शनिवार, 4 जून 2011

पुस्तक अंश



गर्दिश के दिन

हृदयेश

मैं जो आपके सामने इस रूप में हूं, यह भी अपने में अचरज है, और शायद नहीं भी.

घर पर मुझे बौना बना देने वाली अपशकुनी छायाएं लिए सारी स्थितियां और व्यक्तित्वहंता परिवेश मौजूद था. पिता कचहरी में एक मामूली अहलकार थे और स्वाभाविक था कि उनकी दृष्टि बेहद संकुचित हो. वह एक बार-बार की चली और परखी हुई डगर पर चलने के हिमायती थे. देहरी पार का झुका हुआ आसमान ही उनके लिए क्षितिज था और इस क्षितिज के बाहर जाना आवश्यक है, या उसे लांघने की किसी में सहज उत्कंठा हो सकती है, ऎसा वह मानते नहीं थे—शायद इस बारे में कभी सोचा भी न हो. मेरे बड़े भाई ने दसवां दरजा पास कर लिया था. वह एक किरानी बन सकते थे और पिता ने उनको किरानी बना दिया. इसके बाद मेरी बारी थी. दो साल बाद मेरा परीक्षाफल निकलते ही मुझसे भी कहा गया कि अब तेरी पढ़ाई बंद और तू भी नौकरी करेगा. मैं आगे पढ़ना चाहता था, इसलिए मैंने वैसी इच्छा प्रकट की. पिता का उत्तर था—‌“आगे पढ़कर क्या होगा? नौकरी बाद में भी जब करनी है तो अभी क्यों न कर?” मैंने बात लौटाने की कोशिश की तो पिता ने इस बार दलील रखी –‌ ‍“मैं रिटायर होने वाला हूं, गृहस्थी का जुआ कौन उठाएगा?” मैं पिता को बातों द्वारा हरा नहीं सकता था. वैसे संस्कार भी नहीं थे. पर मैं चाहता था कि कैसे भी पिता अपने तर्कों को स्वयं ही समेट लें और कह दें – अच्छा जा पढ़, तेरी मर्जी. कोई-न-कोई इंतजाम फिर किया ही जाएगा. मैंने दबाव डालने की नीयत से खाना-पीना छोड़ दिया. किंतु डेढ़-दो दिन बाद मेरी अपनी ही भूख मुझे आंख दिखाने लगी और मैं उस उपाय से डर गया.

उम्र के सत्रह वर्ष पूरे नहीं हो पाए थे और मैं भी किरानी बन गया, क्योंकि बनना जरूरी था.

पिता की मानसिकता-सूचक एक घटना का उल्लेख करना चाहूंगा.

वे सन ४२-४३ के दिन थे. ब्रितानी हुकूमत के खिलाफ जनता में नफरत तेजाबी बन चुकी थी. आए दिन सड़कों पर जुलूस निकलते और नारे लगते. उम्र ऎसी थी कि हर चटक रंग को पोरों से छूने की इच्छा होती थी. आस-पड़ोस के ६-७ बच्चों ने जुलूस निकालना तय किया. हाथों में बेंत, सेंठा, खपच्ची, यानी झंडेनुमा जो कुछ भी मिला, ले लिया गया. शाम का वक्त था और हम सब पीछे गली में पहुंचकर नारे लगाने लगे—इंकलाब जिंदाबाद-इंकलाब जिंदाबाद. उन दिनों यही नारा गर्म था और हम लोग इसका उच्चारण अपने-अपने ढंग से, लेकिन जोश-खरोश के साथ, कर रहे थे. अभी कुछ ही मिनट गुजरे होंगे कि पिता की चाबुक जैसी आवाज मुझे घर पर खींच ले गई—“‌क्यों बे, क्या बक रहा है? मेरी सरकारी नौकरी लेने पर तुला है ?”

मेरी मां उस किस्म की महिला थीं जिनकी सारी दिनचर्या, क्रियाकलाप और छोटी-से-छोटी योजना पैसे के गिर्द होती है. वे चूंकि कूड़े-कचरे और फटे-पुराने से भी सिक्के बना सकती हैं, अपने को चतुर मानती हैं और उन सिक्कों में से थोड़ा-सा दान-पुन कर लेती हैं, इसलिए स्वयं को ’अच्छी’ की अधिकारिणी भी. ऎसी महिलाएं भले ही अपने बच्चों के लिए मकान वगैरह की ढंग की व्यवस्था कर जाएं, पर वे निश्चय ही उनके लिए कोई सम्मानजनक भविष्य नहीं छोड़ सकती हैं.

विवाह मेरा हो सकता था और कर दिया गया. रिश्ता मां-बाप को तय करना चाहिए और उन्होंने ही तय किया, हालांकि लड़की और लड़की में अंतर होता है और ’सिरी जोग लिखी’ लिख लेना या ’रामायन’ के आखर बांच लेने की साक्षरता शिक्षा नहीं है, वे वैसा समझने में अक्षम थे.

यह शारीरिक स्तर पर एक समझौता ही था कि हम दोनों के बीच चार बच्चे आ गए.

छः प्राणियों की भरी-पूरी गृहस्थी में दो-ढाई सौ रुपये की आय की स्थिति उस कमजोर गले हुए कपड़े जैसी होती है जो जरा-सा दबाव पड़ने पर मसक जाता है. एक जगह सिलो तो कुछ ही देर बाद दूसरी जगह से और दूसरी जगह सिलो तो तीसरी जगह से. मंशा है कि कहीं-न-कहीं से आपको नंगे दिखना है.

बच्चे बड़े हो रहे थे. गिरानी बढ़ती जा रही थी और आर्थिक दबाव सख्त से सख्त. हर मौसम विरोधी होता. तीसरी या चौथी तारीख के बाद पत्नी पोरों पर तिथियां जोड़ने लगती कि अब आने वाली पहली तारीख कब है.

पिता मैं था लेकिन बच्चे जरूरत के लिए पैसे मांगते अपने चाचा से, आय की दृष्टि से अपेक्षाकृत जो साफ-सुथरी जमीन पर खड़े थे. संरक्षण देने का क्या एक अपना सुख नहीं होता है? चाचा-चाची मीठा-खट्टा लाते और उनके अपने बच्चों के आगे इन बच्चों की स्थिति दूसरे-तीसरे दरजे के नागरिक जैसी बन जाती. केले के पत्ते जैसे उनके नरम चेहरों पर अपने से ही लड़ने के जख्म होते.

निरी छोटी-छोटी इच्छाओं और आकांक्षाओं का भी दस,बीस,तीस और चालीस साल तक अनपूरी रहना या बिना बड़ी मांग करने वाली सहज स्वाभाविक प्रवृत्तियों का अनवरत कुचला जाना या वस्तु के स्थान पर बार-बार सस्ते विकल्प खोजने की लाचारी क्या मनुष्य के लिए जिंदा रहने की एक यातनामय सजा नहीं है? किंतु मनुष्य फिर भी जीवित रहता है.

मैंने चाहा कि सर्दियों में नहाने से पहले दिन-भर की खुश्की की चरपराहट बचाने के लिए जिस्म में थोड़ा सरसों का तेल मल लिया करूं. किंतु ऎसा नहीं हो पाता. मैंने चाहा कि गर्मियों में यह न सोचना पड़े कि परसों ही सिर साबुन से घोया है और बारी आज नहीं रविवार को होगी. किंतु ऎसा ही होता.

मैंने चाहा कि बहुत पहले सिले होने के सबब से बदन पर ढीले हो गए कपड़े फिट कराकर पहना करूं. पाजामें और जांघिए में कायदे का इजारबंद पड़े, सुतली या झुतड़ेदार धोती के किनारे जैसी चीज नहीं. पर ऎसा ही होता.

मैंने चाहा कि ब्लेड इतना धारदार हुआ करे कि शेव दो मिनट में बन जाया करे. पर ऎसा नहीं होता.

मैंने चाहा कि दफ्तर जाते हुए साइकिल रास्ते-भर गुहार न किया करे. पर वह करती.

मैंने चाहा कि सयाने हो गए बच्चे अलग सोया करें. लेकिन खाट और बिस्तर पूरे न होने के कारण वे सड़ी गर्मियों में भी मेरे पास लेटते.

मैंने चाहा कि साल-दर-साल कमरों की सफाई-पुताई हो जाया करे. जिन प्यालों में सब्जी खाऊं वे खुरदरे, चटखे या बेडौल न हों. कंघे और फाउंटेन पेन में बच्चों की साझेदारी न रहा करे. एक मामूली बीमे की छोटी रकम वाली किस्तों की अदायगी बिना जुर्माना दिए नियत समय पर कर दिया करूं. जिन पत्रिकाओं को अच्छी मानकर पढ़ूं, वे अपनी हों. लेकिन ऎसा नहीं हो पाता.

मैंने चाहा कि जब यात्रा करनी पड़े या नाते-रिश्तेदारी में शिरकत करने की मजबूरी आए तो जूता, मोजा, बनियान और रूमाल या बिस्तरबंद और अटैची, भाई या भतीजे की न होकर अपनी हुआ करे. कोई मित्र यदि पांच-सात बार मुझे किसी होटल-रेस्टोरेंट में जलपान कराए या सिनेमा का टिकट खरीदे तो एक बार मैं भी उसका खर्च सहन करूं. मगर ऎसा नहीं होता.

बरसों से मेरी इच्छा है कि कॉफी का एक डिब्बा ले आऊं, भले ही पचास ग्राम वाला, और उसे अपने हाथों फेंटकर दो बार अभिन्न लोगों के साथ गपशप करते हुए साफ-सुथरे मगों में पिऊं. पर यह संभव नहीं हो पाता.

एक लंबे समय तक मैं अपने देश की राजधानी न देख सका. रेगिस्तान, समुद्र, नदियों पर बने बांध, पुराने मंदिर और ऎतिहासिक स्थल, इच्छा होने पर भी इनसे आज तक रू-ब-रू न हो सका.

अभी आठ-दस महीने पहले मैं बाटा की दुकान पर चप्पल खरीदने गया. ’रेडेक्शन सेल’ का माल एक ओर रखा था और आंखें वहीं ठहरीं. चप्पलों की एक मजबूत जोड़ी मौजूद थी और लगी हुई चिप्पी देखने पर पाया कि असली कीमत बाईस रुपये से घटाकर साढ़े दस रुपये कर दी गई है.

मैंने जोड़ी हाथ में उठा ली. फिर पैरों में डालकर परखी. फिर दुबारा हाथ में ले ली.

“आप इसे क्या लीजिएगा?” सेल्समैन ने पूछा.

“इसकी कीमत ६० प्रतिशत तक घटा दी गई है. मैं चाहूंगा कि आप खराबी बता दें.”

‌“बात यह है कि एक चप्पल नौ नंबर की है और दूसरी आठ की.”

मैंने चप्पलों के तले एक-दूसरे पर रखे. हां, वे छोटी-बड़ी थीं.

‌आप फ्रेश माल भी देख लीजिए. कई नए डिजाइन हैं.” सेल्समैन ने सुझाव दिया. उसे संदेह था कि मैं वे चप्पलें लूंगा.

पर मैंने उन्हीं चप्पलों को ले लिया. अरे, गोली मारो. पैरों में पड़कर छोटी-बड़ी की शिनाख्त की जा सके, इतनी तमीज किसमें है. एक्दम बारह रुपये बचते हैं, जिनसे बारह दूसरे काम चल सकते हैं. फिर देखने में भी बुरी नहीं हैं. किंतु जब मैंने बारीकी से अपने को टटोला तो लगा कि नई चीज पाने वाली प्रसन्नता की गंध मेरे अंदर नहीं है. दूसरों को भले न लगे, पर स्वयं को चप्पलों की असमानता बराबर महसूस होती रहेगी- तलवे के नीचे आ गई कंकड़ी की चुभन जैसी. और यह चुभन उनका इस्तेमाल उस सहजता से न करने देगी जिस सहजता से करना चाहिए. क्या यह अपनी नजर में अपने को छोटा करना नहीं है, नामालूम ढंग से किरच-किरचकर अपने को तोड़ना? अंदर और ज्यादा उलटने-पलटने पर पाया कि एक मुद्दत से किसी-न-किसी रूप में ऎसा करता आ रहा हूं और यह मेरी मानसिकता बन चुकी है. साबुन की टिक्की डैमेज्ड वाली खरीदूंगा, चाय का चूरा खुला हुआ लूंगा, बिना डिजाइन पर ध्यान दिए कपड़ा कटपीस या रिबेट वाला उठा लाउंगा और सब्जी और दाल का चुनाव बाजार के रुख पर करूंगा.

छोटे-छोटे अभाव और समझौतों के चौखटों में अपने को फिट कर देने वाली विवशताएं मनुष्य में कितनी गठानें छोड़ जाती हैं और उसके व्यक्तित्व को कितना विरूपित कर देती हैं, यह इस बात से समझा जा सकता है कि यदि मैं अब अच्छे किस्म के कपड़े पहनूं तो मुझे अटपटा लगेगा, किसी के भव्य सजे हुए ड्राइंगरूम में घुसूं तो सोफा, मेज, स्टैंड या किसी शो-पीस से टकरा जाऊंगा, टेलीफोन का चोंगा उठाऊं तो घबड़ाहट में दूसरे की बात पूरी सुन न सकूंगा और अपनी कह न पाउंगा, और कोई कार में बैठने का सुअवसर दे तो दरवाजा खोलने वाले हैंडिल को उल्टा-टेढ़ा घुमाऊंगा.

***
लिखना मैंने सन ४७-४८ से प्रारंभ कर दिया था. मेरे पास न तो कोई साहित्यिक या सांस्कृतिक पृष्ठभूमि थी, न आसपास वैसा परिवेश या वातावरण. अपने साथियों के मुकाबले मैं पढ़ाई में पिछड़ गया था और लिखना इस हीन भावना से उबरने का शायद एक प्रयास था. एक कहानी के बाद लिखना रुक भी गया था, क्योंकि कुछ परीक्षाएं मैं स्कूल-कॉलेज में प्रवेश लिए बिना दे सकता था और तीन-चार वर्ष उनको देता रहा. इसके बाद जीवन में ठहराव आ गया था और मैंने लिखने के छोड़े हुए घागे फिर उठा लिए.

छपी मेरी पहली कहानी सन १९५१ में, जिसके प्रकाशन का उन्माद प्रथम चुंबन जैसा गहरा और छा जाने वाला था.

उन दिनों अच्छी-खासी चर्चा का विषय बने प्रभाकर माचवे और केशवचंद्र वर्मा के हास्य-व्यंग्य लेखों से प्रभावित होकर मैंने भी कुछ समय तक इस क्षेत्र में जोर-आजमाइश की. किंतु हास्य या तो मेरी मानसिकता के लिए भारी था या मेरे अंदर यह संदेश पैठ गया था कि जीवन की सारी विसंगतियों, विद्रूपताओं, समय ने नंगे खड़े कर दिए अनेक प्रश्नों और नाना जटिल गुत्थियों को विशुद्ध हास्य और व्यंग्यमयी दृष्टि से सही-सही नहीं देखा जा सकता है. मैं इस क्षेत्र से हट आया और गंभीर कहानियों की ओर फिर उन्मुख हो गया.

लेखक के रूप में भी मेरी जिंदगी गर्दिश से भरी रही है—ठंडी उपेक्षाओं, तिरस्कार और न चीन्हे जाने की सलीब पर चढ़ी हुई. जो लिखा जाए उसका मूल्यांकन हो और यदि कुछ योगदान है तो वह रेखांकित हो, हर रचनाकार की यह आकांक्षा होती है. विषम स्थितियों में भी वह जो लहूलुहान हो अथक प्रयास करता रहता है, तो केवल इसीलिए. जो यह नकारते हैं कि उनकी सर्जना का कारण यश पाना है, वे अपने चेहरे पर ’एक महान आत्मा’ का मुखौटा लगाना चाहते हैं, इस विद्रूपता के प्रति असावधान हो कि इस मुखौटे के पीछे भी यशैषणा ही होती है.

इतिहास के पृष्ठों तक जाने का रास्ता निस्संदेह बेहद बीहड़ और लंबा होता है, किंतु यदि किसी के दो-चार पग बढ़ाते ही अंधे पुलों पर से रस्से खींच लिए जाएं या बंद दरवाजों पर दी जाने वाली दस्तकों को बधिर बन अनंत काल तक अनसुना किया जाता रहे, तो क्या घोर हताशा की मनःस्थिति पथ-यात्री के लिए सांघातिक सिद्ध नहीं होगी?

सन ५५-५६ तक आते-आते मैं अपनी रचनाओं को समसामयिकता की दृष्टि से संवारता हुआ उनको ’ज्ञानोदय’, ’कल्पना’, ’कहानी’, ’धर्मयुग’ जैसी पत्रिकाओं में भेजने लगा था. उन दिनों सर्जनात्मक साहित्य पर परिचर्चाएं निकलती थीं और दो-एक पत्रिकाएं नियमित रूप से समीक्षात्मक स्तंभ देती थीं. इन परिचर्चाओं और स्तम्भों में मुझे अपनी कहानियों पर बातचीत नहीं मिलती थी. मैं अगली कहानियां और अधिक उत्साह से लिखता और प्रकाशित होने पर वैसी बातचीत के बीच अपना नाम फिर खोजता, किंतु जो नाम होते वे दूसरे. मैं इन दूसरे नामों वाली कहानियां दुबारा-तिबारा पढ़ता और उनकी विशेषताएं पकड़ने की कोशिश करता. कई कहानियों में मुझे वह कुछ नहीं मिलता जिसके कारण वे विशेष के मुकुट से मंडित की गई थीं. मैं यह भी पाता कि चर्चित होने वाले नाम अपेक्षाकृत नए हैं और जो मेरे समकालीन भी हैं, वे दौड़ में कहीं आगे निकले जा रहे हैं. मुझे छटपटाहट होती. अंदर कुछ तेज-तेज लौटता-पैटता. मैं फिर उन गले न उतरने वाली चर्चित कहानियों को स्वयं भी विशिष्ट मान लेता और अपनी कहानियों में कुछ वैसा ही तेवर, महीनपन, बुनावट लाने की उछल-कूद करता. परिणाम यह होता कि वे कहानियां अपना निजत्व खोकर चौपट हो जातीं और प्रकाशन योग्य भी नहीं रहतीं. तब मैं साहित्य की दुनिया में भी व्याप्त आपाधापी, अपनों को उठाने और गैरों को गिराने के षडयंत्र, गुटबाजी और एक हाथ से लेने व दूसरे हाथ से देने वाली काली राजनीति से परिचित न था. साहित्यकार मेरे लिए सूरदास, तुलसीदास और प्रेमचंद का वंशज था.

मोहन राकेश ने ’नई कहानियां’ के पृष्ठों पर मेरी ’खेल’ कहानी की अवश्य चर्चा की थी, किंतु वह विजन वन में दी गई अकेले कंठ की पुकार थी.

साहित्य के द्वार पर ही मरने-जीने की भावनावश मैंने ’नीहारिका’, ’माया’, ’नई सदी’ जैसी व्यक्तित्वहीन और प्रकाशन की दृष्टि से सुविधाजनक पत्रिकाओं में लिखना बिलकुल बंद कर दिया.

समय हाथ से निकलता जा रहा था. कई और नए नाम आ गए थे और कहानी के आकाश पर सितारे जैसे टंक गए थे. मेरी स्थिति अब भी राह किनारे के पत्थर जैसी थी. मानी-जानी पत्रिकाओं में प्रकाशित कहानियों की एक अच्छी-खासी संख्या पास में होते हुए भी मेरा कोई संग्रह निकल नहीं पा रहा था. यों दूसरों के बराबर आ रहे थे. आलोचक सुविधावादी होता है. एक स्थान पर उसे आलोच्य सामग्री सुलभ करा दी जाए तो वह उसमें रुचि ले सकता है.

सन ६९ तक आते-आते १४-१५ वर्ष के लेखनोपरांत भी साहित्य की दुनिया में अजनबी रहने की छटपटाहट मुझमें इतनी अधिक बढ़ गई कि बिना किसी व्यक्तिगत परिचय के मैंने इलाहाबाद के एक नए प्रकाशक को, जिसने कुछ पहचाने हुए हस्ताक्षरों की पुस्तकों का एक अच्छा सेट निकाला था, उसकी शर्तों को सर्वांग स्वीकार करते हुए ५०० रुपये भेज दिए. हताशा की मार तब और भी तीखी पड़ी जब इस प्रकाशन ने अपनी असुविधाओं और विवशताओं का औचित्य सिद्ध करते हुए संग्रह नहीं छापा और मुझे अपने उधार लेकर जुटाए गए उन रुपयों को निकालने के लिए उसके प्रकाशन की पुस्तकों की सेल्समैनी करनी पड़ी.

इस घटना से कुछ ही पहले कानपुर के कहानीकार सम्मेलन में (किसी सम्मेलन में भाग लेने का यह मेरा पहला अवसर था) मुझे शैलेश मटियानी ने सलाह दी थी कि मैं अब उपन्यास लिखूं क्योंकि उसका प्रकाशन अपेक्षाकृत सहज है और दो-एक उपन्यासों से बनी साख के आधार पर प्रकाशक मेरा कहानी-संग्रह भी निकाल सकता है.

मैं उपन्यास के क्षेत्र में जो आया तो केवल इसी लासे से खिंचा हुआ.

मैं ’गांठ’ लिख रहा था, किंतु बेहद घबड़ाया-घबड़ाया. कलेवर में लघु होते हुए भी कहानी की अपेक्षा यह लंबी चीज थी और काफी श्रम और समय देकर भी यदि प्रकाशित नहीं होती है तब? वे हिम्मत टूटने और अपने को ही अपने द्वारा हिम्मत बंधाने के दिन थे.

उपन्यास पत्रिकाओं के द्वार से तो वहां प्रवेश न पा सकने पर घूम-घूमकर लौट आया, लेकिन पुस्तक रूप में निकल गया. प्रकाशित होने पर से.रा.यात्री और कमलेश्वर ने पीठ ठोंकने वाले पत्र लिखे.

उत्साह पर चढ़ा हुआ मैंने दूसरा उपन्यास ’हत्या’ लिख डाला. इस बार राजेन्द्र यादव ने उसकी भरपूर सराहना की और उपन्यास के साथ-साथ कहानी संग्रह भी प्रकाशित करना स्वीकार कर लिया.

जब किसी को अति सामान्य सुविधाओं और छोटे-छोटे अधिकारों की प्राप्ति के लिए भी लंबा और कठिन संघर्ष करना पड़े तो किसी महती उपलब्धि के अनायास मिलने की सूचना उसे थरथराते पानी में पड़ते अक्स की तरह लगती है. उसकी अपनी संदेशशीलता ही पानी को तेज-तेज हिलाती है और अक्स अपनी सही-सही शिनाख्त नहीं दे पाता. मेरी मनःस्थिति भी कुछ ऎसी थी जब अप्रैल सन ७२ में मुझे मुंबई से राम अरोड़ा के साथ एक सज्जन महेंन्द्र विनायके का यह पत्र मिला कि वह मेरे उपन्यास ’गांठ’ पर फिल्म बनाना चाहते हैं. इन्हीं दिनों कमलेश्वर से भी इसी आशय का पत्र मिला. यात्री पहले ही सूचन दे चुके थे. मैं इस स्थिति को एक सुहावने सपने की तरह ले रहा था, पर मेरे परिवार वाले इसे सुबह का सच माने हुए थे. हर आठवें-दसवें दिन विनायके का पत्र आ जाता था जो प्रगति का सूचक होता था. मैं इस प्रगति को अपने में कैद किए हुए था, लेकिन मेरे परिवार वालों ने अपने मित्रों और मिलने वालों को इसकी बढ़ा-चढ़ाकर जानकारी देनी शुरू कर दी. वे मुझे उठाकर शायद स्वयं भी उठने के आकांक्षी थे. बाहर निकलते हुए मैं पाता—या फिर मुझे ही ऎसा लगता- कि मेरे प्रति लोगों की आंखों में एक बदला हुआ भाव है, कौतूहल की ऊष्मा से पिघला नरम-नरम, और कुछ वे जन भी मुझ किरानी को अभिवादन कर रहे हैं जो पहले मुझसे अभिवादन की अपेक्षा करते थे.

बात शर्तों को पक्के कागज पर उतारने तक पहुंच गई थी. फिर अंतराल लंबा हो गया. पूछने पर विनायके ने क्षमा मांगते हुए उत्तर भेजा कि उन्होंने अब जैनेन्द्र जी के उपन्यास ’त्यागपत्र’ पर फिल्म बनाना निश्चित किया है.

अवांछित आवाज ने नींद से जगा दिया था और सपने की रील कट गई.

मेरे साथ पहले भी कुछ ऎसे हादसे घट चुके थे. कई संपादकों ने विशेषांक के लिए सामग्री आमंत्रित कर नहीं दी थी, दो-एक समीक्षकों ने अपनी पुस्तकों के लिए कहानियों की कटिंग्स मंगवाकर उपयोग नहीं किया था और एक प्रकाशक ने अनुबंध-पत्र हस्ताक्षरित हो जाने के बाद भी निर्लज्ज बन पांडुलिपि लौटा दी थी. मैंने विनायके को लिखा कि जब-तब लोग चोटी पर ले जाकर मुझे नीचे ढकेल देते हैं . पूर्व अनुभवों से सीखकर मैंने अपने जिस्म से हड्डियां निकलवा दी हैं और आप विश्वास करिए, अब मुझे चोट नहीं लगती है.

मैंने तीसरा उपन्यास लिखना प्रारंभ कर दिया था. उन्हीं दिनों कृष्णा सोबती का नया उपन्यास ’सूरजमुखी अंधेरे में’ पढ़ा और अपने लेखन की हीनता मेरे लिए इतनी घृणित हो गई कि मैं रो पड़ा.

रोजमर्रा के दबावों, आघातों, छोटी-छोटी तृष्णाओं, अवांछित समझौतों, कटु शोषण को चुपचाप निगलने की विवशताओं --- इन सबकी पीड़ा को भुलाने के लिए व्यक्ति अपने को किसी व्यस्तता से जोड़ लेता है या फिर अपने ही कई हिस्सों में से कोई स्थल ऎसा खोज लेता है जहां से जिन्दा रहने के लिए वह खुराक लेता रहता है. किन्हीं अर्थों में यही मनुष्य की जिजीविषा होती है. मेरे लिए ऎसा स्थल मेरे बच्चे थे. वे संघर्षशील और महत्वाकांक्षी हैं, यह स्थिति मेरे लिए संतोषमय थी. कक्षाओं में वे प्रथम आ रहे थे और बराबर चढ़ते जा रहे थे. वे अद्वितीय बन सकते थे और मैं उनको बढ़ावा देता जा रहा था, कुछ इस भाव से—बढ़े चलो बहादुरों, हालांकि अविघ्न बढ़ने के लिए उनके पास उचित साज-सज्जा या आवश्यक उपकरण कुछ नहीं थे. वे सिरदर्द, थकावट, जुकाम आदि जैसी अड़चनों की जब तब शिकायत करते. मैं उनको नकार जाने के लिए कहता और वे नकार जाते.

कुछ लोग टोकते – “मगर इन बच्चों की सेहत ठीक नहीं है.”

मैं कहता – “अब ये पढ़ लें या सेहत बना लें.” फिर मैं अपने को ही समझाने के लिए इस कथन में थोड़ा लोच दे देता – “सेहत बाद में ठीक हो जाएगी, अभी पढ़ना मुख्य है.”

मेरा बड़ा लड़का रसायन शास्त्र में शोध कार्य करने लगा था. मद्रास गए हुए उसे एक वर्ष हो गया था और गर्मियों में वह कुछ दिनों के लिए आया था. मेरे दूसरे लड़के का परीक्षाफल निकला. उसने बहुत अच्छे अंकों से प्रथम श्रेणी पाई. मैं अपनी प्रसन्नता का स्वाद ले सकता था, पर तभी मेरा बड़ा लड़का मुंह से खून गिराने लगा. मैं बदहवासी में डॉक्टर के पास दौड़ा गया. उसने क्षय होने की संभावना प्रकट करते हुए एक्स-रे कराने की सलाह दी और एक्स-रे के बाद उस संभावना की पुष्टि कर दी

मैं इलाज करा रहा था और अपराध-बोध मुझे चीर रहा था कि मैं बच्चों के स्वास्थ्य के प्रति सजग क्यों नहीं रहा? जीवन सर्वोपरि है या महत्वाकांक्षा ? प्रश्न इसी के साथ यह भी उठना चाहिए था कि सजग रहने पर भी क्या मैं उनको घी,दूध, फल जैसा पौष्टिक आहार देने के लिए समर्थ था? प्रश्न यह नहीं रहा था और अपराध-बोध का आरा तेज-तेज चल रहा था.

हफ्ते-डेढ़ हफ्ते बाद मेरा दूसरा लड़का भी खाट पर आ गया. बुखार जो उसको लगा तो छूटता नहीं. दस दिन हो गए, बीस दिन हो गए, तीस दिन हो गए, पचास दिन हो गए—थर्मामीटर लगाओं और टेम्प्रेचर वही ९९.

अद्वितीय बनने के आकांक्षी इस दूसरे पुत्र को भी क्षय होने का संदेह दिलाया जाने लगा.

मेरी हालत पागलों जैसी. जलते तवे पर पड़ी पानी की बूंद जैसा मैं बदहवास. हर पल लगता कि मेरे साथ कोई भी दुर्घटना घट सकती है. यहां-वहां कहीं छिपा खड़ा खूंखार भेड़िया अंदर घुसकर किसी को जबड़े से तोड़ देगा. मेरा तीसरा बच्चा भी गिरा-पड़ा रहता. पीड़ा पर जरा-सा दबाव पड़ता और मैं भीगे कपड़े जैसा टपकने लगता. पैसा यहां-वहां से जितना जुटाता, दस-पांच दिन में स्वाहा हो जाता. आर्थिक अभाव मुझे और भी निर्ममता से तोड़ रहा था. मैंने एक प्रतिष्ठित पत्रिका के संपादक को पत्र लिखा. अपनी रचना का पारिश्रमिक भेजने के लिए उनको पहले भी लिख चुका था. इस बार स्थिति की भयावहता की जानकारी देते हुए विशेष अनुरोध किया. साहित्य से सीधे जुड़े व्यक्ति मानवीय स्तर पर संवेदनशून्य भी हो सकते हैं, मैंने इन दिनों अच्छी तरह जाना.

पत्नी ने पूजा-पाठ, व्रत-नेम का आश्रय लिया था. इन पर आस्था न होते हुए भी मैं टीका-टिप्पणी कर सकूं, उन दिनों मुझमें इतना साहस नहीं था. मैं देखता, पत्नी सिरहाने जाप कर रही है और लड़का रेडियो पर समाचार सुन रहा है. गंडा बांधा गया है और कुछ दिनों उदासीन रहकर उसने उसे उतार दिया है—उहूं! यह सब पाखंड है. मैं स्वयं आशंकित होता, पर मेरे अंदर का लेखक मुदित.

घर में घुटने तोड़कर बैठी बीमारी के कारण मैंने विरोध किया था, पर पत्नी ने त्योहार खोटा न होने देने के लिए दीवाली पर कड़ाही चढ़ाई थी और मेरे अंदर के लेखक ने उसकी जिजीविषा का आदर किया था.

मेरी ये कुछ गर्दिशें हैं. मैंने ’पटरियां’ शीर्षक एक कहानी में इस सत्य को उभारा था कि व्यक्ति के लिए उसका अपना दुःख और दर्द सबसे बड़ा होता है. मेरी से कहीं बड़ी गर्दिशें दूसरों के साथ होंगी—बहुतों के साथ. उनके साथ बने रहने वाले साये क्या मेरे से ज्यादा स्याह नहीं होंगे?

गर्दिशेदौरां मेरे साथ आगे भी रहेगा क्योंकि मैं एक निहायत मामूली आदमी हूं. अब तक मैंने अपने लेखन के लिए इन गर्दिशों को पूंजी माना है और चाहूंगा कि वे आगे भी पूंजी बनें. मैंने अपनी रचनाओं में जो कुछ भी उभारा है, वह जीवन से अलग नहीं है, क्योंकि साहित्य और जीवन के सत्य मेरे लिए कभी भी दो नहीं रहे हैं. रचना झूठी बनती है जब वह अपनी जमीन से उखड़ी होती है और फैशन का सहारा पकड़ती है, जिसके कहीं पैर नहीं होते. ’गांठ’ में मैं, मेरी पत्नी, मेरी मां और मेरे निकट के कई लोग थे—अपनी अच्छाइयों-बुराइयों के साथ, यों रचना में जज्ब होते हुए. व्यक्तिगत जीवन में अपनी दुर्बलताओं और साहसहीनता के कारण जो मैं नहीं कर पाता हूं, मेरी रचनाओं में मेरे पात्र वही करते हैं.

रचनाकार के लिए साहित्य ही ’धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र’ होता है. रथ का पहिया धंस जाने या धनुर्डोर टूट जाने पर भी मैं यहां अर्जुन की तरह अडिग रह सकूं, यह मेरी सबसे बड़ी आकांक्षा है.

***** (1974)

’जोखिम’ हृदयेश
किताबघर प्रकाशन
४८५५-५६/२४, अंसारी रोड,
दरियागंज,
नयी दिल्ली -११०००२

3 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

यह आत्मकथांश अन्दर तक हिला देता है!
इला

सुभाष नीरव ने कहा…

बहुत ही भीतर तक छू लेने वाला अंश है। पढ़ने पर स्मृतियों में वो दिन याद आये जब इसे मैंने 'सारिका' में 'गर्दिश के दिन' श्रृंखला के अन्तर्गत पढ़ा था। तब भी बहुत प्रभावित किया था इसने। अब 'ज़ोखिम' पूरा पढ़ने की इच्छा बलवति हो उठी है।

ashok andrey ने कहा…

hridyesh jee ka yeh pustak ansh behad sundar v gehre se man ko chhutaa hai, maine pehle bhee inhen padaa hai or prabhaavit hue bina nahee rahaa hoon.