शुक्रवार, 11 नवंबर 2011

वातायन- नवंबर,२०११





वातायन में इस बार ’हम और हमारा समय’ स्तंभ के अंतर्गत वरिष्ठ कवि और गज़लकार रामकुमार कृषक का आलेख प्रस्तुत है. साथ ही प्रस्तुत है वरिष्ठ कवि,कथाकार और पत्रकार अशोक आंद्रे की कविताएं और सोफिया अंद्रेएव्ना की डायरी के शेष अंश. वरिष्ठ कथाकार बलराम अग्रवाल ने पिछले दिनों खलील जिब्रान पर एक महत्वपूर्ण पुस्तक तैयार की है, जिसका एक उल्लेखनीय अंश वह वातायन में प्रकाशनार्थ देने वाले थे, लेकिन किन्हीं व्यस्तताओं के कारण नहीं दे सके. वातायन के पाठकों तक वह आलेख न पहुंचा पाने के लिए मुझे खेद है. यदि संभव हुआ तो वह अंश दिसम्बर अंक में प्रकाशित हो सकेगा.

हम और हमारा समय

अन्ना से अ-लगाव



रामकुमार कृषक

'जन-लोकपाल बिल' को लेकर गत दिनों गाँधीवादी बुजुर्ग अन्ना हजारे का आंदोलन अपने शबाब पर था। प्राय: समूचा देश आंदोलित रहा। कम से कम दृश्य और पठ्य माध्यम तो यही दिखा रहे थे। मैंने स्वयं दो-तीन बार इंडिया गेट और रामलीला मैदान तक आवाजाही की। उसी उत्साह के चलते एक-दो कलमकार साथियों को भी साथ लेना चाहा। पर नहीं। एक उनमें से इसलिए झुँझला उठे कि मैंने किंचित हँसते हुए पूछ लिया था- 'भाई, अभी तक सो रहे हो क्या!' इससे शायद उनकी लेखकीय ईगो हर्ट हुई थी, क्योंकि मेरे स्वर में कुछ व्यंग जरूर था। दूसरे कवि मित्र से जब मैंने कहा कि यार, आओ तो... देखो कि जिसे तुम भीड़ कह रहे हो, उसका हिस्सा बनकर कैसा लगता है, तो वे मेरी नासमझी पर तरस खाते हुए बोले- अरे पंडज्जी, यह तो सोचो कि अन्ना के पीछे है कौन? वही आर.एस.एस. और बी.जे.पी. या फिर इलीट क्लास के चंद पढ़े-लिखे मटरगश्त। जनता वहाँ कहाँ है? तभी मैंने उस रिक्शाचालक को याद किया, जिसने मुझे गाँधी-शांति प्रतिष्ठान की बगल से रामलीला मैदान तक अपने तयशुदा भाड़े (20 रुपए) से पाँच रुपए कम लेकर पहुँचा दिया था, क्योंकि मैं अन्ना के 'जलूस' में शामिल होने जा रहा था!

नागार्जुन अपनी एक कविता में कहते हैं-

इतर साधारण जनों से / अलहदा होकर रहो मत
कलाधार या रचयिता होना नहीं पर्याप्त है
पक्षधर की भूमिका धारण करो
विजयिनी जनवाहिनी का पक्षधर होना पड़ेगा...

माने 'पक्षधर' होना अपरिहार्य है। स्वेच्छा से नहीं हुए तो 'होना पड़ेगा', क्योंकि अगर हम 'विजयिनी जनवाहिनी' या अपने युगीन 'विप्लवी उत्ताप' की अनदेखी कर हिमालय पर भी जा बसें तो भी उसके परिधिगत ताप से बच नहीं पाएँगे।
अन्ना कोई विप्लवी या क्रांतिकारी व्यक्तित्व नहीं हैं। न वे भगतसिंह हो सकते हैं, न महात्मा गाँधी। वनांचलों में सुलगती जनक्रांति के लिए सक्रिय लोगों तक भी वे शायद ही जाना चाहेंगे। फिर भी उन्होंने भारतीय लोकतंत्र के संवैधानिक ढाँचे में रहते हुए जो कुछ किया, वह उपेक्षणीय नहीं। इसीलिए जिन सत्ताधीशों ने उनकी उपेक्षा की (और बाद में वंदना भी), वे स्वयं उपेक्षित हुए। जनबल ऐसा ही होता है। निर्बल, मगर जाग्रत जनता सदा ही महाबलियों को धूल चटाती है। 16 से 28 अगस्त, 2011 तक हमने यही देखा, और यह भी देखा कि उच्च शिक्षित जन, विद्यार्थी और ग्रामीण-कस्बाई लोग अन्ना जैसे अल्प शिक्षित और गँवई चेहरे-मोहरे वाले व्यक्ति को शिरोधार्य किए हुए थे। गाँधी अन्ना की तरह अल्प शिक्षित और ग्रामीण नहीं थे; पर ग्रामीणों जैसा बाना जरूर पहनते थे। अन्ना का बाना भी वैसा सादा नहीं है। फिर भी लोग उन्हें 'दूसरा गाँधी' कह रहे थे, और 'अन्ना' तो सबके सब हो ही गए थे, जबकि अन्ना ने स्वयं लोगों को चेताते हुए कहा- 'मैं अन्ना हूँ' की टोपी पहनकर ही आप अन्ना नहीं हो सकते! इस वाक्य के गहरे अर्थ हैं। यह बात किसी भी फैशनेबल या उत्सवधर्मी अनुयायित्व को आईना दिखानेवाली है।
यहीं हमें यह भी जानना होगा कि भ्रष्टाचार सिर्फ मौद्रिक रिश्वत का ही खेल नहीं है, बल्कि यह इस पूँजीवादी व्यवस्था में हमारे किसानों और श्रमिकों के शोषण, यानी उनके द्वारा उत्पादित पूँजी में उनकी उचित हिस्सेदारी का नहीं होना भी है। साथ ही इसका दूसरा छोर हमारी जनता के समग्र सामाजिक बोध और मनुष्य होने से जुड़ा हुआ है। किसी राष्ट्र-राज्य में भ्रष्टाचार के जितने भी रूप हैं, वे कानूनी अभाव या अक्षमता के उतने नहीं, जितने हमारी नैतिक चेतना के कुंद और कलुषित होने के परिणाम हैं। सत्ता-व्यवस्था कोई भी हो- पूँजीवादी या साम्यवादी, राजतंत्र या लोकतंत्र, उच्चतम मानव-मूल्य सब कहीं आवश्यक हैं; अन्यथा न गाँधी का रामराज्य आएगा, न माक्र्स का लोकराज्य।
भारत एक लोकतांत्रिक देश है और गणराज्य बने इसे इकसठ साल हो चुके हैं। इन छह दशकों में तरह-तरह की चुनौतियों से निबटते हुए हमने जो 'तरक्की' की है, देखा जाय तो उसी में हमारी पतनशीलता के बीज छुपे हुए हैं। विकास का पश्चिमी, पूँजीवादी मॉडल अपनाकर हमारे रंग-बिरंगे सत्ताधीशों ने जनता को जिस तरह लूटा है, उसका कोई सानी नहीं। और गत दो दशक से तो उसी पूँजीवादी विश्व द्वारा थोपी गई ग्लोबल अर्थ-व्यवस्था, यानी नव-साम्राज्यवादी लूटतंत्र के हिस्से होकर हमने जैसे सभी कुछ बहुराष्ट्रीय निगमों को सौंप दिया है। शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाएँ भी आज जनता को नसीब नहीं, जबकि सार्वजनिक संसाधानों की लूट में शामिल वर्ग के लिए सबकुछ उपलब्ध है। जाहिरा तौर पर हमारा नेतृत्ववर्ग इस मोर्चे पर भी नेतृत्वकारी है। इसे श्रमिकों की नहीं, सटोरियों की परवाह है। सेंसेक्स ही इसके उत्थान-पतन का पैमाना है। इसके भरे पेटों के सामने स्विस बैंकों की भी कोई हैसियत नहीं, क्योंकि वे इन्हीं के बल पर हैसियतदार हुए हैं। जनता के खून-पसीने और देश की धूल-मिट्टी से सना पैसा इनके नामी-बेनामी खातों में पहुँचकर न जाने किस जादूगरी से स्वर्ण-मुद्राओं में तब्दील हो जाता है! बेशक उस जादूगरी या कानूनी-गैरकानूनी मकड़जाल से हम परिचित न हों, लेकिन जादूगरों को इस देश की जनता जरूर पहचानने लगी है।
ध्यान से देखा जाय तो पहचानने की इस प्रक्रिया के दो परिणाम दिखाई देते हैं। एक, आदिवासी बहुल लाल गलियारे में सशस्त्र नक्सलवादी जनांदोलन और दूसरा, अन्ना हजारे के 'इंडिया अगेंस्ट करप्शन' जैसे जनतांत्रिक आंदोलन। मार्क्सवादी दर्शन में ऐसे आंदोलन को सत्ता-समर्थित 'सेफ्टी वाल्व' कहा गया है, यानी जनता के भीतर सुलगते गुस्से और क्रांतिकारी व्यवस्था-परिवर्तन की आग को ठंडा करना। सच है, सत्ताएँ कई बार ऐसा करती हैं, लेकिन अंतत: दोनों की मिली-भगत सामने आ ही जाती है। कहने की आवश्यकता नहीं कि अन्ना-आंदोलन के संदर्भ में ऐसी कोई आशंका नजर नहीं आती। हमारी विधायिका और कार्यपालिका के भ्रष्टाचरण को भारत की सर्वोच्च न्यायपालिका ने बार-बार लक्षित किया है। मीडिया भी इस मामले में पीछे नहीं है, बेशक बाजार ही उसकी प्राथमिकता है। इसलिए अगर राजनीतिक और प्रशासनिक क्षेत्र में फैले भ्रष्टाचार या व्यवस्थाजन्य अन्य कदाचारों के विरुद्ध जनता का आक्रोश किसी गैर-सरकारी संगठन के पीछे लामबंद होता है तो जरूरी नहीं कि उसका अंतिम नतीजा नकारात्मक ही हो।
वैसे भी अगर हम 'जन-लोकपाल बिल' के प्रस्तावित प्रावधानों को देखें तो उनमें कुछ जोड़ा ही जा सकता है। मसलन, एन.जी.ओ. और कार्पोरेट क्षेत्र का भ्रष्टाचार और उन पर निगरानी। 'जन-लोकपाल बिल' के प्रारूप में इनको शामिल न किया जाना अन्ना-टीम को कठघरे में खड़ा करता है, और इसकी आलोचना हुई है। उम्मीद है, उसके संशोधित प्रारूप में ये दोनों क्षेत्र अनिवार्य रूप से शामिल होंगे। इनके अतिरिक्त बिल की शेष धाराओं या उसके कार्यकारी स्वरूप में ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसे संसदीय लोकतंत्र के लिए 'खतरनाक' कहा जाय। खतरनाक तो लोकतंत्र के लिए जन-प्रतिनिधियों से जनता का विश्वास उठ जाना है; और यह विश्वास सब कहीं टूटा है। गाँवों से लेकर शहरों तक सत्ता और पूँजी का मजबूत गँठजोड़ कायम है; और लोग बेबस हैं। अन्ना कहते हैं कि लोकतंत्र में लोक की ही अनदेखी हो रही है। हर जगह उसे किनारे कर दिया गया है। इस संदर्भ में उनकी दो अवधारणाओं पर विचार करें- 'जन-संसद' और 'ग्रामसभा'। हम सभी जानते हैं कि संसद की सर्वोच्चता या संसदीय गरिमा को सांसद ही भंग करते आए हैं-जनता नहीं- चाहे वे किसी भी दल के हों। वामपंथी दलों को अवश्य इससे कुछ अलग रखना होगा। यहाँ 'जन-संसद' का आशय अन्ना-टीम जैसे लोगों से नहीं है, बल्कि इस देश की समूची जनता से है, जो कि अपने मताधिकार से भारतीय संसद को सप्राण करती है। इसलिए संसद को जनता की आवाज के दायरे में होना ही चाहिए। इस पद का यही आशय है। दूसरा पद है- 'ग्रामसभा'। कहा जा सकता है कि हमारे गाँवों में निर्वाचित ग्राम-पंचायतें हैं तो। लेकिन तथ्य यह है कि उनके सदस्य या पंच प्रधान प्रेमचंद के 'पंच परमेश्वर' नहीं रह गए हैं, बल्कि उनका आचरण जूनियर सांसदों और विधायकों जैसा है। पैसा, पावर और जातिवादी राजनीति ने उन्हें पूरी तरह भ्रष्ट कर दिया है। दूसरे शब्दों में कहा जाय तो हमारी ग्राम-पंचायतें राष्ट्रीय और प्रादेशिक राजनीति तथा स्थानीय प्रशासनिक निकायों के स्वार्थों की ही पूर्ति करती हैं, व्यापक जनहित से उन्हें कोई मतलब नहीं। जन-कल्याण के नाम पर आया पैसा वोट बैंक के हिसाब से खर्च हो जाता है। गाँव-देहात के लिए, खेत-खलिहानों के लिए कानूनों का निर्माण वैभवशाली गुंबदों में बैठे वे लोग करते हैं, जो कि जनता द्वारा ही पंचसाला भोग के लिए अधिकृत कर दिए जाते हैं। दूसरे शब्दों में, हमारी जनता अपने ही वोट से अपना सबकुछ हार जाती है। कविता में कहा जाय तो संसदीय जनतंत्र की एक परिभाषा यह भी है-
वोट हमारा हार हमारी जीत-जश्न उनके
द्यूतसभा शकुनी के पासे बिछी बिसातें हैं

जाहिर है, ऐसे जनतंत्र का या तो खात्मा होगा या वह सुधरेगा। इसलिए अन्ना अगर संसद और प्रशासन को जनता के प्रति ज्यादा उत्तरदायी बनाने की बात करते हैं, तो रास्ता यह भी है। असल में तो जन-लोकपाल बिल में शामिल माँगों को सत्ता के जनोन्मुखीकरण की तरह देखा जाना चाहिए। चुनाव-सुधारों को लेकर 'राइट टु रिजेक्ट' और 'राइट टु रिकॉल' जैसी माँगों का भी यही मतलब है। चुनाव-खर्च के लिए अकूत धन जुटाने का मसला भी इसी से जुड़ा हुआ है। हमने देखा ही कि जन-लोकपाल बिल के सिर्फ तीन जरूरी प्रावधानों की अनिवार्यता को लेकर सत्ता पर काबिज चौपड़बाजों ने किस कदर गोटियाँ चलीं। ऐसे में पूरे के पूरे 'जन-लोकपाल बिल' का क्या हश्र होगा, इसकी भी कल्पना की जा सकती है।
अंतत: मैं फिर से शुरुआत की ओर लौटना चाहता हूँ। केदारनाथ अग्रवाल की एक कविता 'घन-गर्जन' की कुछ पंक्तियाँ हैं-

लेखनी गर्दन झुकाए / सिर कटाए
कायरों की गोद में ही झूल जाए
यह न होगा
लेखनी से यह न होगा
फूल बोएँ / शूल काटें / पेट काटें
रोटियाँ रूठी रहें हम धूल चाटें
यह न होगा
लेखनी से यह न होगा
जिंदगी की आन हारें / ज्ञान हारें
आँसुओं से आग के कुंतल सँवारें
यह न होगा
लेखनी से यह न होगा...

इसके बाजवूद विडंबना ही है कि हमारी प्रगतिशील और जनवादी लेखक बिरादरी ने अन्ना-आंदोलन से सुरक्षित दूरी बनाए रखी। संदेह और तर्कशीलता भले ही बुद्धिजीवियों की खास पहचान है, पर अगर यह पहचान जनता में उन्हें ही अपरिचित बनाए रखे, तो किस काम की। इसी के चलते कहा जाता है कि लेखक वाकई किसी दूसरी दुनिया का जीव होता है। दिल्ली में ही अनेकानेक वरिष्ठतम लेखकों की मौजूदगी है; प्रलेस, जलेस, जसम जैसे संगठन भी हैं, पर न कहीं कोई लेखक व्यक्तिगत तौर पर दिखा और न सांगठनिक स्तर पर किसी की राय सामने आई। ऊपर से रोना यह कि हिंदी समाज में लेखक की कोई हैसियत नहीं। अंग्रेजी में अरुंधती राय हैं, जो विरोधद में ही सही, बोलती तो हैं। यहाँ तो चुप्पी ही शायद सबसे ऊँची आवाज है! हाँ, एक आवाज हिंदी में दलित लेखकों की जरूर है, जो अक्सर ही अलग बोलते हैं। उन्हें संसद की उतनी नहीं, जितनी संविधान की चिंता है, जो उनके लिए किसी बाइबिल से कम नहीं, जबकि उसी ने उसमें संशोधान का अधिकार भी संसद को दिया है। बाबा साहेब अंबेदकर ने संविधान में यह कहीं नहीं लिखा कि जनता के वोट से चुनकर संसद में आए सांसद जनता की ही अनदेखी करें। दरअसल संविधान, संसद और जनता परस्पर पूरक की तरह हैं, न कि प्रतियोगी या प्रतिद्वंद्वी। इसके बावजूद संसदीय जनतंत्र, बल्कि संविधान को भी नकारनेवाली ताकतें हमारे यहाँ सक्रिय हैं, और उनके कुछ वाजिब तर्क हैं; और अगर आज वे हमारी जनता को सहज स्वीकार्य नहीं हैं, तो जरूरी नहीं कि कल भी स्वीकार्य न हों।
अन्ना हजारे गाँधीवादी हैं। चिंतक नहीं, सत्याग्रही। बल्कि गाँधी जैसे सत्याग्रही और अहिंसावादी भी नहीं। ठेठ किसानी अंदाज में बोलते हैं। मुहावरेदार बोली-बानी में - माल खाए मदारी और नाच करे बंदर! या फिर - भगवान को मानता हूँ, मंदिर को नहीं! अथवा- कुछ लोग इसलिए जी रहे हैं कि क्या-क्या खाऊँ और कुछ इसलिए कि क्या खाऊँ! जनता इस भाषा को खूब समझती है। शोषणकारी सिद्धांत और प्रक्रिया को नहीं समझती। तालियाँ बजाती है। नारे लगाती है। और संसद में बैठे मदारी बगलें झाँकते हैं। यह एक दृश्य है, जिसे किसी फिल्मांकन की जरूरत नहीं। ऐसे में हम वहाँ नहीं होंगे तो कोई और होगा। भाजपा, आर.एस.एस. वगैरह। अन्ना की नहीं, सोनिया की सत्ता पलटने आएँगे वे -कोढ़ में खाज की तरह। दूसरी ओर हम हैं, जो मरहम होने का दावा करते हैं, लेकिन जनता के घावों को देखना तक नहीं चाहते। माना कि अन्ना के साथ गाँव-देहात की जनता नहीं थी, लेकिन महानगरों में जो 'जनता' है, उसमें क्या हमारे गाँव शामिल नहीं हैं? फिर मध्यवर्ग में भी बढ़ोत्तरी हुई है। उसमें भी किसानों और मजदूरों की कुछ हिस्सेदारी है। गाँव के गाँव उजड़कर शहरों में चले आ रहे हैं। लेकिन उनमें हमारी कोई दिलचस्पी नहीं। पढ़ा-लिखा शहरी मध्यवर्ग ही हमारे लिए मध्यवर्ग है, जबकि उसकी उच्च-मधयवर्गीय-या पूँजी-केंद्रित महत्वाकांक्षाओं को हम लगातार अनदेखा करते हैं, क्योंकि वही हमारा भी आईना है। सच तो यह है कि मार्क्सवादी कहलाने से ज्यादा डर हमें गाँधीवादी कहलाने से लगता है, पर सच यह भी है कि मार्क्स हमारे जीवन-व्यवहार की नैतिक और सामाजिक परिधि में आज भी शामिल नहीं हैं; अन्यथा क्या वे हमें हमारी जनता के बीच जाने से रोक देते? अगर वह प्रतिगामियों के फेर में है तो भी, और नहीं है तो भी। आखिर भटकावों में सही दिशा देने की जिम्मेदारी भी हमारी ही होनी चाहिए; और यह जनता से दूर रहकर नहीं हो सकता।
संदर्भ बेशक श्रम-संबद्धता का है, लेकिन 1975 में एक साक्षात्कार के दौरान रूसी-हिंदी विद्वान डॉ. पी. बरान्निकोव ने मुझसे कहा था- ''मुझे लगता है, आपके साहित्यकार श्रेष्ठता-बोध के शिकार हैं। समाज से ऊपर हैं जैसे, समाज में नहीं हैं। फिर जो आपका लोकतंत्र है, उसमें पूँजी का महत्व है, श्रम का नहीं। इससे जो कल्चर बन रही है, वह अलगाव की है, एकता की नहीं है। तो इसका प्रभाव लेखकों पर भी है। वे जनता से दूर जा रहे हैं। प्रेमचंद जैसे जानते थे अपने लोगों को, वे नहीं जानते। या जानने से बचते हैं कि कहीं बड़े लोगों का तबका उन्हें छोटा न समझने लगे!''-कहा उन्होंने', पृ.-167

(‘अलाव’ सितम्बर-अक्टूबर, २०११ से साभार)
संपर्क – ’अलाव’
संपादक – रामकुमार कृषक
सी-३/५९, नागार्जुन नगर, सादतपुर विस्तार,
दिल्ली – ११००९४
मो. ०९८६८९३५३६६
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हवा के झोंकों में
अशोक आंद्रे

रात्री के दूसरे पहर में

स्याह आकाश की ओर देखते हुए

पेड़ों पर लटके पत्ते हवा के झोंकों पर

पता नहीं किस राग के सुरों को छेड़ते हुए

आकाश की गहराई को नापने लगते हैं

उनके करीब एक देह की चीख

गहन सन्नाटे को दो भागों में चीर देती है

और वह अपने सपने लिए टेड़े-मेड़े रास्तों पर

अपनी व्याकुलता को छिपाए

विस्फारित आँखों से घूरती है कुछ

फिर अपने चारों और फैले खालीपन में

पिरोती है कुछ शब्द

जिन्हें सुबह के सपनों में लपेटकर

घर के बाहर ,

जंगल में खड़े पेड़ पर

टांग देती है हवा, पानी और धूप के लिए

तभी ठीक पास बहते पानी की सतह पर

कोई आकृति उसके जिस्म में पैदा करती है सिहरन

तभी अपने को समेटते हुए एक ओर खड़ी होकर

ढूँढने लगती है कोई सहारा

मानो इस तरह वह अपनी देह के साथ

अपनी कोख को आहत होने से बचाने के लिए

अपने ही पैरों से कुछ रेखाओं को खींच कर

किसी अज्ञात का सहारा ले रही हो

तभी घबराहट में उसके बाल हवा में लहरा जाते हैं

जिन्हें बांधने का असफल प्रयास किया था उसने

जिन्हें बिखरा,उसके चेहरे को

ढक दिया था किसीअन्य देह ने

ताकि उसकी कोख को

जमीन छूने से पहले झटक सके अपने तईं.

उधर पानी की शांत लहरें

उसके बुझे चेहरे पर सवालों की झरी लगा देती हैं

जो फफोलों में बदल कर लगते हैं भभकने.

अनुत्तरित जंगल खामोश दर्शक की तरह

अपनी ही सांसों में धसक जाता है

तभी मूक हंसी लिए ओझल हो जाती है वह देह कहीं दूर

छोड़ जाता है उसे उसके ही अकेलेपन के
घने कोहरे के मध्य
शायद यही हो सृष्टी के अनगढ़ स्वरूप की कर्म स्थली
नया आकार देने के लिए उसको
शायद इसीलिए जंगल ने भी
हवा के झोंकों में खो जाना ज्यादा सही समझा
शायद इसीलिए वह फिर नये सिरे से
जमीन को कुरेदने लगी है
अपने ही पाँव के अंगूठे से
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दो

पानी का प्रवाह
जो पूर्ण है
उसे व्यक्त करना
अथवा उसकी ओट से

विध्वंस की भावनात्मक सोच का
विस्तार करना
किस दिशा की ओर इंगित करता है-
कहीं यह सत्य का विखंडन करना तो नहीं?
उसके प्रवाह को रोकना सत्य हो सकता है क्या ?
सत्य तो परावर है
जिस तरह पहाड़ों से नीचे की ओर
आता पानी
भविष्य को निर्धारित कर जाता है
जैसे ठीक बरसात के बाद
सूखी जमीन पर फैली घास को छू कर
पानी का प्रवाह
विस्तार कर जाता है ईश्वरीय सत्ता का.
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जन्म-०३-०३-५१ (कानपुर) उ.प.
अब तक आधा दर्जन पुस्तकें प्रकाशित.
सम्मान -१, हिंदी सेवी सहस्त्राब्दी सम्मान (२००१)
२, हिंदी सेवी सम्मान (जैमिनी अकादमी) , हरियाणा
३, आचार्य प्रफुल राय स्मारक सम्मान, (कोलकता )
४, नेशनल अकेडमी अवार्ड २०१० फॉर आर्ट एंड लिटरेचर ( एकेडमी ऑफ़ बंगाली पोएट्री , कोलकता.

विशेष- "साहित्य दिशा" साहित्य द्वैमासिक पत्रिका तथा न्यूज़ ब्यूरो ऑफ़ इंडिया में मानद साहित्य सलाहकार सम्पादक के रूप में कार्य किया.

लगभग सभी राष्ट्रिय पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित हो चुकीं हैं

सोफिया अंद्रेएव्ना की डायरी

सोफिया अंद्रेएव्ना की डायरी के शेष अंश


जनवरी १४, १८९९

हमने एक खूबसूरत शाम बितायी. लेव निकोलायेविच ने हमें चेखव की दो कहानियां सुनाईं -- ’डार्लिंग’ और दूसरी आत्महत्या के विषय में , जिसका नाम मैं भूल चुकी हूं, लेकिन मैं कहूंगी कि अपनी प्रकृति में वह निबन्ध अधिक थी.

जनवरी १७, १८९९

लेव निकोलायेविच ने म्यासोयेदोव और बत्यर्स्काया जेल के जेलर का स्वागत किया, जिन्होंने जेल से संबन्धित तकनीकी पक्ष , कैदियों और उनके जीवन आदि के विषय में बहुत-सी सूचनाएं उन्हें प्रदान कीं. ’रेसरेक्शन’ के लिए यह सामग्री बहुत महत्वपूर्ण है.

जून २६, १८९९

लेव निकोलायेविच ने एक ’स्नैग’ पर प्रहार किया : रेसरेक्शन में सीनेट ट्रायल का एक दृश्य. उन्हें एक ऎसे व्यक्ति की तलाश है जो सीनेट की बैठकों के विषय में बता सकता हो, और प्रत्येक के साथ अपनी मुलाकात को मजाक में कह सके. " मेरे लिए एक सीनेटर खोज दो." यह ऎसे ही है जैसे लेव निकोलायेविच दूर चले गये हैं: वह अकेले, पूरी तरह अपने काम में डूबे रहते हैं, अकेल टहलने जाते हैं, अकेले बैठते हैं, आधा भोजन समाप्त होने के समय नीचे आ जाते हैं, बहुत कम खाते हैं और पुनः गायब हो जाते हैं. कोई भी देख सकता है कि उनका मस्तिष्क पूरे समय व्यस्त रहता है और किसी न किसी तरह यह उनकी शुरूआत है. वह बहुत कठोर श्रम कर रहे हैं.

दिसम्बर ३१, १८९९

१४ नवम्बर को, हमारी तान्या का विवाह मिखाइल सेर्गेई सुखोतिन से हुआ. हमने, उसके मां-पिता (तान्या के) ने उतना ही दुखी अनुभव किया जितना वान्या की मृत्यु पर किया था. लेव निकोलायेविच ने जब तान्या को गुडबॉय कहा तब वह रो पड़े थे----- वह इस प्रकार बिलख रहे थे मानो उनके जीवन का अत्यन्त प्रिय उनसे अलग हो रहा था.

तान्या का अभाव लेव निकोलायेविच को इतना खला और वह इतना अधिक रोये कि अंततः २१ नवम्बर को पेट और लिवर में तेज दर्द से वह बीमार हो गये. लगभग छः सप्ताह व्यतीत हो चुके हैं. अब वह स्वस्थ हो रहे हैं.

नवम्बर १३, १९००

तान्या और उसका पति हमसे मिलने आये. लेव निकोलायेविच इतना प्रसन्न हुए कि उन्हें अपनी आंखों पर विश्वास न करते हुए कहा, "तो तुम आ गयी ? यह अप्रत्याशित है ."

नवम्बर २४, १९००

लेव निकोलायेविच एक पागलखाने के विक्षिप्तों के लिए आयोजित संगीत समारोह में उपस्थित रहे.

दिसम्बर ७, १९००

लेव निकोलायेविच ग्लेबोव में आन्द्रेमेन द्वारा आयोजित २३ ब्लालाइका (गिटार की तरह का एक तिकोना रूसी तीन तारा वाद्ययंत्र) बजाने वालों के संगीत समारोह में आमंत्रित थे. उनके ऑर्केस्ट्रा में अन्य लोक वाद्ययंत्र यथा -- ’झेलीका’ और ’गुस्की’ भी शामिल थे.

यह बहुत मनोहर था, विशेषरुप से रूसी गायन, और शुमन वाल्ज वारम (Shumann Waltz Warum) भी. लेव निकोलायेविच ने उन्हें सुनने की इच्छा व्यक्त की और विशेषरूप से उनके लिए समारोह की व्यवस्था की गई थी.

फरवरी १२, १९०१

हमने अपने घर में ९ को एक संगीत समारोह का आयोजन किया ---- जब अतिथिगण चले गये और लेव निकोलायेविच ड्रेसिंग गाउन पहन चुके और सोने के लिए जाने ही वाले थे, कि विद्यार्थियों, कुछ युवतियों और क्लिमेन्तोवा-मरोम्त्सेवा (जो ड्राइंग रूम में ठहरी हुई थीं) ने रूसी, जिप्सी और कामगारों के गीत गाना प्रारंभ कर दिया. वे हंस रहे थे और नाच रहे थे ---- लेव निकोलायेविच उनका उत्साह बढ़ाते हुए और अपनी पसंदगी व्यक्त करते हुए एक कोने में बैठ गये थे. वह उनके साथ लंबे समय तक बैठे रहे थे.

मार्च ६, १९०१

कई घटनाओं के दौरान हम जन-सामान्य की भांति रहे बजाय घरेलू ढंग से रहने के . २४ फरवरी को चर्च से लेव निकोलायेविच का बहिष्करण संबन्धी समाचार सभी समाचार पत्रों में प्रकाशित हुआ . फरमान को उच्चवर्ग ने रोष और सामान्यजन ने आश्चर्य और असंतोषपूर्वक ग्रहण किया. तीन दिनों तक लेव निकोलायेविच के सम्मान में जय-जयकार की जाती रही. ताजे फूलों से भरे टोकरे घर लाये जाते रहे, और उन पर तारों, पत्रों और संदेशों की वर्षा होती रही. लेव निकोलायेविच के प्रति सहानुभूति व्यक्त करने और धर्म-सभाओं और आर्कबिशप के विरुद्ध रोष अभी तक समाप्त नहीं हुआ. उसी दिन मैंने एक पत्र लिखा और उसे पोबेदोनोत्सेव और विशप को भेजा. उसी रविवार, २४ फरवरी, को लेव निकोलायेविच और दुनायेव की लुव्यान्स्काया स्क्वायर पर अकस्मात भेंट हो गयी, जहां हजारों की संख्या में लोग एकत्रित थे. एक ने लेव निकोलायेविच को देख लिया और बोला, "वह जा रहा है, मनुष्य के रूप में शैतान." बहुत से लोगों ने मुड़कर देखा और लेव निकोलायेविच को पहचानकर चीखने लगे , "लेव निकोलायेविच -- हुर्रा---- लेव निकोलायेविच हुर्रा. अभिवन्दन , लेव निकोलायेविच. महान व्यक्ति को सलाम, हुर्रा."

भीड़ बढती गयी, आवाजें ऊंची होती गईं. घबडाये हुए कोचवान ने गाड़ी रोक दी.

अंत में एक छात्र गाड़ी के निकट आया. लेव निकोलायेविच और दुनायेव की उतरने में उसने सहायता की. भीड़ देखकर एक सशस्त्र घुड़सवार पुलिस वाला आगे बढ़ा, घोड़े की लगाम पकड़ उसे रोका और हस्तक्षेप करते हुए उसने उन्हें वापस गाड़ी में बैठा दिया.

कई दिनों तक मेरे घर में सुबह से शाम तक आने वालों की भीड़ के कारण उत्सवजनित कोलाहल होता रहा.

मार्च २६, १९०१

एक महत्वपूर्ण दिन. लेव निकोलायेविच ने”जार और उनके एड्जूटेण्ट’ के नाम एक पत्र भेजा.

मार्च ३०, १९०१

कल की बात है. हमने रेपिन के साथ खुशनुमा शाम व्यतीत की . उन्होंने कहा कि सेण्टपीटर्सबर्ग में पेरेद्विझिनिकी प्रदर्शनी में, जहां उन्होंने लेव निकोलायेविच का पोट्रेट प्रदर्शित किया हुआ है (अलेक्जेण्डर तृतीय म्यूजियम में ) वहां दो डिमांस्ट्रेशन हुए थे. पहले में अनेकों लोगों ने पोट्रेट के सामने फूल चढ़ाए थे. गत रविवार, २५ मार्च, १९०१ को , दूसरे में एक बड़ी भीड़ एक बड़े प्रदर्शनी कक्ष में एकत्र हुई थी. एक छात्र ने एक कुर्सी पर खड़े होकर पोट्रेट के फ्रेम के चारों ओर फूलों का गुलदस्ता रखा, फिर उसने प्रशंसापूर्ण भाषण दिया, जिसके बाद भीड़ चीखकर हुर्रा बोली और, मानों स्वतः, फूलों की वर्षा हुई. परिणामस्वरुप पोट्रेट को उतार लिया गया और उसे मास्को में प्रदर्शित नहीं किया जायेगा. अन्य प्रदेशों के विषय में कुछ नहीं कहा गया.

जुलाई ३, १९०१

जून २७ की रात लेव निकोलायेविच अस्वस्थ हो गये------ आज उन्होंने मुझसे कहा, "मैं अब चौराहे पर खड़ा हूं, और आगे जाने वाला मार्ग (मृत्यु की ओर) अच्छा है, और पीछे (जीवन) का भी अच्छा था. यदि मैं अच्छा हो जाता हूं, तो यह केवल विलम्बन ही होगा." वह रुके, सोच में डूब गये, और फिर बोले, "लोगों से कहने के लिए अभी भी मेरे पास बहुत कुछ है."

जब हमारी बेटी माशा उनके लिए उनका बिल्कुल हाल में लिखा आलेख, जिसकी प्रतिलिपि एन.एन.घे ने अभी-अभी तैयार की थी, उन्हें दिखाने के लिए लेकर आयी, उसे देखकर वह ऎसा प्रसन्न हुए जैसे एक शय्यासीन बीमार मां अपने प्रिय नन्हें बच्चे को लाये जाने पर होती है. उन्होंने तुरंत घे से कहा कि वह उसमें किंचित परिवर्तन करें. कल उन्होंने दूर के एक गांव में अग्निकांड के शिकार लोगों के प्रति अपना विशेष सरोकार प्रकट किया, जिनके लिए उन्होंने कुछ दिन पहले मुझसे पैंतीस रूबल लिये थे, और जानना चाहा कि क्या कोई यहां आया था. उन्होंने मुझसे पूछा कि उनमें से क्या कोई सहायता के लिए आया था !.

जुलाई २२, १९०१

लेव निकोलायेविच अब स्वस्थ हो रहे हैं.

कल शाम तुला से हमें एक पत्र प्राप्त हुआ, जिसे निकोलई ओबोलेन्स्की ने हमारे लिए पढ़ा. वे सभी लेव निकोलायेविच के स्वास्थ्य-लाभ से प्रसन्न थे. उन्होंने उन्हें सुना, हंसे और बोले, "यदि पुनः मेरे मरने के लक्षण प्रकट हों, तो मुझे इस सबसे एक बार फिर गुजरना होगा. इस बार यह मूर्खों जैसा व्यवहार नहीं होगा. यह सब पुनः प्रारंभ होना, झुण्ड का झुण्ड लोगों, संवाददाताओं, पत्रों और तारों का आना, मेरे लिए शर्मनाक होगा---- सब छोटी-सी बात के लिए. नहीं, यह असंभव होगा. पूर्णतया अशोभन------."

----- कल, जब लेव निकोलायेविच ने कहा कि यदि वह दोबारा बीमार पड़ें, वह एक शालीन मृत्यु चाहेंगे. मैंने टिपणी की, ’वृद्धावस्था उकताऊ होता है. मैं भी जल्दी ही मर जाना चाहूंगी." इस पर लेव निकोलायेविच ने प्रबल विरोध करते हुए कहा, "नहीं, हमें जीवित रहना है. जिन्दगी इतनी अद्भुत है."

दिसम्बर ९, १९०१ (क्रीमिया, गास्वरा)

लेव निकोलायेविच के लिए हम सितम्बर ८, से यहां रह रहे हैं, लेकिन उनके स्वास्थ में अधिक सुधार नहीं है.

दिसम्बर २३, १९०१

लेव निकोलायेविच अब बेहतर हैं. आज वह लंबी दूरी तक टहले और सीढि़यां चढ़कर मैक्सिम गोर्की से मिलने गये.

जनवरी १६, १९०२

जार निकोलस द्वितीय को लिखे लेव निकोलायेविच के पत्र को तान्या ने फेयर किया और उसे ग्रैण्ड ड्यूक निकोलई मिखाइलोविच को डाक से भेज दिया. निकोलई मिखाइलोविच ने वायदा किया था कि परिस्थितियां अनुकूल देखकर वह उसे जार को दे देंगे. यह एक तीखा पत्र है.

जनवरी २५, १९०२

निदान में बायें फेफड़े में सूजन पता चली है. यह दाहिने में भी फैल चुकी है. इस समय हृदय भी भलीभांति काम नहीं कर रहा है.

जनवरी २६, १९०२

मेरे लेव निकोलायेविच मर रहे हैं ---- उन्होंने ये पंक्तियां कहीं किसी दिन पढ़ी थीं, "बूढ़ी औरत तड़प रही है, बूढ़ी औरत खांस रही है, बूढ़ी औरत के लिए यह उचित समय है कि वह अपने कफन में सरक जाये." वह जब इन पंक्तियों को दोहरा रहे थे तब उन्होंने इशारा किया कि उनका संकेत अपनी ओर ही था और उनकी आंखों में आंसू आ गये. फिर उन्होंने कहा, "मैं इसलिए नहीं रो रहा हूं कि मुझे मरना है, बल्कि मृत्यु की सुन्दरता पर रो रहा हूं."

जनवरी २७, १९०२

आज मैं उनके पास गयी ---- और पूछा, "आप कष्ट में हैं ?" "नहीं, मैं बिल्कुल ठीक हूं " उन्होंने कहा. माशा बोली, "पापा, अच्छा महसूस नहीं कर रहे, नहीं ?" और उन्होंने उत्तर दिया, "शारीरिकरूप से बहुत खराब, लेकिन मानसिक तौर पर -- अच्छा, सदैव अच्छा ----." हमारे प्रति उनका व्यवहार सुखद और स्नेहमय है. ऎसा प्रतीत होता है कि हमारी देखभाल से वह प्रसन्न हैं, जिसके लिए वह कहते रहते हैं "शानदार, अत्युत्तम."

जनवरी ३१, १९०२

कल उन्होंने तान्या से कहा, "उन्होंने एडम वसील्येविच (काउण्ट ओल्सूफ्येव) के विषय में क्या कहा ----- वह सहजता से मर गये थे. मरना इतना आसान नहीं है, यह बहुत कठिन है. इस सुविदित मनोदशा को निकाल देना कठिन है." उन्होंने अपने कृशकाय शरीर की ओर इशारा करते हुए कहा था.

फरवरी ७, १९०२

उनकी स्थिति लगभग, कहा जाय यदि पूरी तरह से नहीं, तो भी निराशाजनक है. सुबह से उनकी नब्ज हल्की है और उन्हें कपूर के दो इंजेक्शन दिए गये ----- लेव निकोलायेविच ने कहा, "तुम लोग मेरे लिए अपना सर्वोत्तम कर रहे हो----कैम्फर और बहुत कुछ दे रहे हो---- लेकिन मैं फिर भी मर रहा हूं."

एक और समय, उन्होंने कहा, "भविष्य की ओर देखने का प्रयत्न मत करो, मैं स्वयं कभी ऎसा नहीं करता."

फरवरी २०, १९०२

लेव निकोलायेविच अधिक प्रसन्न हैं. कल उन्होंने डॉ. वोल्कोव से कहा था ,"मुझे प्रतीत होता है कि मैं अभी रहने वाला हूं" मैंने उनसे पूछा, "आप जीवन से हतोत्साहित क्यों हैं ?" और अचानक उन्होंने उत्साहपूर्वक उत्तर दिया "जीवन से हताश ? कोई कारण नहीं ! मैं बेहतर अनुभव कर रहा हूं. " शाम को उन्होंने मुझे लेकर चिन्ता प्रकट की . मैंने कहा मैं थकी हुई हूं. मेरा हाथ दबाते और स्नेहपूर्वक मेरी ओर देखते हुए उन्होंने कहा, "प्रिये, तुम्हे धन्यवाद, मैं बहुत अच्छा अनुभव कर रहा हूं."

फरवरी २८, १९०२

आज उन्होंने तान्या से कहा, "लंबे समय के लिए बीमार पड़ना अच्छा है. यह किसी को मृत्यु के लिए अपने को तैयार करने के लिए एक समय देता है."

फिर, पुनः वह तान्या से बोले, "मैं हर बात के लिए तैयार हूं. जीने के लिए तैयार हूं, और मरने के लिए भी तैयार हूं."

मार्च ११, १९०२

लेव निकोलायेविच स्वस्थ हो रहे हैं---- उन्होंने कहा, "मैं एक कविता रच रहा हूं. पंक्तियां इसप्रकार हैं :

"मैं सब जीत लूंगा, सोना बोला."

मैंने उसे इस प्रकार व्यक्त किया :

"मैं कुचल और तोड़ दूंगा, सामर्थ्य बोला,
मैं पुनर्चना कर दूंगा, मस्तिष्क बोला."

जून २२, १९०२ (यास्नाया पोल्याना )

आज हम क्रीमिया से घर वापस लौट आए.

अगस्त ९, १९०२

लेव निकोलायेविच ’हाजी मुराद’ लिख रहे हैं और आज अच्छी प्रकार काम नहीं हुआ, ऎसा प्रतीत होता है. वह लंबे समय तक एकांतवास में बैठे, जो इस बात का संकेत है कि उनका दिमाग व्यस्त है और वह अभी तक नहीं समझ पाये कि वह क्या चाहते हैं.

अगस्त ११, १९०२

लेव निकोलायेविच ने कहा कि लेस्कोव ने कहानी के लिए उनका ’प्लाट’ लिया, उसे तोड़ा-मरोड़ा और प्रकाशित करवा लिया. लेव निकोलायेविच का ’आइडिया’ इस प्रकार था : एक लड़की से बताने के लिए कहा गया कि सर्वाधिक महत्वपूर्ण व्यक्ति कौन है, सर्वाधिक महत्वपूर्ण समय क्या है, और किस काम को सबसे महत्वपूर्ण समझती है. कुछ सोच-विचार के बाद उसने उत्तर दिया, इस क्षण सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति आप हैं, वर्तमान समय सबसे महत्वपूर्ण है, और इस क्षण आप जो काम कर रहे हैं, वही अच्छा और महत्वपूर्ण काम है.

फरवरी २०, १९०३

लेव निकोलायेविच के पास एक मिलनेवाला आया है ---- एक बूढ़ा व्यक्ति जिसने निकलस प्रथम के अधीन एक सैनिक के रूप में कार्य कि था, काकेशस का युद्ध लड़ा था और अब वह उन्हें उन दिनों के संस्मरण सुना रहा है.

जुलाई १०, १९०३

लेव निकोलायेविच निकलस प्रथम काल के इतिहास में डूबे हुए हैं और उन्हें जो भी हस्तगत होता है उसे एकत्रित कर रहे हैं और पढ़ रहे हैं. उस सबका प्रयोग ’हाजी मुराद’ में होगा.

जनवरी १४, १९०९

आज मैंने ---- उस कहानी को फेयर करना प्रांरभ किया, जिसे लेव निकोलायेविच ने अभी पूरा किया है .

उसका थीम --- क्रान्तिकारी, मृत्युदंड और उनके उद्देश्य हैं. रोचक हो सकती है. लेकिन ढंग वही है ---- मुझिकों के जीवन का वर्णन. संदेह नहीं, वह क्रान्ति को काव्यात्मक बनाना चाहेंगे, बावजूद अपनी ईसाइयत के प्रति झुकाव के. वह निःसंदेह उनके प्रति सहानुभूति रखते हैं, क्योंकि ऊंची हैसियत, अथवा सत्ता की क्रूरता से उन्हें घृणा है.

अप्रैल ७, १९१०

हम इससे क्रुद्ध हैं कि लेव निकोलायेविच को जेल में एक हत्यारे से मिलने की अनुमति नहीं दी गई. अपने लेखन के लिए उन्हें इसकी आवश्यकता थी.

अप्रैल १९, १९१०

गांव के पुस्तकालय के बाहर हमने ग्रामोफोन बजाया और उसे सुनने के लिए बहुत से लोग एकत्र हो गये. लेव निकोलायेविच ने किसानों से बात की. कुछ ने पुच्छलतारा के विषय में और कुछ ने ग्रामोफोन के डिजाइन के विषय में उनसे पूछा.

जुलाई ८, १९१०

लेव निकोलायेविच हमारे लिए एक नये फ्रेंच लेखक मिले की एक अच्छी कहानी पढ़कर सुनाई. कल उन्होंने हमारे लिए उसका "la luiche ecrassee" पढ़ा था, जिसे उन्होंने स्वयं पसंद किया था.

जुलाई २८, १९१०

आज शाम लेव निकोलायेविच ने हमारे लिए मिले की एक अच्छी छोटी कहानी "Le repos hebdomadaire" पढ़ी, जिसे उन्होंने स्वयं बहुत पसंद किया, और एक अन्य कहानी , "Le Secreta" पढ़ना प्रारंभ किया.

अक्टूबर १४, १९१०

लेव निकोलायेविच दॉस्तोएव्स्की का ’दि कर्माजोव ब्रदर्स’ (The Karamazova Brothers ) पढ़ रहे हैं और उन्होंने कहा कि यह बहुत खराब है. विवरणात्मक परिच्छेद अच्छे हैं, लेकिन संवाद निम्नकोटि के हैं. मानो दॉस्तोएव्स्की स्वयं बोल रहे हैं, न कि चरित्र. उनके कथन वैयक्तिक नहीं हैं.

अक्टूबर १९, १९१०

शाम के समय लेव निकोलायेविच ’दि करमाजोव ब्रदर्स’ पढ़ने में तल्लीन थे. उन्होंने कहा, "आज मैंने महसूस किया कि दॉस्तोएव्स्की में लोगों को क्या मिलता है ! उनके पास आश्चर्यजनक आइडियाज हैं." फिर उन्होंने दॉस्तोएव्स्की की आलोचना प्रारंभ कर दी और एक बार फिर कहा कि सभी चरित्र दॉस्तोएव्स्की की जुबान बोलते हैं ---- नितांत शब्दाडंबर.

सोफिया अन्द्रेएव्ना तोल्स्तोया की डायरी के कुछ अन्य महत्वपूर्ण अंश

फरवरी १४, १८७० (यास्नाया पोल्याना)

एक दिन जब मैं पुश्किन की जीवनी पढ़ रही थी, मेरे मन में आया कि मैं भावी पीढ़ियों के लिए उपयोगी सिद्ध हो सकती हूं, जो लेव निकोलायेविच तोल्स्तोय के जीवन के विषय में कुछ जानना चाहेगें. मैं न केवल उनके दैनन्दिन जीवन, बल्कि उनकी मनोदशा का रिकार्ड रख सकती हूं ---- कम से कम जितना मेरी सामर्थ्य में है. यह विचार मेरे मन में पहले भी उत्पन्न हुआ था, लेकिन तब मैं बहुत व्यस्त थी.

अब उसे प्रारंभ करने का उपयुक्त समय है . ’
फरवरी १५, १८७०

कल लेव ने देर तक शेक्सपियर के विषय में मुझसे बात की और उसके प्रति बहुत प्रशंसा प्रकट की. वह नाटककारों में उन्हें बहुत बड़ा मानते हैं. जहां तक गोयेथ का प्रश्न है, सौन्दर्य और सादृश्यबोध से वह उसे सौन्दर्यबोधी मानते हैं, लेकिन उसमें नाटकार की प्रतिभा नहीं---- वहां वह कमजोर है. लेव फेट से उनके प्रेमपात्र गोयेथ के विषय में बात करना चाहते हैं. लेकिन लेव ने कहा कि जब गोयेथ दार्शनिक रूप प्रस्तुत करते हैं तब निश्चित ही वह महान है..

जब मैं आज सुबह लेव की स्टडी के दरवाजे के सामने से गुजर रही थी, उन्होंने मुझे अंदर आने के लिए कहा. उन्होंने मुझसे रूसी इतिहास और महान व्यक्तियों के विषय में लंबी चर्चा की. वह ’पीटर दि ग्रेट’ पर उस्त्र्यालोव का इतिहास पढ़ रहे थे.

’पीटर दि ग्रेट’ और मेन्सिकोव जैसे व्यक्तियों में उनकी बहुत रुचि है. मेन्सिकोव को उन्होंने शक्तिशाली और विशुद्ध रूसी चरित्र बताया, जो केवल आमजन के मध्य से आते हैं. पीटर दि ग्रेट के विषय में उन्होंने कहा कि वह अपने समय का कठपुतली था, कि वह निर्दयी था , लेकिन भाग्य ने उसे रूस और योरोपीय संसार के बीच संपर्क स्थापित करने के मिशन के लिए निर्दिष्ट किया था. लेव को एक ऎतिहासिक नाटक के लिए विषय की तलाश है और वह नोट्स ले रहे हैं, जिसे वह अच्छी सामग्री मानते हैं. आज उन्होंने मिरोविच की कहानी लिखी, जो इयोन एण्टोनोविच को किले से मुक्त करवाना चाहता है. कल उन्होंने मुझसे कहा था कि उन्होंने पुनः कॉमेडी लिखने का विचार त्याग दिया था, लेकिन एक ड्रामा के विषय में सोच रहे थे. वह कहते रहते हैं कि आगे कितना अधिक काम है !

हम साथ-साथ स्कैटिंग के लिए गये और उन्होंने सभी प्रकार के प्रदर्शन में भाग लिया. उन्होंने एक पैर से, दोनों पैरों से, पीछे चलकर, घूमकर और भी कई प्रकार से स्कैटिंग की. वह एक बच्चे की भांति प्रसन्न थे.

फरवरी २४, १८७०

आज अंततः बहुत हिचकिचाहट के बाद वह काम करने बैठे . कल उन्होंने कहा कि जब भी वह गंभीरता पूर्वक विचार करते हैं वह चीजों को नाट्य रूप की अपेक्षा महाकाव्यात्मक रूप में ही देखते हैं.

कुछ दिन पहले वह फेट के पास गये थे, जिन्होंने उनसे कहा कि ड्रामा उनकी विधा नहीं है. इसलिए अब ऎसा प्रतीत होता है कि उन्होंने ड्रामा अथवा कॉमेडी का विचार छोड़ दिया है.

आज सुबह एक शीट पेपर के दोनों ओर उन्होंने मिनटों में भर दिये. बहुत ही चमत्कारिक ढंग से काम प्रारंभ हुआ. उन्होंने बहुत से मान्य व्यक्तियों पर ध्यान केन्द्रित किया, जिनमें कुछ महान लोग भी हैं जो बाद में उनके मुख्य चरित्र बनेंगे.

कल उन्होंने कहा कि वह आभिजात्यवर्ग की एक विवाहिता स्त्री के विषय में सोच रहे थे जो गलत दिशा में जा चुकी थी. उन्होंने कहा कि उनका उद्देश्य यह चित्रित करना था कि वह निन्दा की अपेक्षा दया की पात्र थी. जैसे ही अपनी हीरोइन के विषय में उनकी दृष्टि स्पष्ट हुई, उनके अन्य पात्र जिनकी कल्पना उन्होंने की थी (पुरुष और महिला पात्र) उसके इर्द-गिर्द एकत्रित हो लिए थे.

"अब मुझे सब कुछ स्पष्ट है." वह बोले थे. जहां तक कृषक मूल के पढ़े-लिखे लोगों की बात है, जो उनके मस्तिष्क में लंबे समय से विद्यमान हैं----- उनके विषय में उन्होंने निर्णय किया है कि वह उसे किसी जागीर के कारिन्दा के रूप में चित्रित करेंगे.

मार्च २७, १८७१

दिसम्बर से वह दृढ़ निश्चय के साथ ग्रीक भाषा का अध्ययन कर रहे हैं. दिन और रात वह उसके लिए बैठे रहते हैं. एक नये ग्रीक शब्द को जान लेने अथवा उसकी अभिव्यक्ति को समझ लेने से उन्हें जो आनंद और प्रसन्नता प्राप्त होती है वह दुनिया की किसी अन्य बात में नहीं मिल सकती.---- जेनोफॉन से प्लेटो, फिर ओडिसी और इलियाड (जिसके लिए वह पागल हैं) . वह चाहते हैं कि मैं उन्हें मौखिक अनुवाद करता सुनूं और उनके अनुवाद को ग्नेडिच (Gnedich) से मिलाऊं, जिसे वह बहुत अच्छा और ईमानदार मानते हैं. ग्रीक में उनकी प्रगति (दूसरों को समझकर, जबकि उनमें से वे भी हैं जो विश्वविद्यालय का कोर्स समाप्त कर चुके हैं ) अद्भुत है.

कभी-कभी उनके दो-तीन पृष्ठों के अनुवाद में मुझे दो या तीन से अधिक त्रुटियां अथवा अबोध्य-वाक्यांश नहीं मिले.

वह मुझसे कहते रहते हैं कि वह लिखना चाहते हैं. वह ग्रीक कला और साहित्य जैसा शास्त्रीय , सुबोध्य, ललित और अपेक्षाकृत भारमुक्त कुछ लिखने का स्वप्न देख रहे हैं. मैं बता नहीं सकती, हांलाकि मैं स्पष्टतः महसूस करती हूं कि उनके मस्तिष्क में क्या है. उनका कहना है कि "लिखने की अपेक्षा न लिखना अधिक मुश्किल है." अर्थात मुश्किल चीजें किसी को निस्सार शब्द लिखने से रोकती हैं. कुछ ही लेखक इसमें सक्षम होते हैं.

वह रूसी पुराकाल पर लिखने की सोच रहे हैं ---- चेत्यी-मिनेई (Chetyi-Minei) और संतों के जीवन का अध्ययन कर रहे हैं, और कहते हैं कि यही हमारा वास्तविक रूसी काव्य है.

मार्च १९, १८७३
कल शाम अचानक लेव ने मेरी ओर देखा और बोले, "मैंने डेढ़ पृष्ठ लिखे हैं और मैं सोचता हूं कि वह अच्छा है." यह मानकर कि यह पीटर दि ग्रेट काल पर लिखने का उनका एक और प्रयास है, मैंने उनकी बात पर अधिक ध्यान नहीं दिया. लेकिन बाद में मुझे ज्ञात हुआ कि उन्होंने निजी जीवन के विषय में एक समसामयिक उपन्यास प्रारंभ किया था. यह विलक्षण है कि उन्होंने उस पर कितनी सफल रचना की है.

सेर्गेई ने हमारी वृद्धा आण्ट के लिए ऊंचे स्वर में पढ़ने के लिए कुछ देने को कहा. मैंने उन्हें पुश्किन की ’दि स्टोरीज ऑफ बेल्किन ’ (The stories of Belkin) दी. लेकिन वृद्ध आण्ट सो गयीं और मैं इतनी आलसी कि नीचे जाकर पुस्तक को पुस्तकालय में नहीं रखा. उसे ड्राइंग रूम में खिड़की की दहलीज पर रख दिया. अगली सुबह जब हम कॉफी पी रहे थे, लेव ने वह पुस्तक उठायी, उसे देखा और बोले यह कितनी अच्छी है. उसके पीछे उन्होंने कुछ आलोचनात्मक टिप्पणियां देखीं. (अनेन्कोव संस्करण ) और बोले, "मैंने पुश्किन से बहुत कुछ सीखा है. वह मेरे पिता हैं, वह मेरे अध्यापक भी हैं. " फिर उन्होंने उससे एक परिच्छेद पढ़कर सुनाया कि पुराने समय में किस प्रकार जमींदार राजमार्गों पर यात्रा करते थे. उसने उन्हें पीटर दि ग्रेट के समय में आभिजात्य वर्ग के जीवन को समझने में सहायता की. वह एक ऎसा विषय था जो उन्हें विशेषरूप से परेशान कर रहा था. पुश्किन के प्रभाव में उन्होंने उस शाम लिखना प्रारंभ किया था. आज उन्होंने पुनः लिखना प्रारंभ किया और कहा कि वह अपने काम से संतुष्ट हैं.

अक्टूबर ४, १८७३

उपन्यास ’अन्ना कारेनिना’ प्रारंभ हो गया है . उसकी सम्पूर्ण रूपरेखा वसंत में बन चुकी थी. हम गर्मियों में समारा गुबेर्निया गये थे तब उन्होंने अधिक नहीं लिखा. अब वह उसे परिष्कृत कर रहे हैं, बदल रहे हैं और उपन्यास पर लगातार काम कर रहे हैं.

क्राम्स्कोई उनके दो पोट्रेट बना रहे हैं और उनके काम में कुछ व्यवधान उप्तन्न हो रहा है. कला के विषय में प्रतिदिन चर्चा और वाद-विवाद होता है.

नवम्बर २१, १८७६

कल मेरे पास आये और बोले, "लिखना कितना थकाऊ होता है !"

"क्या ?" मैंने चिल्लाकर पूछा.

"हूं, मैंने लिखा कि व्रोन्स्की और अन्ना ने होटल में एक कमरा लिया, लेकिन यह असंभव है. सेण्टपीटर्सबर्ग के किसी भी होटल में उन्हें अलग-अलग मंजिलों में ठहरना चाहिए था. तभी ऎसा होता कि वे अपने मित्रों से अलग-अलग मिलते, और इस प्रकार यह सब मुझे पुनः लिखना होगा.

मार्च १, १८७८

लेव निकोलायेविच निकोलस प्रथम के समय का अध्ययन कर रहे हैं. वह पूरी तरह दिसंबरवादियों की कहानी में तल्लीन हैं. वह मास्को गये थे और पुस्तकों का ढेर लादकर लाये. कभी-कभी वह पढ़कर रो पड़ते हैं.

जनवरी ३१, १८८१

लेव निकोलायेविच केवल शीत रितु में ही काम कर पाये. जब तक उन्होंने सामग्री का अध्ययन किया और दिसंबरवादियों के लिए कुछ रूपरेखा बनायी , गर्मी पुनः प्रारंभ हो चुकी थी और कुछ भी गंभीर नहीं लिखा गया. अपने स्वास्थ्य और लेखन को दृष्टिगत रखते हुए उन्होंने राजमार्ग (कीव क्षेत्र) पर लंबी दूरी तक टहलना प्रारंभ किया जो हमारे यहां से लगभग दो वर्स्ट है. गर्मियों में सम्पूर्ण रूस और साइबेरिया से कीव , वोरोनेझ, ट्रिनिटी-सेर्गेइस मठों और ऎसे ही अन्य स्थानों में पूजा-अर्चना करने के लिए आने वाले तीर्थयात्रियों के दलों से कोई भी मिल सकता है.

लेव निकोलायेविच अपने रूसी ज्ञान को सीमित और अपूर्ण मानते हैं और इसीलिए पिछली गर्मियों में उन्होंने लोगों की भाषा (लोक भाषा) का अध्ययन प्रारंभ किया था. उन्होंने तीर्थयात्रियों और पर्यटकों से बात की और लोक शब्दों , सूक्तियों, प्रतिबिंबों और भावाभिव्यक्तियों को दर्ज किया. लेकिन उस उद्देशय को जारी रखने के अनपेक्षित परिणाम निकले.

१८७७ तक लेव निकोलायेविच के धार्मिक विचार अपरिभाषित रहे थे. वह धर्म के प्रति उदासीन थे. वह कभी पूर्ण नास्तिक तो नहीं थे, लेकिन उन्होंने कभी किसी धार्मिक मत का समर्थन नहीं किया था.

लोगों, तीर्थयात्रियों, और धर्म-भिक्षुओं के निकट संपर्क में आने के बाद वह उनके दृढ़, स्पष्ट और अडिग आस्था से विस्मित हुए. उनका अपना संशयवाद उन्हें अकस्मात भयानक प्रतीत होने लगा और उन्होंने अपना हृदय और आत्मा लोगों और उनकी आस्था की ओर मोड़ दिया. उन्होंने न्यू टेस्टामेण्ट का अध्ययन, उसका अनुवाद और उसकी टीका लिखनी प्रारंभ कर दी. इस कार्य का दूसरा वर्ष है और मेरा विश्वास है कि लगभग आधा कार्य सम्पन्न हो चुका है. उनका कहना है कि इससे उन्हें आध्यात्मिक शांति प्राप्त हुई है. अपनी भावाभिव्यक्ति के लिए उन्हे ’प्रकाश’ दिखा, और उसने जीवन के प्रति उनके दृष्टिकोण को बदल दिया. लोगों के उस छोटे से समूह , जिनके साथ वह समय व्यतीत करते थे , और उन्हींके विषय में प्रयः सोचा करते थे (ऎसा ही उन्होंने कहा था ), लेकिन अब करोड़ों लोग उनके बन्धु हो गये हैं. पहले उनकी जागीर और धन निजी सम्पति थे, लेकिन अब वह उनके लिए केवल गरीबों और जरूरतमंदों को देने के लिए है.

प्रतिदिन वह पुस्तकों से घिरे हुए काम करने के लिए बैठते हैं और डिनर तक कार्य करते रहते हैं. स्वास्थ्य में वह बहुत कमजोर हो गये हैं और सिर दर्द की शिकायत करते रहते हैं. उनके बाल भूरे हो गये हैं और इस जाड़े में उनका वजन घटा है.

मैं जितना चाहती हूं, वह उतना प्रसन्न नहीं प्रतीत होते . वह शांत, चिन्तनशील और चिड़चिड़े हो गये हैं. विनोदी और जीवन्त स्वभाव, जो कभी हम सभी को प्रसन्नता प्रदान किया करता था अब मुश्किल से ही दीप्तिमान होता है. मेरा अनुमान है कि यह कठोर श्रम के परिणामस्वरूप है. ’वार एण्ड पीस’ जैसे दिन नहीं रहे, जब शिकार अथवा ’बालनृत्य’ का वर्णन करने के बाद उत्तेजित और प्रसन्नचित दिखते हुए वह हमारे पास आते थे, मानो वह स्वयं उस आमोद-प्रमोद में लिप्त रहे थे. उनकी आध्यात्मिक शुचिता और शांति प्रश्नातीत हैं, लेकिन दूसरों के दुर्भाग्य ----- गरीबी, कारावास, दुर्दम्यता, अन्याय को लेकर उनकी व्यथा उनकी अतिसंवेदनशील आत्मा को प्रभावित और उनके शरीर को क्षीण कर रही है.

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कारेनिना अन्ना क्यों थी और किस विचार ने उसे आत्महत्या के लिए प्रेरित किया

एन.एन. बिबिकोव नामके लगभग पचास वर्ष के एक व्यक्ति हमारे पड़ोसी थे. वह न धनवान थे और न ही शिक्षित. उसके घर की व्यवस्था संभालने और उसकी रखैल के रूप में रहने वाली लगभग पैंतीस वर्ष की स्त्री अविवाहित और उसकी दिवंगता पत्नी की दूर की रिशतेदार थी. बिबिकोव ने अपने बेटे और भतीजी को पढ़ाने के लिए एक गवर्नेस नियुक्त किया. वह एक सुन्दर जर्मन युवती थी. उसकी पहली रखैल, जिसका नाम अन्ना स्तेपानोव्ना था, अपनी मां से मिलने जाने की बात कहकर तुला चली गयी. अपनी पोटली सहित (जिसमें बदलने के लिए एक जोड़ी कपड़े ही थे) वह निकटतम स्टेशन यसेन्की गयी और चलती मालगाड़ी के आगे कूद गई . बाद में उसके शरीर का पोस्टमार्टम हुआ. लेव निकोलायेविच ने यसेन्की स्टेशन के बैरकों में उसका कुचला सिर, नग्न और विकृत शरीर देखा था. वह भयनक रूप से हिल उठे थे. वह अन्ना स्तेपानोव्ना को लंबी, हृष्ट-पुष्ट, चेहरे और वर्ण में पूरी तरह रूसी, भूरी आंखों सहित भूरे बालों वाली, सुन्दर नहीं, लेकिन आकर्षक स्त्री के रूप में जानते थे.

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