मंगलवार, 1 फ़रवरी 2011

वातायन -फरवरी,२०११

(चित्र : अवधेश मिश्र)

हम और हमारा समय

हिन्दी साहित्य बनाम प्रवासी हिन्दी साहित्य

रूपसिंह चन्देल

पिछले कुछ वर्षों से विदेशों में बैठे हिन्दी रचनाकारों के लिए ’प्रवासी हिन्दी साहित्यकार’ और उनके साहित्य के लिए ‘प्रवासी हिन्दी साहित्य’ का प्रयोग कुछ अधिक देखने-सुनने में आ रहा है. यह स्पष्ट नहीं है कि इस शब्द का प्रयोग सबसे पहले कब और कहां हुआ और किसने किया. यह शोध का विषय है और यह भी शोध का विषय है कि इस अवधारणा के पीछे उद्देश्य क्या था ! यह विभेद किसी सोची-समझी योजना के तहत किया गया (जैसाकि ‘स्त्री विमर्श’ के संदर्भ में कहा जाता है) या यह अनायास ही प्रचलन में आ गया और कुछ लोग स्वयं को चर्चित करने के उद्देश्य से इसे ले उड़े. स्पष्ट है ऎसा करने वाले लोग प्रवासी ही होंगे. लेकिन बड़ी संभावना यह है कि ऎसा ‘आप्रवासी’ लेखकों के लेखन को कम महत्वपूर्ण मानने के उद्देश्य से किया षडयंत्र लगता है. कुछ लोगों को दरकिनार करने के ऎसे षडयंत्र होते रहे हैं , होते रहते हैं और शायद होते रहेंगे.

भारतीय भाषाओं के अतिरिक्त शायद ही किसी अन्य भाषा के रचनाकारों को, जो अपने देश से बाहर रहकर साहित्य सृजन कर रहे होते हैं, ‘प्रवासी’ रचनाकार और उनके साहित्य को ’प्रवासी साहित्य’ कहा जाता हो. ऎसा कोई उदाहरण मेरी दृष्टि में नहीं है. जापानी, रशियन, अंग्रेजी आदि भाषाओं के रचनाकार किसी भी देश में रहकर लिख रहे होते हैं लेकिन उन्हें उनके देश में कभी प्रवासी साहित्यकार नहीं माना जाता. रोजगार, व्यवसाय या किसी अन्य कारण से रचनाकार प्रवासी हो सकता है लेकिन उसके साहित्य को ’प्रवासी’ कहा जाना उसका और उस भाषा का अपमान करना है.

आज दूर देशों में बैठे हिन्दी या अन्य भारतीय भाषाओं के साहित्यकार उत्कृष्ट साहित्य लिख रहे हैं. लेकिन एक दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य यह भी है कि अपने लिखे साहित्य के लिए ’प्रवासी साहित्य’ कहे जाने का विरोध करने वाले साहित्यकार आखिर किन विवशताओं के चलते ‘प्रवासी हिन्दी लेखक सम्मेलन’ का विरोध करना तो दूर उसका हिस्सा बन जाते हैं. यही नहीं कई लोगों ने स्वयं ’प्रवासी हिन्दी कहानी’ और ’प्रवासी हिन्दी कविता’ जैसी पुस्तकों का सम्पादन भी किया है और भविष्य में नहीं करेंगे, कहना कठिन है. यह बात भी विचारणीय है और इस विषय में प्रवासी हिन्दी रचनाकारों को ही विचार करना है.

इस विषय पर केन्द्रित वरिष्ठ गज़लकार, कवि एवं कहानीकार प्राण शर्मा की निम्न कविता केवल उनकी ही बात नहीं कहती बल्कि उन सभी प्रवासी रचनाकारों की बात कहती है जो इस शब्द के विरोधी हैं.

कविता
प्राण शर्मा

साहित्य के उपासको , ए सच्चे साधको

कविता - कथा को तुमने प्रवासी बना दिया
मुझको लगा कि ज्यों इन्हें दासी बना दिया
ये लफ्ज़ किसी और अदब में कहीं नहीं
इसका नहीं है आसमां , इसकी ज़मीं नहीं
मुझको हमेशा कह लो प्रवासी भले ही तुम
कविता को या कथा को प्रवासी नहीं कहो
साहित्य के उपासको, ए सच्चे साधको

कविता हो या कथा हो मनों की उमंग है
इंसानियत का सच्चा , खरा रूप - रंग है
इनको प्रवासी शब्द में बांधो कभी नहीं
इनकी विराटता में कहीं भी कमी नहीं
मुझको हमेशा कह लो प्रवासी भले ही तुम
कविता को कथा को प्रवासी नहीं कहो
साहित्य के उपासको, ए सच्चे साधको

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वातायन के पाठकों को यह सूचना देना आवश्यक समझता हूं कि वरिष्ठ कथाकार-कवि सुभाष नीरव के चार ब्लॉग – साहित्य सृजन, सेतु साहित्य, वाटिका और गवाक्ष अब पाठक नहीं देख सकेगें. पिछले दिनों उन्हें किसी ने हटा दिया है. यह अपराधपूर्ण कार्य किसने किया इसके तथ्यों की तह तक जाने के प्रयास जारी हैं और जैसे ही यह स्पष्ट होगा उसे आप सभी तक अवश्य पहुंचाया जाएगा. लेकिन इससे एक बात स्पष्ट होती है कि हिन्दी साहित्य में कुछ ऎसे लोग हैं जिनकी मानसिकता किसी अच्छे कार्य को तहस-नहस करने की रहती है. वे स्वयं अच्छा नहीं कर पाते और जो अच्छा कर रहे होते हैं, उनकी गतिविधियों में बाधा उत्पन्न करते रहते हैं. अच्छा न करके भी वे अपने को ’अहं सर्वोपरि’ समझने की गलतफहमी का शिकार रहते हैं. ब्लॉग की दुनिया से जुड़े अन्य बन्धुओं के लिए सुभाष नीरव के साथ घटी दु-र्घटना एक उदाहरण है और सभी को ऎसे लोगों से सतर्क रहने की आवश्यकता है.

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वातायन के इस अंक में प्रस्तुत है सुभाष नीरव की कतिवाएं, वरिष्ठ कथाकार रामेश्वर कंबोज ’हिमांशु’ की लघुकथाएं, वरिष्ठ कथाकार बद्री सिंह भाटिया की कहानी और ’दिशा बोध’ के दो प्रवासी कहानी विशेषांको (अतिथि सम्पादक – इला प्रसाद) और ’समीक्षा’ (सम्पादक –सत्यकाम और प्रबन्ध सम्पादक – महेश भारद्वाज) की समीक्षाएं.

आपकी प्रतिकिया की प्रतीक्षा रहेगी.

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कविताएं

(सभी चित्र : जी मनोहर)


सुभाष नीरव की तीन कविताएँ


नाखून

इन दिनों
नाखून
मेरी कविता का
हिस्सा होना चाहते हैं।

इस पर
मेरे कवि मित्र हँसते हैं
और कहते हैं-
कविता की संवेदन-भूमि पर
नाखूनों का क्या काम ?
नाखूनों पर बात हो सकती है
कविता नहीं।

जैसे
यह जानते हुए भी कि
नाखून रोग का कारण होते हैं
फिर भी
फैशनपरस्त और पढ़ी-लिखी स्त्रियों को
बहुत प्रिय होते हैं नाखून।

या फिर
खाज में खुजलाना
बेमजा होता है
बगैर नाखूनों के।

अधिक कहें तो
एक निहत्थे आदमी का
हथियार होते हैं नाखून
जो मौका मिलने पर
नोंच लेते हैं
दुश्मन का चेहरा।

पर दोस्तो
मेरे सामने एक ओर नाखून हैं
और दूसरी तरफ
धागे की गुंजलक-सा उलझा मेरा देश
और हम सब जानते हैं
गांठों और गुंजलकों को खोलने में
कितने कारगर होते हैं नाखून।
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नाशुक्रे हम

राहों ने कब कहा
हमें मत रोंदो
उन्होंने तो चूमे हमारे कदम
और खुशामदीद कहा।

ये हम ही थे
जो पैरों तले उन्हें रौदते भी रहे
और पहुंचकर अपनी मंजिल पर
नाशुक्रों की तरह भूलते भी रहे।
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ठोकरें

पहली ठोकर
उसके क्रोध का कारण बनी ।

दूसरी ने
उसमें खीझ पैदा की ।

तीसरी ठोकर ने
किया उसे सचेत ।

चौथी ने भरा आत्म-विश्वास
उसके भीतर ।

अब नहीं करता वह परवाह
ठोकरों की !
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सम्पर्क :
372, टाइप -4, लक्ष्मीबाई नगर
नई दिल्ली-110023
मेल :subhashneerav@gmail.com

लघुकथाएं

(चित्र : विजय बोधांकर)

रामेश्वर काम्बोज’हिमांशु’ की तीन लघुकथाएं

एजेण्डा

"आप इस देश की नींव हैं। नींव मज़बूत होगी तो भवन मज़बूत होगा । भवन की कई कई मंजिलें मज़बूती से टिकी रहेंगी-" पहले अफ़सर ने रूमाल फेरकर जबड़ों से निकला थूक पोंछा। सबने अपने कंधों की तरफ़ गर्व से देखा, कई कई मंज़िलों के बोझ से दबे कंधों की तरफ़ ।

अब दूसरा अफ़सर खड़ा हुआ, "आप हमारे समाज की रीढ़ है। रीढ़ मज़बूत नहीं होगी तो समाज धराशायी हो जाएगा।" सबने तुरंत अपनी अपनी रीढ़ टटोली। रीढ़ नदारद थी। गर्व से उनके चेहरे तन गए - समाज की सेवा करते करते उनकी रीढ़ की हड्डी ही घिस गईं। स्टेज पर बैठे अफ़सरों की तरफ़ ध्यान गया … सब झुककर बैठे हुए थे। लगता है उनकी भी रीढ़ घिस गई है।

"उपस्थित बुद्धिजीवी वर्ग"- तीसरे बड़े अफ़सर ने कुछ सोचते हुए कहा, "हाँ, तो मैं क्या कह रहा था ," उसने कनपटी पर हाथ फेरा, , "आप समाज के पीड़ित वर्ग पर विशेष ध्यान दीजिए।"

पंडाल में सन्नाटा छा गया। बुद्धिजीवी वर्ग ! यह कौन सा वर्ग है ? सब सोच में पड़ गए। दिमाग़ पर ज़ोर दिया। कुछ याद नहीं आया। सिर हवा भरे गुब्बारे जैसा लगा। इसमें तो कुछ भी नहीं बचा। उन्होंने गर्व से एक दूसरे की ओर देखा ­ समाज हित में योजनाएँ बनाते बनाते सारी बुद्धि खर्च हो भी गई तो क्या ।

अफ़सर बारी बारी से कुछ न कुछ बोलते जा रहे थे। लगता था ­ सब लोग बड़े ध्यान से सुन रहे हैं। घंटों बैठे रहने पर भी न किसी को प्यास लगी, न चाय की ज़रूरत महसूस हुई ,न किसी प्रकार की हाज़त।

बैठक ख़त्म हो गई। सब एक दूसरे से पूछ रहे थे ­ "आज की बैठक का एजेंडा क्या था? "
भोजन का समय हो गया। साहब ने पंडाल की तरफ़ उँगली से चारों दिशाओं में इशारा किया। चार लोग उठकर पास आ गए। फिर हाथ से इशारा किया , पाँचवाँ दौड़ता हुआ पास में आया ­ 'सर'

"इस भीड़ को भोजन के लिए हाल में हाँक कर लेते जाओ।, इधर कोई न आ पाए।" साहब ने तनकर खड़ा होने की व्यर्थ कोशिश की।

पाँचवाँ भीड़ को लेकर हाल की तरफ़ चला गया।

"तुम लोग हमारे साथ चलो।" साहब ने आदेश दिया।

चारों लोग अफ़सरों के पीछे पीछे सुसज्जित हाल में चले गए।

चारों का ध्यान सैंटर वाले सोफे की तरफ़ गया, ।वहाँ चीफ़ साहब बैठे साफ्ट ड्रिंक पी रहे थे। साहब ने चीफ़ साहब से उनका परिचय कराया, " ये बहुत काम के आदमी हैं। बाढ़, सूखा,
भूकंप आदि जब भी कोई त्रासदी आती है ;ये बहुत काम आते हैं।"

चीफ़ साहब के चेहरे पर कोई भाव नहीं आया।

"चलिए भोजन कर लीजिए।" उन्होंने चीफ़ साहब से कहा ­ "हर प्रकार के नानवेज का इंतज़ाम है।"

"नानसेंस"­ चीफ़ साहब गुर्राए, "मैं परहेज़ी खाना लेता हूँ । किसी ने बताया नहीं आपको ?"

" सारी सर" -छोटा अफ़सर मिनमिनाया­ "उसका भी इंतज़ाम है, सर ! आप सामने वाले रूम में चलिए।"

वहाँ पहुँचकर चारों को साहब ने इशारे से बुलाया। धीरे से बोले, निकालो।"

धीरे से चारों ने बड़े नोटों की एक एक गड्डी साहब को दे दी। साहब ने एक गड्डी अपनी जेब में रख ली तथा बाकी तीनों चीफ़ साहब की जेबों में धकेल दीं।

चीफ़ साहब इस सबसे निर्विकार साफ्ट ड्रिंक की चुश्कियाँ लेते रहे , फिर बोले, "जाने से पहले इन्हें अगली बैठक के एजेंडे के बारे में बता दीजिएगा।"
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चोट

मज़दूरों की उग्र भीड़ महतो लाल की फ़ैक्टरी के गेट पर डटी थी।मज़दूर नेता परमा क्रोध के मारे पीपल के पत्ते की तरह काँप रहा था - "इस फ़ैक्टरी की रगों में हमारा खून दौड़ता है।इसके लिए हमने हड्डियाँ गला दीं ।क्या मिला हमको भूख, गरीबी, बदहाली ।यही न , अगर फ़ैक्टरी मालिक हमारा वेतन डेढ़ गुना नहीं करते हैं तो हम फ़ैक्टरी को आग लगा देंगे।"

परमा का इतना कहना था कि भीड़ नारेबाजी करने लगी ­ 'जो हमसे टकराएगा ,चूर - चूर हो जाएगा।'

अब तक चुपचाप खड़ी पुलिस हरकत में आ गई और हड़ताल करने वालों पर भूखे भेड़िए की तरह टूट पड़ी।कई हवाई फायर किये।कइयों को चोटें आईं।पुलिस ने परमा को उठाकर जीप में डाल दिया।भीड, का रेला जैसे ही जीप की और बढ़ा , ड्राइवर ने जीप स्टार्ट कर दी।
रास्ते में पब्लिक बूथ पर जीप रुकी।परमा ने आँख मिचकाकर पुलिस वालों का धन्यवाद किया।

परमा ने महतो का नम्बर डायल किया।

"कहो, क्या कर आए"­उधर से महतो ने पूछा।

"जो आपने कहा था , वह सब पूरा कर दिया ।चार ­ पाँच लोग जरूर मरेंगे।आन्दोलन की कमर टूट जाएगी।अब आप अपना काम पूरा कीजिए।"
"आधा पेशगी दे दिया था।बाकी आधा कुछ ही देर बाद आपके घर पर पहुँच जाएगा । बेफ़िक्र रहें ।"

घायलों के साथ कुछ मज़दूर परमा के घर पहुँचे ;तो वह चारपाई पर लेटा कराह रहा था। पूछने पर पत्नी ने बताया ­ " इन्हें गुम चोट आई है।ठीक से बोल भी नहीं पा रहे हैं ।"
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खूबसूरत

विजय से मिले पाँच बरस हो गए थे ।उसकी शादी में भी नहीं जा सका था ।सोचा. अचानक पहुँचकर चौंका दूँगा ।इस शहर में आया हूँ तो मिलता चलूँ ।

दरवाज़ा एक साँवली थुलथुल औरत ने खोला ।मैंने सोचा. होगी कोई।

मैंने अपना परिचय दिया ।

‘बैठिए अभी आते होंगे नज़दीक ही गए हैं’.थुलथुल औरत मधुर स्वर में बोली।

मेरी आँखें श्रीमती विजय की तलाश कर रही थी । आसपास कोई नज़र नहीं आया ।

‘क्या लेंगे आप , चाय या ठण्डा’थुलथुल ने विनम्रता से पूछा ।

चाय ही ठीक रहेगी.मैंने घड़ी की तरफ़ देखा ।

तब तक आप हाथ .मुँह धो लीजिए-साबुन तौलिया थमाकर उसने बाथ रूम की तरफ़ संकेत किया ।

हो सकता विजय की पत्नी ही हो ।पर विजय जिसके पीछे कालेज की लड़कियाँ मँडराया करती थीं , ऐसी औरत से शादी क्यों करने लगा ।हाथ –मुँह धोते हुए मैं सोचने लगा ।यदि यही उसकी पत्नी है तो वह शर्म के कारण मेरे सामने नज़र भी नहीं उठा सकेगा ।कहाँ वह ,कहाँ यह ।

‘भाई साहब आ जाइए । चाय तैयार है। साँवली की मधुर आवाज़ कानों में जलतरंग –सी बजा गई ।

ड्राइंगरूम में आकर बैठा ही था कि विजय भी आ गया ।

तुम्हारी पत्नी-मैंने अचकचाते हुए पूछा।

बहुत खूब ! इतनी देर से आए हो , मेरी पत्नी से भी नहीं मिल पाए ।तुम भी हमेशा बुद्धू ही रहोगे ।

उसने थुलथुल की तरफ़ इशारा किया और गर्व से कहा- यही है मेरी पत्नी सविता ।
लीजिए भाई साहब –सविता ने बर्फ़ी की प्लेट मेरी तरफ़ बढ़ाई ।उसकी आँखें खुशी से चमक रही थीं।

मैंने उसे ध्यानपूर्वक देखा. वह मुझे बहुत ही खूबसूरत लग रही थी ।
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परिचय

जन्म: 19 मार्च,1949
शिक्षा : एम ए-हिन्दी (मेरठ विश्वविद्यालय से प्रथम श्रेणी में) , बी एड
प्रकाशित रचनाएँ : 'माटी, पानी और हवा', 'अंजुरी भर आसीस', 'कुकडूँ कूँ', 'हुआ सवेरा' (कविता संग्रह), 'धरती के आँसू','दीपा','दूसरा सवेरा' (लघु उपन्यास), 'असभ्य नगर'(लघुकथा संग्रह),खूँटी पर टँगी आत्मा( व्यंग्य –संग्रह) , भाषा -चन्दिका (व्याकरण ) , मुनिया और फुलिया (बालकथा हिन्दी और अंग्रेज़ी), झरना (पोस्टर कविता -बच्चोंके लिए )अनेक संकलनों में लघुकथाएँ संकलित तथा गुजराती, पंजाबी,उर्दू एवं नेपाली में अनूदित। आकाशवाणी से नाटक का प्रसारण , ऊँचाई लघुकथा पर लघु फ़िल्म निर्माणाधीन ।

सम्पादन :आयोजन ,नैतिक कथाएँ(पाँच भाग), भाषा-मंजरी (आठ भाग)बाल मनोवैज्ञानिक लघुकथाएँ एवं www.laghukatha.com ( 40 देशों में देखी जाने वाली लघुकथा की एकमात्र वेब साइट), http://patang-ki-udan.blogspot.com/ (बच्चों के लिए ब्लॉगर)
- हिन्दी हाइकु (आस्ट्रेलिया) http://hindihaiku.wordpress.com के सहयोगी सम्पादक
-
वेब साइट पर प्रकाशन:रचनाकार ,अनुभूति, अभिव्यक्ति,हिन्दी नेस्ट,साहित्य ,गर्भनाल साहित्य कुंज ,लेखनी,इर्द-गिर्द ,इन्द्र धनुष ,उदन्ती ,कर्मभूमि, हिन्दी गौरव आदि ।

प्रसारण –आकाशवाणी गुवाहाटी ,रामपुर, नज़ीबाबाद ,अम्बिकापुर एवं जबलपुर से ।

निर्देशन: केन्द्रीय विद्यालय संगठन में हिन्दी कार्य शालाओं में विभिन्न स्तरों पर संसाधक(छह बार) ,निदेशक (छह बार) एवं केन्द्रीय विद्यालय संगठन के ओरियण्टेशन के फ़ैकल्टी मेम्बर के रूप में कार्य.

सेवा : 7 वर्षों तक उत्तरप्रदेश के विद्यालयों तथा 32 वर्षों तक केन्द्रीय विद्यालय संगठन में कार्य । केन्द्रीय विद्यालय के प्राचार्य पद से सेवा निवृत्ति।

सम्प्रति: स्वतन्त्र लेखन ।

संपर्क:- रामेश्वर काम्बोज हिमांशु
37, बी /2 रोहिणी सैक्टर -17
नई दिल्ली-110089
ई मेल rdkamboj@gmail.com
सम्पादक- www.laghukatha.com
मोबाइल- 9313727493

पत्रिका चर्चा


समीक्षा

अमेरिकी हिन्दी कहानीकारों पर केन्द्रित ’शोध दिशा’ के विशेषांक

रूपसिंह चन्देल

’शोध दिशा’ त्रैमासिक का जुलाई-सितम्बर और अक्टूबर-दिसम्बर,२०१० अंक अमेरिका-वासी हिन्दी कहानीकारों पर केन्द्रित है जिसका अतिथि सम्पादन ह्यूस्टन (अमेरिका) निवासी हिन्दी की चर्चित कथाकार-कवयित्री इला प्रसाद ने किया है. दोनों अंक इला प्रसाद के अथक श्रम और रचना चयन की निष्पक्षता को प्रमाणित करते हैं. निष्पक्षता से आभिप्राय यह कि आज जब दूर देशों में रह रहे हिन्दी साहित्यकार साहित्य की मुख्यधारा (यदि कोई है) में अपनी पहचान के लिए संघर्षरत रहते हुए भारत की भांति ही क्षुद्र साहित्यिक राजनीति का शिकार होने से अपने को नहीं बचा पा रहे वहीं इला प्रसाद ने ’शोध दिशा’ में अमेरिका के उन समस्त कहानीकारों को समेटने का प्रयास किया है, जो गंभीरतापूर्वक सृजनरत हैं. (इला प्रसाद)

जुलाई-सितम्बर,२०१० अंक में जिन कहानीकारों की कहानियों से गुजर कर अमेरिका के हिन्दी कहानीकारों की जो सशक्त तस्वीर हमारे समक्ष उपस्थित होती है, उनमें हैं स्व.सोमावीरा (लांड्रोमैट), उषा प्रियंवदा (वापसी), रमेशचन्द्र धुस्सा (बहुत अच्छा आदमी), डॉ. कमलादत्त (धीरा पंडित,केकड़े और मकड़ियां), डॉ. उषादेवी कोल्हटकर (मेहमान), उमेश अग्निहोत्री (लकीर), डॉ. सुषम बेदी (अवसान), अनिलप्रभा कुमार (वानप्रस्थ), सुदर्शन प्रियदर्शनी (धूप), और डॉ. सुधा ओम ढींगरा (कौन-सी ज़मीन अपनी).

इन कहानियों में जड़ों से उखड़ने की पीड़ा, नारी जीवन की विडंबना, प्रवासी देश की स्थितियों से तादात्म्य स्थापित करने के प्रयास, कुंठा और संत्रास को गहनता से उद्घाटित किया गया है. इन्ही स्थितियों को व्याख्यायित करती कहानियां अक्टूबर-दिसम्बर,२०१० अंक में भी पाठकों को आकर्षित करती हैं. इस अंक के कथाकार और उनकी कहानियां हैं – स्वदेश राणा (ताहिरा के ख़त), डॉ. विशाखा ठक्कर (पेशेंट पार्किंग), रेणु ’राजवंशी गुप्ता (कौन कितना निकट), राजश्री (मैं बोस्नाई नहीं ), अंशु जौहरी (वह जो अटूट नहीं), इला प्रसाद (उस स्त्री का नाम), अमरेन्द्र कुमार (एक दिन सुबह), सौमित्र सक्सेना (संदेश), रचना श्रीवास्तव (पार्किंग), पुष्पा सक्सेना (वर्जिन मीरा), और प्रतिभा सक्सेना (घर).

पत्रिका के प्रथम कहानी विशेषांक में इला प्रसाद ने अमेरिका के आप्रवासी हिन्दी साहित्य पर अपना दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हुए लिखा – “अपेक्षाकृत नए, किंतु तेजी से समृद्ध हो रहे इस साहित्य को हिन्दी साहित्य की मुख्य धारा का अंग बनना अभी बाकी है. कुछ गिने-चुने नाम हैं, जो भारत में अमेरिकी आप्रवासी साहित्य के संबन्ध में जानकारी का श्रोत हैं अन्यथा साहित्यकारों की एक बहुत बड़ी संख्या है, जो निरंतर सृजनशील है और हिन्दी साहित्य का आम पाठक, जिनमें लेखक और आलोचक भी हैं, उनसे अपरिचित हैं. हिन्दी साहित्य के कोष में अपने अनुभव से हर रोज़ कुछ नया और सार्थक जोड़ता, दिन-प्रतिदिन मुखर और सशक्त होता साहित्यकारों का यह समुदाय अब तक अनुल्लिखित या उपेक्षित ही कहा जाएगा.”---- इला जी आगे कहती हैं - “ वेब पत्रिकाओं और ब्लॉगों की दुनिया ने आप्रवासी अमेरिकी साहित्य को भी सामने लाने में एक प्रमुख भूमिका निभाई है और निभा रही है. सच तो यह है कि विभिन्न देशों में फैले मुझ-जैसे रचनाकारों की एक पूरी पीढ़ी है, जो वेब पत्रिकाओं के युग में और उसके माध्यम से विकसित हुई है, किन्तु भारत का बहु संख्यक हिन्दी-पाठक, उस दुनिया से अभी भी अनभिज्ञ है .”

अमेरिका निवासी हिन्दी कहानीकारों को शोध दिशा के माध्यम से एक मंच पर उपस्थित करने का जो प्रयास इला प्रसाद ने किया है वह श्लाघनीय है. अक्टूबर-दिसम्बर,२०१० अंक में उन्होंने भाषा और साहित्य संबन्धी एक महत्वपूर्ण मुद्दा उठाया है. उनका कथन है कि जिस प्रकार विभिन्न देशों में अंग्रेजी में लिखे जा रहे साहित्य को अंग्रेजी साहित्य और उसके लेखक को अंग्रेजी साहित्य के लेखक के रूप में जाना-पहचाना जाता है उसी प्रकार अमेरिका-ब्रिटेन आदि देशों में रचनारत हिन्दी लेखकों को आप्रवासी हिन्दी लेखक न मानकर केवल हिन्दी लेखक ही माना-जाना चाहिए. इला जी का यह तर्क विचारणीय है. इला प्रसाद के अतिथि सम्पादन में प्रकाशित ’शोध दिशा’ के दोनों ही कहानी विशेषांक संग्रहणीय हैं.

पत्रिका के सम्पादक डॉ. गिरिराजशरण अग्रवाल ने एक कुशल-प्रतिबद्ध रचनाकार को अतिथि सम्पादन का कार्यभार सौंपकर हिन्दी पाठकों और अमेरिकी कहानीकारों के प्रति स्तुत्य कार्य किया. इन दोनों अंको को ’प्रवासी कहानीकार अंक’ कहा (मुखपृष्ठ) गया है, जबकि इन्हें ’अमेरिकी हिन्दी कहानीकार अंक’ कहना अधिक उचित रहा होता.
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शोध दिशा : प्रवासी कहानीकार अंक
(जुला.-सित. और अक्टू.-दिस.,२०१०)
अतिथि सम्पाद : इला प्रसाद
सम्पादक : डॉ. गिरिराजशरण अग्रवाल – प्रबंध सम्पादक – डॉ.मीना अग्रवाल
हिन्दी साहित्य निकेतन
१६,साहित्य विहार, बिजनौर-२४६७०१ (उ.प्र.)

ई मेल : giriraj3100@rediffmail.com
Phone No. 01342-263232, 098368141411
प्रत्येक अंक का मूल्य : ३०/-
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समीक्षा का अंक -३

समीक्षा पत्रिका का अंक-३ (अक्टू.-दिसम्बर-२०१०) प्रभात कालीन सूर्य की आभा बिखेरता उत्कृष्ट साज-सामग्री के साथ पाठकों के समक्ष है. प्रथम दृष्ट्या अंक में जहां सत्यकाम की गंभीर सम्पादकीय दृष्टि परलक्षित है वहीं प्रबन्ध सम्पादक महेश भारद्वाज का प्रकाशकीय वैशिष्ट्य भी दृष्टव्य है. जब कोई समीक्षा पाठकों में समीक्ष्य कृति पढ़ने की लालसा उत्पन्न कर देती है, वह एक सार्थक समीक्षा होती है. समीक्षा केवल पुस्तक-रचना के प्रति शब्द-विलास ही नहीं होनी चाहिए, जिसमें समीक्षक मात्र अपना पांडडित्य प्रदर्शित करे. पाठकों के प्रति उसमें एक दायित्व-बोध भी होना चाहिए कि वह किसी पुस्तक की समीक्षा किसके लिए और किसलिए लिख रहा है. ’समीक्षा’ त्रैमासिक के प्रस्तुत अंक में प्रकाशित सभी समीक्षाएम इस मायने में महत्वपूर्ण हैं कि उनके समीक्षक अपने दायित्व-बोध के प्रति जागरूक हैं. यही करण है कि सभी पुस्तकों की समीक्षाएं ध्यानाकर्षित ही नहीं करतीं वे उस पुस्तक की विषयवस्तु से पाठक को अवगत कराती हुई उस तक पहुंचने के लिए उसमें आकर्षण भी उत्पन्न करती हैं. समीक्ष्य अंक में – डॉ. नामवर सिंह की पुस्तक ’हिन्दी का गद्यपर्व पर रवि श्रीवास्तव की समीक्षा, मैनेजर पांडेय की पुस्तक – ’मैनेजार पांडेय की आलोचना दृष्टि ’ पर देवशंकर नवीन की समीक्षा और निर्मला जैन की पुस्तक – दिल्ली शहर दर शहर’ पर अजितकुमार की समीक्षा ऎसी ही उल्लेखनीय समीक्षाएं हैं.

इनके अतिरिक्त जितेन्द्र श्रीवास्त (प्रेमचंद और दलित विमर्श/कांतिमोहन), अरुण कुमार (नवजागरण और हिन्दी आलोचना/रमेश कुमार), रजेन्द्र प्रसाद पाण्डेय (मिथक से आधुनिकता तक/रमेश कुंतल मेघ), मुन्नी चौधरी (सामाजिक न्याय एक सचित्र परिचय/राम पुनियानी), शिवनारयण (पचकौड़ी/शरद सिंह), गोपाल प्रधान (मैंने नाता तोड़ा/सुषम बेदी), सत्यकाम (विसर्जन/राजू शर्मा) के साथ विद्या सिन्हा, वेदप्रकाश अमिताभ , ओम गुप्ता, रोहिणी अग्रवाल, सत्यकेतु सांकृत, कृष्णचंद्र लाल और वीरेन्द्र सक्सेना की समीक्षाएं भी उल्लेखनीय हैं.

समीक्षा दूसरी पत्रिका है, जिसने उपेन्द्रनाथ अश्क को स्मरण किया है. इससे पहले हिन्दी के इस सशक्त कथाकार को नया ज्ञानोदय ने अपने दिसम्बर अंक में याद करते हुए पाठकों को बताया कि यह उनका भी शताब्दी वर्ष है. उन पर सत्यकाम का सम्पादकीय महत्वपूर्ण है. लेकिन गोपाल राय का ’सांच कहैं’ ने एक बार फिर मन मोह लिया.

’समीक्षा’ – संस्थापक सम्पादक - गोपाल राय
सम्पादक – सत्यकाम
प्रबन्ध सम्पादक – महेश भारद्वाज
प्रबंध कार्यालय
सामयिक प्रकाशन
३३२०-२१ जटवाड़ा, नेताजी सुभाष मार्ग,
दरियागंज, नई दिल्ली-११००२
फोन नं ०११-२३२८२७३३

सम्पादकीय कार्यालय
एच-२, यमुना, इग्नू, मैदानगढ़ी,
नई दिल्ली – ११००६८
फोन : ०११-२९५३३५३४

कहानी





ब्रह्मफाँस

-बद्री सिंह भाटिया

'और फिर?' राम रत्न ने दृष्टि वर्मा जी के चेहरे पर गाड़ दी। वर्मा जी के चेहरे पर विषाद की रेखाएं उभरी। कुछ कहना चाह रहे थे मगर ओंठ फर-फर करते रहे। चुप। भीतर कुछ उबलता सा। बड़ी देर बाद बोले, 'ऐसा प्रश्न आज तक किसी ने नहीं पूछा? अन्तरंग।' राम रत्न भी चुप उनका चेहरा देखता रहा। उस पर उतरते-चढ़ते भाव। घर की उस कोठरी में ऊंचे बज रहे स्टिरियों का शोर बन्द दरवाजे को पार करता घुलता जा रहा था। वे पैग पर पैग लगा रहे थे। दो पर दो। अपने-अपने जीवनानुभव सुनाते। इसी क्रम में उनमें दाम्पत्य सम्बन्धों की बातें होने लगी थी। वर्मा ने कुछ टुकड़े सुनाए--और चुप हो गए। राम रत्न की जिज्ञासा बढ़ी और पूछ लिया।--'और...।'
बड़ी देर बाद वर्मा बोला,'इस औरत ने मुझसे...।' और फिर चुप। और बुदबुदाते रहे। भीतर ही भीतर कुछ खौलता सा। ऐसा लग रहा था मानो शब्द चूक गए हों या यह बहुत ऊंचे बोलना चाहता हो, परन्तु किसी मर्यादा के अन्त: दबाव को रोकने की कोशिश कर रहा हो। हो सकता है वह कोई अश्लील गाली ही देना चाह रहा है। राम रत्न को लगा कि ऐसा भी हो सकता है कि व्यक्तिगत बातों में आंतरिक पीड़ाओं का लम्बे समय से बना नासूर सा...हल्की चुभन के बाद रिसने लगा हो और भावात्मक पराकाष्ठा प्राप्त कर बहने लगा हो। वह इसे किसी को भी बताना नहीं चाह रहा है। और अब जब छेड़ ही दिया तो इसे बहने देना चाहिए। एक अन्त: निर्णय... बता देना चाहिए। दिल में उठाया बोझ थोड़ा कम हो जाएगा। चेहरे पर विषाद की चमक कम हुई। वह थोड़ा संयत हो बोला, 'भाई साहब, इस औरत ने मुझे आदमी ही नहीं समझा। पति तो बिल्कुल भी नहीं। एक मुण्डू--एक नौकर। ज्यादा से ज्यादा एक पुरूष। समाज में मान्यताप्राप्त पति। एक पहचाना व्यक्ति जो इसका हुक्म बजाए। बस्स।... इसके पास होती हैं इसकी तकलीफें। इतनी कि गिनाए नहीं गिनती। और मुझे देखो मैं इसकी उन तकलीफों के साथ सहयोग करता रहा। उन्हें दूर करने की कोशिश करता। एक सेवादार। मन ही मन सोचता इसकी खुशी के लिए करते रहो। एक दिन यह कहेगी, 'छोड़ों यार! जो हुआ सो हुआ। हम एक हैं। आओ आज प्यार भरी बातें करें।' पर मैं तरसता रहा। इसकी एक मुस्कान, उस मीठी वाणी के लिए।
दरअसल राम रत्न उस दिन वर्मा की पोती के जन्म दिन पर वहां आया हुआ था। वर्मा की बहू राम रत्न की लड़की की पक्की सहेली है। इतनी कि यदि हफ्ते में एक बार मिल कर एक ही बिस्तर पर लेटकर घन्टों बतिया न ले तो चैन नहीं। कहीं खोया सा लगता कुछ। इस मित्रता के फलस्वरूप दोनों के परिवार एक साथ मिल जाते। कभी-कभार डिनर भी कर लेते।
मिलने के क्रम में जो प्रगाढ़ता बढ़ी उससे बच्चों का प्यार भी बढ़ा। अधिकार भी। वर्मा की पोती इस प्रकार राम रत्न की भी पोती हो गई। बच्चों का जन्म दिन आया तो उसने राम रत्न को फोन पर ताकीद की कि उसे जन्म दिन पर अवश्य आना है और फलां चीज उपहार में लानी है। एक समारोह का आयोजन किया है। उम्र के इस पड़ाव पर यह महत्वपूर्ण था। वह बारह की हो गई थी। अगला जन्म दिन वह अपनी नई सहेलियों के साथ ही मनाएगी। उसकी मम्मी का ऐसा कहना था। सो राम रत्न इस आग्रह को टाल नहीं सका।
वर्मा जी से राम रत्न की भेंट उनकी पोती के जन्म दिन से एक दिन पूर्व ही हुई। यूं राम रत्न उनके यहां जाने कितनी बार गया था मगर कभी उनसे मिला नहीं। इतना ही पता चला कि वे यहां नहीं रहते। दूर एक फ्लैट में अकेले रहते हैं। श्रीमती वर्मा दूसरी बहू के पास रहती है। उसकी मां अभी जिन्दा है सो उसके पास भी रहती है। कब कहां होगी यह फोन से ही पता चल पाता है। रिटायरमेन्ट के बाद उसने अपना एक किट बना रखा है। जब मर्जी हुई किट उठाया और चल दी। जब पूछा गया कि बच्चों की परवरिश में यानी 'बेबी सिंटिंग' में मदद नहीं करती तो एक ही उत्तार, 'मम्मी अपनी मर्जी की मालिक हैं-- इतना वे आवश्यक नहीं समझती। कहती है कि सभी को अपना-अपना भार स्वयं ढोना चाहिए। इसलिए बच्चे भटक-भटक कर पले। क्रेच, आया, खुद और फिर क्रेच। नौकरी पेशा लोगों का जीवन है यह।'
खैर! राम रत्न मि. वर्मा जी से मिला तो हैरान रह गया। गठीला शरीर, सत्ताहर की उम्र में भी सिर के सारे बाल काले। सफेद आरीजनल दन्त पंक्ति। हां! सिर के पृष्ठ भाग में कुछ बाल छितरा गये हैं और वहां गोरी चमड़ी दिखने लगी है। वे जब आए थे तो बैठक में काफी देर तक खड़े रहे। घर में बहू नहीं थी। पोता कुछ सामान लेने बाहर गया था। एक अतिथि और थे जो शायद उनके जाने-पहचाने थे। उन्हें देख इतना ही कहा, 'कैसे हो? सब ठीक है न।' इतने में भीतर से पोती आई--'अरे दादू! आप खड़े क्यों हैं, बैठो न। मैं पानी लाती हूं।' वह पानी लेने भीतर गई। वर्मा जी खड़े ही रहे। तब राम रत्न ने कहा --'सर। बैठिए न। खड़े क्यों हैं?' वे बैठना नहीं चाहते थे। आवाज देकर पोती से पूछा--'तुम्हारी मम्मी कहां है?'
'दादू आ रही है। आन्टी को लेने गई है।' भीतर से उसकी ऊंची आवाज आई। थोड़ी देर में वह पानी ले कर आई। वर्मा ने खड़े-खड़े पानी पीया और दरवाजे की ओर हो लिए। 'मैं घन्टे भर में आता हूं।' और दरवाजा खोल बाहर हो गए।
वर्मा जी घन्टे भर बाद लौट आए। अब उनके हाथ में एक झोला था। भरा हुआ। शायद कुछ लाना भूल गए थे। तब तक घर में लड़के को छोड़ सभी आ गये थे। उनकी बहू ने उनका परिचय राम रत्न से करवाया--' ये अंकल हैं। माइना के बर्थ-डे पर आए हैं। ...अंकल ये पापा(ससुर)।... कुछ भी हो, माइना और चन्दन के बर्थ-डे पर जरूर आते हैं। मेरा जन्म दिन तो...।' हल्के से हंसी वह।
'क्यों भई, तेरे जन्म दिन पर मैं तोहफा नहीं भेजता क्या? ये इलाज़ाम...। प्रश्नाकूल उन्होंने पूछा।
हंस दी बहू। 'पापा यह तो आपको छेड़ने को कहा था। मैं जानती हूं, आप मुझ से कितना प्यार करते हैं।... आप अंकल से बतियाओं मैं चाय बनाती हूं।'
वर्मा जी सोफे पर बैठ गए थे। पहले वाले मेहमान 'जरा आता हूं कह' बाहर निकल गये थे। तभी पोता चरणवंदना कर साधिकार-- बोला, 'दादू आज आप यहीं रुकोगे। देखो, दादू अंकल भी आए हैं। आपको कम्पनी मिल जाएगी?'
वर्मा जी ने उसकी बात का उत्तार नहीं दिया-- कहा, 'माइना को बुलाओ।' माइना आई। उसे उन्होंने पांच सौ का एक नोट दिया। फिर पांच-पांच सौ के नोट बहू और पोते को भी दिए। वे उठे और कहा-- कमल भी होता तो उसे भी देता। जब भी आता हूं, वह नहीं मिलता। अच्छा मैं चलता हूं।' वर्मा जी की इस प्रक्रिया पर राम रत्न ने कहा-- 'अरे! वर्मा जी बैठो तो सही। आप तो व्यस्त ही अधिक दिख रहे हैं, सपना चाय बना रही है।'
'नहीं बहुत काम है, चलता हूं।'
'चाय...।'
'नहीं, चाय नहीं... गर्मी है।'
और वे दरवाजे की ओर बढ़े। राम रत्न को बुरा लगा। कैसा व्यक्ति है? एक तरफा। केवल एक तरफा। अपना पक्ष अदा किया और चल दिया। इस घर की यह स्थिति कैसी है, इसे कोई रुकने को भी नहीं कह रहा। जब वह दरवाजे तक आया तो बहू ने कहा--'पापा आज रुक जाते तो ठीक था। कल माइन का बर्थ-डे है। अंकल भी आए हैं। 'काफी विनम्र आवाज थी बहू की। पर वे नहीं माने। तब राम रत्न को जाने क्या सूझा कि बोला--'चलो मैं नीचे तक आपके साथ चलता हूं। सिगरेट खत्म हो गई है। सो आपको भी छोड़ आऊंगा।'
वे बाहर निकले। पानवाड़ी के पास रुके। राम रत्न ने सिगरेट ली। डिब्बी खोली और एक सिगरेट वर्मा जी की ओर बढ़ाई।'
'नहीं! छोड़ दी है।'
'मैंने भी। यह तो आपसे बात करने का बहाना मात्र है। ' बड़े दिनों से नहीं पी... चलो आज एक साथ लगाते हैं एक-एक सुट्टा।'--हल्का सा हंसा राम रत्न।
'वर्मा ने जाने किस भाव से सिगरेट ले ली।'
एक कश लिया और हल्का सा खांस दिए। आगे बढ़े।
चुप। थोड़ा चलकर कहा--' जाने कितने वर्षों बाद सिगरेट...। सिगरेट का स्वाद ही भूल गया था। राम रत्न ने सिगरेट छोड़ने और उनके एकान्त में न पीने के बारे में नहीं पूछा। कहा, 'हां ! मैंने भी। आइए ... बुरा न माने तो...।' आपकी भूमिका।
'मैंने ऐसे क्यों किया? यही न।' सबको लगता है। अटपटा पर....। पूछते कोई ही है।
'हां!'
'अपना फर्ज।.... इनके लिए मैं इतना ही हूं।'
'पर भाभी जी...कल माइना का बर्थ-डे। एक समारोह। पार्टी...'
'यहां वे लोग, एक जो उनकी तरफ के हैं। मैं उन्हें पसन्द नहीं करता; आयेंगे...वे उछलकूद करेंगे, बतियाएंगे, धरती से उपर की बातें। अपनी-अपनी हांकेंगे। इनमें मैं नकारा वस्तु सा बन कर क्या करुंगा सो अपना पक्ष अदा कर चलता हूं।' ...आप लौट चलो अब। मेरी बस आने वाली है।
'वर्मा जी, मैं भी तो यहा नया ही हूंगा। बहुत सारे लोगों को मैं भी नहीं जानता, सो मैं भी अकेला महसूस करुंगा। आपके साथ गप्प करते, जीवन के अनुभव सुनाते वक्त कट जाएगा और कल मुझे भी चले जाना है। आप रुकिए।'
'नहीं रुक नहीं सकता।'
'तो कल आ जाइएगा। मुझे अच्छा लगेगा। हम अलग कमरें में बैठेंगे। यूं भी युवाओं के साथ अब हमारा क्या काम?'
बड़ी ना नुच के बाद वर्मा जी कल आने को कह गये। एक दोस्ती का वायदा पक्का कर।

दूसरे दिन वे अपरान्ह में आ गये। घर में पार्टी की तैयारियां चल रही थीं। उनके चेहरे पर पिछले दिन का कसाव नहीं था। उत्फुलता थी। काफी देर तक वे घर में बच्चों के साथ गप्पें मारते रहे। एक बच्चा बन कर। बैठक में जब एक दो मेहमान आने लगे तो वे अलग कोठरी की ओर चल पड़े। राम रत्न से उन्होंने कहा-- 'चलो उधर बैठते हैं?'
अभी वे बैठे भी नहीं थे कि पोता अपनी बगल में एक अद्धा लेकर आया 'वर्मा जी से धीमे से बोला--दादू ये आपको। अंकल के साथ आप...भीतर कोई नहीं आएगा। मैं बाहर से ताला लगा देता हूं। सलाद और कुछ खाने को लाता हूं।' राम रत्न ने मना किया कि इसकी जरूरत नहीं है। मगर पोते ने कहा--'ये कुछ नहीं है। दादू जानते हैं। 'मैं आता हूं कह वह बाहर चला गया। उसके जाने के बाद वर्मा बोला, 'यह पोता मेरा बड़ा खयाल रखता है। लवली है। 'बातों-बातों में उनके बीच कब पारिवारिक सम्बन्धों और फिर दाम्पत्य सम्बन्धों का जिक्र छिड़ गया पता ही नहीं चला।
वर्मा जी बताने लगे-- यह और मैं एक ही गांव के हैं। अलग-अलग गोत्र थे हमारे। मगर जाति एक। कभी मेरे पूर्वजों को यहां घर जवाईं के रूप में जमीन मिली थी। सो पीढ़ी आगे बढ़ी। हम दोनों एक साथ पले-बढ़े। यह उम्र में जरा छोटी थी सो क्लास में मुझसे काफी पीछे थी। पर आप जानते हैं लड़कियां उम्र बढ़ने के साथ एकाएक आकर्षण का केंद्र बन जाती हैं। लड़कों में उछृंखला बढ़ती है तो लड़कियों में संकोच। इस उतार-चढ़ाव के साथ हम मिलते रहे। कालेज के बाद मैं नौकरी की तलाश में गांव से सटे शहर में चला गया और यह अपने ताऊ के पास कलकत्ताा।
इसी बीच विवाह का सवाल उठा। अनेक रिश्तों की नकार के बाद माँ ने ही पूछा था, 'तू कैसी लड़की चाहता है?' माँ का पूछना। मन में बसी छवि एकदम सामने आ गई। हौले से मां के कान में सरका दिया कि वह शादी करेगा तो इसी से। पहले तो मां भड़की। ये क्या हुआ। एक ही गांव में जायेगी बारात। इस कोने से उठी और दूसरे कोने तक। नहीं यह ठीक नहीं है। रिश्तों में निकटता रहती है। कितने अवगुण मालूम होते है...नहीं। मैने कहा-'तू कोशिश तो कर।' बात बढ़ती पिता तक पहुंची। पहले तो वह भी चौंका। परन्तु बोला कुछ नहीं। अगले दिन उन्होने माँ को समझाया,' तो क्या है-- हमारे सम्बन्ध हो सकते हैं। लड़की यहां कहां रहती है। कलकत्ताा बहुत दूर है न। शादी पक्का करने के लिए उसने इस बीच यह भी बता दिया कि वे पढ़ाई के समय से ही एक दूसरे को चाहते हैं। इससे दोनों घरों में बात हो गई कि जब ये एक दूसरे को चाहते हैं तो फिर क्या है, कर दो शादी। संभवत: वे भी उन दिनों लड़के की तलाश में थे। उन्होंने इसे कलकत्ताा से बुला दिया था। इसने अपने घर कुछ कहा हो मालूम नहीं परन्तु थोड़ी बात के बाद गठबंधन हो गया।
शादी की गहमागहमी से फारिग हो जब हमारा कमरा एक हुआ तो इसने सबसे पहले पूछा--' पहले तो यह बताइए कि हम कब करते थे एक दूसरे से प्यार? मैंने कब डाली तुम्हारी आंखों में आंखें और बदली अंगूठियां...।' जाने कितने प्रश्न। बहुत गुस्सा थी। मैं हंसता रहा-- 'यार! छोड़ो न। अब हम पति-पत्नी हैं। मुझे तुम्हे हासिल करना था बस्स कह दिया सब। अब माफ कर दो। वास्तव में मैं तुम्हे प्रेम...तुम्हे पाना चाहता था।' और... कालेज के दिनों तुम मेरे साथ कितना घुलती-मिलती थीं--याद नहीं। वह भड़क उठी, 'प्रेम!' छल से। कभी भरे मुंह से कहा भी था कि ... मैंने तो कभी...। एक साथ उठना-बैठना। चलना या हंसना, इसके मायने ये नहीं जो तुमने समझ कर अर्थ लगा लिये। नहीं। बिल्कुल नहीं। माँ-बाप के आगे मेरी भद्द की....कैसे व्यक्ति हो तुम?' और में चुप। यह क्या हो गया? मैंने उसे बताने की फिर कोशिश की कि...प्यार में...मैं..। पर उसने हाथ खड़ा कर मुझे रोक दिया था।.... विवाह का सारा उत्साह तिरोहित हो गया था। और उस दिन हम यूं ही रहे।
.....और एक कड़वाहट से शुरू हुआ हमारा दाम्यत्य जीवन। फिर बच्चे हुए। इस बीच यह नौकरी भी करने लगी थी। मैं भी इस महानगर में आकर नौकरी करने लगा। बाद में इसे भी यहां लाया तो इसे यहां आसानी से नौकरी मिल गई। इस बीच इसकी बहनों और भाई का ब्याह हुआ। भाई मेरे किसी बुजुर्ग की भांति भाग्यशाली रहा--यहां घर जवांईं बन गया। और एक दिन मां को भी साथ ले आया। इसके लिए यह बिल्ली के भाग से छिक्का छूटा हो गया। मायका यहीं हो गया। अब आने-जाने में आसानी।छोट-बड़े दु:ख-सुखों का आदान-प्रदान होने लगा। वह बोला--मेरा परिवार काफी बड़ा था। हम सात भाई, चार बहने थे। चाचा, ताऊ भी इकट्ठे रहते थे। एक अलग चर्या थी हमारी। नियम थे, कार्य व्यवहार थे-- सो इसे इतने बड़े परिवार से मिलना अच्छा नहीं लगता था। हमारे बीच तनाव का एक कारण यह भी रहा। मैं इसे अपने परिवार की ओर खींचता। यह अपने मायके की ओर मुझे खींचती।
उन्होने लम्बी सांस ली। शराब का लम्बा घूंट भरा और शराब की कड़वाहट को पचा कर कहना शुरु किया--'डियर यह हमारे समाज की कहो या प्रकृतिजन्य परिस्थिति है कि लड़की कभी भी अपने ससुराल को अपना नहीं मान सकी। जब भी जिक्र करती है, अपने मायके का। वहां यह होता है या होता था। मां ऐसे करती थी, पापा...। ससुराल में केवल पति। एक सामाजिक जरूरत और बच्चे। दोनों के एक साथ रहने की परिणति या जिस्मानी आवश्यकता का प्रतिफल। कुल मिलाकर मैं, मेरा पति, मेरे बच्चे और मेरे मायके वाले। आगे कुछ भी नहीं। पति बेचारा पिसता रहता है, अपने माता-पिता, समाज और अपनी प्रतिष्ठा के नीचे। पेण्डुलम की तरह। बहुत कम होते हैं जो इस अदृश्य बंधन को तोड़ स्वतंत्र निर्णय ले पाते हैं। मैं यहां इस कर्म में असफल रहा। बहुत ज्यादा।
वर्मा ने लम्बी सांस खींची। 'जीवन की गाड़ी चलाते, इसने मुझे दूसरे, तीसरे स्थान पर रख दिया था। मेरे आगे इसके शारीरिक, नौकरी सम्बन्धी और इसके मायके के दु:ख होते। मैं सब कुछ अपने इस फैसले के तहत करता रहता कि मुझे यह दाम्पत्य जीवन लोकहास्य से बचाना है, वर्ना भीतर ही भीतर मैं बहुत टूट चुका था। डियर, मैंने सोचा था कि जैसे ही हमारा ब्याह होगा, देह से देह का मिलन होगा, मन स्वत: मिल जाएंगे और हम सुखी हो जाएंगे। यह प्यार करने लगेगी। प्यार का एक रास्ता यह भी तो है न। बरास्ता देह। यह पता नहीं था कि हंसी हमें किसी चुटकले की किताब या टी.वी. चैनल से उधार लेनी पड़ेगी।... अब समझने लगा हूं कि माता-पिता द्वारा निर्धारित सभी शादियों में प्यार शब्द नहीं होता। बस एक सामाजिक बंधन और अपने कार्य व्यवहार की सीमाएं होती हैं, जो रोकती हैं कि आगे बढ़ना खतरनाक है। यह एक ब्रह्मफांस है।... वे भाग्यशाली हैं जिन्हें सुख मिल जाता है, जिसे वास्तव में दाम्पत्य सुख कहा जाता है; वर्ना वह अरेन्जड मैरिज हो या सेल्फ अरेंज्ड। धाीरे-धाीरे तथाकथित प्यार तिरोहित होता जाता है। व्यक्तिगत स्थापनाओं की तरजीह टकराव को जन्म देती रहती है और हम एक दूसरे से आत्मिक रूप में अलग होते रहते हैं। धीरे-धीरे। यह तब पता चलता है जब यह पाषाण रूप धारण कर लेता है। हम सामाजिक दायित्वों, प्रतिष्ठाओं की बलि चढ़ते, भीतरी उद्वेगों को दबाते कभी रक्तचॉप तो कभी किन्ही अन्य शारीरिक बीमारियों के घर बन जाते है।--छोड़ने की जगह नहीं । जाने का कोई रास्ता नहीं। दरअसल शुरू में हम देह की चमक को ही सर्वोपरि मानते हैं। गोरी चमड़ी के भीतर किस प्रकार की मशीन फिट है यह गौण रखते हैं।
वर्मा अपनी बात कहता आगे बढ़ गया था। राम रत्न चुप सुनता जा रहा था। यूं भी राम रत्न में बला की सहन शक्ति है। वह बोलता कम और सुनता ज्यादा है। कभी ठण्डे हो रहे अलावा में हल्की सी लकड़ी घुसेड़ उसे छेड़ कर भभकाने की कोशिश करता है; उनकी बात और मोड़ न ले ले, उसने कहा--'आप अलग क्यों हुए? आपने भी तो साहस किया न। '
'इसी वजह से। इसके स्वार्थों के कारण। केवल निज और निज। टांगे दु:खें तो इसकी, सिर दर्द हो तो इसे। कहीं जाना हो तो, इसके साथ... रिश्तों में रिश्ते इसके। इसकी मां को बहू से कष्ट हो तो ठिकाना हमारे घर। अरे दूसरी भी तो लड़कियां हैं, वहां...। बस मैं बन गया सेवादास। हर दवाव और समस्या को सुनने झेलने वाला। उनके निकाले समाधान को क्रियारूप देने वाला। अपना विचार प्रकट करना अपने बौनेपन और नासमझी को दर्शाना मात्र था।
जो आभास शुरु में हो गया था, उसे नकार जीवन सुधार और एक पटरी पर लाने की कोशिश चलती रही। हंसी तो एक तरफा ही थी। जिस्मानी जरूरतों में समर्पण को मैं प्यार नहीं मानता--सो एक कसक। फिर एहसास भरने लगा, बल्कि पक्का हो गया कि नहीं। इन तिलों में तेल नहीं। इसलिए नहीं अब नहीं। भूख आज लगी हो और रोटी कल मिले। या होटल में खा आओ बाहर। क्या बात बनी? फिर घर नामक संस्था का क्या फायदा। ऋषियों या समाज व्यवस्थापको ने कुछ सोच कर ही इसे समाज के लिए तय किया होगा। हम तो लीक पीट रहे है....आदमी शादी एक निश्चित समय सुकून के लिए करता है और घर बनाता है इस होटलवाद के लिए नहीं। फिर मन में आया कि एक प्रयास और करना चाहिए। शायद...।
इसी तरह एक दिन हंसी-हंसी मे कह दिया था -'आओ प्यार करें।' लम्बे समय में इसके सान्निध्य की भी चाह थी, मगर उस दिन जो मानसिक प्रताड़ना मिली। यह निर्णय कर लिया कि जब हम वर्षों से इस घर में दो सम ध्रुवों की मानिन्द रह रहे हैं। अजनबी से, और जब हमारी सोच अलग है तो क्या फायदा। बस एक दिन कह दिया। 'मैं बच्चों का खर्च दे दिया करुंगा। तुम्हारे पास जब मुझे देने को कुछ नहीं तो क्या फायदा? तनाव नहीं झेल सकता। मजेदार बात यह कि इसने कोई प्रत्युत्तार नहीं दिया, कोई टनक नहीं, खटक नहीं और हम अलग।
'वर्मा जी मैं धृष्टता करुंगा... इनके कोई दूसरे व्यक्ति...।' राम रत्न ने बात अधूरी छोड़ दी।
'समझ गया, नहीं मुझे नहीं लगा कि कोई ऐसे सम्बन्ध होंगे। हां! इसे मैं पसन्द नहीं था। कई बार कह चुकी थी। ये बच्चे मेरी इच्छा से नहीं हुए...। एक लाश के साथ...। बलात्कार की उपज हैं ये।' अब बच्यों को मैं नहीं कह सकता कि हमारे बीच वास्तव में है क्या। वे तो इतना जानते हैं कि हम दोनो लड़ते रहते है। बिना बात के । पर आप ही बताओ कोई लड़ सकता है ऐसे। कोई न कोई सवब तो होगा--महीन सा। जो दिखता नहीं और दिखता है तो कोई और रूप होता है। कैसे कहें कि हम जिन्दगी के दो ध्रुव हो कर रह गये है।'
'अब एक ही चारा था। अलग होना। इससे पहले कि दिमाग की नसे फट जाएं अलग हो जाना चाहिए। यह जब भी सामने होती है..तब मन में एहसास रहता है, यह पत्नी है जो ठीक नहीं ह। मेरी आवश्यक्ता पूरी नहीं कर पा रहीं-- जब आंखों से दूर होगी तो वे एहसास खत्म हो जाएंगे। संभवता उन जरूरतों पर भी अंकुश लगे जो इसे देख उत्पन्न होती हैं।-- अलग होना था, हो गया। अब अपना दायित्व निभाता आ रहा हूं। यहां आना... 'वर्मा जी आगे कहते कि दरवाजा खुला। पोता हंसता हुआ भीतर आया। 'दादू, नानू चलो खाना खा लो।
'सब चले गये।' वर्मा जी ने पूछा।
'हां! एक दो हैं, उनसे आपको एतराज नहीं होगा।'
'तुम्हारी दादी?'
'चाचा जी आने वाले हैं, अपना बैग तैयार किए बैठी है। यहां नहीं रहेगी। अच्छा, चलो तुम हम आते हैं, लास्ट पैग...।' वर्मा ने कहा।
काफी देर बाद उन्होंने कहा --'चलो, खाना खाते हैं।'
बाहर आए तो बैठक में श्रीमती वर्मा से भेन्ट हो गई। नमस्कार का आदान-प्रदान। वह बोली! अरे! आप तो भीतर ही रह गये। मैं सोच रही थी कि आपको भी यहां होना था पर दिखे नहीं। भैया भी आया था-- पूछ रहा था। वह आपके पास जाने को कह रहा था-- कोई बिजनेस बैठक है वहां।'
'तो क्या, वे जब चाहे आ सकते हैं।'
'हां! मैं कल आऊंगी, आप यही हैं न।'
'ठीक है,....। फिर वर्मा जी की ओर दृष्टि कर बोली--'वर्मा जी ठीक है न ! आजकल वो...।' इस बीच नीचे से आवाज आई,' मम्मी चलो न!' और वह उठी। बैग उठाया और दरवाजा लांघ बाहर हो गई। उनकी बात राम रत्न नहीं समझ पाया।
राम रत्न जितना मितभाषी है उतना घुन्ना भी है। जब उसे कुछ सुनना होता है तो वह एक गहरा छू देने वाला प्रश्न करता है और चुप हो जाता है। इस बीच उसके पास शब्द कम हो जाते हैं। मगर जब कोई और मुद्दा होता है किसी को हानि पहुंचाने वाला तो अपना पक्ष इतना पुख्ता प्रस्तुत करता है कि कोई नहीं कह सकता कि यह सुनता ही ज्यादा है...। उसके भीतर क्या चलता रहता है पता नहीं चलता। वह तहर-गुन करता रहता है। और अपने मंतव्य में सफल हो जाता है। पर उसकी एक कमजोरी भी है--वह केवल सूचनाएं एकत्रित करता है। कार्यरूप के लिए वह किसी का कंधा ढूंढता रहता है।
खैर! यह मानवीय प्रकृति है। वर्मा जी के जाने के बाद अब उसे श्रीमती वर्मा का पक्ष भी जानना था। अगले दिन वह दोपहर बाद आई। अपना बैग एक ओर रख बोली, 'सुबह निकल गई थी। मम्मी जी बीमार हैं सो उनकी दवा लेकर गई। आप जानते हैं नब्बे को पार गई है वह। अब बीमार रहने लगी है-- पर भैया, उसके नियम ठीक थे। वर्ना आज आदमी इतनी लम्बी उम्र कहां प्राप्त कर पाता है। बाबा जी तो कितने पहले चले गए थे। इसके बाद मैं गुरु मां जी के पास चली गई। वे काठमांडू में एक विशाल मंदिर बना रही है। वहां मैं भी एक कमरा बनाना चाहती हूं, ताकि सराय में यात्री रुक सके। मेरा नाम हो। पूछे कोई तो जाने... क्या करुंगी इतना पैसा रख कर...। लगा देना चाहिए धर्म के नाम पर। गुरु मां ने इस बारे बैठक बुलाई है-- सो प्रबंध करना था। उन्होंने काफी समय ले लिया। अब आ पाई हूं...। राम रत्न ने उनकी वार्ता के बीच कहा--'वर्मा जी से मिलना हुआ। बहुत दिलचस्प आदमी है।'
'हां! अनुभवी हैं।'
'अब थक गये हैं, ऐसा लगता है।'
'हां, पर अभी भी उनमें काफी क्षमता है, अपना काम स्वयं करते हैं।'
'आप....।'
'हां! क्या बताऊं?'
'तब भी, राम रत्न ने कुरेदा।'
'वे बहुत अच्छे आदमी हैं। सोशल। सेवानिवृत्ता के बाद अनेक संस्थाओं से जुड़े हैं, बल्कि नौकरी में रहते भी वे काफी समय सोशल वर्क को देते थे। '
'आप भी तो सोशलवर्क करती हैं, उनके साथ...।'
'सोचा ही नहीं।'
'एक साथ नहीं रहते।' राम रत्न ने इसके साथ दृष्टि उसके चेहरे पर टिका दी। बात का असर हुआ। त्योरिया चढ़ी। कुछ देर बाद बोली,
'शर्मा जी, अब क्या रहना। छोटी बहन नौ बरस की थी तब से अलग है। आज तो सत्तााइस-अटठाईस वर्ष हो गए।'
'मैडम, जवानी तो कट जाती है, बुढ़ापे में संगिनी की आवश्यकता बहुत होती है।' राम रत्न ने कहा।
'क्या बताऊं, आपसे क्या छिपाना। बच्चों से कुछ पता चल ही गया होगा। इसलिए सच यह है कि एक झूठ मुझे आज भी सालता है। यह जब भी सामने होता है मुझे इसका छल याद आता रहता है। इसने किस तरह हासिल किया और मैं... कुछ न कह सकी। मेरी इच्छाएं। भावनाएं-वांछनाएं सब धरी की धरी रह गई थीं। माता-पिता की इज्जत की खातिर मान गई। एक गाय की तरह... आ गई इसके मवेशीखाने में।' उसने लम्बी सांस भरी। काफी देर चुप रही। बोली, 'मैं लाड़ प्यार में पली, बच्ची थी। ऐसी जिसकी एक कॉल पर बड़े ताऊ कलकत्ताा से गांव आ जाते थे। मेरी फमाईश पर अमुक चीज ले आते थे। वर्मा जी ने, मुझे उनकी नजरों में इतना गिराया कि वे मरकर चले गये पर मुझसे नहीं बोले...।' बहुत पीड़ा उभरी श्रीमती वर्मा के चेहरे पर।'बड़े ताऊ मुझे आज भी याद आते हैं। और तब...।'
'इन्होंने क्या किया?'
'झूठ इतना बड़ा...। ओफ्ह!'
... राम रत्न चुप रहा। ताकता श्रीमती वर्मा का चेहरा।-- फिर बोला--'आपकी पसन्द का कोई...।' उसने बात अधूरी छोड़ दी। उसकी बात का उसने कोई उत्तार नहीं दिया। काफी देर चुप रहने के बाद बोली,'... माना हम साथ-साथ पले बढ़े। पर हमारे बीच प्यार जैसा कोई आकर्षण नहीं था। ताऊ जी, मेरा रिश्ता कलकत्ताा कर रहे थे, मगर इसी बीच इन्होंने फैलाया कि हम एक दूसरे को...। यह बात जब ताऊ जी के पास पहुंची तो वे बहुत नाराज हुए--' हमारी यह लड़की तो...? वे गुस्से से सोफे पर धंस गए। उनकी नजरों में मैं हल्के स्तर की लड़की बन कर रही। बिना कसूर के। वे सोफे से उठे और बाहर चले गये। गुस्सा। अगर मैं लड़का होता तो शायद हाथ उठा देते। आप जानते हैं, उस समय इस बात का हमारे रुढ़ियों वाले समाज में क्या अर्थ होता था। फिर गांव के एक छोर से दूसरे तक बारात आने का कैसा हास्य होता था। वही भाई-बंधु वर पक्ष के और वही वधाु पक्ष के। ब्याह की गहमा, गहमी जैसा कुछ नहीं...। ताऊ जी मेरे से फिर नहीं बोले। एक बार मैं साहस कर उनके पास गई भी थी कि अपनी स्थिति बताऊँ पर उन्होने बात करने से मना कर दिया और उठ कर भीतर चले गये.....ताऊ जी के हत्यारे हैं वर्मा जी।... मैं उबर ही नहीं सकी। इन्हें स्वीकार ही नहीं कर पाई। सब कुछ एक तरफा।' एक निराश सा स्वर निकला।
'अब तो जिन्दगी इतना आगे निकल गई, इन बातों का क्या मूल्य? फिर अपनी पसन्द की चीज पाने के लिए यदि इन्होंने कुछ किया तो...। यू नो एवरीथिंग इज गुड इन लव एंड वार।' रामरत्न ने कहा।
'हां! पर इन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए था। मेरा भी तो कुछ मान था।'
'इन्होंने माफी मांगी थी।'
'हां,पर...।'
'अब भी नहीं।'
'नहीं, पर ऐसी बात नहीं।' जब भी वे बीमार-उमार पड़ते हैं। मैं देखती हूं। फर्ज की तरह। मगर अब क्या फायदा? मैं यह सब भूल चुकी हूं? आप किस गाड़ी में जा रहे हैं?'
'शताब्दी से..।' राम रत्न ने कहा। वह समझ गया था कि वह इस विषय पर बात नहीं करना चाहती। उनकी अन्तरंग बातों के स्पेस को वह स्वयं ही समझता अर्थ लगाता रहा।
घर आकर राम रत्न ने पत्नी के साथ अपने नए अनुभव को बान्टा। बोला-'हम जाने कब जीवन ढोने लग जाते हैं, समाज की बेड़िया हमें कठोर कदम उठाने से रोकती हैं.... सबकी एक सी स्थिति होती है, मगर कहते नहीं...।' इस पर उसकी पत्नी बोली-
रहिमन निज मन की व्यथा, मन ही राखो गोय।
सुन इठलैहें लोग सब, बंट लइ हैं न कोय॥
कौन बांट सकता है। मन और तन के दु:ख भारी होते हैं। सारे दु:खों की डलिया किसे दी जा सकती। कौन कहे कि सारेआ दु:खांदा डलडू मांऽ कनै देइदे, तू आगड़ी हुइजा ओ म्हाणुआ, ओ पखलेआ म्हाणुआ।
मि. वर्मा और मिसेज वर्मा बहुत दिनों तक राम रत्न के मानसपटल पर छाए रहे। वह कई बार अपनी स्थिति का मिलान अपने से करता। बुदबुदाता--'यदि गहराई से देखा जाये तो अपनी और वर्मा की स्िथिति में मामूली सो फर्क है। हम जाने किस ताकत के साथ इस प्रकार का जीवन जीते जा रहे है?' तभी विवेक कह उठता है-'हां, यह घसीटना है और चलते रहो जब तक पूरक न मिल जायं।' वह चुप हो जाता है। इस पूरक की तलाश में ही तो हम सच झूठ किये जा रहे है। अपने को ठग रहे है। फिर सोचता है-समाज में जाने कितने घरों में ऐसी स्थिति होगी। मजेदार बात यह है कि हम किसी के पास अपना गहरा निज नहीं बोल पाते। अपने को सीधे से नही खोल पाते। एक झीनी सी चादर में लिपटे हैं हम। रीछ वाली कहावत की मानिन्द कि कम्बल तो छोड़े पर कम्बल नहीं छोडता। रीछ की पकड़ भारी है।



बद्री सिंह भाटिया
2-हरबंस काटेज, संजौली शिमला-171006


जीवन वृत्त
नाम: बद्री सिंह भाटिया
जन्म: 4 जुलाई, 1947 को सोलन जिले की अर्की तहसील
के गांव ग्याणा में।
षिक्षा: स्नात्कोत्तार (हिन्दी) तथा लोक सम्पर्क एवं विज्ञापन कला में डिप्लोमा।
लेखकीय विकास: ठिठके हुए पल, मुष्तरका जमीन, छोटा पड़ता आसमान, बावड़ी तथा अन्य कहानियां,यातना षिविर,कवच,
और वह गीत हो गई (सभी कहानी संग्रह), पड़ाव(उपन्यास), कंटीली तारों का घेरा(कविता संग्रह),
सूत्रगाथा और धन्धा( कहानी संग्रह, सहयोगी सम्पादन)।
इसके इलावा अनेक सम्पादित संग्रहों में कहानिया संकलित तथा देष की अनेक पत्रिकाओं में प्रकाषित,
कुछ कहानियां अनुदित भी साथ ही साथ विकासात्मक लेखन।

पहली सरकारी नौकरी के समय में मेडिकल कालेज षिमला की कर्मचारी यूनियन की पत्रिका तरु-प्रछाया
का सम्पादन,
कालान्तर में सूचना एवं जन सम्पर्क विभाग में नौकरी के साथ साप्ताहिक पत्र गिरिराज और मासिक
पत्रिका हिमप्रस्थ में सम्पादन सहयोग।
सम्मान: साहित्यिक यात्रा में हि. प्र. कला,संस्कृति एवं भाशा अकादमी द्वारा पड़ाव (उपन्यास, 1987) तथा कवच
(कहानी संग्रह, 2004) पुरस्कृत। हिम साहित्य परिशद मण्डी द्वारा 2001 में साहित्य सम्मान तथा हिमोत्कर्श
साहित्य, संस्कृति एवं जन कल्याण परिशद ऊना द्वारा 2007 में हिमाचलश्री साहित्य पुरस्कार से
सम्मानित।
अन्य: अर्की-धामी ग्राम सुधार समिति और ग्याणा मण्डल विकास संस्था के अध्यक्ष पद पर रहते हुए समाज
सेवा तथा विभिन्न कर्मचारी यूनियनो, एसोसियषनों में अनेक गरिमामय पदों पर सक्रिय भागीदारी।
अर्पणा(साहित्यिक एवं वैचारिक मंच) के अध्यक्ष पद पर भी कार्य।

अब सरकारी सेवा से निवृति के बाद लेखन के इलावा पैतृक गांव ग्याणा में खेती-बाड़ी में संलग्न।

सम्प्रति: हि. प्र. सूचना एवं जन सम्पर्क विभाग, षिमला में सम्पादक पद पर से फरवरी,2005 में सेवा निवृत ।

सम्पर्क: 1. 2-हरबंस काटेज, संजौली, षिमला-171006।
2. गांव ग्याणा, डाकधर मांगू, वाया दाड़ला घाट, तहसील अर्की, जिला सोलन, हि. प्र.
मोबाइल: 094184-78878




बद्री सिंह भाटिया, 2-हरबंस काटेज, संजौली, शिमला-171006