शनिवार, 31 दिसंबर 2011

आलेख


सुभाष नीरव : समकालीन लघुकथा का जागरूक हस्ताक्षर

बलराम अग्रवाल

विश्वभर में सामाजिक और सांस्कृतिक विषयों के विशेषज्ञों के बीच बाजारवाद आज विशेष रूप से विचारणीय मुद्दा है। उन्हें लगता है कि समाज के गरीब से लेकर सुसम्पन्न अर्थात् हर व्यक्ति के सामने 'बाजार' सुरसा के मुख की तरह लगातार भयावह ढंग से फैलता जा रहा है और आदमी 'बाजार' के ही

(बलराम अग्रवाल)

द्वारा क्रेडिट-कार्ड आदि के रूप में मुहैय्या सुविधाओं को अपनाकर उसके काबू में न आने की वैसी ही असफल कोशिश कर रहा है जैसी प्रारम्भ में महावीर हनुमान ने की थी-'जस जस सुरसा बदनु बढ़ावा, तासु दून कपि रूप दिखावा'। लेकिन बहुत जल्द उनकी समझ में आ गया कि लगातार फैलते जा रहे इस 'बाजार' पर पार पाना है तो क्रेडिट-कार्ड से मुक्ति पाकर दूसरा तरीका अपनाना पड़ेगा और तब-'अति लघु रूप पवन सुत लीन्हा'। 'बाजार' को उसकी स्पर्धा में रहकर नहीं, स्पर्धा से दूर रहकर ही धराशायी किया जा सकता है; लेकिन आदमी की अहंजनित आवश्यकताएं 'बाजार' से लड़ाई के इस तरीके को भोथरा किए रखती हैं। इसी कारण मानवीय संवेदनाओं के तन्तु उसकी चेतना को झकझोर पाने में अक्षम हो जाते हैं। वर्तमान दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति के सामने उसे अन्य सभी आवश्यकताएं, यहाँ तक कि नैतिक दायित्व भी, क्षुद्र प्रतीत होने लगती हैं। यहाँ एक अन्य सत्य की ओर इंगित करना भी आवश्यक-सा है। आज का आदमी वस्तुओं में ही नहीं, रिश्तों में भी 'प्रोडक्टिविटी' ही तलाश करता है। जिन वस्तुओं और रिश्तों की प्रोडक्टिव उपयोगिता उसकी दृष्टि में समाप्त हो चुकी होती है, उन्हें वह अनदेखा करना, त्याग देना श्रेष्ठ समझता है। सुभाष नीरव की लघुकथा 'कमरा' के हरिबाबू और उनकी पत्नी को जब वृद्ध पिता अनुपयोगी और अपने पुत्र की शिक्षा उपयोगी प्रतीत होते हैं तब वे उपयोगी से अनुपयोगी को रिप्लेस करने का विवेक और दायित्व से हीन कदम उठाते हैं। दायित्वहीन इस अर्थ में कि रिप्लेसमेंट की इस क्रिया को वे रिश्तों की गरिमा को भूलकर हानि और लाभ के गणित को ध्यान में रखकर अंजाम देते हैं। अन्तत: हानि-लाभ का यही गणित उन्हें बेटे के भविष्य को दांव पर लगा देने हेतु भी उकसाता है जिसके कारण पिताजी से खाली कराया गया कमरा बिना झिझक तीन हजार रुपए प्रतिमाह किराए पर चढ़ा दिया जाता है। 'बाज़ार' की इसी क्रूर और हिंसक वृत्ति का सटीक चित्रण सुभाष नीरव की लघुकथा ‘मकड़ी’ में हुआ है-

'लेकिन, कुछ बरस पहले बहुत लुभावना लगने वाला बाजार अब उसे भयभीत करने लगा था। हर माह आने वाले बिलों का न्यूनतम चुकाने में ही उसकी आधी तनख्वाह खत्म हो जाती थी। इधर बच्चे बड़े हो रहे थे, उनकी पढाई का खर्च बढ़ रहा था। हारी-बीमारी अलग थी। कोई चारा न देख, आफिस के बाद वह दो घंटे पार्ट-टाइम करने लगा। पर इससे अधिक राहत न मिली। बिलों का न्यूनतम ही वह अदा कर पाता था। बकाया रकम और उस पर लगने वाले ब्याज ने उसका मानसिक चैन छीन लिया था। उसकी नींद गायब कर दी थी। रात में, जैसे-तैसे आँख लगती तो सपने में जाले-ही-जाले दिखाई देते जिनमें वह ख़ुद को बुरी तरह फंसा और मुक्ति हेतु छटपटाता हुआ पाता।'

अपनी आकर्षक, लुभावनी और नि:स्वार्थ प्रतीत होती सेवा-शर्तों के पीछे 'बाजार' कितना क्रूर और छिपा हुआ हत्यारा सिद्ध होता है, इस सत्य का यथार्थ-चित्रण करती 'मकड़ी' एक ऐसी सम्पूर्ण लघुकथा है, जिसकी तुलना में 'बाजार' के हिंसक और मारक चरित्र को केन्द्र में रखकर लिखी गई कोई अन्य लघुकथा आसानी से टिक नहीं पाएगी। इसके जालों की चपेट में अब तक भारत का मध्य अथवा निम्न-मध्य वर्ग ही नहीं, निम्न आय वर्ग भी आ चुका है। सत्य का आभास होने तक व्यक्ति अपने शरीर का अधिकांश ख़ून इस 'मकड़ी' से चुसवा चुका होता है।
लघुकथा 'अच्छा तरीका' का केन्द्रीय कथ्य भी बाजारवाद की ओर ही संकेत करता है। यह विशुद्ध भौतिकवाद और आध्यात्मिक भौतिकवाद की ओर भी संकेत करता है। यह लघुकथा ग्रामीण और महानगरीय सोच के मध्य अन्तर की ओर भी संकेत करती है। इन सारे बिन्दुओं को सुभाष नीरव ने 'हिन्दी' और 'अंग्रेजी' विषय को लेकर स्नातकोत्तर परीक्षा उत्तीर्ण करने के बावजूद बेरोजगारी झेलने वाले दो मित्रों के मानसिक धरातल के मद्देनजर प्रस्तुत किया है। भौतिकवाद नि:संदेह ऐसा आकर्षण है जो आवश्यकता के रूप में सामने आता है। लेकिन इस आकर्षण के पाश में कुछ लोग वैयक्तिक लाभ-हानि के गणित के साथ जुड़ते हैं तो कुछ सामाजिक और लोकहितकारी दृष्टि के तहत। 'अच्छा तरीका' में लोक से जुड़ी चेतना वाले 'मैं' को हिन्दी के अ, आ, इ, ई... व गांव के बच्चों से जुड़ा तथा वैयक्तिकता से जुड़े राकेश को नगर व अंग्रेजी मानसिकता के पोषकों से जुड़ा दिखाना भी कथाकार की विशिष्ट दृष्टि का परिचायक है।
सरकारी, अर्द्ध-सरकारी अथवा गैर-सरकारी कार्यालयों में कार्यरत जो लोग किसी भी स्तर पर अतिरिक्त-कमाई वाली सीटों पर काबिज हैं, उनके घरों का मासिक खर्चा वेतन से कहीं-अधिक होना स्वाभाविक है। कठोपनिषद् की स्थापना है- न वित्तेन तर्पणीयो मनुष्या:। अर्थात् धन की ओर से मनुष्य हमेशा अतृप्त ही बना रहता है। लघुकथा 'दिहाड़ी' का मुख्य-पात्र रतन पुलिस की नौकरी में है। उसकी तैनाती ऐसे बाजार में है जहाँ के रेहड़ी-पटरी वालों से वह 'दिहाड़ी' वसूलने की स्थिति में है। बस, उसकी यह सामर्थ्य ही उसके तनाव का मुख्य कारण है। घर-खर्च को वेतन की रकम जितना सीमित रखना उसकी पत्नी और वह, दोनों ही भूल चुके हैं। लघुकथा में यद्यपि पत्नी और उसके व्यवहार को नेपथ्य में रखकर रतन को ही फोकस में रखा गया है तथापि- 'सुबह बच्चे बिना खाये-पिये ही स्कूल चले गये थे। पत्नी ने पड़ोसियों से कुछ भी माँगने से साफ इन्कार कर दिया था' के माध्यम से कथा को प्रभावित करते उसके चारित्रिक-आभास को नकारा नहीं जा सकता है। अपने इस इन्कार के जरिये ही वह बीमार पति पर 'दिहाड़ी' वसूलने जाने का मनोवैज्ञानिक दबाव बनाती है।
स्कूल का 'रफ' काम करने के लिए ऑफिस के 'फ्रेश' रजिस्टर का उपयोग सरकारी कार्यालयों में कार्यरत लोगों के बच्चों के लिए आम बात है। सरकारी-स्टेशनरी का यह सदुपयोग बच्चों को कराते अपनी-अपनी पहुँच के अनुरूप अफसर से लेकर चपरासी तक सभी देखे जा सकते हैं। छोटी लगने वाली इस चोरी को कुछ लोग आदतन करते हैं तो कुछ अनायास। 'रफ कॉपी' का बाबू रामप्रकाश भी इस सुविधा का आनन्द लूटता है लेकिन आदतन नहीं, अनायास। ऑफिस स्टेशनरी का आदतन आनन्द लूटने वालों में सुभाष नीरव की लघुकथा 'चोर' के मि. नायर का उल्लेख किया जा सकता है।
'अपने क्षेत्र का दर्द' अपने देश में राजनीतिज्ञों के संवेदनहीन हो जाने की कथा है। 'पत्र को पढ़कर उसे अपनी बेटी का ध्यान हो आया। आये दिन वह एक नयी माँग के साथ धकेल दी जाती है- मायके में। क्या किसी दिन उसे भी? नहीं-नहीं... वह भीतर तक काँप उठा।' के माध्यम से इस लघुकथा में फ्रायड के मनोविश्लेषण-सिद्धांत 'आरोपण' का भी निर्वाह हुआ है।
'रंग परिवर्तन' सुभाष नीरव द्वारा प्रयुक्त सांकेतिक शीर्षक है। मन्त्री महोदय के कमरे में बिछे कीमती कालीन, सोफा-कवर्स और खिड़कियों पर लहराते पर्दों के माध्यम से उन्होंने नए-नए मन्त्री बने मनोहर लाल जी की मानसिकता और कार्यशैली दोनों पर गहरा कटाक्ष किया है। एक पत्रकार के प्रश्न के उत्तर में मनोहर लाल जी 'फिजूलखर्ची रोकने और अंधविश्वासों से ऊपर उठने' को प्राथमिकता देने की बात करते हैं लेकिन इन दोनों ही कमजोरियों से मुक्त नहीं रह पाते।
'अकेला चना' शासकीय कर्मचारी वर्ग में व्याप्त संवेदनहीनता, अभद्रता और अमानवीयता को तो यथार्थत: हमारे सामने रखती ही है, सामाजिकों के भी स्त्रैण-चरित्र का उद्धाटन करती है। सोचने की बात यह तो है ही कि कथानायक के साथ कैसा व्यवहार हुआ, यह भी है कि सामाजिक के तौर पर कभी-न-कभी, कहीं-न-कहीं हर आदमी अपने-आप को 'अकेला' खड़ा जरूर पाता है, इसके बावजूद किसी और को वैसा अकेला फंसा देखकर वह आग नहीं पकड़ पाता है। बस, देखता और आनन्द लेता रहता है। जिस प्रकार 'अकेला चना' की घटना बस-यात्रा के दौरान घटित होती है उसी प्रकार 'कड़वा अपवाद' भी बस-यात्रा के दौरान ही घटित एक घटना को हमारे सामने रखती है। लेकिन 'कड़वा अपवाद' का कथ्य 'अकेला चना' के कथ्य से एकदम भिन्न और अलग स्तर का है। 'अकेला चना' का महानगरीय भागमभाग में फंसा नायक शासकीय कर्मचारियों की गलत कार्यपद्धति के खिलाफ लड़ता हुआ अपने जैसे ही अन्य यात्रियों की संवेदनहीनता का शिकार होकर हारता है जबकि 'कड़वा अपवाद' का नायक इस सत्य का सामना करता है कि छल और छद्म से भरे इस समाज में सभी झूठे और मक्कार नहीं हैं। कुछ लोग नि:संदेह दीनता और हीनता का जीवन जीते हुए असहाय मर जाने को विवश हैं।

...तभी, मैं आगे बढ़कर बोला, ''साला, बन रहा है... नशा करके लेटा होगा...'' और मैंने एक झटके से उसके ऊपर की चिथड़ा हुई धोती को खींचकर एक तरफ कर दिया।
मेरे पाँव के नीचे से ज़मीन खिसक गयी। वह तो सचमुच ही ठंड से अकड़कर मर चुका था।

यहाँ पर अनायास ही 'भेड़िया आया-भेड़िया आया' वाली पुरातन कहानी हमारे सामने एक अलग अर्थ ध्वनित करती हुई खुल जाती है। 'वह तो सचमुच ही ठंड से अकड़कर मर चुका था।'- कौन ? वह अविश्वास जो दलित और दमित आबादी के निरन्तर रुदन 'भेड़िया आया' वाली कहानी ने हमारे मन में जमा दिया है। यह लघुकथा एक जिम्मेदार साहित्यिक कृति का दायित्व पूरा करते हुए हमें बताती है कि सारे रुदन धोखे से भरे नहीं होते।
'वॉकर' यों तो एक निम्न-मध्यवर्गीय गृहस्थ के हर्ष और व्यथा दोनों को व्यक्त करती कथा नजर आती है लेकिन यह एक स्तरीय मनोवैज्ञानिक कथा है। सुभाष नीरव अपने अनेक कथ्यों का निर्वाह मनोवैज्ञानिक धरातल पर करते हैं। इसके अलावा उनके अनेक शीर्षक अघोषित व्यंजना से भरे होते हैं। 'वॉकर' भी व्यंजनापरक है। पैदल यानी वाहन आदि की सुविधा से हीन जैसे-तैसे ही सही, अपने पांवों पर चलने-फिरने वाले व्यक्ति के लिए भी 'वॉकर' शब्द का ही प्रयोग किया जाता है। 'मुन्नी' सम्बोधित अपनी लाड़ली संतान हेतु 'वॉकर' खरीदने के निमित्त निकालकर दिए जाने वाले सौ रुपए के नोट का समापन घर में आने वाले मेहमानों के बहाने ही सही, घर-खर्च की भेंट चढ़ जाएगा, ऐसा पति-पत्नी दोनों ने ही नहीं सोचा होगा। इस स्थिति को स्वयं कथानायक के शब्दों में देखिए-
मैंने एक बार हाथ में पकड़े हुए सौ के नोट को देखा और फिर पास ही खेलती हुई मुन्नी की ओर। मैंने कहा, ''मगर, वह मुन्नी का वॉकर...।''
''अभी रहने दो। पहले घर चलाना ज़रूरी है।''
मैंने देखा, मुन्नी मेरी ओर आने के लिए उठकर खड़ी हुई ही थी कि तभी धम्म् से नीचे बैठकर रोने लगी।

अन्तिम पैरा में सुभाष नीरव द्वारा ताने गये बिम्ब को समझे बिना इस लघुकथा की तीव्रता को समझना असम्भव है। आम भारतीय परिवार की यह आर्थिक-विडम्बना है कि उसे 'घर' पहले चलाना है, बच्चे के बारे में बाद में सोचना है।
वनवासी राम को अयोध्या वापस ले जाने की नीयत से चित्रकूट पहुँचे भरत की, उनके साथ गये गुरु वशिष्ठ, मन्त्री सुमन्त्र, तीनों माताओं तथा ससुर जनक, किसी की भी बात को राम ने नहीं माना था। अनमने भरत को अयोध्या का शासन सँभालने की आज्ञा देकर उन्होंने कहा था- 'करहु प्रजा परिवारु सुखारी।' अर्थात् प्रजारूपी परिवार को सुख प्रदान करो। यह उस काल की बात है जब 'राजनीति' धर्म के अन्तर्गत आती थी। जनता का प्रतिनिधि कैसा हो ? यह बताते हुए गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा है-

मुखिया मुख सों चाहिए, खान-पान को एक।
पालहि पोसहि सकल अंग तुलसी सहित विवेक॥

लेकिन इस काल में 'राजनीति' प्रजा को भोगने के अधिकार के अन्तर्गत आती है। यही कारण है कि आज का राजनेता 'सिंहासन' को खतरे में भाँपते ही उसकी सुरक्षा के प्रति चिन्तित हो उठता है। 'इन्सानियत का धर्म' में सुभाष नीरव ने इसे ही कथ्य बनाया है। यह लघुकथा शिल्प की दृष्टि से कुछ कमजोर रह गई है।
सुभाष नीरव की कुछेक लघुकथाओं के शीर्षक उनकी लघुकथाओं में तनी संवेदना में झोल पैदा करने का काम करते-से महसूस होते हैं। ऐसा लगता है कि रचना के शीर्षक पर सुभाष नीरव कोई भी शब्द अथवा शब्द-युग्म लिखकर उसे शीर्षक दे डालने के बोझ से स्वयं को मुक्त मान लेते हैं; जबकि ऐसा नहीं है। 'लघुकथा' में शीर्षक भी एक आवश्यक अवयव है। वह रचना में व्यक्त संवेदना को पाठक-हृदय तक पहुंचाने में उत्प्रेरक का काम करता है और लेखकीय-दायित्व के अन्तर्गत ही आता है।

'बीमार' बाल-मनोविज्ञान की उत्कृष्ट लघुकथा है। इस लघुकथा का नायक अपनी असहाय आर्थिक स्थिति को हलाहल की तरह उसी तरह अपने कंठ में धारण करने को विवश है जिस तरह सम्पूर्ण विश्व में जीवन को बचाने के लिए भगवान शंकर। निम्न और निम्न-मध्य वर्ग के इस त्रास को शब्द देती अनेक स्तरीय रचनाओं में इस लघुकथा का स्थान विशिष्ट माना जा सकता है।

'बीमारी' इस देश के लगभग सभी सरकारी कार्यालयों में अपने अधीनस्थों के प्रति अधिकारियों के व्यवहार की सचाई को पाठकों के सामने रखती है तो 'चन्द्रनाथ की नियुक्ति' सरकारी कामकाज के तौर-तरीकों का यथार्थ-दर्शन हमें कराती है। न्याय-प्रक्रिया की पेचीदगियों और किताबी-नियमों पर आधारित न्यायिक निर्णयों ने आम आदमी के मन को न्यायालयों के प्रति अविश्वास से भर दिया है। 'चीत्कार' लघुकथा देश की न्याय-व्यवस्था के प्रति आम आदमी के गहरे विश्वास और उसके टूटने और टूटे हुए को पुन: कायम रखने की संकल्प शक्ति का चित्र हमारे सामने रखती है। 'फर्क' आज की युवा-पीढ़ी के उस चरित्र की कथा है जिसके चलते उसे आसानी से गलित-मानसिकता वाली कहा जा सकता है। 'कत्ल होता सपना'- मैं समझता हूँ कि समूचे भारतीय उपमहाद्वीप में कस्बाई स्तर तक की लड़कियों का आज का भी यही हश्र होता है। बेटियों को कभी शक्तिपूर्वक डरा-धमकाकर तो कभी भावनात्मक त्रास देकर कत्लगाह में उतरने को विवश किया जाता है। नि:सन्देह, जाग्रति आ रही है लेकिन वह महानगरों से अभी बमुश्किल नगरों तक ही पहुंच पाई है, वह भी बहुत धीमी गति से। 'मरना-जीना' को भी इसी धारा में गिना जा सकता है। अन्तर यहाँ लड़की की विवाहोपरान्त अशांत, असहाय एवं दयनीय स्थिति मात्र का है। 'एक खुशी खोखली-सी' काल का अतिक्रमण कर पाने में अक्षम रही है। गत सदी का सातवां-आठवां दशक तो वाकई इस विपदा से ग्रस्त था, लेकिन देश में इंजीनियर स्तर का आदमी आज बेरोजगार नहीं है। सुभाष नीरव की 'अपना-अपना नशा', 'चोरी' आदि कुछेक लघुकथाओं में विपरीत स्थिति के चित्रण जैसा प्रयोग भी हुआ है। ऐसी लघुकथाओं के पूवार्द्ध में कथानायक नैतिक सम्भाषण करते दिखाया जाता है तथा उत्तरार्द्ध में उसके कथन के एकदम विपरीत कार्यों में उसे लिप्त दिखा दिया जाता है। इस तकनीक की पहली लघुकथा नि:संदेह प्रेमचंद की 'राष्ट्र का सेवक' है लेकिन देशकाल के मद्देनजर वह एक स्तरीय लघुकथा है। विपरीत स्थिति, कृत्य अथवा मानसिकता को दर्शाती लघुकथाओं के तांडव को आठवें दशक में 'सारिका' ने खूब हवा दी थी। वस्तुत: वह काल भी कुछ-कुछ वैसी अभिव्यक्ति को शब्द देने का आवश्यक काल था; लेकिन लघुकथा आज अपने उस शैशवकाल से अब बाहर आ चुकी है। अत: लघुकथा में अब ऐसे प्रयोगों को बचकाना ही माना जाएगा।

'एक और कस्बा' यथार्थ और फैंटेसी के सम्मिश्रण से रची बेहतरीन रचना है। बाजार से बोटियाँ खरीदकर घर लौटते सुक्खन द्वारा कटी पतंग को लूटने में लगा देने के बहाने इसमें खेल के प्रति बाल-सुलभ उछाह का स्वाभाविक चित्रण हुआ है तथा मांस की बोटियों को लेकर विभिन्न समुदायों के लोगों तथा कुत्तों के माध्यम से इसमें फैंटेसी का प्रवेश हुआ है।

'सफर में आदमी' ऊपरी तौर पर विपरीत स्थितियों के चित्रण का पुंज नजर आती है लेकिन वह असामान्य परिस्थितियों में भी 'अनुकूलन' की स्वाभाविक मानवीय वृत्ति को दर्शाती एक श्रेष्ठ मनोवैज्ञानिक लघुकथा है। इस लघुकथा का अन्त इसको कथ्य के स्तर पर भी और विचार के स्तर पर भी अनन्त प्रवाह प्रदान करता है। 'अनुकूलन' की वृत्ति के अनुरूप ही 'साधारणीकरण' भी सहज मानवीय वृत्ति है। व्यक्ति कभी-कभी अपने पद और ख्याति के तानो-बानों में इस तरह उलझ जाता है कि खुली हवा में सांस लेने, खुली 'धूप' का आनन्द लेने और सामान्य आदमी की तरह उनके बीच उठने, बैठने, लेटने, जीने को वह तरस जाता है। 'धूप' दर्पानुभूति में जी रहे एक अधिकारी के माध्यम से आम जीवन जीने की उसकी लालसा की कथा है।

गोधन गजधन बाजधन और रतनधन खान।
जब आवै संतोषधन सब धन धूरि समान ॥

'मुस्कराहट' के माध्यम से सुभाष नीरव ने अब्दुर्रहीम खानखाना द्वारा प्रतिपादित इस दार्शनिक सत्य को कथात्मक अभिव्यक्ति दी है। बेटे द्वारा स्थापित टूरिस्ट कंपनी का मालिक बन जाने के बाद सदानंद बाबू का चेहरा चमक उठता है लेकिन गरीबी और भुखमरी के दिनों में भी होठों पर खेलती रहने वाली उनकी मुस्कान अब किसी को नजर नहीं आती।
'सर्व धर्म समभाव' का नारा समाज-सेवकों द्वारा समय-समय पर उछाला जाता रहता है; लेकिन इसमें विश्वास करने और इस पर अमल करने वाले गृहस्थ की सामाजिक स्थिति लोगों की नजर में क्या रह जाती है? 'कोठे की औलाद' के माध्यम से सुभाष नीरव ने इस तथ्य पर प्रकाश डालने का यत्न किया है। लेकिन इस लघुकथा में एक नकारात्मक एप्रोच दिखलाई देती है जिससे लेखक को बचना चाहिए।

'कबाड़' समाज और परिवार के समकालीन चारित्रिक पतन की कथा प्रस्तुत करती है। ख़ुद तंगी में रहकर किशन बाबू ने बेटे को तालीम तो ऊँची दिला दी लेकिन पतनशील सामाजिक चाल-चलन से उसे वे नहीं बचा पाए। इस लघुकथा में किशन बाबू की खाट को तीसरे कमरे से हटाकर किचन के बराबर वाले स्टोर में स्थानांतरित करने का कार्य अगर बहू के द्वारा सम्पन्न होता तो यह सामान्य कथानक वाली लघुकथा होती। समाज और परिवार में आई नैतिक गिरावट के चित्रण के लिए अति आवश्यक है कि कथाकार पुराने कथानकों की लीक से हटकर चलें और कुछ ऐसे सत्यों का उद्धाटन करें जो स्थिति का आरोपित नहीं बल्कि यथार्थ चित्रण करने में सक्षम हों। 'आदान-प्रदान' दूरदर्शन में आधिकारिक प्रभुता को प्राप्त एक ऐसे लेखक की कथा है जिसकी रचनाएं पूर्व में लगातार अस्वीकृत होकर सखेद वापस आती रही हैं लेकिन संपादको को मुद्रा-लाभ कराने और प्रचार-प्रसार में सहायक होने की स्थिति में पहुँचते ही उसका नाम चर्चित लेखकों की सूची में शुमार हो जाता है। 'चेहरे' प्रकारान्तर से विपरीत के चरित्र चित्रण की ही रचना है। 'फिटनेस' में जहाँ एक ओर डॉक्टर की अपने मरीज के प्रति सदाशय को दर्शाया गया है, वहीं सरकारी-अर्द्ध सरकारी कार्यालयों में क्या, अस्पतालों तक में जड़ों तक फैल चुके रिश्वत के कार्य-व्यवहार को कथन का आधार बनाया गया है। 'खर्चा-पानी' में व्यक्ति की उस अबोधता को कथा का आधार बनाया गया है जिसके कारण निजी स्वार्थ में अंधा होकर वह भावी पीढ़ी के पांवों में अशिक्षा की बेड़ियां डाल बैठता है। शिक्षा व्यक्ति को केवल रोजगार ही हासिल करने में मदद नहीं करती बल्कि जीने और सोचने के उसके अंदाज में भी परिवर्तन लाती है। कुछेक निजी स्वार्थों में घिरे अथवा पुरातनपंथी लोग नई पीढ़ी के जीने और सोचने के अंदाज में आने वाले इन परिवर्तनों को प्राप्त शिक्षा का दोष करार दे डालते हैं। सुभाष नीरव की लघुकथा 'कत्ल होता सपना' में बेटी इस परिवर्तन की प्रतीक बनी है तथा 'नालायक' में बेटा। 'सहयात्री' एक द्वंद्व-प्रधान लघुकथा है। यह उनकी पूर्व आकलित लघुकथा 'फर्क' में वर्णित समाज का सकारात्मक पहलू है। 'फर्क' में सीट पर बैठे नौजवान जहाँ असभ्यता की सीमा तक द्वंद्वरहित रहते हैं वहीं 'सहयात्री' में सीट पर बैठे पुरुष के मन में निरंतर झंझावात चलता है जो अन्तत: उसे वही करने को उकसाता है जो किसी भी सत्पुरुष को वैसी स्थिति में करना चाहिए। 'भला मानुष' को अन्तर्मन की आवाज के रूप में देखना चाहिए। वह नौजवान जो कार-दुर्घटना में घायल एक युवती को अस्पताल पहुंचाने की सामाजिक जिम्मेदारी निभाता है, अस्पताल पहुंचने तक सांत्वना देने के बहाने ऑटो में उसकी पीठ को सहलाने, गाल थपथपाने और उसका मुँह-माथा चूमने जैसी काम-चेष्टाएं करता रहता है-

''घबराओ नहीं... हिम्मत रखो... कुछ नहीं हुआ। अभी पहुँचे जाते हैं अस्पताल। सब ठीक हो जाएगा।'' कहते हुए वह लड़की की पीठ सहलाने लगा। कहारती हुई लड़की को वह रास्तेभर दिलासा देता रहा। कभी उसके गाल थपथपाकर, कभी सिर, कन्धे, कमर, हाथ-पैर दबाकर और कभी उसका मुँह-माथा चूमकर कहने लगता, ''बस, अभी पहुँचे अस्पताल... हिम्मत रखो! ड्राइवर! पीछे क्या देखते हो? आगे देखो और थोड़ा तेज चलो।''

फ्रॉयड के अनुसार 'मनुष्य मात्र के सभी कर्मों की मूल प्रेरणा व्यक्ति की कामेच्छा है जो उसमें जन्म से ही उत्पन्न हो जाती है। उसका कहना है कि व्यक्ति का समस्त जीवन इसी कामेच्छा की तृप्ति का इतिहास होता है। उसने इसे 'रंजन सिद्धान्त' (प्लेयर प्रिंसीपिल) नाम दिया है। उसका मानना है कि सामाजिक दृष्टि से अशोभनीय इच्छाएँ व्यक्ति के अचेतन में चली जाती हैं और वह उन्हें चेतन में आने से रोक लेता है। समयानुरूप ये दमित इच्छाएँ समाज सेवा, मानवसेवा अथव प्राणी सेवा जैसा परिष्कृत रूप धारण करके चेतन में प्रवेश पाने में समर्थ हो जाती हैं।' सुभाष नीरव की लघुकथा 'भला मानुष' के नायक का कृत्य फ्रॉयड के इस सिद्धान्त को पुष्ट करता है।
'तिड़के घड़े' लघुकथा के रूप में वृद्ध-जीवन का यथार्थ-दर्शन है। इस पूरी कथा को समझने के लिए पाठक का निम्न पंक्तियों में बद्ध बिम्ब को समझ लेना नितान्त आवश्यक है जो सुभाष नीरव के ग्राम्य-संस्कारों की देन है तथा जिसे शैल्पिक कलाकारी दिखाते हुए एक अच्छे बॉलर की तरह उन्होंने कथा के करीब-करीब उस स्थान पर टप्पा खिलाया है जिसे क्रिकेट की भाषा में 'फुल लेंथ' कहा जाता है-

दिनभर शब्दों के अनेक कंकर-पत्थर बूढ़ा-बूढ़ी के मनों के शान्त और स्थिर पानियों में गिरते रहते हैं। गुड़ुप-सी आवाज होती है। कुछ देर बेचैनी की लहरें उठती हैं और फिर शान्त हो जाती हैं।

इन लघुकथाओं में सुभाष नीरव एक समर्थ कथाकार होने का परिचय देते हुए कथ्य और कथानक दोनों ही स्तरों पर प्रस्तुति-वैभिन्य का निर्वाह करने में सफल रहे हैं। किसी एक ही विषय अथवा भाव पर उन्होंने अनेक लघुकथाएं न लिखकर जहाँ अपने अनुभवों की व्यापकता का परिचय दिया है, वहीं एक वस्तु को अनेक कोण प्रदान करने की कथात्मक त्वरा का उन्होंने सफल निर्वाह किया है। अपनी लघुकथा 'बांझ' में उन्होंने बच्चे की अनुशासनहीनता की ओर से अपनी आँखें मूंदे रखकर प्रकारान्तर से उसको प्रश्रय देने वाली माँ का चित्र प्रस्तुत किया है तो 'वाह मिट्टी' में बच्चे को अनुशासित रखने की जिद में उसकी स्वाभाविक क्रीड़ा-वृत्ति को बाधित कर डालने वाली अतिरिक्त-सावधानी से युक्त माँ का चित्र प्रस्तुत किया है-

''छी-छी! गंदी मिट्टी! मिट्टी में नहीं खेलते बेटा। देखो, हो गए न गंदे हाथ-पैर! छी!'' सोनू बाहर चला जाता तो रमा उसे तुरन्त उठाकर अन्दर ले आती। प्यार से समझाती-झिड़कती।

यह अतिरिक्त सावधानी और हर समय की टोका-टाकी स्वतन्त्र रूप से खेलने की बच्चे की भावना का दमन कर देती है-

फिर, न जाने क्या हुआ कि सोनू ने बाहर जाकर मिट्टी में खेलना तो क्या उधर झांकना भी बन्द कर दिया। दिनभर वह घर के अन्दर ही घूमता रहता। कभी इस कमरे में, कभी उस कमरे में। कभी बाहर वाले दरवाजे की ओर जाता भी तो तुरन्त ही 'छी मित्ती!' कहता हुआ अन्दर लौट आता। अब न सोनू हँसता था, न किलकारियाँ मारता था। हर समय खामोश और गुमसुम-सा बना रहता।

इस दमित बच्चे को दादा-दादी के समीप गांव में भेजकर और मिट्टी में खेलता हुआ दिखाकर सुभाष नीरव बच्चे को उसकी जड़ों और परम्पराओं से जोड़े रखने का पक्ष पाठकों के समक्ष रखते हैं।
गत सदी के छठे-सातवें दशक तक भी भारतीय माता-पिता शैशवकाल से ही अपने बच्चों को कुछ नैतिकताएँ सिखाने की ओर सचेत देखे जाते थे। ग्राम-संस्कारों वाले माता-पिता को छोड़कर यह चेतनता महानगरीय क्या नगरीय और कस्बाई संस्कारों के माता-पिता में भी अब नहीं बची है। नैतिक-शिक्षा की दृष्टि से माता-पिता द्वारा आज का बच्चा पूर्वकाल के बच्चों की तुलना में लगभग पूरी तरह अनदेखा और अनछुआ है। बच्चे की विध्वंसक गतिविधियों को आज के माता-पिता उसकी शिशु-सुलभ चपलता और बुद्धिमत्ता मानते और उल्लसित होते हैं तथा दूसरों के समक्ष उनका वर्णन बिल्कुल इस अंदाज में करते हैं जैसे कि उनका लाड़ला अपने समय के शेष सभी शिशुओं में विशिष्ट हो। इस क्रम में वे दूसरों की कोमल भावनाओं को आहत करने से भी अक्सर नहीं चूकते हैं। 'बांझ' में सुभाष नीरव ने इसी क्लिष्ट मनोवैज्ञानिक विषय को कथ्य बनाया है और सफलतापूर्वक निभाया भी है।

'इस्तेमाल' स्थापित एवं वयोवृद्ध लेखकों द्वारा नवोदित एवं साहित्य-क्षेत्र में स्थापित होने के लिए संघर्षरत लेखकों के भावनात्मक शोषण की कथा है।
बाल-मन कितना सरल, निर्मल और निर्भय होता है, इसे लघुकथा 'अपने घर जाओ न अंकल' में खेलने के लिए कर्फ्यू के दौरान भी घर से बाहर सड़क पर निकल आए बालकों को देखकर आसानी से समझा जा सकता है। सरलता का इससे बड़ा उदाहरण दूसरा क्या हो सकता है कि बच्चे उन्हें डराने-धमकाने वाले सिपाही के प्रति ही संवेदनशील हो उठते हैं और उसे भी कर्फ्यूग्रस्त इलाके में न घूमते रहकर घर चले जाने और अपना जीवन बचाने की सलाह दे देते हैं।
आदमी का दार्शनिक व मनोवैज्ञानिक इतिहास बताता है कि वह क्षुद्र स्वार्थों का उलझा हुआ गुच्छा है। अनेक स्थितियों में क्षुद्र स्वार्थों के कारण ही वह धर्म-निरपेक्ष होने का ढोंग रचता है जबकि यथार्थत: वह संकुचित आस्था और विश्वास से आजन्म मुक्त नहीं हो पाता। नि:संदेह प्रत्येक क्षुद्र स्वार्थ मानवीय दृष्टि से या तो सकारात्मक होता है या फिर नकारात्मक, बिल्कुल वैसे जैसे यथार्थ सिर्फ कटु नहीं होता, मृदु भी होता है तथा यथार्थ का चित्रण सिर्फ सकारात्मक प्रभाव ही नहीं उत्पन्न करता, नकारात्मक प्रभाव भी उत्पन्न करता है। सुभाष नीरव की लघुकथा 'धर्म-विधर्म' में चित्रित पति समाज की नकारात्मक स्वार्थ वाली इकाई का प्रतिनिधि है। इसमें यद्यपि पत्नी द्वारा पुत्र का पक्ष लेने हेतु पति के समक्ष प्रस्तुत तर्कपूर्ण कथन को भी क्षुद्र स्वार्थ की श्रेणी में ही गिना जा सकता है परन्तु सामाजिक सरोकार की दृष्टि से वह सकारात्मक प्रभाव वाला है। समकालीन लघुकथाओं का आकलन वस्तुत: इस दृष्टि से भी होना चाहिए कि उनमें व्यक्त अपने समय के सकारात्मक अथवा नकारात्मक अथवा दोनों प्रकार का यथार्थ किस स्तर का मानसिक उद्वेलन उत्पन्न कर रहा है।
सुभाष नीरव नौवें दशक के प्रतिभासंपन्न लघुकथाकार हैं। रूपसिंह चंदेल व हीरालाल नागर के साथ उनकी लघुकथाओं को एक संकलन 'कथाबिंदु' सन् 1997 में आ चुका है। और अब उनकी अपनी लघुकथाओं का पहला एकल संग्रह नीरज बुक सेंटर, पटपड़ गंज, दिल्ली से ‘सफ़र में आदमी’ शीर्षक से प्रकाशित होकर जनवरी 2012 में पाठकों के समक्ष आने वाला है। लेखन, अनुवाद व संपादन आदि लघुकथा की बहुआयामी सेवा के मद्देनजर लघुकथा के लिए पूर्णत: समर्पित पंजाब की साहित्यिक संस्था 'मिन्नी' द्वारा सन् में उन्हें प्रतिष्ठित 'माता शरबती देवी पुरस्कार' से सम्मानित किया जा चुका है। इस संकलन की लघुकथाओं को पढ़कर नि:संकोच कहा जा सकता है कि अपने समकालीनों की तुलना में भले ही उन्होंने कम और कभी-कभार लेखन किया है लेकिन जितना भी किया है वह अनेक दृष्टि से उल्लेखनीय है। सबसे बड़ी बात यह कि लघुकथा के प्रति समर्पित भाव उनमें लगातार बना रहा है। उनके इस जुड़ाव के कारण ही पंजाबी का लघुकथा-संसार हिन्दी क्षेत्र के संपर्क में बहुलता से आना प्रारम्भ हुआ जिसे सौभाग्य से अन्य अनुवादकों का भी संबल हाथों-हाथ मिला। उनकी लघुकथाएं लघुकथा-लेखन के अनेक आयाम प्रस्तुत करती हैं और हिन्दी लघुकथा-साहित्य की सकारात्मक धारा को पुष्टि प्रदान करती हैं।
संपर्क : एम-70, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032
मोबाइल: 9968094431

2 टिप्‍पणियां:

ashok andrey ने कहा…

Balram jee ka yeh lekh bahut gehre vishay ko chhuta hau achchha prabhav chhodta hai aur sochne ko majboor karta hai.

PRAN SHARMA ने कहा…

Shri Balram Agarwal ne Subhash
` Neerav ` kee chuninda laghu
kathaaon par achchha prakash daalaa hai . Yah smeeksha kaa
ujjwal udaahran hai . Unhonne mere
man kee baat kah dee hai jab ve
likhte hain - ` Subhash ` Neerav `
nauven dashak ke pratibhasampann
laghu kathakaar hain ---- unkee
laghu kathaayen laghu katha lekhan
mein anek aayaam prastut kartee hain aur hindi laghu katha sahitya
kee skaaraatmak dhaaraa ko pushti
pradaan kartee hain .`
Bebaaq vivechan ke liye shri
Balram Agarwal ko badhaae aur shubh
kamna.