर्मभीरुता का विद्रूप उदाहरण इससे बड़ा क्या हो सकता है कि एक नेता ने बावन करोड़ का सोने का छत्र तिरुपति मंदिर को और अभी हाल में आंध्र के किसी व्यापारी ने नौ किलो सोना किसी मंदिर को दान किया . आयकर विभाग ने इनके खिलाफ क्या कार्यवाई की यह तो पता नहीं , लेकिन क्या यह उचित नहीं होता कि जिस देश में गरीबों के बच्चों को उचित शिक्षा नहीं मिल पा रही इस धन का उपयोग उस कार्य के लिए किया जाता . यदि देश के समस्त मंदिरों के अकूत धन को अधिग्रहीतकर सरकारें ईमानदारी से उसका उपयोग शिक्षा के लिए करें तो शायद हम दुनिया में अपने वास्तविक विकास के झण्डे अवश्य गाड़ सकने में सफल हो सकते हैं ; लेकिन अपने हितार्थ पंडितों-पाखंडियों ने लोगों को इतना धर्मभीरु बना दिया है कि उनके पूजा-पाठ के बिना लोग एक कदम बढ़ना नहीं चाहते . जिन्हें बिग बी के नाम जाना जाता है उन्होंने जनता के सामने जो उदाहरण प्रस्तुत किया वह अफसोसजनक ही कहा जाएगा . मैं उनसे जानना चाहता हूं कि जो लोग प्रेम विवाह करते हैं और पंडितों के पाखंड में नहीं पड़ते उनमें कितनों के जीवन तबाह हुए और जिनके होने होते हैं उन्हें पंडितों के धर्मान्ध पाखण्ड कभी नहीं बचा सकते . ऐसा लगता है कि हम पुन: मध्यकाल की ओर लौट रहे हैं जब किसी विदेशी आक्रमण का सामना करने के लिए राजा अपने बाम्हण आमात्य और राजपुरोहित के पीछे चलता था . अपनी शक्ति की देवी के आव्हान में घण्टों पूजा करने के बाद जब तक वह युध्द के लिए प्रस्थान करता था शत्रु उसके चौखट पर उपस्थित होता था . जैसे कि आज चीन चारों ओर से हमें घेरता जा रहा है और पंडितों-पाखण्डियों और धर्म गुरुओं ने सभी को पाखंड और परम्पराओं के ऐसे नशे में डुबा दिया है कि छोटे से लेकर बड़े तक केवल अपने लिए भयभीत है . जिन कुछ को देश की चिन्ता है वे अधिक कुछ कर नहीं पा रहे या उन्हें करने नहीं दिया जा रहा . इन्हीं के मध्य एक और वर्ग पनप रहा है जो न धर्म के विषय में सोचता है न देश के विषय में . ये वे नेता और ब्यूरोक्रेट हैं जो बेफिक्र होकर देश को लूट रहे हैं . अत: पाखंडियों - पंडितों , धर्मगुरुओं , भ्रष्ट नेताओं और ब्यूरोक्रेट्स के बीच लुट और पिस आम जनता ही रही है . वर्तमान हालात यह संकेत दे रहे हैं कि यह सिलसिला आगे दशकों तक बंद होने वाला नहीं है और इस स्थिति में विकास की दौड़ में हम कहां खड़े होगें यह सोचा जा सकता है .

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वातायन के इस अंक में प्रस्तुत है वरिष्ठ गज़लकार - कथाकार प्राण शर्मा की कहानी; वरिष्ठ गीतकार-गज़लकार महावीर शर्मा की कविताएं और मेरे द्वारा अनूदित और ’संवाद प्रकाशन’ मुम्बई/मेरठ से शीघ्र प्रकाश्य पुस्तक ’लियो तोल्स्तोय का अंतरंग संसार’ से तोल्स्तोय पर उनके मित्र आई.आई.मेक्नीकोव का संस्मरण.

आशा है अंक आपको पसंद आएगा.

कहानी


तीन लँगोटिया यार
प्राण शर्मा
राजेंद्र ,राहुल और राकेश लँगोटिया यार हैं. तीनों के नाम " र " अक्षर से शुरू होते हैं. ज़ाहिर है कि उनकी राशि तुला है. कहते हैं कि जिन लोगों की राशि एक होती है उनमें बहुत समानताएँ पायी जाती हैं. राजेंद्र,राहुल और राकेश में भी बहुत समानताएँ हैं. ये दीगर बात है कि राम और रावण की राशि भी एक थी यानी तुला थी, फिर भी दोनो में असमानताएं थीं. राम में गुण ही गुण थे और रावण में अवगुण ही अवगुण. एक उद्धारक था और दूसरा संहारक. एक रक्षक था और दूसरा भक्षक. यदि राजेन्द्र, राहुल और राकेश में समानताएँ हैं तो कोई चाहने पर भी उन्हें असमानताओं में तबदील नहीं कर सकता है. सभी का मानना है कि उनमें समानताएँ हैं तो जीवन भर समानताएँ ही रहेंगी. इस बात की पुष्टि कुछ साल पहले चंडीगढ़ के जाने-माने ज्योतिषाचार्य महेश चन्द्र ने भी की थी. राजेंद्र, राहुल और राकेश के माथों की रेखाओं को देखते ही उन्होंने कहा था- "कितनी अभिन्नता है तुम तीनों में! भाग्यशाली हो कि विचार ,व्यवहार और स्वभाव में तुम तीनों ही एक जैसे हो..जाओ बेटो, तुम तीनों की मित्रता अटूट रहेगी. सब के लिए उदाहरण बनेगी तुम तीनों की मित्रता."
राजेंद्र, राहुल और राकेश की अटूट मित्रता के बारे में ज्योतिषाचार्य महेश चन्द्र के भविष्यवाणी करने या नहीं करने से कोई अंतर नहीं पड़ता था क्योंकि उनकी मित्रता के चर्चे पहले से ही घर-घर में हो रहे हैं. मोहल्ले के सभी माँ-बाप अपनी-अपनी संतान को राजेंद्र,राहुल और राकेश के नाम ले-लेकर अच्छा बनने की नसीहत देते हैं, समझाते हैं-"अच्छा इंसान बनना है तो राजेंद्र,राहुल और राकेश जैसा मिल-जुलकर रहो. उन जैसा बनो और उन जैसे विचार पैदा करो. किसीसे दोस्ती हो तो उन जैसी."
राजेंद्र ,राहुल और राकेश एक ही स्कूल और एक ही कॉलिज में पढ़े. साथ-साथ एक ही बेंच पर बैठे. बीस की उम्र पार कर जाने के बाद भी वे साथ-साथ उठते-बैठते हैं.हर जगह साथ-साथ आते-जाते हैं. कन्धा से कन्धा मिलाकर चलते हैं. मुस्कराहटें बिखेरते हैं.रास्ते में किसीको राम-राम और किसी को जय माता की कहते हैं. बचपन जैसी मौज-मस्ती अब भी बरकरार है उनमें. कभी किसीकी तोड़-फोड़ नहीं करते हैं वे. मोहल्ले के सभी बुजुर्ग लोग उनसे खुश हैं. किसीको कोई शिकायत नहीं है उनसे. मोहल्ले भर की सबसे ज़्यादा चहेती मौसी आनंदी का तो कहना है- "कलयुग में ऐसे होनहार और शांतिप्रिय बच्चे, विश्वास नहीं होता है . है आजकल के युवकों में उन के जैसी खूबियाँ? आजकल के युवकों को समझाओ तो आँखें दिखाते हैं. पढ़ाई न लिखाई और शर्म भी है उन्होंने बेच खाई. माँ-बाप की नसीहत के बावजूद मोहल्ले के कुछेक लड़के शरारतें करने से बाज़ नहीं आते हैं. ऊधम मचाना उनका रोज़ का काम है . जब से राजेन्द्र,राहुल और राकेश की अटूट मित्रता के सुगंध घर-घर में फैली है तब से उनके गिरोह का का पहला मकसद है उनकी मित्रता की अटूटता को छिन्न-भिन्न करना. इसके लिए उन्होंने कई हथकंडे अपनाए हैं. लेकिन हर हथकंडे में उनको असफलता का सामना करना पड़ा है. फिर भी वे निराश नहीं हुए हैं.उनके हथकंडे जारी हैं.
चूँकि राजेंद्र, राहुल और राकेश की चमड़ियों के रंगों में असमानता है यानि राजेंद्र का रंग गोरा है ,राहुल का रंग भूरा है और राकेश का रंग काला है, इसलिए इन शरारती लड़कों को उनके रंगों को लेकर उन्हें आपस में लड़वाने की सूझी है. तीनो को आपस में लड़वाने का काम गिरोह के मुखिया सरोज को सौंपा गया है. ऐसे मामलों में वो एक्सपर्ट माना जाता है.
एक दिन रास्ते में राजेंद्र मिला तो सरोज ने मुस्कराहट बिखेरते हुए उसे गले से लगा लिया. दोनो में बातों का सिलसिला शुरू हो गया. इधर-उधर की कई बातें हुई उनमें. अंत में बड़ी आत्मीयता और शालीनता से सरोज बोला -"अरे भईया ,तुम दूध की तरह गोरे - चिट्टे हो. किन भूरे-काले से दोस्ती किये बैठे हो ? तुम्हारी दोस्ती उनसे रत्ती भर नहीं मिलती है. आओ हमारी संगत में. फायदे में रहोगे." जवाब में राजेंद्र ने अपनी आँखें ही तरेरी थीं. सरोज मुँह लटका कर मुड़ गया था. जब राहुल और राकेश को इस बात का पता राजेंद्र से लगा तो तीनो ही झूमकर एक सुर में गा उठे--"आँधियों के चलने से क्या पहाड़ भी डोलते हैं?"
शायद ही ऐसी शाम होती जब राजेंद्र,राहुल और राकेश की महफ़िल नहीं जमती. शायद ही ऐसे शाम होती जब तीनों मिलकर अपने- अपने नेत्र शीतल नहीं करते. शाम के छे बजे नहीं कि वे नमूदार हुए नहीं. गर्मियों में रोज गार्डेन और सर्दियों में फ्रेंड्स कॉर्नर रेस्टोरंट में. घंटों ही साथ-साथ बैठकर बतियाना उनकी आदत में शुमार है. कहकहों और ठहाकों के बीच कोई ऐसा विषय नहीं होता है जो उनसे अछूता रहता हो. उनके नज़रिए में वो विषय ही क्या जो बोरिंग हो और जो खट्टा,मीठा और चटपटा न हो.
आज के दैनिक समाचार पत्र " नयी सुबह" में समलिंगी संबंधों पर प्रसिद्ध लेखक रोहित यति का एक लंबा लेख है. काफी विचारोत्तेजक है. राजेंद्र ,राहुल और राकेश ने उसे रस ले-लेकर पढा है. उन्होंने सबसे पहले इसी विषय पर बोलना बेहतर समझा है.
"जून के गर्म-गर्म महीने में ऐसा गर्म विषय होना ही चाहिए डिस्कस करने के लिए.मैं कहीं गलत तो नहीं कह रहा हूँ?" राजेंद्र के इस कथन से सहमत होता राकेश कहता है- " तुम ठीक कहते हो. ये मैटर, ये सब्जेक्ट हर व्यक्ति को डिस्कस करना चाहिए. लेख आँखें खोलने वाला है . उसमें कोई ऐसी बात नहीं जिससे किसीको एतराज़ हो. सच तो ये है कि इस प्रक्रिया से कौन नहीं गुज़रता है ? मैं हैरान होता हूँ आत्मकथाओं को लिखने वालों पर कि वे किस चतुराई से इस सत्य को छिपा जाते हैं. क्या कोई आत्मकथा लिखने वाला इस प्रक्रिया से नहीं गुज़रता है? अरे,उनसे तो वे लोग सच्चे और ईमानदार हैं जो सरेआम कबूल करते हैं कि वे समलिंगी सम्बन्ध रखते हैं." राकेश अपनी राय को इस ढंग से पेश करता है कि राजेंद्र और राहुल के ठहाकों से आकाश गूँज उठता है. आस-पास के बेंचों पर बैठे हुए लोग उनकी ओर देखने लगते हैं लेकिन राजेंद्र,राहुल और राकेश के ठहाके जारी रहते हैं. ठहाकों में राहुल याद दिलाता है -" तुम दोनो को क्या वो दिन याद है जिस दिन हम तीनों नंगे-धड़ंगे बाथरूम में घुस गये थे. घंटों एक -दूसरे पर पानी भर-भरकर पिचकारियाँ चलाते रहे थे. कभी किसी अंग पर और कभे किसी अंग पर. ऊपर से लेकर नीचे तक कोई हिस्सा नहीं छोड़ा था हमने. कितने बेशर्म हो गये थे हम. क्या-क्या छेड़खानी नहीं की थी हमने उस समय!"
" सब याद है प्यारे राहुल जी . पानी में छेड़खानी का मज़ा ही कुछ और होता है. "राकेश जवाब में रोमांचित होता हुआ राहुल का हाथ चूमकर कहता है.
" मज़ा तो असल में हमें नहाने के बाद आया था , राजेंद्र राकेश से मुखातिब होकर बोलता है," जब तुम्हारी मम्मी ने धनिये और पनीर के परांठे खिलाये थे हमको . क्या लज्ज़तदार परांठे थे ! उनकी सुगंध अब भी मेरे मन में समायी हुई है. याद है कि घर के दस जनों के परांठे हम तीनों ही खा गये थे. सब के सब इसी ताक में बैठे रहे कि कब हम उठें और कब वे खाने के लिए बैठे . बेचारों की हालत देखते ही बनती थी ".
" उनके पेटों में चूहे जो दौड़ रहे थे , भईया ,भूख की मारे मोटे-मोटे चूहे ." राहुल के संवाद में कुछ इस तरह की नाटकीयता थी कि राजेंद्र और राकेश की हँसी के फव्वारे फूट पड़ते हैं. " उस दोपहर हम घोड़े बेचकर क्या सोये थे कि चार बजे के बाद जागे थे . गुल्ली- डंडे का मैच खेलने नहीं जा सके थे हम. अपना- अपना माथा पीटकर रह गये थे." रुआंसा होकर राकेश कहता है " बचपन के दिन भी क्या खूब थे !" घरवालों के चहेते थे हम . पूरी छूट थी हमको . कभी किसी की मार नहीं थी. किसीकी प्रताड़ना नहीं थी. पंछियों की तरह आजाद थे हम ." राजेंद्र की इस बात का प्रतिवाद करता है राहुल- "माना कि आप पर किसी की मार नहीं थी, किसी की प्रताड़ना नहीं थी लेकिन आप दोनो ही जानते हैं कि मेरे चाचा की मुझपर मार भी थी और प्रताड़ना भी. छोटा होने के नाते पिता जी उनको भाई से ज्यादा बेटा मानते हैं और वे पिता जी के प्यार का नाजायज फायदा उठाते हैं. उनके गुस्से का नजला मुझपर ही गिरता है . एक बात मैंने आपको कभी नहीं बताई. आज बताता हूँ.
एक दिन मेरे चाचा ने मुझे इतना पीटा कि मैं अधमरा हो गया. हुआ यूँ कि उन्होंने अपने एक मित्र को एक कौन्फिडेन्शल लेटर भेजा मेरे हाथ. उनके मित्र का दफ्तर घर से दूर था.तपती दोपहर थी. मैं भागा-भागा उनके दफ्तर पहुंचा. मेरे पहुँचने से पहले मेरे चाचा का मित्र किसी काम के सिलसिले में कहीं और जा चुका था. सोच में पड़ गया कि मैं अब क्या करूँ? पत्र वापस ले जाऊं या चाचा के दोस्त के दफ्तर में छोड़ दूं? आखिर मैं पत्र छोड़कर लौट आया".
" फिर क्या हुआ?" राजेंद्र और राकेश ने जिज्ञासा में पूछा.
" फिर वही हुआ जिसकी मुझे आशंका थी. ये जानकार कि मैं कौन्फिडेन्शल लेटर किसी और के हाथ थमा आया हूँ ,चाचा की आँखें लाल-पीली हो गयीं. वे मुझपर बरस पड़े. एक तो कहर की गर्मी थी, उस पर उनकी डंडों की मार . मेरी दुर्गति कर दी उन्होंने. घर में बचाने वाला कोई नहीं था.छोटा भाई खेलने के लिए गया हुआ था.पिता जी काम पर थे और माँ किसी सहेली के घर में गपशप मारने के लिए गयी हुई थीं."
" आह! " राजेंद्र और राकेश की आँखों में आंसू छलक जाते हैं.
"कल की बात सुन लीजिये. आप जानते ही हैं कि मेरे चाचा नास्तिक हैं आजकल वे इसी कोशिश में हैं कि मैं भी किसी तरह नास्तिक बन जाऊं. मुझे समझाने लगे -" भतीजे,मनुष्य का धर्म ईश्वर को पूजना नहीं है. ईश्वर का अस्तित्व है ही कहाँ कि उसको पूजा जाए. पूजना है तो अपने शरीर को पूज. इस हाड़-मांस की देखभाल करेगा तो स्वस्थ रहेगा. स्वस्थ रहेगा तो तू लम्बी उम्र पायेगा. मेरी बात समझे कि नहीं समझे? ले,तुझे एक तपस्वी की आप बीती सुनाता हूँ उसे सुनकर तेरे विचार अवश्य बदलेंगे, मुझे पूरा विश्वास है".
थोड़ी देर के लिए अपनी बात को विश्राम देकर राहुल कहना शुरू करता है- "चाचा ने जबरन मुझे अपने पास बिठाकर तपस्वी की आपबीती सुनायी. वे सुनाने लगे-" भतीजे, एक तपस्वी था. तप करते-करते वो सूखकर कांटा हो गया था. एक राहगीर ने उसे झंझोड़ कर उससे पूछा- प्रभु,आप ये क्या कर रहे हैं?
" तपस्या कर रहा हूँ. आत्मा और परमात्मा को एक करने में लगा हुआ हूँ.". तपस्वी ने दृढ़ स्वर में उत्तर दिया.
" प्रभु, अपने शरीर की ओर तनिक ध्यान दीजिये. देखिये,सूखकर काँटा हो गया है. लगता है कि आप कुछ दिनों के ही महमान हैं इस संसार के. ईश्वर का तप करना छोड़िये और अपने शरीर की देखभाल कीजिये."
तपस्वी ने अपने शरीर को देखा. वाकई उसका हृष्ट-पुष्ट शरीर सूखकर काँटा हो गया था. उसने तप करना छोड़ दिया. वो जान गया कि ईश्वर होता उसका शरीर यूँ दुबला-पतला नहीं होता, हृष्ट-पुष्ट ही रहता. भतीजे, इंसान समेत धरती पर जितनी जातियाँ हैं ,चाहे वो मनुष्य जाति हो या पशु जाति ,किसी की भी उत्पत्ति ईश्वर ने नहीं की है. हरेक की उत्पत्ति कुदरती तरीकों से ही मुमकिन हुई है. हमारा रूप ,हमारा आकार और हमारा शरीर सब कुछ कुदरत की देन है,ईश्वर की नहीं."
" सभी नास्तिक ऐसे ही उल्टी-सीधी बातें करके औरों को नास्तिक बनाते हैं," राजेंद्र बोल पड़ता है, " तुम्हारे चाचा ने फिर कभी ईश्वर के प्रति तुम्हारी आस्था को ठेस पहुंचाने की कोशिश की तो उन्हें ये प्रसंग जरूर सुनाना- " चाचा,आप जैसा ही एक नास्तिक था. ईश्वर है कि नहीं ,ये जांच करने के लिए वो जंगल के पेड़ पर चढ़कर बैठ गया, भूखा ही. ये सोचकर कि अगर ईश्वर है तो वो अवश्य ही उसकी भूख मिटाने को आएगा. नास्तिक देर तक भूखा बैठा रहा. उसे रोटी खिलाने के लिए ईश्वर नहीं आया. उसने सोचा कि वो आयेगा भी कैसे?उ सका अस्तित्व हो तब न? अचानक नास्तिक ने देखा कि डाकुओं का एक गिरोह उसके पेड़ के नीचे आकर लूट का मालवाल आपस में बांटने लगा है.मालवाल बाँट लेने के बाद डाकुओं को भूख लगी,जोर की. कोई राहगीर अन्न की पोटली भूल से पेड़ के नीचे छोड़ गया था. उनकी नज़रें पोटली पर पड़ीं.पोटली में भोजन था. उनके चेहरों पर खुशियों की लहर दौड़ गयी. वे भोजन पर टूट पड़े. अनायास एक डाकू चिल्ला उठा-" ठहरो,ये भोजन हमें नहीं खाना चाहिए. मुमकिन है कि इसमें विष मिला हो और हमारी हत्या करने को किसीने साजिश रची हो. अपने साथी की बात सुनकर अन्य डाकुओं में भी शंका जाग उठी. सभी इधर-उधर और ऊपर-नीचे देखने लगे..एक डाकू को पेड़ की घनी डाली पर बैठा एक व्यक्ति नज़र आया. वो चिल्ला उठा-" देखो,देखो,वो इंसान छिप कर बैठा है. सभी डाकुओं की नज़र ऊपर उठ गयीं. सभीको एक घनी डाली पर बैठा एक व्यक्ति दिखाई दिया. सभी का शक विश्वास में तब्दील हो गया कि यही धूर्त है कि जिसने भोजन में विष मिलाया है. सभी शेर की तरह गर्जन कर उठे-" कौन है तू? ऊपर बैठा क्या कर रहा है?"
" मैं नास्तिक हूँ . यहाँ बैठकर मैं ईश्वर के होने न होने की जांच कर रहा हूँ, भूखा रहकर. मैं ये देखना चाहता हूँ कि अगर संसार में ईश्वर है तो वो मुझ भूखे को कुछ न कुछ खिलाने के लिए अवश्य आयेगा यहाँ."
नास्तिक ने सच -सच कहा लेकिन डाकू उसका विश्वास कैसे कर लेते ? वे चिल्लाने लगे-" झूठे,पाखंडी और धूर्त. नीचे उतर ."
नास्तिक नीचे उतरा ही था कि उसकी शामत आ गयी.तमाचे पर तमाचा उसके गालों पर पड़ना शुरू हो गया. एक डाकू अपनी दायीं भुजा में उसकी गर्दन दबाकर उसे आतंकित करते हुए पूछने लगा-" बता,ये पोटली किसकी है? तू किसका जासूस है? किसने तुझे हमारी ह्त्या करने के लिए भेजा है?"
" ये मेरी पोटली नहीं है." नास्तिक गिड़ गिड़ाया. मेरा विश्वास कीजिये कि मैं किसीका जासूस नहीं हूँ . मैं आप सबके पाँव पड़ता हूँ . मैं निर्दोष हूँ. मुझपर दया कीजिये. मुझे छोड़ दीजिये ."
अगर ये भोजन तेरा नहीं है और तूने इसमें विष नहीं मिलाया है तो पहले तू इसे खायेगा..ले खा. " एक डाकू ने एक रोटी उसके मुँह में ठूंस दी.पलक झपकते ही नास्तिक अजगर की तरह उसे निगल गया. डाकुओं से छुटकारा पाकर नास्तिक भागकर सीधा मंदिर में गया. ईश्वर की मूर्ति के आगे नाक रगड़ कर दीनता भरे स्वर में बोला -" हे भगवन ,तेरी महिमा अपरम्पार है.तूने मेरी आँखों पर पड़े नास्तिकता के परदे को हटा दिया है. मेरी तौबा ,फिर कभी तेरी परीक्षा नहीं लूँगा."
" लेकिन राजेंद्र,ईश्वर के अस्तित्वहीन होने के बारे में मेरे चाचा की एक और दलील है. वो ये कि इस ब्रह्माण्ड का रचयिता अगर ईश्वर है तो उसका भी रचयिता कोई होगा. वो कौन है? वो दिखाई क्यों नहीं देता है?" राहुल ने गंभीरता में कहा .
" तुम अपने चाचा की ये बात रहने दो कि अगर ईश्वर है तो उसका भी रचयिता कोई होगा. शंका का कई शंकाओं को जन्म देती है. सीधी सी बात है कि धरती ,आकाश,बादल ,नदी,पहाड़.सागर,सूरज,चाँद,सितारे,पंछी,जानवर इतना सब कुछ किसी इंसान की उपज तो है नहीं. किसी अलौकिक शक्ति की उपज है. उस अलौकिक शक्ति का नाम ही ईश्वर है. रही बात कि वो दिखाई क्यों नहीं देता तो हवा और गंध भी दिखाई कहाँ देते हैं.? उनके अस्तित्व को नास्तिक क्यों नहीं नकारते हैं ? अरे भाई, इस संसार में कोई नास्तिक-वास्तिक नहीं है. संकट आने पर नास्तिक भी ईश्वर के नाम की माला अपने हाथ में ले लेता है . वो भी उसके रंग में रंगने लगता है. दोस्तो, ईश्वर के रंग में रंगने से मुझे याद आया है कि कल रात को मैं सपने में उसके रंग में रंग गया. सच्ची." " तुम उसके रंग में रंग गये? कैसे ? " राहुल और राकेश कौतूहल व्यक्त करते हैं.
" कल रात को मुझको सपना आया . मैंने देखा कि मेरे चारों ओर प्रकाश ही प्रकाश था . वो प्रकाश था ईश्वर के रंग-रूप का. वाह,क्या रंग-रूप था ! गोरा -चिट्टा .मेरे जैसा ." बताते-बताते राजेंद्र के मुख पर मुस्कान फैल जाती है.
" गोरा-चिट्टा ,तुम्हारे जैसा ? राहुल प्रतिवाद करता है.
" सच कहता हूँ. ईश्वर रंग-रूप बिलकुल मेरे जैसा है. "
" अरे भाई, उसका रंग गोरा-चिट्टा नहीं है , भूरा है, मेरे जैसा..मेरे सपने में तो ईश्वर कई बार आ चुका है. मैंने हमेशा उसको भूरा देखा है. "
" तुम मान क्यों नहीं लेते कि वो गोरा-चिट्टा है.?"
" तुम भी क्यों नहीं मान लेते कि वो भूरा है?"
" गोरे-चिट्टे को भूरा कैसे मान लूं मैं ?"
" गलत. बिलकुल गलत. तुम दोनो ही गलत कहते हो." राकेश जो अब तक खामोश बैठा राजेंद्र और राहुल की बातें सुन रहा था भावावेश में आकर बोल उठता है ," तुम दोनो की बातों में रंगभेद की बू आ रही है. तुम मेरे रंग को तो खारिज ही कर रहे हो . मेरी बात भी सुनो. न तो वो गोरा है और न ही भूरा. वो तो काला है ,काला. बिलकुल मेरे रंग जैसा. मैं भी सपने में ईश्वर को कई बार देख चुका हूँ. अलबत्ता रोज ही उसको देखता हूँ . क्या तुम दोनों के पास उसके गोरे या भूरे होने का कोई प्रमाण है? नहीं है न? मेरे पास प्रमाण है उसके काले होने का . भगवान् कृष्ण काले थे. अगर ईश्वर गोरा या भूरा है तो तो कृष्ण को भी गोरा या भूरा होना चाहिए था. राकेश के बीच में पड़ने से मामला गरमा जाता है. तीनों की प्रतिष्ठा दांव पर लग जाती है. अपनी-अपनी बात पर तीनों अड़ जाते हैं. कोई तस से मस नहीं होता है. राजेंद्र राहुल का कंधा झकझोर कर कहता है- तुम गलत कहते हो " और राकेश दोनों के कंधे झकझोर कर कहता है- " तुम दोनो ही गलत कहते हो ."
ईश्वर का कोई रंग हो या ना हो लेकिन होनी अपना रंग दिखाना शुरू कर देती है. विनाश काले विपरीत बुद्धि . अज्ञान ज्ञान पर हावी हो जाता है. जोश का अजगर होश की मछली निगलने लगता है. राहुल ,राजेंद्र और राकेश की रक्त वाहिनियों में उबाल आ जाता है.देखते ही देखते तीनों का वाक् युद्ध हाथापाई में तब्दील हो जाता है. हाथापाई घूंसों में बदल जाती है. घूसों बरसने की भयानक गर्जना सुनकर आसपास के पेड़ों पर अभी-अभी लौटे परिंदे आतंकित होकर इधर-उधर उड़ जाते हैं. परिंदे तो उड़ जाते हैं लेकिन तमाशबीन ना जाने कहाँ-कहाँ से आकर इकठ्ठा हो जाते हैं . तमाशबीन राजेंद्र, राहुल और राकेश की ओर से बरसते घूसों का आनंद यूँ लेने लगते हैं जैसे मुर्गों की जंग हो. कई तमाशबीन तो आग में घी का काम करते हैं. अपने-अपने रंग के अनुरूप वे ईश्वर का रंग घोषित करके तीनों को भड़काने में कोई कसर नहीं छोड़ते हैं. शुक्र हो कुछ शरीफ लोगों का. उनके बीच में पड़ने से राजेंद्र ,राहुल और राकेश में युद्ध थमता है. तीनों ही लहूलुहान हैं. क्योंकि तीनों ही दोस्ती के लिए खून बहाने का कलेजा रखते हैं. लंगोटिए यार जो हैं .
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प्राण शर्मा का जन्म १३ जून १९३७ को वजीराबाद (वर्तमान पाकिस्तान) में हुआ था. प्रारंभिक शिक्षा दिल्ली में. पंजाब विश्वविद्यालय से एम.ए.(हिन्दी). १९५५ से लेखन . फिल्मी गीत गाते-गाते गीत , कविताएं और ग़ज़ले कहनी शुरू कीं.१९६५ से ब्रिटेन में.१९६१ में भाषा विभाग, पटियाला द्वारा आयोजित टैगोर निबंध प्रतियोगिता में द्वितीय पुरस्कार. १९८२ में कादम्बिनी द्वारा आयोजित अंतर्राष्ट्रीय कहानी प्रतियोगिता में सांत्वना पुरस्कार. १९८६ में ईस्ट मिडलैंड आर्ट्स, लेस्टर द्वारा आयोजित कहानी प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार.लेख - 'हिन्दी गज़ल बनाम उर्दू गज़ल" पुरवाई पत्रिका और अभिव्यक्ति वेबसाइट पर काफी सराहा गया. शीघ्र यह लेख पुस्तकाकार रूप में प्रकाश्य.२००६ में हिन्दी समिति, लन्दन द्वारा सम्मानित."गज़ल कहता हूं' और 'सुराही' - दो काव्य संग्रह प्रकाशित.Coventry CVESEB, UK3, Crakston Close, Stoke Hill Estate,E-mail : pransharma@talktalk.net

कविताएं


अतीत
याद किसी की गीत बन गई!
कितना अलबेला सा लगता था, मुझे तुम्‍हारा हर सपना,
साकार बनाने से पहले , क्यों फेरा प्रयेसी मुख अपना,
तुम थी कितनी दूर और मैं, नगरी के उस पार खड़ा था,
अरुण कपोलों पर काली सी, दो अलकों का जाल पड़ा था,
अब तुम ही अनचाहे मन से अंतर का संगीत बन गई।
याद किसी की गीत बन गई!
उस दिन हंसता चांद और तुम झांक रही छत से
मदमातीआंख मिचौनी सी करती थीं लट संभालती नयन घुमाती
कसे हुए अंगों में झीने पट का बंधन भार हो उठा
और तुम्‍हारी पायल से मुखरित मेरा संसार हो उठा
सचमुच वह चितवन तो मेरे अंतर्तम का मीत बन गई।
याद किसी की गीत बन गई!
तुम ने जो कुछ दिया आज वह मेरा पंथ प्रवाह बना है
आज थके नयनों में पिघला आंसू मन की दाह बना है
अब न शलभ की पुलक प्रतीक्षा और न जलने की अभिलाषा
सांसों के बोझिल बंधन में बंधी अधूरी सी परिभाषा
लेकिन यह तारों की तड़पन धड़कन की चिर प्रीत बन गई।
याद किसी की गीत बन गई!
जाने अजाने
गीत तो गाये बहुत जाने अजाने
स्वर तुम्‍हारे पास पहुंचे या न पहुंचे कौन जाने !
उड़ गये कुछ बोल जो मेरे हवा में,
स्‍यात् उनकी कुछ भनक तुम को लगी हो
स्‍वप्‍न की निशि होलिका में रंग घोले,
स्‍यात्‌ तेरी नींद की चूनर रंगी हो
भेज दी मैंने तुम्‍हें लिख ज्‍योति पाती,
सांझ बाती के समय दीपक जलाने के बहाने ।

जाने अजाने

गीत तो गाये बहुत जाने अजाने

स्‍वर तुम्‍हारे पास पहुंचे या न पहुंचे कौन जाने !

उड़ गये कुछ बोल जो मेरे हवा में,

स्‍यात् उनकी कुछ भनक तुम को लगी हो

स्वप्न की निशि होलिका में रंग घोले,

स्‍यात्‌ तेरी नींद की चूनर रंगी हो

भेज दी मैंने तुम्‍हें लिख ज्‍योति पाती,

सांझ बाती के समय दीपक जलाने के बहाने ।

यह शरद का चांद सपना देखता है,

आज किस बिछड़ी हुई मुमताज़ का यों

गुम्बदों में गूंजती प्रतिध्‍वनि उड़ाती,

आज हर आवाज़ का उपहास यह क्‍यों ?

संगमरमर पर चरण ये चांदनी के,

बुन रहे किस रूप की सम्‍मोहिनी के आज ताने ।

छू गुलाबी रात का शीतल सुखद तन,

आज मौसम ने सभी आदत बदल दी ओस

ओस कण से दूब की गीली बरौनी,

छोड़ कर अब रिम झिमें किस ओर चल दीं

किस सुलगती प्राण धरती पर नयन के,

यह सजलतम मेघ बरबस बन गये हैं अब विराने ।

प्रात की किरणें कमल के लोचनों में,

और शशि धुंधला रहा जलते दिये में

रात का जादू गिरा जाता इसी से,

एक अन‍जानी कसक जगती हिये में

टूटते टकरा सपन के गृह - उपगृह,

जब कि आकर्षण हुए हैं सौर - मण्‍डल के पुराने ।

स्‍वर तुम्‍हारे पास पहुंचे या न पहुंचे कौन जाने !!

नयनों से कितने ही जलकण…

कवि हृदय विकल जब होता है तो भाव उमड़ ही आते हैं

नयनों से कितने ही जलकण कविता बन कर बह जाते हैं

आते बसंत को जब देखा, हो विकसित कवि का मन बोला

आई उपवन में हरियाली, सुमनों ने दृग अंचल खोला

मुस्का कर देखा ऊपर को, जहां अंशुमालि थे घूम रहे

अपनी आल्हादित किरणों से सुमनों को मुख से चूम रहे

मधुमास में उनकी किरणों से पल्लव शृंगार बनाते हैं

नयनों से कितने ही जलकण कविता बन कर बह जाते हैं।

हो कर ओझल क्षण भर में ही, स्वप्नों का खंडन कर डाला

क्षण भर को ही क्यों आई थी, बोलो मधु बासंती बाला

अब नयनों में ले भाव सजल अधरों पर ले कम्पित वाणी

क्या हुआ तुम्हारे यौवन को पतझड़ में बोलो कल्याणी

कवि की वीणा के सुप्त तार बस वीत राग अब गाते हैं

नयनों से कितने ही जलकण कविता बन कर बह जाते हैं।

महावीर शर्मा

जन्मः १९३३ , दिल्ली, भारतनिवास-स्थानः लन्दनशिक्षाः एम.ए. पंजाब विश्वविद्यालय, भारतलन्दन विश्वविद्यालय तथा ब्राइटन विश्वविद्यालय में गणित, ऑडियो विज़ुअल एड्स तथा स्टटिस्टिक्स ।
उर्दू का भी अध्ययन।
कार्य-क्षेत्रः १९६२ – १९६४ तक स्व: श्री उच्छ्रंगराय नवल शंकर ढेबर भाई जी के प्रधानत्व में भारतीय घुमन्तूजन (Nomadic Tribes) सेवक संघ के अन्तर्गत राजस्थान रीजनल ऑर्गनाइज़र के रूप में कार्य किया । १९६५ में इंग्लैण्ड के लिये प्रस्थान । १९८२ तक भारत, इंग्लैण्ड तथा नाइजीरिया में अध्यापन । अनेक एशियन संस्थाओं से संपर्क रहा । तीन वर्षों तक एशियन वेलफेयर एसोशियेशन के जनरल सेक्रेटरी के पद पर सेवा करता रहा । १९९२ में स्वैच्छिक पद से निवृत्ति के पश्चात लन्दन में ही मेरा स्थाई निवास स्थान है।१९६० से १९६४ की अवधि में महावीर यात्रिक के नाम से कुछ हिन्दी और उर्दू की मासिक तथा साप्ताहिक पत्रिकाओं में कविताएं, कहानियां और लेख प्रकाशित होते रहे । १९६१ तक रंग-मंच से भी जुड़ा रहा ।दिल्ली से प्रकाशित हिंदी पत्रिकाओं “कादम्बिनी”,”सरिता”, “गृहशोभा”, “पुरवाई”(यू. के.), “हिन्दी चेतना” (अमेरिका), “पुष्पक”, तथा “इन्द्र दर्शन”(इंदौर), “कलायन”, “गर्भनाल”, “काव्यालय”, “निरंतर”,”अभिव्यक्ति”, “अनुभूति”, “साहित्यकुञ्ज”, “महावीर”, “मंथन”, “अनुभूति कलश”,”अनुगूँज”, “नई सुबह”, “ई-बज़्म” आदि अनेक जालघरों में हिन्दी और उर्दू भाषा में कविताएं ,कहानियां और लेख प्रकाशित होते रहते हैं। इंग्लैण्ड में आने के पश्चात साहित्य से जुड़ी हुई कड़ी टूट गई थी, अब उस कड़ी को जोड़ने का प्रयास कर रहा हूं।
दो ब्लॉग:'मंथन'
http://mahavir.wordpress.com/
'महावीर'
http://mahavirsharma.blogspot.com/

संस्मरण

यास्नाया पोल्याना में तोल्स्तोय के साथ एक दिन

आई.आई. मेक्नीकोव
(मेक्नोकोव, इल्या इल्यिच (१८४५-१९१६) : प्रतिष्ठित रूसी प्राणी-विज्ञानी और जीवाणु विज्ञानी और पेरिस में पास्तर इंस्टीट्यूट के निदेशक थे )

अनुवाद : रूपसिंह चन्देल

१९०९ की वसंत की एक भोर, मैं अपनी पत्नी के साथ यास्नाया पोल्याना पहुंचा था. जैसे ही हम जमींदार के एक पुराने और कुछ-कुछ उपेक्षित घर के हॉल में दाखिल हुए, मैंने सफेद कुर्ते में, जिसे बेल्ट से बांधा गया था, तोल्स्तोय को सीढ़ियों से नीचे आते देखा. उनकी भेदक आंखें मुझ पर जमी हुई थीं और आते ही उन्होंने सबसे पहली जो बात कही वह यह कि उन्होंने मेरी जो तस्वीर देखी थी मैं उसके सदृश नहीं था. स्वागत में कुछ शब्द कहने के बाद अपने बच्चों के साथ हमें छोड़कर वह काम करने के लिए ऊपर चले गये, जैसा कि उनकी आदत थी. लंच के समय अच्छी मनः स्थिति में वह नीचे आये और अनेक विषयों पर प्रसन्नतापूर्वक बातचीत की. उन्होंने अपने लिए विशेषरूप से तैयार किया गया भोजन किया : अण्डा, दूध और शाकाहारी चीजें. लंच के बाद उन्होंने थोड़ी-सी सफेद शराब पानी मिलाकर ली.

डायनिगं मेज पर वह सकारण महत्वपूर्ण विषयों पर चर्चा से बच रहे थे, और उन पर तब बात करना चाहते थे जब हम दोनों अकेले हों. अकेले होने का अवसर लंच के बाद मिला, जब वह चेर्त्कोव से मिलने गये, जो बगल की जागीर में रहते थे और एक घोड़ा गाड़ी में वह मुझे भी साथ लेते गये जिसे वह स्वयं हांक रहे थे. मुश्किल से हम गेट से बाहर निकले थे कि उन्होंने बोलना प्रारंभ कर दिया और मेरा अनुमान था कि उसे उन्होंने पहले से ही अपने दिमाग में तैयार कर रखा था :

मेक्नीकोव के साथ तोल्स्तोय ( मई १९०९ )

"मुझे इस बात के लिए गलत दोषी ठहराया जाता है कि मैं विज्ञान और धर्म विरोधी हूं." उन्होंने कहना प्रारम्भ किया, "दोनों दोषारोपण अनुचित हैं. इसके विपरीत, मैं गहरी आस्था वाला व्यक्ति हूं, लेकिन चर्च जिस रूप में धर्म को विकृत करते हैं, मैं उसके विरुद्ध हूं. यही बात विज्ञान के संबन्ध में सत्य है, जिसका गहरा संबन्ध मानव की खुशी और भवितव्यता से है , लेकिन मैं भ्रांतिजनक विज्ञान का शत्रु हूं जो यह कल्पना करता है कि उसने शनि और उसी प्रकार के अन्य चीजो के वजन का अन्वेषण कर ज्ञान के क्षेत्र में महत्वपूर्ण और उपयोगी योगदान किया है."

उनकी बात समाप्त होने के बाद मैंने कहा कि जिन समस्याओं को वह अत्यावश्यक समझते हैं विज्ञान उनकी अवहेलना नहीं कर सकता. बल्कि इसके विपरीत, वह उसे सुलझाने का प्रयास करता है. कुछ शब्दों में उन्हें मैंने अपना दृढ़ विश्वास प्रस्तुत किया, जो इस प्रकार था, कि मनुष्य एक जानवर है जिसे बहुत अधिक दुख देने वाली कुछ संघटनात्मक विशेषताएं वंशानुक्रम में प्राप्त हुई हैं. यही कमियां उसके संक्षिप्त जीवन और मृत्युभय का कारण हैं. विज्ञान की उपलब्धियों ने मनुष्य के लिए यह संभव बना दिया है कि वह विवेकपूर्ण ढंग अपना कर अपना संपूर्ण जीवन जी ले. ऎसी स्थिति में बीमारी, वृद्धावस्था, मृत्यु और उनसे संबद्ध अन्य मामलों की चिन्ता उसे नहीं रहेगी और मनुष्य अपने को पूरी तरह और शांति-पूर्वक कला और विशुद्ध विज्ञान को समर्पित कर सकता है.

ध्यानपूर्वक मेरी बातें सुनने के बाद तोल्स्तोय ने टिप्पणी की कि आगे चलकर हमारे विचार समान होंगे, लेकिन वह आध्यात्मवाद पर कायम रहे, जबकि मैं भौतिकवाद पर. उस समय तक हम चेर्त्कोव के यहां पहुंच गये थे और हमारी बातचीत दूसरी ओर मुड़ गयी थी. भले ही हमारी बातचीत के विषय कुछ भी क्यों न थे, लेकिन एक बात स्पष्ट थी कि हम सामान्य समस्याओं पर चर्चा करने के लिए उत्कंठित थे. इस संबन्ध में अनेकों प्रयास के बाद तोल्स्तोय ने मानवीय अन्याय के विषय में बोलना प्रारंभ कर दिया, कि यह कितना असह्य है कि एक नौकर अपने मालिक के लिए मेज पर अत्यधिक भोजन सामग्री परोसता है और खुद उसके जूठन से अपना पेट भरता है.

जब बातचीत ऎसे विषय की ओर मुड़ गयी तब अधिक नहीं चली. चेर्त्कोव परिवार के सभी सदस्य पूरी तरह से शाकाहारी थे और वे और तोल्स्तोय अपने एक प्रिय विषय पर उत्सुकतापूर्वक चर्चा करने लगे. लेव निकोलायेविच बहुत ही सजीवता के साथ उस विषय की व्याख्या कर रहे थे.

बातचीत में हिस्सा लेते हुए मैंने कहा कि यद्यपि मैंने अपने जीवन में कभी एक भी गोली नहीं दागी और न ही कभी किसी जानवर का शिकार किया, फिर भी शिकार करने में मुझे कुछ भी गलत नहीं प्रतीत होता. जानवरों को विरले ही अपनी पूरी जिन्दगी जीने का अवसर प्राप्त होता है. उनकी मृत्यु प्रायः हिंसा द्वारा ही होती है जैसे ही वे बड़े होने लगते हैं वे दूसरे जानवरों का शिकार बन जाते हैं. दूसरे जानवरों द्वारा अथवा भिन्न प्रकार के परजीवियों द्वारा मार दिया जाना किसी शिकरी की गोली द्वारा मारे जाने की अपेक्षा अधिक दर्दनाक होता है. यदि शिकार पर रोक लगा दी जाये तो शिकारी जानवरों की संख्या में वृद्धि हो जायेगी और यह मनुष्यों के लिए ही हानिकर होगा.

"मान लो " तोल्स्तोय ने प्रतिरोध किया, "यदि हम सभी चीजों को भावशून्य तर्कों से जांचेगें तो हम बेतुके निष्कर्ष पायेंगे. इस कारण हम नरभक्षण में औचित्य पायेगें."

इसके उत्तर में जब मैंने कहा कि मध्य अफ्रीकी देश कांगो में, नीग्रो आदिवासी अपने युद्ध बंदियों को खाते हैं, और विस्तार में बताया कि वे ऎसा कैसे करते हैं. तोल्स्तोय बहुत अधिक उत्तेजित हो उठे और मुझसे पूछा कि उन नीग्रों लोगों की कोई धार्मिक धारणा है ? वे पुरखों की उपासना को मानते हैं.उनका धर्म अन्य बर्बर आदिवासियों के समान है और कांगों के आदिवासियों का नरभक्षण बिलकुल अनैतिक और बुरा नहीं माना जाता. उन आदिवासियों की अपेक्षा जो अपने साथियों को नहीं खाते. मध्य अफ्रीका के बारे में अन्वेषकों का दावे के साथ कहना है कि नरभक्षण त्सेत्से (नगाना (Nagana ) , का परिणाम है, यह एक ऎसी बीमारी है जो उस क्षेत्र में दूर-दूर तक फैली हुई है और जानवरों के लिए यह इतनी खतरनाक है कि इसने जानवरों की अभिवृद्धि असंभव बना दिया है . इसीलिए आहार में मांस की मूलप्रवृत्तिक मांग के कारण नीग्रो लोग अपनी ही जाति के भक्षण का सहारा लेते हैं.

इस विषय में तोल्स्तोय ने इतनी अधिक दिलचस्पी ली कि उन्होंने मुझे उसका विस्तृत विवरण भेजने के लिए कहा. विदा होते समय उन्होंने मेरी पत्नी को सामग्री भेजने के लिए मुझे याद दिला देने के लिए कहा था.

पेरिस लौटने के तुरंत बाद प्रांसीसी अन्वेषकों द्वारा कांगों के विषय में लिखे गये अनेकों आलेख मैंने उन्हे भेजे थे.

लेव निकोलायेविच घोड़े पर यास्नाया पोल्याना लौटे. वह आसानी से घोड़े पर सवार हुए और एक नौजवान की भांति उन्होंने घोड़ा दौड़ा दिया था. यह ऎसा था जैसे वह बीस वर्ष के नौजवान हो गये थे.

जब वह और मैं उनकी स्टडी की सीढ़ियां चढ़ रहे थे, निर्निमेष मेरी ओर देखते हुए उन्होंने कहा :

"मुझे बताओं किस कारण से तुम्हारा आना हुआ ?"

प्रश्न से जरा-सा पीछे जाते हुए मैंने कहा विज्ञान को लेकर उनकी जो आपत्ति थी उसे स्पष्ट करने और उनके साहित्य के प्रति मेरी जो गहन श्रद्धा है उसे व्यक्त करने के लिए , जो उनके दार्शनिक विषयक कार्य की तुलना में कहीं अधिक श्रेष्ठ है. मैंने उन्हें अनेकों उदाहरण दिए जहां कला ने जीवन पर बहुत अधिक प्रभाव डाला था.

"चूंकि तुम मेरे साहित्य के विषय में इतनी उच्च भावना रखते हो इसलिए मैं तुम्हे बताऊंगा कि इन दिनों मैं रूस की हाल की क्रान्तिकारी गतिविधियों के विषय में एक उपन्यास पर कार्य कर रहा हूं, लेकिन मैं अनुरोध करता हूं कि इस विषय में किसी को भी नहीं बताना. मुझे डर है कि यह फॉस्ट (Faust) के दूसरे भाग की भांति कुछ कमजोर बन सकता है. जब मैंने कहा कि गोएथ के वृद्धावस्था के इस कार्य में मुझे कलात्मक सौन्दर्य प्राप्त हुआ था, तोल्स्तोय ने संदेह व्यक्त करते हुए कहा कि बहुत से अनावश्यक दृश्यों में सुन्दरता हो सकती थी. तब मैंने उन्हें कहा कि , मेरे विचार में, गोएथ (Goethe) ने इस भाग में एक वृद्ध व्यक्ति के प्रेमासक्ति की अपनी त्रासदी को चित्रित करना चाहा था. लेकिन हास्यास्पद होने के भय से , अपने विषय को असंख्य अवगुंठनों से ढक दिया और बहुत अधिक दृश्य जोड़ दिए जो वास्तव में अनावश्यक थे, और पाठक को उसके संपूर्ण एकीकृत प्रभाव को प्राप्त करने से दूर रखा. तोल्स्तोय को मेरा विचार दिलचस्प प्रतीत हुआ और बोले कि उनके आखिरी दिनों के समय के रचनात्मक साहित्य में दैहिक प्रेम ने कोई भूमिका अदा नहीं की लेकिन फिर भी वह फॉस्ट (Faust) को निश्चय ही पुनः पढ़ना चाहेंगे. मैंने वायदा किया कि मैं अपनी पुस्तक ’Essais optimistes उन्हें भेज दूंगा., जिसमें फॉस्ट के विषय में मेरे विस्तृत विचार दिए गये है.....’

जब हम, शाम बहुत देर बाद अलग हो रहे थे, लेव निकोलायेविच ने बहुत ही मित्र-भाव से ’गुडबाई’ कहा और घोषणा की कि वह प्रसन्नतापूर्व्क सौ वर्षों तक जीवित रहेंगे और यदि ऎसा हुआ तो वह किसी न किसी रूप में मुझे अनुग्रहीत करेंगे. अभी हम गाड़ी में चढ़े ही थे कि वह बालकनी में प्रकट हुए और हाथ हिलाकर उन्होंने ’शुभ यात्रा’ की कामना की थी.
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