मंगलवार, 31 जनवरी 2012

हम और हमारा समय




हिन्दी लेखक ऒर बँटवारा


दिविक रमेश

यूं तो 2011 काफ़ी हलचलों से भरा रहा हॆ ऒर कुछ प्रश्नों से भी लेकिन जाते-जाते हिन्दी साहित्य जगत में एक ऎसा प्रश्न
भी छोड़ गया हॆ जिस पर अवश्य विचार किया जाएगा या किया जाना चाहिए । प्रश्न उठा कि विदेशों में रह रहे अथवा बस गए साहित्यकारों को प्रवासी विशेषण देकर क्यों अलग-थलग किया जाए ? कब तक यह बँटवारा चलेगा ? वस्तुत: सुप्रसिद्ध साहित्य्कार राजेन्द्र यादव की उपस्थिति में य़ू०के० में रह रहे भारतीय कथाकार तेजेन्द्र शर्मा ने मर्माहत होकर खुद को ऒर विदेशों में रह रहे अथवा बस गए साहित्यकारों के लेखन को प्रवासी विशेषण दिए जाने पर आपत्ति दर्ज करायी ऒर प्रश्न उठाया । मुझे यह प्रश्न अपने बहुत करीब लगा क्योंकि मॆं भी इस तर्ज पर सोचता रहा हूं ।

हम सब जानते हॆं कि पिछले कुछ वर्षों में प्रवासी लेखन काफ़ी चर्चा मेंआ चुका हॆ । प्रवासी लेखकों की कितनी ही पुस्तकें भारत के कितने ही प्रकाशकों जिनमें दिग्गज प्रकाशक भी सम्मिलित हॆं के द्वारा प्रकाशित हो चुकी हॆं। हंस ऒर दूसरी महत्त्वपूर्ण पत्रिकाएं उन्हें ससम्मान छाप रही हॆं । विदेशों से भी हिन्दी साहित्य की अनेक पत्रिकाएं प्रकाशित हो रही हॆं जिनमें भारत में रह रहे रचनाकारों की रचनाएं भी प्रकाशित हो रही हॆं । वेबजाल ने भी साहित्य की पहुंच को दूरियों से परे कर दिया हॆ भले ही इस पर उपल्ब्ध साहित्य की उत्कृष्टता को लेकर कुछ लोग सकीर्ण दृष्टि भी क्यों न रखते हों। ऒर यह भी कि प्रवासी लेखकों मे बहुत से भारत में ही जन्में हॆं । कुछ तो प्रवासी होने से पहले भारत में ही प्रसिद्ध हो चुके थे । मसलन उषा प्रियंवदा । तो हिन्दी लेखन में प्रवासी, गॆर प्रवासी आदि के आधार पर बाँटकर देखने वाली प्रवृत्ति पर अब प्रश्न लगाने की आवश्यकता हॆ बल्कि उसे गहराई से समझने की जरूरत हॆ । प्रवासी ही क्यों भारत में रह रहे कुछ हिन्दी रचनाकारों के संदर्भ में भी यह प्रश्न उठाया जा सकता हॆ । हमारे यहाँ कितने ही समर्थ हिन्दी-रचनाकार हिन्दीतर प्रदेशों अथवा हिन्दीतर
मातृभाषा के होने के कारण हिंदीतर अहिन्दी भाषी हिन्दी लेखक कहलाते हॆं । कितने ही उदाहरण दिए जा सकते हॆं । अरविंदाक्षन ऎसे ही रचनाकारों में आते हॆं । यह बात अलग हॆ कि अन्यथा सोचने वालों ऒर अपने को ही मानक मानने वाले उपेक्षाधारियों की भी कमी नहीं हॆ । ऎसे भी उदाहरण हॆं जिनके अनुसार विदेशी रचनाकारों ने भी मूलत: हिन्दी में ही कविताएं आदि लिखी हॆं । मसलन पूर्व के देश चॆकोस्लोवेकिया के ओदोनल स्मेकल । उदारता ऒर सांत्वना के नाम पर ऎसी स्थितियों को पुख्ता करने के लिए प्रवासी लेखकों ऒर हिन्दीतर अथवा अहिन्दी भाषी हिन्दी रचनाकारों के लिए अनेक संस्थाओं के द्वारा अलग से पुरस्कार आरक्षित किए गए हॆं । गनीमत हॆ कि हिन्दी लेखकों को उजागर रूप से अभी बोलियों ऒर प्रदेशों के नाम पर बिहारी हिन्दी लेखक, हरियाणवी हिन्दी लेखक इत्यादि के रूप में अलग-थलग नहीं किया गया हॆ।

हमें यह समझ लेना चाहिए, ऒर इस बात की ओर मॆं कुछ ही वर्ष पूर्व दिल्ली में अयोजित एक अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी समारोह में प्रस्तुत
अपने एक लेख "समकालीन साहित्य परिदृश्य: हिन्दी कविता" में इंगित कर चुका हूं, कि तथाकथित अहिन्दी भाषी हिन्दी
रचनाकारों का ही नहीं अपितु कितने ही प्रवासी रचनाकारों का भी साहित्य-सृजन इस हद तक अच्छा हॆ कि उसे सहज ही हिन्दी
लेखन की केन्द्रीय धारा में सम्मिलित किया जा सकता हॆ । न केवल सम्मिलित किया जा सकता हॆ बल्कि उसका आकलन भी किया
जा सकता हॆ । वह भी बिना किसी रियायत के अथवा आरक्षण सुलभ विशेष कृपा के । प्रवासी या अहिन्दी जॆसे शब्द भीतर ही
भीतर, कहीं न कहीं प्रवासी ऒर अहिन्दी हिन्दी लेखन को "हिन्दी लेखन’ की तुलना में कमतर ऒर केन्द्रीय हिन्दी साहित्य से परे होने का एहसास कराने लगते हॆं । उसे दया ऒर सांत्वना के घेरे में लाकर प्रोत्साहन प्राप्त करने का पात्र बनाने की कोशिश की जाती हॆ।
शायद इसीलिए यह प्रश्न उभर कर आया कि जिसका लेखन हिन्दी में हुआ हॆ उसे मात्र ’हिन्दी लेखक’ के रूप में ही पहचान क्यों
न मिले । वस्तुत: आज समय आ गया हॆ कि हिन्दी साहित्य के परिदृश्य में हमें बिना अतिरिक्त संज्ञाओं या विशेषणों के उन सबके
हिन्दी लेखन को समान भाव से समेटते चलना चाहिए जिन्होंने मूलत: हिन्दी में रचना की हॆ। अर्थात जिन्होंने हिन्दी को इस हद तक अर्जित कर लिया हॆ कि वे हिन्दी में मात्र अभिव्यक्त ऒर संप्रेषित ही नहीं कर सकते बल्कि सोच भी सकते हॆं ऒर अनुभव
भी कर सकते हॆं । प्रोत्साहन आदि की बात हिन्दी भाषा के सीखने-सिखाने ऒर उस पर अधिकार प्राप्त करने तक ही सीमित रहनी चाहिए । विदेशों में भी हिन्दी शिक्षण की ओर ऒर मज़बूती लाने के लिए प्रोत्साहन भरी कोशिशें की जानी चाहिए । अधिकार प्राप्त
करने के बाद, हिन्दी में रचनारत होने के बाद, उनकी आवश्यकता नहीं रहती। यह बात विशेषकर हमारे आलोचकों, सम्पादकों, हिन्दी साहित्य से जुड़ी पुरस्कार आदि देने वाली संस्थाओं को अच्छे से समझ ऒर स्वीकार लेनी चाहिए । तब जाकर हिन्दी साहित्य के वास्तविक वृत को
दर्शाया जा सकेगा । ऒर नि:संदेह उस पर हमें गर्व भी होगा । ऒर एक ही परिवार होने की अनुभूति का आनन्द भी लिया जा
सकेगा । बिना विस्तार में जाए मॆं यह भी ज़ोर देकर कहना चाहूंगा कि हिन्दी लेखन की बात करते समय हिन्दी बाल लेखन
की कतई उपेक्षा नहीं की जानी चाहिए । आज यह भी अपनी पूरी पहचान के साथ अपनी उपस्थित दर्ज कराता चल रहा हॆ। यहाँ यह स्पष्ट करना चाहूंगा कि मॊजू प्रश्न को जन्मी या जन्म लेते रहने वाली किसी साहित्यिक प्रवृत्ति ऒर विधा से न टकरा कर देखा जाए । मसलन ’दलित विमर्श’ या स्त्री विमर्श’ आदि पर अलग ढ़ंग से बात करनी होगी, हांलाकि गति उनकी भी अन्तत: केन्द्रीय हिदी साहित्य के रूप में पहचान पाकर ही होगी । अर्थात समग्रता में । फिलहाल बात इतनी सी हॆ कि भॊगोलिक ऒर भाषायी कारणों से हिन्दी में सोचने अथवा अनुभव करने ऒर अभिव्यक्त करने वाले हिन्दी लेखकों को बाँट कर न देखा जाए । उन्हें तरह-तरह की बॆसाखियाँ न थमायी जाएँ । पढ़ने ऒर आकलन की दृष्टि से सबको समकक्षता का दर्जा दिया जाए । ऒर यह सब लिखते हुए मॆं इस तथ्य से भी अपरिचित नहीं हूं कि तथाकथित ’प्रवासी" आदि हिन्दी लेखकों में कुछ लेखक ऎसे भी जरूर हॆं जो ’बाँटने वाली प्रवॄत्ति को बरकारार रखने वाली हवा देते रहना चाहते हॆं । शायद इसलिए कि यश आदि लाभ प्राप्त करने का उनका रास्ता छोटा हो जाए । पर हम जानते हॆं कि साहित्य में छोटे रास्ते अथवा ’शार्ट कट’ अन्तत: कितने खतरनाक हुआ करते हॆं ऒर आत्मघाती भी । बँटवारे की राजनीति कम से कम साहित्य में नहीं होनी चाहिए ।
-०-०-०-०-

दिविक रमेश (वास्तविक नाम: रमेश शर्मा) ।
जन्म : 1946, गांव किराड़ी, दिल्ली।
शिक्षा : एम.ए. (हिन्दी), पी-एच.डी. (दिल्ली विश्वविद्यालय)
: प्राचार्य, मोतीलाल नेहरू कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय, नई दिल्ली के पद से मुक्त ।
पुरस्कार-सम्मान: गिरिजाकुमार माथुर स्मृति पुरस्कार, 1997
’ सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार, 1984
’ दिल्ली हिन्दी अकादमी का साहित्यिक कृति पुरस्कार, 1983
’ दिल्ली हिन्दी अकादमी का साहित्यकार सम्मान 2003-2004
एन.सी.ई.आर.टी. का राष्ट्रीय बाल-साहित्य पुरस्कार, 1989
’ दिल्ली हिन्दी अकादमी का बाल-साहित्य पुरस्कार, 1987
’ भारतीय बाल-कल्याण संस्थान, कानपुर का सम्मान 1991
’ बालकनजी बारी इंटरनेशनल का राष्ट्रीय नेहरू बाल साहित्य एवार्ड 1992
’ इंडो-रशियन लिटरेरी कल्ब, नई दिल्ली का सम्मान 1995
’ कोरियाई दूतावास से प्रशंसा-पत्र 2001
द्विवागीश पुरस्कार, भारतीय अनुवाद परिषद, 2009
श्रीमती रत्न शर्मा बाल साहित्य पुरस्कार, 2009

बंग नागरी प्राचारिणी सभा का पत्रकार शिरोमणि सम्मान 1976 में।

प्रकाशित कृतियां :कविता संग्रह : ‘रास्ते के बीच’, ‘खुली आंखों में आकाश’, ‘हल्दी-चावल और अन्य कविताएं’, ‘छोटा-सा हस्तक्षेप’, ‘फूल तब भी खिला होता’ (कविता-संग्रह)। ‘खण्ड-खण्ड अग्नि’ (काव्य-नाटक)। ‘फेदर’ (अंग्रेजी में अनूदित कविताएं)। ‘से दल अइ ग्योल होन’ (कोरियाई भाषा में अनूदित कविताएं)। ‘अष्टावक्र’ (मराठी में अनूदित कविताएं)। ‘गेहूँ घर आया है’ (चुनी हुई कविताएँ, चयनः अशोक वाजपेयी)।

आलोचना एवं शोधः नये कवियों के काव्य-शिल्प सिद्धान्त, ‘कविता के बीच से’, ‘साक्षात् त्रिलोचन’, ‘संवाद भी विवाद भी’।

संपादित:‘निषेध के बाद’ (कविताएं), ‘हिन्दी कहानी का समकालीन परिवेश’ (कहानियां और लेख), ‘कथा-पड़ाव’ (कहानियां एवं उन पर समीक्षात्मक लेख), ‘आंसांबल’ (कविताएं, उनके अंग्रेजी अनुवाद और ग्राफ्क्सि), ‘दूसरा दिविक’ आदि का संपादन।

अनूदित:‘कोरियाई कविता-यात्रा’ (हिन्दी में अनूदित कविताएं)। ‘द डे ब्रक्स ओ इंडिया’ (कोरियाई कवयित्री किम यांग शिक की कविताओं के हिंदी अनूवाद) । ‘सुनो अफ्रीका’।

बाल-साहित्य: ‘जोकर मुझे बना दो जी’, ‘हंसे जानवर हो हो हो’, ‘कबूतरों की रेल’, ‘छतरी से गपशप’, ‘अगर खेलता हाथी होली’, ‘तस्वीर और मुन्ना’, ‘मधुर गीत भाग 3 और 4’, ‘अगर पेड़ भी चलते होते’, ‘खुशी लौटाते हैं त्यौहार’, ‘मेघ हंसेंगे ज़ोर-ज़ोर से’ (चुनी हुई बाल कविताएँ, चयनः प्रकाश मनु)। ‘धूर्त साधु और किसान’, ‘सबसे बड़ा दानी’, ‘शेर की पीठ पर’, ‘बादलों के दरवाजे’, ‘घमण्ड की हार’, ‘ओह पापा’, ‘बोलती डिबिया’, ‘ज्ञान परी’, ‘सच्चा दोस्त’, (कहानियां)। ‘और पेड़ गूंगे हो गए’, (विश्व की लोककथाएँ), ‘फूल भी और फल भी’ (लेखकों से संबद्ध साक्षात् आत्मीय संस्मरण)। ‘कोरियाई बाल कविताएं’। ‘कोरियाई लोक कथाएं’। ‘कोरियाई कथाएँ’,

‘और पेड़ गूंगे हो गए’, ‘सच्चा दोस्त’ (लोक कथाएं)।

अन्य : ‘बल्लू हाथी का बाल घर’ (बाल-नाटक)।
‘खण्ड-खण्ड अग्नि’ के मराठी, गुजराती और अंग्रेजी अनुवाद।
अनेक भारतीय तथा विदेशी भाषाओं में रचनाएं अनूदित हो चुकी हैं। रचनाएं पाठयक्रमों में निर्धारित।

संपर्क : 295, सेक्टर-20, नोएडा-201301 (यू.पी.), भारत। फोनः $91-120-4216586
ई-मेल: divik_ramesh@yahoo.com
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कविताएं


इला प्रसाद की चार कविताएं

सुरक्षा

पेड़ वस्त्र उतार रहे हैं
नन्हॊं , नवजातों के लिए
सूखे पत्ते बन गए हैं ढाल
आगामी हिमपात के विरुद्ध।
हवा ने बिछाया है उन्हें,
एहतियात से,
छॊटे- छॊटे पौधों की जड़ॊं में ;
सदा की संगिनी जो ठहरी !
खुले आकाश तले
गर्व से सिर उठाए
अब घॊषणा करते हैं वे, निर्वस्त्र
अगली पीढ़ी सुरक्षित है!
-०-०-०
ठंढ

उसने बोगन वेलिया से कहा
ठंढ तो है ,
लेकिन तुम्हे परेशानी नहीं होगी
तुम्हारी शाखें
पहुँचती हैं
धूप तक
जैसे मैं
थाम लेती हूँ
अपने नन्हे बच्चे की
नाजुक, नम उंगली
और भूल जाती हूँ
वे तमाम चोटें
जो जिन्दगी देती है!
-०-०-०-
बाजार

आजकल अक्सर मुझे बहुत डर लगता है
बची तो रहेंगी न
वे वनस्पतियाँ , पेड़ , जंगल
जिनसे बनती है मेरी
दवा
इतनी तेजी से कटते जा
रहे हैं पेड़
नष्ट हो रही हैं वनस्पतियाँ
कैसे स्वस्थ रहूंगी
मैं !

मुझे डर लगता है
कोई तो बचा रहेगा न
जो मेरी भाषा में बोलेगा?
समझ सकेगा मेरी बात?
इतनी तेजी से बदल रही
है भाषा ,
लुप्त हो रहे हैं मेरी
भाषा के शब्द, शब्दों के अर्थ !
मेरे अंत तक
बचा तो रहेगा न एक आदमी
जिसमे बची रहेंगी
मानवीय संवेदनाये
इतनी तेजी से ख़त्म
होती जा रही है
मनुष्यता !

क्या होगा मेरे जैसे
लोगों का
जो बाजार का हिस्सा
नहीं बन सकते
क्या वो भी मेरी ही
तरह
डरे हुए हैं !

पृथ्वी

मैं कहाँ जानती थी
तुमको
लेकिन जब तुमसे बँध
गई
तो जुड़ना चाहा
और इस जुड़ाव का सच
जानोगे?

तुम सूरज हुए या
नहीं, तुम्हें पता होगा
लेकिन तुम्हारे इर्द-गिर्द
घूमती
दुख-सुख भोगती
अपमान- अहंकार झेलती
सबकुछ सहती
मैं सचमुच पृथ्वी
हो गई हूँ!

-०-०-०-०

लघुकथाएं



इला प्रसाद की दो लघुकथाएं

जिम्मेवार


रुचि को वह शुद्ध गोपिका लगती जब भी वह इस्कॉन मंदिर जाती, उसे वह जरुर मिलती सुन्दर , माथे पर चन्दन- टीका और अच्छी- सी साड़ी पहने वह कृष्ण मूर्ति के सामने भजन पर औरों के साथ नृत्य करती जीवन से भरपूर .... दीपावली पर तो वह दर्शनीय होती इतने सुन्दर वस्त्र- आभूषण ! उसका रूप- सौन्दर्य फटा पड़ता उसकी माँ से रूचि ने जाना कि उसकी यह सुंदरी बेटी परित्यक्ता है और पोस्ट आफिस में नौकरी करती है जो उन दोनों के भरण- पोषण लिए पर्याप्त हैरूचि को उसकी हँसी तब और लुभाती कई सालों तक वह इसी तरह हँसती , दिवाली समारोह में अपने सबसे सुन्दर आभूषण और साड़ियों में उसे मिलती रही रूचि उसकी माँ से बातें करती माँ परेशान कि इसकी फिर से शादी हो जाए तो वह निश्चिन्त मर सके मंदिर भारतीयों का मिलन स्थल भी है इस गोपी को कोई कृष्ण मिल जाए .. वह उसके लिए मन ही मन मंगलकामना करती रिश्ते खोजती ... उसकी माँ को बताती ....फिर यह क्रम अचानक रुक गया पति को दूसरे शहर में नौकरी मिली वह कई वर्षों तक उस मंदिर में नहीं गई चार वर्षों के बाद इस साल फिर रूचि का उस मंदिर में जाना हुआ ... वही दिवाली की रात वह थी वहाँ सलवार -सूट और हलके आभूषण पहने फीकी सी नजर आ रही थी कहाँ गई इसकी ऊर्जा ! रूचि ने सोचा ...और हठात उसके मन में उभरा - उसकी मर गई आशा के लिए कहीं वह भी तो जिम्मेवार नहीं!उसकी माँ मिले, इससे पहले वह सामने से हट गई

शिक्षा का मूल्य


प्रौढ़-शिक्षा की कक्षाओं में मैंने उन दिनों नया- नया पढ़ाना शुरू किया था। सुबह आठ बजे से कक्षायें आरम्भ होतीं। मेरे लिये गर्मी की छुट्टियों का यह सार्थक उपयोग था।
अठारह से लेकर अट्टाइस वर्ष की उम्र की छात्रायें इन कक्षाओं के माध्यम से बिहार बोर्ड की माध्यमिक परीक्षा के लिये तैयार हो रही थीं। पचास छात्राएं क्लास में। सभी आदिवासी। राँची और उसके आसपास के क्षेत्रों से आई हुई। कुछ ऐसी कि कभी स्कूल का मुँह नहीं देखा था, इससे पहले । कुछ ने बीच में पढ़ाई छोड़ दी थी। इन सबको भौतिकी जैसे कठिन माने जाने वाले विषय को पढ़ाने का दायित्व मेरा। कभी भौतिकी के प्रारम्भिक ज्ञान से आरम्भ कर गणित भी समझाना होता क्योंकि उनमें से कई को दशमलव के जोड़- घटाव भी नहीं आते थे। मैं पूर्ण मनोयोग से उन्हें विषय समझाने की कोशिश करती, लेकिन अक्सर ही खीझ जाती जब पहली पंक्ति में चौथी बेंच पर बैठी उस छात्रा को हर रोज सोता पाती। मेरी तमाम कोशिशें बेकार रहीं- उसकी बेंच के करीब जाकर, बेंच थपथपाकर उठाने की कोशिश, जोर से बोलना… किसी चीज का असर ही न होता। वह हर रोज जैसे सोने के लिये ही क्लास में आती थी। आखिर एक दिन मेरा धीरज छूट गया-
“यह क्लास में आती क्यों है, जब इसे सोना है सारे वक्त? घर पर सोया करे।“ मैंने बाकी कक्षा की ओर उन्मुख हो कर हवा में प्रश्न उछाला।
“मैडम, ई बहुत थकी रहती है, इसीलिये सो जाती है। हर रोज तीन बजे उठती है, घर का सब काम करती है – पानी लाना, गोबर पाथना, घर लीपना, भात पकाना, सब करके आती है। घर में माँ आउर छोटा भाई- बहन है। पन्दरह किलोमीटर है, इसका घर यहाँ से। सुबह चार बजे चलना शुरू करती है, तब पहुँचती है। थक जाती है।“ उसकी बगल की बेंच पर बैठी लड़की ने मेरे प्रश्न का उत्तर दिया।
“ लेकिन इस तरह तो पढ़ाई होने से रही। आने की जरूरत क्या है?”
“ इसको यहाँ आके पढ़ने का जो पैसा मिलता है, उसी से घर का खर्चा चलता है, मैडम। घर में खाने को भी नहीं है।“
-०-०-०-

कहानी




सांताक्लाज हँसता है!


इला प्रसाद

हो, हो हो! सांताक्लाज हँसता है।

उसके साथ हँसते हैं वेरा, बेन और जेनी। उसे घेर कर नाचते हैं।

वेरा उसकी दाढी छूकर देखती है- कितनी मुलायम और ठंढी… बर्फ़ के फ़ाहे लगे हुए… उत्तरी ध्रुव से आता है सांता… चिमनी से घर में घुसता है और बैठके में क्रिसमस ट्री पर छुपाकर रखे उनके पत्र पढ़ता है। फ़िर उनकी माँगी चीजें रख जाता है। उसे सब पता है अब। आज पकड़ा गया। वेरा ने सब देख लिया है।
वह बाहर झाँक कर देखना चाहती है – सांता की स्लेज बाहर होगी। सुनहले सीगोंवाले हरिण जुते होंगे। क्या उनके सींगों पर भी बर्फ़ है, उजले हो गये हैं वे भी यहाँ तक आते –आते…
वह सांता से बात करना चाहती है, पूछना चाहती है- पिछले तीन सालों से आया क्यों नहीं।
लेकिन सांता के फ़ोन की घंटी बजने लगी है। सांता यह जा, वह जा……
बाय-बाय सांता। कम अगेन.. नेक्स्ट ईयर…
सांता हँसा – हो, हो ….
वेरा चौंक कर जागी। सांता आया था।
मॉम रसोई में है। बेन और जेनी सो रहे हैं। वह माँ को बताना चाहती है।
‘गुड मार्निंग मॉम।“
“गुड मार्निंग बेबी।“
“मम, मैंने सांता को देखा! हमारे घर आया था।”
“वेरी गुड!”
“वह इस साल आयेगा, है न?”
“हो सकता है। ब्रश करो, नाश्ता करो। बेन और जेनी कहाँ हैं? मुझे हॉस्पीटल जाना है। तुमसब को सारा आंट के घर रहना है – शाम छ्ह बजे तक।“

“अम.. आज भी? कल क्रिसमस है मॉम।“
“मैं छह बजे तक आ जाऊँगी।“
वेरा सोचती-सी खड़ी रही। बेन और जेनी को सांता के बारे में बतायेगी। क्या पता, उन्हें पता हो। जब सांता आया था तो वे भी तो साथ में थे… सचमुच ही आया था क्या? क्रिसमस ट्री के पास जा कर देखना होगा। के-मार्ट के ले-अवे में उसकी चाबी वाली तितली रखी है, बेन की पतंग और जेनी की बार्बी। मॉम ने सब के कुछ डालर चुका रखे थे, क्या पता बाकी उसने दे दिये हों और ले आया हो। बिल्कुल वैसे ही तो थे। वैसे क्या, वही थे। लेकिन कहाँ है क्रिसमस ट्री। पिछले तीन साल से तो मॉम लाती ही नहीं। सपना ही होगा! … लेकिन मम से बात करना बेकार है। उन्हें तो आज भी ड्यूटी पर जाना है। मॉम की कभी छुट्टियाँ नहीं होतीं……
“वेरा!” मम की कड़ी आवाज कानों में पड़ी।
“यस मॉम।“
वेरा दौड़ गई।

फ़ोन बज रहा है।
करेन का हाथ फ़ोन उठाने को उठा फ़िर शिथिल हो कर हवा में झूळ गया। सुबह के आठ बज चुके हैं। यह वेरा आठ साल की हो गई तब भी इतनी अक्ल नहीं है कि सच और सपने का फ़र्क समझ सके। बेन और जेनी तो तब भी छोटॆ हैं छह और चार साल के। सांता आया था!.....
उसे अक्सर ही इच्छा होती है कि उन्हें बिठाकर समझा दे कि कोई सांताक्लाज नहीं होता। जो उपहार उन्होंने अपने दोस्तों के पास हर साल क्रिसमस पर देखे हैं वे उनके माँ- बाप या अभिभावक ले आते हैं और क्रिसमस ट्री में छुपा देते हैं। सांता केवल कहानी है, सच नहीं।
फ़िर उसे अपने पर खीझ हुई। बच्चों पर क्यों गुस्सा हो रही है। उसकी नर्स की नौकरी अगर उसे इतने डालर नहीं देती कि बिजली- पानी, इन्श्योरेंस, राशन और घर के किराये के बाद कुछ बचा सके तो इसमें बच्चों का क्या दोष !
तीन सालों से वह वही नाटक कर रही है।
हर साल क्रिसमस के लिये बच्चों के उपहार के- मार्ट में ले- अवे में रखवा आती है कि बाकी की किश्तें चुका कर ले लेगी और वह चुकाना कभी नहीं होता। बच्चे उदास होते हैं। बच्चे रो- धो कर भूळ जाते हैं और फ़िर अगले क्रिसमस तक बात टल जाती है।
उसे याद आया उसके बचपन में उसकी माँ भी यही किया करती थी। हर साल ले-अवे में उसके लिये खिलौने रखे जाते.. और वे कभी करेन को नहीं मिले।
परम्परायें पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होती हैं। अभाव और गरीबी भी।
खिलौने रखवाने की परम्परा वह निभा रही है। कुछ समय के लिये बच्चॊं को बहलाने की परम्परा….
सांताक्लाज आयेगा!
खिलौनों लायेगा और उनके घर में चिमनी से प्रवेश कर क्रिसमस ट्री के नीचे रख जायेगा। देखॊ, सांताक्लाज के हरे-लाल मखमली मोजे अब भी चिमनी से लटक रहे हैं। और टोपी भी। लाल टोपी, सफ़ेद फ़ुदने वाली…. हड़बड़ी में छूट गये… इतने सारे घरों में जाना होता है न!
बच्चे खुश!
वेरा की तितली घर्र- घर्र करती उसके सिर पर मंडरायेगी।
बेन की पतंग रिमोट के इशारों पर आसमान में उड़ेगी और नाचेगी।
जेनी बार्बी के साथ सोयेगी- जागेगी। उसे अपने साथ लेकर स्कूळ जायेगी।
कल क्रिसमस है। वेरा ने तो सपने में देख भी लिया कि सांता आया था!
करेन ने गहरी साँस ली। तीनों खिलौनों की कीमत कुछ दो सौ साठ डालर। महीने का अन्तिम सप्ताह… जेब में तो अब केवल पचास डालर बचे हैं और उन्हीं में यह क्रिसमस सप्ताह निकालना है। केक बना लेगी लेकिन उसके लिये सामान खरीदने में और चाकलेट खरीदने में दस-पन्द्रह डालर खर्च हो जायेंगे। क्रिसमस ट्री लगाने, सजाने का क्या मतलब जब बच्चों के उपहार आ ही नहीं सकते। उसमें भी बीस-पच्चीस डालर खर्च होते। उससे कम में तो आता नहीं। क्रेडिट कार्ड के इतने सारे लोन पहले से सिर पर। एक और उदास क्रिसमस और क्या। क्रिसमस के दिन हँसता घर और खुशी से किलकते बच्चे अब सपना हो गये हैं!
रसोई निपट चुकी है। वह जाने को तैयार है। बच्चे नाश्ता कर गराज में खेल रहे हैं। नौ बज चुके हैं। उसे दस बजे हॉस्पीटल में होना है। एक घंटे की ड्राइव है। उससे पहले इन तीनों को सारा के घर छोड़ देना है।
फ़ोन कई बार बज- बज कर बंद हो चुका है।
करेन जानती है, के- मार्ट याद दिला रहा है। उसे कीमतें चुकानी हैं। आज आखिरी दिन है। इसके बाद वे ले- अवे से हटा दिये जायेंगे। किसी अन्य ग्राहक को दे दिये जायेंगे जो पूरी कीमत चुकायेगा।
लेकिन किसी और का फ़ोन नहीं हो सकता, वह चौंक कर सोचती है, उसने तो उठाया नहीं! सुनना तो था। कहीं हॉस्पीटल से? सारा का? कोई और… नहीं, वही होगा…… और कोई हो ही नहीं सकता। ठीक किया नहीं उठाया, जब कुछ कर ही नहीं सकती…..
के-मार्ट वाले भी समझ गये होंगे।
उन खिलौनों को भी अपना यह भविष्य पता ही होगा। बच्चों को भी शायद…..
उसने जल्दी से जूते पैरों में डाले। ड्राइव -वे में कार स्टार्ट की। वेरा, बेन और जेनी को पुकारा। यंत्रवत रास्ते में सारे काम निपटाती, सारा को मुस्करा कर बाय कहती, दस माइल की ड्राइव कर वह हॉस्पीटल में हाजिर हो गई। तब रात की पारी की नर्स जेनिफ़र जा चुकी थी। जा चुके थे वे सब जिन्होंने रात की ड्यूटी की थी। सुबह की ड्यूटी वालों ने अपनी जगह ले ली थी। उसने जल्दी-जल्दी सारे चार्ट देखे। छह नम्बर बेड पर के मरीज का पेसमेकर ट्रांस्प्लांट हुआ था। नार्मल है। ब्लड प्रेशर, टेम्परेचर सबकुछ नार्मल। उसे आज डिस्चार्ज होना है। वह उसके कमरे की ओर बढ़ी।
“करेन, तेरा फ़ोन है।“
वह खीझ गई। बात कर ही लेगी।
“हाई,करेन हियर।“
“हाई मैम, कैसी हैं आप।“
“डूइंग गुड। थैंक यू। बट आई केन्ट…..”
“रिलैक्स। मैं जिम, स्टॊर मैनेजर के- मार्ट, बोल रहा हूँ। आपके ले- अवे के खिलौनों की कीमत किसी ने चुका दी है। आप उन्हें ले जा सकती हैं।“
“कौन है वह?” करेन चौंक गई। ऐसा कैसे हो सकता है!
“हम उसका नाम नहीं बता सकते। यह नियम विरुद्ध है। उसने कई लोगों के उपहारों की कीमतें चुकाई हैं। हम सुबह से आपसे सम्पर्क करने की कोशिश कर रहे हैं। आप खिलौने ले जा सकती हैं।“
‘सीक्रेट सांता?”*
“यप। मेरी क्रिसमस!”
कई दिनों से – सालों से जम रहा तनाव पिघल-पिघल कर बहने लगा…बह गया एकबारगी। नहीं, वह इतना नहीं सह सकती। इतनी खुशी नहीं बर्दाश्त कर सकती….
करेन रो पड़ी-
“मेरी क्रिसमस।“



*सीक्रेट सांता अमेरिका की एक संस्था है जिसके सदस्य हर साल, अनाम रहकर, क्रिसमस के मौके पर हजारों डालर अपरिचित, अभावग्रस्त लोगों की सहायता में देते हैं। सांताक्लाज की वेशभूषा में वे राह चलते लोगों को मिलते हैं और सौ डालर के नोट थमा देते हैं या फ़िर उनके बिल चुका देते हैं। सांता की वेशभूषा में होने के कारण और अपनी पहचान उद्घाटित न करने के कारण भी उन्हें सीक्रेट सांता नाम मिला हुआ है।
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इला प्रसाद

जन्म : ३ जून, रांची, झारखण्ड.

शिक्षा : पी-एच.डी.(भौतिकी) काशी, हिन्दू विश्वविद्यालय.

छात्र जीवन से लेखन की शुरुआत. प्रारंभ में कॉलेज पत्रिका एवं आकाशवाणी तक सीमित. साहित्य की कई विधाओं- कतिवा, कहानी, व्यंग्य, आलेख, संस्मरण आदि में एक साथ सक्रिय. अब तक भारत सहित देश/विदेश की लगभग सभी प्रमुख पत्रिकाओं यथा, वागर्थ, हंस, पाखी, कादम्बिनी, रचना समय, समकालीन भारतीय साहित्य, वर्तमान साहित्य, युद्धरत आम आदमी, आधारशिला, कथाबिम्ब, कथाक्रम, पुनर्नवा (दैनिक जागरण वार्षिकांक), ’शब्द दुर्ग पर दस्तक’ (द संडे पोस्ट का वार्षिकांक), निकट (यू ए इ), स्पाइल-दर्पण (नार्वे), पुरवाई (यू.के.), विश्वा (अमेरिका), हिन्दी जगत (अमेरिका), हिन्दी चेतना (कनाडा), हिन्दी पुष्प (आस्ट्रेलिया) आदि में रचनाएं प्रकाशित. कई संकलनों में रचनाएं संकलित. कुछ रचनाओं के तमिल और ओड़िया में अनुवाद. आरंभिक दिनों में इला नरेन के नाम से भी लेखन.

अमेरिका की पत्रिका ’हिन्दी जगत’ के सम्पादक मंडल में. कनाडा की पत्रिका ’हिन्दी चेतना’ के कामिल बुल्के विशेषांक में सम्पादन सहयोग. भारत की पत्रिका ’शोध-दिशा’ के अमेरिका प्रवासी कथाकार अंक का सम्पादन. कुछ रचनाएं डेनमार्क के रेडियो सबरंग पर सुनी जा सकती हैं.

विश्व हिन्दी न्यास की पत्रिका ’विज्ञान प्रकाश के लिए विज्ञान संबन्धी लेखों का हिन्दी अनुवाद और स्वतंत्र लेखन. कंप्यूटर के माध्यम से हिन्दी के प्रचार-प्रसार का कार्य भी.

द संडे इंडियन्स द्वारा विश्व भर की हिन्दी की एक सौ ग्यारह लेखिकाओं में उल्लिखित.

प्रकाशित कृतिया: ’धूप का टुकड़ा’ (कतिवा संग्रह), ’इस कहानी का अंत नहीं’ और ’उस स्त्री का नाम’ (कहानी संग्रह).

व्यवसाय : अध्यापन
संपर्क : 12934 Meadow Run
Houston, TX 7706 , USA
Phone : 281-586-7399

समीक्षा




अतिवादिता से मुक्त सहज और सम्प्रेषणीय कहानियाँ

सुभाष नीरव

इला प्रसाद समकालीन हिंदी कहानी में एक परिपक्व और समर्थ कथाकार के रूप में तेजी से उभर कर हमारे सामने आई हैं। परिपक्व और समर्थ कथाकार होने की बानगी इला अपने पहले कथा संग्रह ‘इस कहानी का अंत नहीं’ से हिंदी पाठकों को दे चुकी हैं।‘उस स्त्री का नाम’ इला प्रसाद का दूसरा कहानी संग्रह है जिसमें पंद्रह कहानियाँ संकलित हैं। मानवीय संवेदनाओं से भरी इन कहानियों में मनुष्य के दुख-सुख, उतार-चढ़ाव, आशा-निराशा के अनेक रंग देखने को मिलते हैं। अधिकतर कहानियाँ अमेरिकी समाज में रह रहे भारतीय परिवारों द्वारा वहां की दैनन्दिन मुश्किलों से दो-चार होने की कथा बयान करती हैं।

वर्तमान समय में पूरे विश्व में मानवीय मूल्यों के साथ-साथ मनुष्य के भीतर की संवेदना का क्षरण हो रहा है। ऐसे में साहित्य और साहित्य में कहानी और उपन्यास ही वे क्षेत्र बचे हैं जहाँ इन्हें बचाने की पुरजोर ईमानदार कोशिश एक लेखक करता है। इला प्रसाद भी अपने लेखन में इसी पुरजोर ईमानदार कोशिश में संलग्न है।

किसी भी संग्रह की सभी कहानियाँ पाठकों को एक ही तरह से प्रभावित करें, ज़रूरी नहीं होता। हर कहानी अपने गठन, संगठन, प्रस्तुति, भाषा, शैली, कथ्य और चरित्रों के सृजनात्मक चित्रण के चलते अलग-अलग प्रभाव पाठक पर छोड़ती है। कुछ कहानियों का प्रभाव पाठक की अंतसचेतना पर गहरा पड़ता है तो कुछ का कम। वहीं कुछ कहानियाँ इतनी बेजोड़ होती हैं कि वह पाठक के जेहन में अविस्मरणीय छाप छोड़ जाती हैं। ‘उस स्त्री का नाम’ संग्रह की कहानियाँ पढ़ते हुए इसी प्रकार का मिलाजुला असर होता है। संग्रह में जहाँ ‘एक अधूरी प्रेमकथा’, ‘बैसाखियाँ’ ‘उस स्त्री का नाम’, ‘मेज’ ‘साजिश’ ‘कुंठा’ जैसी उत्कृष्ट और बेजोड़ कहानियाँ हमें पढ़ने को मिलती हैं, वहीं ‘तलाश’ और ‘मुआवज़ा’ जैसी भी कहानियां है जो पाठक के दिलादिमाग पर उस प्रकार का प्रभाव नहीं छोड़ पातीं कि वह उन्हें याद रख सके। यूँ भी सभी कहानियाँ याद रखे जाने लायक होती भी नहीं हैं। बस, पढ़ते समय हल्का-सा क्लिक करती हैं, अच्छी लगती हैं और फिर मन-मस्तिष्क के पटल से गायब हो जाती हैं। लेकिन पाठक के मन-मस्तिष्क पर स्थायी प्रभाव न छोड़ने वाली ये कहानियाँ खारिज कर दी जाने वाली कहानियाँ भी नहीं होतीं। चूंकि कहानी मात्र कहानी नहीं होती, वह अपने समाज, काल, परिस्थिति, परिवेश को प्रतिबिंबित करने की एक सशक्त विधा है। कहानी में अपना समाज, समय और परिवेश के साथ-साथ हमें अपना जीवन भी धड़कता दिखाई देता है, तभी तो वह साहित्य की एक बहुपठनीय और लोकप्रिय विधा है।

इला प्रसाद की कहानियों से गुजरते हुए हम पाते हैं कि लेखिका सामाजिक और परिवेशगत प्रवृत्तियों के प्रति बेहद सजग और जागरूक है। कहानी को गढ़ना और कहना उन्हें बखूबी आता है। अपने छोटे- छोटे अनुभवों को कलात्मकता से व्यक्त करने वाली एक सशक्त भाषा उनके पास है। निरर्थक विस्तार से अपनी कहानियों को बड़ी सफाई से बचा ले जाने की कला उन्हें आती है और यह कला भी उनके पास है कि पाठक को कहानी के उस मूल बिन्दु पर कैसे ले जाकर छोड़ा जाए, जहाँ उस कहानी का अभीष्ट छिपा होता है। ऐसा लेखक की रचनात्मक कौशल से ही संभव हो पाता है और यह रचनात्मक कौशल इला प्रसाद में है।

किसी भी प्रकार के छद्म से मुक्त इन कहानियों में एक बेहद संवेदनशील रचनाकार की चिंताएँ मुखरित हुई हैं। ये चिंताएँ ने केवल भारतीय परिवारों की रोज़मर्रा की मुठभेड़ों से संबंधित हैं, अपितु विदेशी धरती पर सांस ले रहे उन तमाम प्रवासी और ग़ैर-प्रवासी लोगों के जीवन की समस्याओं, उनके दुख-दर्दों, रोज़मर्रा की उठा पटकों को संजीदगी से रेखांकित करती हैं।

‘एक अधूरी प्रेमकथा’ में लेखिका ने प्रेम और समर्पण को एक नये दृष्टिकोण से देखने और उसे अभिव्यक्त करने का सफल प्रयास किया है। संग्रह की शीर्षक कहानी ‘उस स्त्री का नाम’ अपने विशेष कथ्य और अपनी विशिष्ट संरचना में एक उत्कृष्ट कहानी है। विषय में साधारण सी दिखने वाली कहानी ‘मेज’ पूरे संग्रह में क्लासिक कहानी बन गई है। यह कहानी अपनी साधारणता में ही असाधारण है। ‘कुंठा’ एक समय चर्चा और शोहरत के शिखर पर रहे व्यक्ति की समाज में एकाएक बेपहचान होते जाने के दंश को बेहद खूबसूरती से उकेरती है। ‘तूफान की डायरी’ अमेरिका में आए तूफ़ान ‘गुस्ताव’ पर केन्द्रित है और भंयकर तूफ़ान से हुई तबाही से प्रभावित जन-जीवन की कथा बयान करती है। यहाँ तूफान की दहशत है, भय है, चिंताएं हैं और तूफान के बाद पुनः जीवन को पटरी पर लाने की जद्दोजहद है। तूफ़ान कहीं भी किसी भी देश में आएं, अपने पीछे तबाही और लाचारगी के मंजर छोड़ जाते हैं। ‘आकाश’ एक बेहद सुन्दर और टेलेंटिड लड़की के धाराशायी होकर टूटते सपनों की मार्मिक कथा बन पड़ी है। ‘मुआबजा’ न्यूयार्क की तेज रफ्तार ज़िन्दगी और वहाँ के सच को बयान करती कहानी है। अमेरिकी परिवेश और समाज पर लिखी कुछ कहानियाँ जैसे ‘मुआबजा’, ‘तूफान की डायरी’ हमारे उस भ्रम को भी खंडित करती हैं कि पश्चिमी देश श्रेष्ठ और सभ्य हैं और हमारे ही देश भारत में भेदभाव, शोषण, भ्रष्टाचार और सांप्रदायिक विद्वेष अधिक है। जब कि सच यह भी है कि असभ्यता, अमानवीयता, क्रूरता, भ्रष्टाचार, घृणा, शोषण, भेदभाव विदेशों में भी बहुत है। संग्रह में एक मात्र कहानी ‘तलाश’ अपनी प्रस्तुति में पाठक तक पहुँचने में सफल प्रतीत नहीं होती है।

इन कहानियों की भाषा सरल है पर कहीं कहीं इतनी रम्य और मोहित करने वाली है कि पाठक दंग रह जाता है। संग्रह की पहली ही कहानी की शुरुआती पंक्तियाँ बानगी के तौर पर पेश हैं- “मन घूमता है बार बार, उन्हीं खंडहर हो गए मकानों में, रोता-तड़पता, शिकायतें करता, सूने-टूटे कोनों में ठहरता, पैंबंद लगाने की कोशिश करता... मैं टुकड़ा टुकड़ा जोड़ती हूँ लेकिन कोई ताज़महल नहीं बनता।“

इला प्रसाद की अधिकतर कहानियों की जो उल्लेखनीय विशेषता है- वह है कहानियों की जबरदस्त पठनीयता और सम्प्रेषणियता। यदि कहानी पठनीय और सहज सम्प्रेषणीय होगी, तभी पाठक उस कहानी से भीतर तक एक जुड़ाव महसूस कर सकेगा और कहानी के मूल मंतव्य को जान-समझ सकेगा। कहना न होगा कि इला प्रसाद अपनी कहानियों में इस ओर अधिक सतर्क और जागरूक दिखाई देती हैं और वह कहानी को उलझावों से बचाते हुए उसके भीतर के रोचक प्रवाह को बनाये रखती हैं। यह रोचक प्रवाह ‘एक अधूरी प्रेमकथा’, ‘बैसाखियाँ’, ‘उस स्त्री का नाम’, ‘मेज’, ‘हीरो’, ‘मिट्टी का दीया’, ‘साजिश’, ‘कुंठा’ में बखूबी देखा जा सकता है।

विदेशी धरती के समाज, परिवेश और वहाँ की भिन्न परिस्थितियों के साथ कोई भारतीय रचनाकार अपने वतन से दूर रहकर किस तरह सामंजस्य स्थापित करता है और कैसे वहाँ की कटु सच्चाइयों से बावस्ता होते हुए खट्टे-मीठे अनुभवों को अपने में समाहित कर अपनी कलम द्वारा उन्हें शब्द देता है, इसका उदाहरण बहुत से प्रवासी लेखकों की रचनाओं में हमें बखूबी देखने को मिलता है। इला प्रसाद भी उन्हीं में से एक ऐसी समर्थ कथाकार हैं जो अपने प्रवास के दौरान एक भिन्न समाज, भिन्न संस्कृति, भिन्न परिवेश-परिस्थिति को आत्मसात कर, वहाँ के जीवन की सच्चाइयों से मुठभेड़ करते हुए अपने छोटे-छोटे दैनन्दिन अनुभवों को अपने लेखन द्वारा बहुत बड़ा रचनात्मक और साकरात्मक विस्तार देने में सफल हो जाती हैं।

इला प्रसाद के पास देशी-विदेशी अनुभवों का एक बहुत बड़ा खजाना है यानी उनका अनुभव संसार बहुत व्यापक है। यह अनुभव संसार एक लेखक में जितना व्यापक होगा, उसकी रचनाओं में उतना ही वैविध्य होगा। यह रचनात्मक वैविध्य इला प्रसाद की कहानियों में स्वतः ही दृष्टिगोचर हो जाता है। कुछ कहानियाँ भारतीय पर्व-त्योहार और अमेरिकी समाज के त्योहार को केन्द्र में रखकर भी इस संग्रह में हैं जैसे ‘बैसाखियाँ’ ‘होली’ ‘मिट्टी का दीया’। ये कहानियाँ अपनी भाषा और संवेदना में पाठक के अन्तर्मन को स्पर्श करने में सफल रही हैं।

कहना न होगा कि इस संग्रह की कहानियाँ अतिवादिता के दोष से मुक्त बेहद सहज और सम्प्रेषणीय कहानियाँ है। मानवीय भावनाओं पर लेखिका की पकड़ बहुत गहरी और मजबूत है जो कि कहानियों के चरित्रों को एक ऊँचाई देने में मदद करती है। इनमें स्त्री-पुरुष के अन्तद्र्वंदो को ही नहीं, उनकी आन्तरिक ऊर्जा को रेखांकित करने की सफल कोशिश की गई है। सबसे अच्छी बात यह है कि लेखिका विदेश में रहकर अपनी रचनाओं में किसी नॉस्टेल्जिया का शिकार नहीं है, जो कि प्रायः प्रवासी लेखकों में आसानी से दीख जाता है। लेखिका जहाँ है, वहाँ के समाज और परिवेश के सूक्ष्म से सूक्ष्म यथार्थ को अपने लेखन में गहरी संवेदना के साथ साकारात्मक अभिव्यक्ति देती है।

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सुभाष नीरव
-372, टाइप-4, लक्ष्मीबाई नगर
नई दिल्ली-110023
फोन: 09810534373

समीक्षित कृति:
उस स्त्री का नाम(कहानी संग्रह)
लेखिका: इला प्रसाद
प्रकाशक: भावना प्रकाशन, 109-ए
पटपड़गंज, दिल्ली-110091
मूल्य: 150 रुपये, पृष्ठ: 128

रपट





राजस्थान पत्रिका पुरस्कार समारोह


राजस्थान पत्रिका समूह एवं माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल की ओर से गत 22 जनवरी 2012 (रविवार) को पत्रिका मुख्यालय, केसरगढ़, जयपुर में आयोजित पं. झाबरमल स्मृति व्याख्यान के अवसर पर उत्तर प्रदेश के राज्यपाल श्री बी.एल.जोशी के हाथों 'पत्रिका सृजनात्मक साहित्य व पत्रकारिता पुरस्कार 2011' हिन्दी साहित्यकारों एवं पत्रकारों को प्रदान किये गए। कहानी का प्रथम पुरस्कार जोधपुर की कथाकार डॉ. ज़ेबा रशीद को उनकी 'मौसम और पहली तारीख़' कहानी पर, द्वितीय पुरस्कार दिल्ली के कथाकार सुभाष नीरव को उनकी कहानी 'रंग बदलता मौसम' पर, कविता में प्रथम पुरस्कार जोधपुर के कवि/ग़ज़लकार बृजेश अम्बर को तथा द्बितीय पुरस्कार रतलाम के कवि अज़हर हाशमी को प्रदान किया गया। इन रचनाओं का चयन वर्ष 2010 में राजस्थान पत्रिका समूह के अखबार में प्रकाशित रचनाओं में से किया गया। प्रथम पुरस्कार में 11-11 हज़ार रूपये व द्बितीय पुरस्कार में 5-5 हज़ार रुपये तथा प्रशस्तिपत्र दिए गए। इस अवसर पत्रकारिता के क्षेत्र में किए गए उल्लेखनीय कार्य के लिए बहुत

(पुरस्कार ग्रहण करते हुए सुभाष नीरव)


से पत्रकारों को भी सम्मानित किया गया। मंच पर उत्तर प्रदेश के राज्यपाल

श्री बी.एल.जोशी के साथ भारतीय प्रेस परिषद के अध्यक्ष मार्कण्डेय काटजू, पत्रिका समूह के प्रधान संपादक गुलाब कोठारी मौजूद थे। समारोह में पूर्व न्यायाधीश व भारतीय विधि आयोग के सदस्य शिव कुमार शर्मा, प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के सदस्य विजय शंकर व्यास, राज्य मानवाधिकार आयोग के पूर्व अध्यक्ष एन.के. जैन, राज्य वित्त आयोग के अध्यक्ष बी. डी. कल्ला, सांसद ज्ञान प्रकाश पिलानिया, जयपुर की मेयर सुश्री ज्योति खंडेलवाल, चीफ़ काज़ी खालिद उस्मानी, पंडित झाबरमल शर्मा के पौत्र व छत्तीसगढ़ के पूर्व मंत्री सत्यनारायण शर्मा सहित लगभग एक हजार के करीब साहित्य प्रेमी, पत्रकार और विशिष्ट जन उपस्थित थे।
राजस्थान पत्रिका 23 जनवरी 2102 में प्रकाशित इस समारोह की विस्तृत

(पुरस्कार ग्रहण करते हुए डॉ. जेबा रशीद)



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http://epaper.patrika.com/22979/Rajasthan-Patrika-Jaipur/23-01-2012#page/9/2
प्रस्तुति : दीप्ति