शुक्रवार, 11 मार्च 2011

संस्मरण



बड़े ताऊ जी
इला प्रसाद


वह गर्मियों की एक तपती हुई दोपहर थी।

अपने अध्ययन कक्ष में ठीक पंखे के नीचे कुर्सी डालकर बैठा वह विदेशी पादरी किसी किताब में डूबा हुआ था। कमरे का दरवाजा अधखुला। कुछ यूँ कि दरवाजे पर खड़े होते ही पूरा दृश्य एक बारगी आँखों के सामने आ जाय। सामने बड़ी सी मेज, मेज पर किताबों का ढेर और उनके आगे पेपरवेट से दबे हुए कागज ! मौका मिलते ही नियंत्रण से बाहर निकल भागने को उत्सुक , पंखे की हवा में रह रह कर फ़ड़फ़ड़ाते हुए।

उस लम्बे -चौड़े कमरे में अधिक सामान नहीं था। मेज कुर्सी के अतिरिक्त कुछ अलमारियाँ । और कुर्सी पर बैठा वह - सफ़ेद चोगे में , दरवाजे के फ़्रेम से दाहिनी ओर। श्वेत वसन , गौर वर्ण। छह फ़ुट लम्बी आकृति कुर्सी पर सिमटी हुई। अपनी उपस्थिति की सूचना देती. दरवाजे के फ़्रेम में जड़ी सी।

दरवाजे पर हल्की सी ठक-ठक हुई और एक महीन स्वर उभरा।
"फ़ादर!"
फ़ादर पर कोई असर नहीं हुआ।
इस बार लड़की ने दरवाजा कई बार अपनी पतली उंगलियों से ठोका। ठक-ठक। ठक-ठक। गति और स्वर तेज हो गए।
"फ़ादर .....फ़ादर !

पादरी का ध्यान टूटा। दॄष्टि दरवाजे की ओर मुड़ी। आँखॊं में पहचान के भाव उभर आए और अन्दर आने की स्वीकृति भी। वह लड़की बेझिझक करीब आ कर खड़ी हो गई। कुछ बोलती , इससे पहले ही फ़ादर ने रोका।
"ठहरो , पहले कान लगा लूँ।"

सफ़ेद चोगे के अन्दर हाथ डालकर श्रवण यंत्र का स्विच आन हुआ। फ़िर उसे स्नेह से अपने करीब खींचते हुए वह बोला
"हाँ , अब बोलो।"
"दीदी ने कहा कि आपकी लाइब्रेरी से किताब चाहिए।"
"जाओ , ले लो।"
वह किशोरी इस पुस्तकालय के चक्कर लगा- लगा कर ही बड़ी हुई थी। इसमें कुछ नया नहीं था। सिर्फ़ गर्मी की छुट्टियाँ ही नहीं , बाकी की छुट्टियाँ भी, कोर्स की किताबों को पढ़ने के बाद का बचा बहुत सारा वक्त भी किताबों के सान्निध्य में ही कटता था। सिर्फ़ उसका नहीं , सबका। भाई और बहनें भी इसी तरह आते और किताबें ले जाते। लौटा जाते। लेकिन आज का आना विशिष्ट था।
आज अपने आँसू छुपाने थे। वह बड़ी बहन की डाँट खा कर आई थी। कालेज से घर पहुँची तो दीदी ने किताब मांगी और "भूल गई" कहने पर गुस्सा हो गईं-" घर और कालेज के बीच के रास्ते में ही तो है फ़ादर का घर। मनरेसा हाउस। फ़िर भूल कैसे गई ?" गुस्सा उसे दीदी से ज्यादा आता था। वह भूखी-प्यासी उल्टे पैरों चली आई यहाँ। दीदी ने रोकने की कोशिश की थी लेकिन आहत मन वापस लौट कर ही माना।
फ़ादर की स्वीकृति पाकर वह अभ्यस्त कदमों से बाहर आई और बरामदे से होती हुई अगले कमरे के प्रवेश द्वार से पुस्तकालय में घुस गई।
आँसुओं ने नियंत्रण नही माना अब।
किताब निकालते हुए उसने अपने आँसू भी पोंछे। फ़िर सहज होने का अभिनय करती हुई किताब ले कर मुड़ी।
सामने फ़ादर खड़े थे।
उसने फ़िर एक बार खुद को नियंत्रित किया।
"मिल गई। यह चाहिए थी। "
फ़ादर उसे देखते रहे।
उसने आँखों ही आँखों में अभिवादन कर जाने की स्वीकृति चाही।
मुँह से बोल नहीं फ़ूटे। फ़ादर की नीली आँखें जैसे उसके अन्दर तक देख सकती थीं। यह अहसास उसे पहली बार हुआ था। उसे जैसे भी हो भाग जाना था , वहाँ से अब। जल्द से जल्द। अपनी पकड़ नहीं देनी थी।
फ़ादर ने अपनी गहरी आँखों से कुछ क्षण उसकी थाह ली। समझा और फ़िर सिर हिला दिया।
"जाओ।"
उसने एक बार मुड़ कर देखा और तेज कदमों से आगे बढ़कर सीढियाँ उतर गई । गले में रुलाई घोंटती हुई।
उसे पता था, पीछे से उन नीली आँखों ने हमेशा की तरह उसे असीसा है। हालांकि वे फ़ैली हुई भुजाएँ आज बस फ़ैल कर रह गई थीं, हमेशा की तरह अपनी उस बेटी को समेट नहीं पाई थीं। स्नेह से सहला नहीं पाई थीं।

वह उसके बाद भी वहाँ जाती रही। सहज सामान्य वह। सहज सामान्य फ़ादर। यह साथ उसके बचपन में शुरू हुआ था , जब वह अपने पिता की उंगली थाम वहाँ जाया करती थी और फ़ादर की गोद में बैठकर उन दोनों का शुद्ध हिन्दी में किया गया वार्तालाप सुनती थी। कुछ समझे बिना। बीच- बीच में दिए गए आदेश " मेरी दाढ़ी से खेलो" की अवहेलना करती हुई। दाढ़ी को हल्के से सहला कर छोड़ देती हुई। उस दाढ़ी के काले केश काले से काले- उजले हुए और फ़िर दुग्ध धवल। वह बच्ची भी बड़ी हुई। अपने पैरों चलकर आने लगी, अपनी मर्जी से किताबें चुनने लगी। अपनी सफ़लताओं की कथा सुनाने लगी और अपनी हर सफ़लता पर फ़ादर से पुरस्कृत होने लगी। लेकिन तब भी एक दूरी बनी रही। फ़ादर बार-बार कहते -"मैं तुम्हारा बड़ा ताऊ हूँ" और ऐसा कहते हुए उनकी आँखें, चेहरा आवेश से भर जाता।
यह सच था। कोश-निर्माण के दिनों में पिता के साथ विचार-विमर्श से शुरु हुआ सम्बन्ध कब गहरे स्नेह में बदल गया, इसका अहसास शायद उन्हें भी नहीं था। उस स्नेह में वह लड़की कई बार भीगी किन्तु तब भी उनके जीवन काल में कभी भी उन्हें ताऊ जी नहीं कह पाई। न उसके भाई-बहन। जुबान को फ़ादर कहने का कुछ यूँ अभ्यास हो गया था।
वह फ़ादर, फ़ादर कामिल बुल्के थे।
वह लड़की मैं थी।
स्वभाषा और संस्कृति से प्रेम का जो बीज पिता ने हमारे मन में बोया, वह फ़ादर ने पिता के साथ मिल कर सींचा था। वे हमारे बड़े ताऊ जी थे! वह चेहरा , वे नीली आँखें, वह आवेश युक्त भाव एक बार फ़िर यह लिखते हुए मेरी आँखों के सामने आ गया है!

उनके जीवन काल में कभी भी उन्हें ताऊ जी का सम्बोधन न दे पाने का दुख बीतते समय के साथ गहराता ही जाता है। मैं अब, जब भी भारत जाती हूँ, मेरे राँची के घर के प्रवेश द्वार पर उनके द्वारा लगाया गया बोगनवेलिया मेरा स्वागत करता है। मैं बोगनवेलिया के फ़ूले हुए, सफ़ेद पराग वाले बड़े-बड़े बैंगनी फ़ूल देखती हूँ और अपने अंतर्मुखी, संकोची , आत्मलीन स्वभाव पर एक बार फ़िर से शर्मिंदा होती हूँ। हमें तो उनसे हमारा प्राप्य मिल गया लेकिन, हम उनकी अपेक्षाओं पर कितने नालायक साबित हुए थे!
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इला प्रसाद :
झारखंड की राजधानी राँची में जन्म। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से सी. एस. आई. आर. की रिसर्च फ़ेलॊशिप के अन्तर्गत भौतिकी(माइक्रोइलेक्ट्रानिक्स) में पी.एच. डी एवं आई आई टी मुम्बई में सी एस आई आर की ही शॊध वृत्ति पर कुछ वर्षों तक शोध कार्य । राष्ट्रीय एवं अन्तर-राष्ट्रीय शोध पत्रिकाओं में शोध पत्र प्रकाशित । भौतिकी विषय से जुड़ी राष्ट्रीय एवं अन्तरराष्ट्रीय कार्यशालाओं/ सम्मेलनों में भागीदारी एवं शोध पत्र का प्रकाशन/प्रस्तुतीकरण।कुछ समय अमेरिका के कालेजों में अध्यापन।
छात्र जीवन में काव्य लेखन की शुरुआत । प्रारम्भ में कालेज पत्रिका एवं आकाशवाणी तक सीमित।"इस कहानी का अन्त नहीं " कहानी , जो जनसत्ता में २००२ में प्रकाशित हुई , से कहानी लेखन की शुरुआत। अबतक देश-विदेश की विभिन्न पत्रिकाओं यथा, वागर्थ, हंस, कादम्बिनी, आधारशिला , हिन्दीजगत, हिन्दी- चेतना, निकट, पुरवाई , स्पाइल, कथाबिंब,शोधदिशा, पाखी आदि पत्रिकाओं तथा अनुभूति- अभिव्यक्ति , हिन्दी नेस्ट, साहित्य कुंज सहित तमाम वेब पत्रिकाओं में कहानियाँ, कविताएँ प्रकाशित। "वर्तमान -साहित्य" और "रचना- समय" के प्रवासी कथाकार विशेषांक में कहानियाँ/कविताएँ संकलित । डा. अन्जना सन्धीर द्वारा सम्पादित "प्रवासिनी के बोल "में कविताएँ एवं "प्रवासी आवाज" में कहानी संकलित। कुछ रचनाओं का हिन्दी से इतर भाषाओं में अनुवाद भी। विश्व हिन्दी सम्मेलन में भागीदारी एवं सम्मेलन की अमेरिका से प्रकाशित स्मारिका में लेख संकलित। कुछ संस्मरण एवं अन्य लेखकों की किताबों की समीक्षा आदि भी लिखी है । हिन्दी में विज्ञान सम्बन्धी लेखों का अनुवाद और स्वतंत्र लेखन। आरम्भिक दिनों में इला नरेन के नाम से भी लेखन।
कृतियाँ : "धूप का टुकड़ा " (कविता संग्रह) एवं "इस कहानी का अंत नहीं", उस स्त्रॊ का नाम ( कहानी- संग्रह) । उपन्यास पर कार्यरत .
लेखन के अतिरिक्त योग, रेकी, बागवानी, पर्यटन एवं पुस्तकें पढ़ने में रुचि।
सम्प्रति : स्वतंत्र लेखन ।सम्पर्क : 12934, MEADOW RUNHOUSTON, TX-77066USAई मेल ; ila_prasad1@yahoo.com

3 टिप्‍पणियां:

PRAN SHARMA ने कहा…

MEREE PRIY LEKHIKA ILA PRASAD KAA
FATHER BULKE PAR LIKHA SANSMARAN
" BADE TAAOO JI " APNEE SARAL -
SAHAJ BHASHA - SHAILEE MEIN MUN KO
CHHOOYE BINA NAHIN RAH SAKAA HAI .
AESE MAARMIK SANMARAN KE LIYE ILA
JI KO DHERON BADHAAEEYAN.

ashok andrey ने कहा…

प्रिय इला जी का यह संस्मरण पड़ कर आत्मविभोर हो गया कितने सुन्दर ढंग से अपनी यादों को प्रस्तुत किया है अद्भुद है भाई मै इला जी को उनके इस संस्मरण के प्रस्तुती करण के लिए विशेष रूप से बधाई देता हूँ क्योंकि बहुत समय के बाद दिल को छूने वाला संस्मरण पड़ने को मिला है

सुभाष नीरव ने कहा…

एक बहुत ही पठनीय और उत्तम संस्मरण, भीतर तक स्पर्श करता हुआ…