शनिवार, 7 मई 2011

वातायन-मई,२०११



हम और हमारा समय

चले जाना एक साहित्यकार का

रूपसिंह चन्देल


२४-२५ अप्रैल,२०११ की रात १ बजकर ४० मिनट पर हिन्दी के लघुकथाकार कालीचरन प्रेमी का लंबी बीमारी के बाद निधन हो गया. वह कैंसर जैसे असाध्य रोग से पीड़ित थे. लघुकथा के उत्कर्ष काल में प्रेमी ने हिन्दी लघुकथा के क्षेत्र में अपना अमूल्य योगदान दिया था और लघुकथा विधा को नए आयाम प्रदान किए थे. उनसे मेरा परिचय १९८५ में तब हुआ जब मैं लघुकथा संकलन –’प्रकारान्तर’ का सम्पादन कर रहा था. उन दिनों कालीचरन प्रेमी गाजियाबाद के प्रधान डाकघर में कार्यरत थे. संभवतः वरिष्ठ कथाकार बलराम अग्रवाल भी उन दिनों उनके साथ थे. संकलन का कार्य यद्यपि मैंने १९८५ में प्रारंभ कर दिया था लेकिन अनेक व्यवधानों के कारण वह प्रकाशित हुआ १९९१ में. पांच वर्ष की लंबी अवधि में कुछ रचनाकारों ने पुस्तक के विषय में दरियाफ्त किया. कालीचरन प्रेमी के पत्र भी आए और हमारी फोन पर बातें भी हुईं. वह बहुत ही सहज स्वभाव व्यक्ति थे. कभी भी उन्होंने पुस्तक प्रकाशन के विलंब पर असन्तोष व्यक्त नहीं किया, जैसा कि कुछ मित्रों ने किया था. पुस्तक प्रकाशन में विलंब से मुझे लाभ ही हुआ था और इसका श्रेय मैं उन दिनों किताबघर के सलाहकार शंकरलाल मश्करा जी को देता हूं. लेकिन कालीचरन प्रेमी के जीवन के विषय में मुझे बहुत अधिक जानकारी नहीं थी. उनकी बीमारी के गंभीर होने की स्थिति में बलराम अग्रवाल और सुभाष नीरव ने उनके विषय में बहुत कुछ बताया और उनकी मृत्यु के पश्चात बलराम अग्रवाल ने प्रेमी पर बहुत मार्मिक संस्मरण लिखा जो उनके ब्लॉग ’जनगाथा’ (www.janagatha.blogspot.com) में पढ़ा जा सकता है.

इस देश में कुछ आभिजात्य साहित्यकारों को छोड़कर (उनकी आभिजात्यता उनके साहित्य के आधार पर नहीं बल्कि उनके पद और पूंजी के आधार पर तय होती है) शेष साहित्यकार कालीचरन प्रेमी की भांति अनाम मौत मरने के लिए अभिशप्त हैं. मुझे एक भी समाचार पत्र में उनकी मृत्यु का समाचार देखने को नहीं मिला. किसी पत्रिका में शायद देखने को मिल जाए.

प्रेमी की समय से पहले मृत्यु के लिए देश की क्रूर अफसरशाही जिम्मेदार है. कहना अनुचित न होगा कि वह बिना इलाज मरे. दवाओं की उनकी फाइल एक मेज से दूसरी, एक शहर से दूसरे की ३३ दिनों तक यात्रा करती रही और प्रेमी का जीवन मृत्यु की ओर बढ़ता रहा. आज जब देश में अरबों के घोटालों में नेता और अफसर भ्रष्टाचार में आंकठ डूबे हुए हैं और भ्रष्टाचार के विरुद्ध बोलने वाले रामजेठमलानी जैसे वरिष्ठ वकील उन भ्रष्ट ताकतों को बचाने में लगे हों तब किसी ऎसे साहित्यकार की ओर व्यवस्था कैसे ध्यान दे सकती है जो भ्रष्टाचार के विरुद्ध लिखता रहा हो. भ्रष्टाचार के विरुद्ध लिखने वाले हर लेखक को वैसी ही कीमत चुकाने के लिए तैयार रहना चाहिए जैसी कालीचरन प्रेमी ने चुकाई. उसी भ्रष्ट अफसरशाही ने प्रेमी के उपचार की फाइल ३३ दिनों तक घुमाई जिसने कभी उन्हें निलंबित किया था. व्यवस्था के चाटुकारों को मिलते हैं पुरस्कार और सत्ता में शामिल अफसर लेखकों को मिलता है कॉमनवेल्थ गेम्स घोटाले में खाने की खुली छूट जबकि एक ईमानदार रचनाकर्मी को मिलती है गुमनाम मौत. प्रेमी की मृत्यु इस बात उदाहरण है.

कालीचरन प्रेमी को विनम्र श्रद्धाजंलि स्वरूप यहां प्रस्तुत हैं उनकी तीन लघुकथाएं, जिन्हें मैंने अपने संकलन में प्रकाशित किया था.

इसके अतिरिक्त वातायन के इस अंक में प्रस्तुत है वरिष्ठ पत्रकार और लघुकथाकार फ़जल इमाम मलिक का लघुकथा पर एक विचारणीय आलेख.
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सूचना: फ़जल इमाम मलिक के सम्पादन में शीघ्र ही एक लघुकथा संकलन प्रकाशित होने जा रहा है. हिन्दी के लघुकथा लेखक अपनी रचनाएं निम्न पते पर भेज सकते हैं :

श्री फ़जल इमाम मलिक
सम्पादकीय विभाग – जनसत्ता
ए-८, सेक्टर-७,
नोएडा

मोबाइल नं. ०९८६८०१८४७२
०९३५९१०२०१३

लघुकथाएं




काली चरण प्रेमी की लघुकथाएं



कालीचरन प्रेमी





(१)

जहरीला इंसान


पीपल के वृक्ष के नीचे एक विशाल चबूतरा बना था। गांव के पांच-छः बुजुर्ग वहां बैठे हुक्का गुड़गुड़ा रहे थे। साथ ही उनमें बहस छिड़ रही थी कि संसार में सबसे जहरीला जीव कौन-सा है? कोई कहता अजगर है। कोई बिच्छू बताता तो कोई नेवले को सबसे जहरीला साबित करता। कुछ बुजुर्गों ने जहरीले जीवों में छिपकली,गिरगिट, मगर और कानखजूरा को प्रमुख स्थान दिया। बहस बदस्तूर थी, कोई सर्वमान्य निर्णय नहीं हो पा रहा था।

तभी जाने कहां से वहां एक कुख्यात गुंडा आ धमका। उसने सबके सामने राह चलते एक व्यक्ति की चाकू घोंपकर हत्या कर दी और बैग छीनकर चलता बना। यह सरेआम खून-खराबा देखकर बुजुर्ग आतंकित हो गए। ठीक उसी समय एक बुजुर्ग गुंडे की तरफ संकेत करते हुए फुसफुसाया, ‘‘भाइयो, संसार में सबसे जहरीला जीव इन्सान है।’’

सभी बुजुर्गों ने यह निर्णय मौन रूप से स्वीकार लिया।

(2)

बदलते रिश्ते

फिल्म का नाइट शो छूटा। वे दोनों प्रेमी भीड़-भाड़ से बचते हुए एक संकरी गली में दाखिल हो गए। फिल्म शायद बेहद रोमांटिक थी। ऐसा उनके मूड से जाहिर हो रहा था।

तभी सामने शिकार की तलाश में घूमते हवलदार जी उन्हें नजर आए। प्रेमी प्रेमिका से छिटक गया। साथ-साथ चलते हुए दोनों ने थोड़ा फासला ले लिया। हवलदार जी अब भी मूंछें पैना रहे थे।

‘‘कमबख्त! यह झंझट कहां से आ खड़ा हुआ, ‘‘प्रेमी बुदबुदाया।

‘ऐ! कहां से आ रहे हो? लगता है घर छोड़कर भागे हो,’’ रोबीली आवाज ने सन्नाटा चीरा।

वे तनिक घबराए। फिर प्रेमी ने जेब से एक दस का करारा नोट निकाला और हवलदार की तरफ बढ़ाते हुए बोला - ‘‘हवलदार जी, आप खामखाह हम पर शक कर रहे हैं। हम तो भाई-बहन हैं।’’

और अवलदार जी मान गए।

(3)

पत्थर के लोग


‘‘कहिए, इतनी रात गए कहां?’’ मेरे घर के सामने से वह चुपचाप गुजर रही थी तो मैंने उत्सुकता वश टोक दिया।

‘‘बच्चों का पेट भरने के लिए कुछ तो करना पड़ेगा।’’

‘‘क्या करोगी?’’ ‘‘कोई ग्राहक फंसे शायद....।’’ वह सीधा-सपाट उत्तर देते हुए उतावली-सी आगे बढ़ने लगी।

‘‘ठहरो।’’ मैं उसकी मनोदशा भांच गया। ‘‘आज रोटी मेरे घर से ले जाओ। कल तुम्हारे लिए किसी रोजगार का प्रबंध करूंगा।’’

मैंने कुछ रोटियां देकर उसे चलता किया।

‘‘क्यों आज मास्टर को भी अपने चक्कर में फांस लिया?’’ उसके हाथ में रोटियां देख किसी ने संदिग्ध सवाल उछाला।

मैं तिलमिलाकर रह गया।

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आलेख



ज़मीन की तलाश

फ़ज़ल इमाम मल्लिक


हिंदी में लिखी जा रही लघुकथाओं पर नज़र डालने बेहद मायूसी होती है। ऐसी बात नहीं है कि लघुकथाएं लिखी नहीं जा रही हैं। यह सही है कि लघुकथाएं बड़ी तादाद में लिखी जा रही हैं, उन पर बहसें भी हो रही हैं, चर्चा भी की जा रही है लेकिन सवाल यह भी है कि चर्चा कौन कर रहा है। लघुकथा लेखक होने के नाते इस बात पर ख़ुश भी हो सकता हूं कि लघुकथा को एक विधा के रूप में मान्यता मिल चुकी है और पत्र-पत्रिकाओं में लघुकथाओं को जगह भी मिलने लगी है लेकिन साहित्य में एक लघुकथाकार या लघुकथा की किसी पुस्तक की हैसियत क्या है यह हम सभी जानते हैं।


साहित्य की मुख्यधारा में लघुकथा या लघुकथाकारों को गंभीरता से अब भी नहीं लिया जा रहा है। यह लघुकथा का संकट है और यह संकट तब और बढ़ जाता है जब कोई बड़ा कथाकार अपनी लघुकथा की पुस्तक को भी कहानी संग्रह कह कर पाठकों के सामने रखता है। दरअसल यह संकट लघुकथा का कम लघुकथाकार का ज्यादा है। लघुकथाओं के साथ-साथ अगर वह कहानियां या कविताएं लिखता है तो ख़ुद को वह कवि या कथाकार कहलाना तो पसंद करता है लेकिन लघुकथाकार नहीं। साहित्य में लघुकथा और लघुकथाकारों को लेकर जो दोयम दर्जे का व्यवहार है, इसकी वजह भी यही है। मेरे कई लघुकथाकार मित्र इससे सहमत भी हो सकते हैं और असहमत भी लेकिन लघुकथाकारों का एक बड़ा तबक़ा जो लंबे समय से लघुकथा-लघुकथा खेलने में लगा है वह मेरी इस बात से असहमत तो होगा ही उसे इस पर बेतरह एतराज़ होगा कि मैंने लघुकथा के औचित्य पर ही सवाल खड़े कर दिए हैं लेकिन क्या यह सच नहीं है कि हम दस-बीस (इसे बढ़ा कर तीस-चालीस या पचास-साठ भी किया जा सकता है) लघुकथाकार ही लघुकथा को लेकर अपने में ऐंठ-अकड़ नहीं रहे हैं और घोषित कर दे रहे हैं कि साहित्य में लघुकथा को स्थान मिल गया है लेकिन सच में ऐसा हुआ है क्या। क्या साहित्य में लघुकथाओं को गंभीरता से लिया जाने लगा है ? जो मान्यता कवि, कथाकार, व्यंग्य लेखक या दूसरी विधा के लेखकों को है वह मान्यता लघुकथाकारों को मिल पाई है ? ऐसे कई और सवाल हैं जो लघुकथा के सामने भी है और लघुकथाकारों के सामने भी। और इन सवालों का जवाब साहित्य के विस्तृत फलक पर ढूंढना होगा। लघुकथा या लघुकथाकारों के बीच इन सवालों का जवाब ढूंढा गया तो हो सकता है कि हम जैसे लघुकथा लिखने वालों को इस बात से तसल्ली हो जाए कि बतौर लघुकथाकार आपकी पहचान भी है और आपकी लिखी लघुकथाओं को सराहा भी जाता है। कुछ आलेखों में भी इनका उल्लेख कर दिया जाता है लेकिन जब साहित्य के फैले आकाश पर अपने को बतौर लघुकथाकार तलाशेंगे तो लघुकथा कहीं किसी कोने में दुबकी मिल जाए तो लघुकथाकार की खुशक़िस्मती ही समझी जाएगी क्योंकि साहित्य में लघुकथाकार आज भी अपनी जगह बनाने के लिए हाथ-पांव ही मार रहा है। कम से कम हिंदी में तो लघुकथाओं को लेकर यही बात कही जा सकती है। नहीं, इसके लिए साहित्य के किसी पंडित या आचार्य को दोष देने की ज़रूरत नहीं है।


लघुकथा के पंडित और आचार्य या मठ चलाने वाली ही इसके लिए ज्यादा ज़िम्मेदार हैं। लघुकथा आंदोलन के दौरान ही लघुकथा के इतने मठ बन गए कि बेचारा लघुकथा लेखक हैरान-परेशान हो गया कि वह करे तो क्या करे। हर मठ अपने-अपने तरीक़े से लघुकथा लेखन को आगे बढ़ाने में लग गया, नतीजा यह निकला कि लघुकथा तो कहीं पीछे छूटती चली गई, मठ फलते-फूलते रहे और मठाधीशों का अपना-अपना गिरोह पनपने लगा। शुरू में तो लघुकथा की लंबाई-चौड़ाई को लेकर ही ढेरों सवाल खड़े किए गए और लघुकथाओं को शब्दों की सीमा में क़ैद करने की कोशिशें होती रहीं। इतनी छोटी हो तो लघुकथा होगी या फिर इतनी लंबी हो गई तो लघुकथा नहीं होगी जैसे सवालों में लंबे समय तक लघुकथा घिरी रही और बेचारा लघुकथाकार इन सवालों के बीच इंच-टेप लेकर लघुकथा लिखने में जुटा रहा। अपनी लघुकथाओं को वह कभी एक सेंटीमीटर काटता तो कभी आधा सेंटीमीटर उसमें जोड़ता। इसी जोड़तोड़ में बेचारी लघुकथा विषय, शिल्प और प्रयोगों से कटती गई। एकतरह की, एक जैसी लघुकथाएं लिखी जाने लगीं। न तो कथ्य में प्रयोग और न ही शिल्प के स्तर पर कुछ नया करने की ललक बच पाती थी। मठों में बैठे लोगों ने इस तरह का तानाबाना बुना था कि बेचारा लघुकथाकार शब्दों और लंबाई-चौड़ाई की उलझन में ही उलझा रहा। हालांकि पहले तो इन गिरोहों में आपस में ले-दे चलती रही लेकिन बाद में एक अलिखित समझौता सा हो गया यानी यह तय पा गया कि एक-दूसरे पर पत्थर नहीं फेंके जाएंगे क्योंकि हर कोई शीशे के घर में ही बैठा है। इस समझौते का फ़ायदा भी लघुकथा लेखन से जुड़े लोगों को नहीं ही मिलना था। जिन्हें मिलना था उन्हें मिला और वे रातोंरात लघुकथा के मसीहा के रूप में ख़ुद को स्थापित करने में कामयाब रहे। लेकिन लघुकथाओं के सामने जो संकट तब था वह आज भी है जस का तस है। हो सकता है कि दलीलें दी जाएं कि आज ऐसी बात नहीं है। लघुकथा को विधा के रूप में मान्यता मिल चुकी है, लोग लघुकथा पर पीचएडी कर रहे हैं, कई शोध हो चुके हैं, हर साल लघुकथा संग्रह का प्रकाशन हो रहा है और पत्र-पत्रिकाएं लघुकथाएं छाप रही हैं। सारी बातें सर माथे पर। सब दलीलें मान लेता हूं। क्योंकि इसमें सच्चाई है।


लेकिन मेरा फ़कत इतना सा सवाल है कि जो लघुकथाएं लिखी जा रही हैं उनमें से ज्यायादातर शिल्प, कथ्य और प्रयोग के स्तर पर पाठकों से सरोकार बना भी पा रही हैं या नहीं। आप सौ लघुकथाएं पढ़ जाएं उनमें से ज्Þयादातर लघुकथाएं शिल्प और कथ्य के स्तर पर एक-दूसरे को दोहराती ही नज़र आती हैं। यह दोहराव कथ्य या विषय के स्तर पर हों तो सिमें कहीं कुछ भी ग़लत नहीं है लेकिन अपने ट्रीटमेंट में भी यह लघुकथाएं बहत हद तक एक जैसी बातें, एक ही तरीक़े से कहती नज़र आती हैं। यानी जो पैमाना लघुकथाओं के लिए बरसों पहले तय कर दिया गया था उसी पैमाना को ध्यान में रख कर अधिकांश लघुकथाएं लिखी जा रही हैं। यह संकट लघुकथाओं पर लगातार बढ़ा है लेकिन ताज्जुब की बात यह है कि इस बात को लेकर हममें से बहुत सारे लोग चिंतित नहीं हैं। हालांकि समय आ गया है कि इस विषय पर हम आप गंभीरता से विचार करें। विचार इस पर भी करना होगा कि लघुकथा को लोग गंभीरता से लें और इस पर बहस-मुबाहिसे भी हों लेकिन यह बहस सिर्फ लघुकथाकारों के बीच नहीं हो। लघुकथा को विस्तार देने के लिए ज़रूरी है कि इसे साहित्य के बड़े वर्ग से जोड़ा जाए और ऐसा हिंदी साहित्य के उन आलाचकों-समीक्षकों के जरिए ही किया जा सकता है, जिनकी धमक हिंदी साहित्य में महसूस की जाती है। अब तक तो यही होता आया है कि लघुकथाकार ही पीर-भिश्ती सब है। वही लघुकथा लिखता है, वही आलोचना करता है और वही समीक्षा भी। बड़े कथाकार अपने लघुकथा संग्रह को कथा-संग्रह के शीर्षक से प्रकाश्ति करवाते हैं और हम उन्हें महान लघुकथाकार लगातार घोषित करते चले आ रहे हैं। ऐसा होना हीं चाहिए।


बहुत पहले कमलेश्वर ने लघुकथा को एक ज़मीन दी थी लेकिन उसके बाद कोई दूसरा कमलेशवर सामने नहीं आया जो छाती ठोंक कर कहे कि लघुकथा एक विधा है और इस विधा को और इसके लेखकों को पूरा-पूरा सम्मान मिलना चाहिए। क्या हमने किसी दूसरे कमलेशवर की तलाश की। नहीं की क्योंकि हम तो ख़ुद ही उलझे हुए थे एक-दूसरे का गला काटने में। वक्त अभी भी हमारी मुट्ठियों से सरका नहीं है। आइए किसी दूसरे कमलेश्वर की तलाश करें ताकि लघुकथा को पनपने के लिए जो ज़मीन कमलेश्वर ने दी थी उस ज़मीन को बेहतर ढंग से तैयार करें ताकि और बेहतर लघुकथाएं हमारे सामने आएं और साहित्यमें लघुकथाकारों को गंभीरता से लिया जाए और हम ख़ुद के लघुकथाकार कहलाने पर शर्मिंदा न हों।एक बात और। लेखन के क्षेत्र में हम जैसे लोग लगातार आगे बढ़ते रहे। अच्छा लिखा, बुरा लिखा यह बात दीगर है लेकिन इस दौरान कभी पीछे मुड़ कर देखने की ज़हमत भी नहीं उठाई। लघुकथा आंदोलन में ढेरों लघुकथाकार थे लेकिन अब उनमें से कई कहां गुम हो गए उन्हें तलाशने की कोशिश तक नहीं की। कइयों ने लघुकथा लिखने से इसलिए तौबा कर लिया क्योंकि लघुकथा के नाम पर कुछ लोगों ने अपनी दुकान खोल ली थी और उस दुकान में लघुकथाकार तैयार किए जाने का फार्मूला बेचा और [ख़रीदा जा रहा थ। दुकानें तो अब भी खुली हुई हैं लेकिन अब ख़रीदार कम हो गए हैं। कभी सोचा हमने कि जिन लोगों ने लघुकथा को स्थापित करने के लिए अपना सब कुछ गंवा डाला उन्हें क्या मिला और आज वे कहां है। आज जब यह सब लिख रहा हूं तो भाई विक्रम सोनी बेतरह याद आरहे हैं। ‘लघु आघात’ और फिर ‘मिनी लघु आघात’ के ज़रिए उन्होंने लघुकथा को स्थापित करने में जितनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है, उसकी चर्चा आज कितने लोग कर रहे हैं। सच तो यह है कि विक्रम सोनी को हमने बिसरा दिया है। हमने पृथ्वीराज अरोड़ा, डॉ. सतीश दुबे और सुरेन्द्र मंथन को भी भुला दि्या!उन्हें याद करना तो दूर उनके बारे में ठीक-ठीक पता भी नहीं है कि वे हैं तो किस हाल में हैं, हैं भी या नहीं यह कोई ठीक-ठीक बता भी नहीं पाता है।


सवाल यह है कि विक्रम सोनी जैसे लोगों को भुला कर हम लघुकथा को स्थापित कर पाएंगे, कम से कम मेरा तो मानना है नहीं। आपका क्या ख़याल है ?

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जन्मः १९ जून, १९६४। बिहार के शेखपुरा जिले के चेवारा में।


शिक्षाः बी.एस-सी, होटल मैनेजमेंट में पोस्ट ग्रेजुएट डिप्लोमा।१९८६ में होटल प्रबंधन से किनारा कर पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रवेश। दैनिक हिंदुस्तान में बतौर स्ट्रिंगर शुरुआत। फिलहाल जनसत्ता के दिल्ली संस्करण में वरिष्ठ उपसंपादक के पद पर कार्यरत। क़रीब दस साल तक खेल पत्रकारिता। दूरदर्शन के राष्ट्रीय चैनल के लिए फुटबॉल, बास्केटबॉल, एथलेटिक्स, टेनिस सहित दूसरे खेलों के सीधे प्रसारण की कॉमेंट्री।साहित्यिक पत्रिका 'शृंखला' व 'सनद' का संपादन।


सनद अब त्रैमासिक पत्रिका के रूप में दिल्ली से प्रकाशित। कविता संग्रह 'नवपल्लव' और लघुकथा संग्रह 'मुखौटों से परे' का संपादन।अखिल भारतीय स्तर पर लघुकथा प्रतियोगिता में कई लघुकथाएँ पुरस्कृत।कहानी-कविताएँ देश के विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित व आकाशवाणी-दुरदर्शन से प्रसारित।पत्रकारिता के लिए स्व. रणधीर वर्मा स्मृति सम्मान, कवि रमण सम्मान व लघुकथा गौरव सम्मान (रायपुर) छत्तीसगढ़, खगड़िया (बिहार) में रामोदित साहु स्वर्ण सम्मान।ईमेल : fazalmallick@gmail.comमोबाइल : 9868018472