रविवार, 7 मार्च 2010

आत्मकथा



इज़ाडोरा की आत्मकथा का एक महत्वपूर्ण अंश

पीर्ट्सबर्ग की बर्फ़ीली हवाओं में
अनुवाद : युगांक धीर
संपादक : आलोक श्रीवास्तव
कितना मुश्किल है भाग्य या नियति में विश्वास करना, जब हम सुबह किसी अख़बार में पढ़ते हैं कि ट्रेन दुर्घटना में बीस लोग मारे गए, जिन्होंने एक दिन पहले मृत्यु के बारे में सोचा भी नहीं होगा ;या कि पूरा एक शहर समुद्री लहरों या बाढ़ की चपेट में आकर तहस-नहस हो गया, तो फ़िर क्यों हम इतने अहंवादी हैं कि सोचते हैं कि कोई भाग्य या नियति हमारे छोटे-से अस्तित्व को निर्देशित कर रही है ?
लेकिन मेरी ज़िन्दगी में कई ऎसी अनोखी घटनाएं हुई हैं कि कई बार मुझे नियति पर विश्वास होने लगता है. जैसेकि मेरी ट्रेन बर्फ़ गिरने की वजह से शाम के चार बजे सेंट पीर्ट्सबर्ग पहुंचने की बजाय अगली सुबह चार बजे वहां पहुंची. स्टेशन पर कोई भी मुझे लिवाने नहीं आया था. मैं गाड़ी से नीचे उतरी तो तापमान ज़ीरो से दस डिग्री नीचे था. इतनी ठंड मैंने पहले कभी नहीं देखी थी. रूसी गाड़ीवान दस्तानों में लिपटी अपनी मुट्ठियों को बार-बार अपनी बाहों पर मार रहे थे, ताति उनकी रगों में दौड़ता ख़ून जम न जाए.
मैंने अपनी नौकरानी को सामान के साथ वहीं छोड़ा और एक घोड़ागाड़ी लेकर यूरोपा होटल की ओर चल दी. बर्फ़ और कोहरे में ढंकी वह वीरान-सी रूसी भोर और गाड़ीवान के सथ मैं बिल्कुल अकेली. रास्ते में मुझे जो दृश्य दिखाई दिया वह किसी प्रेत-कथा की फंतासी से कम डरावना न था.
दूर से वह एक लंबा जुलूस लग रहा था. काला और शोक भरा. आदमियों के कधों पर लंबे बक्से थे, जिनके वज़न के कारण वे आगे को झुक कर चल रहे थे. वे कफन थे, एक-के-बाद-एक जाने कितने. गाड़ीवान ने घोड़े की रफ़्तार कम करके चलने की रफ़्तार जितनी कर दी और खुद भी आगे को झुक कर हाथ से क्रॉस का संकेत बनाने लगा. दहशत से सिहर-सी गई मैं. किसी तरह मैंने उससे पूछा कि यह सब क्या है. मुझे रूसी भाषा नहीं आती थी, फिर भी उसने मुझे समझाया कि ये शव उन मज़दूरों के थे जिन्हें पिछले दिन, ५ जनवरी, १९०५ को, विंटर पैलेस के सामने गोलियों से भून डाला गया था---क्योंकि वे ज़ार के पास मदद के लिए गए थे, अपने बीबी-बच्चों के लिए रोटी मांगने. मैंने गाड़ीवान को ठहर जाने के लिए कहा और भीगी पलकों से उस उदास और अनंत लंबे जुलूस को देखती रही. "लेकिन इतने मुंह-अंधेरे उन्हें दफनाने की क्या ज़रूरत थी?" " ताकि दिन में यह सब किया गया तो कहीं क्रान्ति न भड़क उठे." मेरी आंखों में उदासी थी और रगों में एक सिहरन-सी दौड़ रही थी. ट्रेन बारह घंटे लेट न हुई होती तो मैं वह दहला देने वाला मंज़र कभी न देख पाती.
’ओह, अंघेरी शोकाकुल रात
जिसमें भोर का कोई नामोनिशां नहीं है
ओ, चलती-लड़खड़ाती आकृतियों की उदास श्रृंखला
खौफज़दा नम आंखें और मेहनतकश सख़्त हाथ
अपने काले शालों के भीतर अपनी सिसकियां और आहें छिपाए
--दोनों तरफ प्रहरियों के क़दमों की कठोर आवाज़’
अगर मैंने वह दृश्य न देखा होता तो मेरी ज़िंदगी कुछ अलग ही होती. वहीं, उस अनंत लंबे जुलूस के सामने, उस दारुण कथा के सामने , मैंने संकल्प किया कि मैं और मेरी तमाम शक्तियां लोगों और दलितों-दमितों की सेवा को समर्पित होंगी. इसके सामने मेरी खुद की प्रेम-इच्छाएं और पीड़ाएं कितनी छोटी और व्यर्थ प्रतीत हो रही थीं ! और-तो-और मेरी कला भी कितनी व्यर्थ थी, अगर वह इसमें कोई मदद न कर सके. आख़िर उस विशाल और मौन जुलूस का आख़िरी हिस्सा भी हमारी आंखों के आगे से गुज़र गया. गाड़ीवान ने पीछे मुड़कर देखा और आश्चर्य से मेरे आंसुओं को देखता रहा. एक लंबी सांस छोड़ कर उसने फ़िर से हाथ से क्रॉस का निशान बनाया और घोड़े को होटल की तरफ़ दौड़ा दिया.
होटल के अपने आरामदायक कमरे और गर्म बिस्तर में भी मैं बहुत रोने के बाद ही सो सकी. लेकिन उस भोर का वह दुख और पीड़ा भरा मंज़र ज़िंदगी भर मेरे साथ रहने वाला था.
होटल का कमरा बहुत विशाल और ऊंची छत वाला था. खिड़कियां बंद थीं और कभी नहीं खुलती थीं. हवा ऊंचे रोशनदानों के ज़रिए कमरे में आती थी. मेरी बहुत देर से आंख खुली. मैनेजर ने मुझे फूल भिजवाए. फ़िर तो फूलों का तांता ही लग गया.
दो रातों के बाद मैं सेंट पीर्ट्सबर्ग के विशिष्ट वर्ग के सम्मुख प्रस्तुत हुई. भव्य बैले-नृत्य के आदी उन स्त्री-पुरुषों को एक अकेली लड़की का बहुत सादी पोशाक में मात्र एक नीले परदे के सामने शोपेन के संगीत पर नृत्य करना कैसा लगा होगा ! शोपेन की आत्मा को अपनी आत्मा के माध्यम से अभिव्यक्त करना ! पर उस पहले नृत्य का भी तालियों के तूफ़ान से स्वागत हुआ. मेरी आत्मा के दर्द ने, उस मुंह-अंधेरे की उदास शवयात्रा से उपजे मेरे क्रोध मिश्रित आंसुओं के दर्द ने, उन धनी, विलासी और ऎश्वर्य-प्रिय दर्शकों को तालियों की बौछार पर विवश कर दिया था. कितना अजीब था न !
अगले दिन एक नाज़ुक देहयष्टि की बहुत प्यारी और मोहक स्त्री मुझसे मिलने आई. उसके कानों में हीरे झूल रहे थे और गले में मोती लटक रहे थे. मुझे ताज्जुब हुआ जब उसने बताया कि वह महान नर्तकी शिंस्की है. वह रूसी बैले की तरफ़ से मेरा अभिवादन करने आई थी. साथ ही ऑपेरा में अगली रात का एक भव्य प्रदर्शन देखने का निमंत्रण देने. बेरूत में बैले-नर्तकियों का मेरे प्रति बहुत ठंडा और कटु रवैया होता था. कभी-कभी तो वे बाकायदा दुश्मनी पर उतर आती थीं और मुझे हानि पहुंचाने की कोशिश करती थीं. पर यहां उनमें इतनी शिष्टता और स्नेह देख कर मुझे आनंद भरा आश्चर्य हुआ.
अगली शाम एक बहुत भव्य और सुसज्जित वाहन मुझे ऑपेरा लेकर गया. वहां मौजूद दर्शक इतने संपन्न और फैशनेबुल थे कि उन्हें मेरी मामूली पोशाक और सादगी बहुत अटपटी लगी होगी.
मैं बैले की दुश्मन हूं, जो मुझे नकली और आडंबर भरी कला लगती है बल्कि उसे मैं कला मानती ही नहीं. लेकिन मंच पर एक जलपरी की तरह थिरकती शिंस्की की आकृति की सराहना न करना असंभव था. ऎसे लगता था जैसे वह इंसान न हो कर कोई पक्षी या तितली हो और मंच पर इघर-से-उधर हवा में फरफरा रही हो.
मैंने अपने आसपास नज़र दौड़ाई और दुनिया की सबसे ख़ूबसूरत स्त्रियों को, बहुमूल्य आभूषणों से लदी और एक-से-एक नामी उच्चाधिकारियों के साथ बैठी स्त्रियों को, दर्शक-दीर्घा में देखा. यह ऎश्वर्यभरी संपन्नता उस मुंह-अंधेरे के उदास जुलूस से कितनी भिन्न थी. ये मुस्कराते हुए भाग्यशाली लोग, क्या इनका उन लोगों के साथ कुछ भी संबंध था
? कार्यक्रम के बाद मुझे शिंस्की के महल में भोजन पर आमंत्रित किया गया, जहां मेरी मुलाक़ात ग्रै़ड ड्यूक माइकल से हुई. मैंने उसे नृत्य-स्कूल खोलने के अपने विचार के बारे में बताया तो वह विस्मय से मुझे देखता रह गया. उस भोज में सभी लोग मुझसे बहुत विनम्रता और आदर के साथ मिले.
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इज़ाडोरा की प्रेमकथा
(इज़ाडोरा डंकन की विश्वविख्यात आत्मकथाMy Life का अनुवाद)
पृ. २८३, मूल्य : २०० (पेपर बैक)

संवाद प्रकाशन
मेरठ कार्यालय : आई-४९९, शास्त्रीनगर,
मेरठ -२५० ००४ (उ.प्र.)

मुम्बई कार्यालय : ए-४, ईडन रोज़,
वृंदावन, एवरशाइन सिटी, वसई रोड (पूर्व), ठाणे,पिन - ४०१ २०८

1 टिप्पणी:

सुभाष नीरव ने कहा…

इज़ाडोरा की आत्मकथा की किताब विश्व पुस्तक मेले से मैं भी खरीद कर लाया था और आजकल उसे पढ़ रहा हूँ। आधी से अधिक पढ़ गया हूं। अद्भूत किताब है। युगांक धीर का अनुवाद भी बहुत सुन्दर बन पड़ा है। तुमने इस पुस्तक से बहुत ही सटीक अंश उठाकर 'वातायन' के पाठकों के सम्मुख रखा है। अच्छी सामग्री को पुनर्प्रकाशित होना ही चाहिए, चाहे वह कहीं भी छ्पी हो।