शुक्रवार, 2 मार्च 2012

आलेख




द्रोणवीर कोहली: परम संकोची, परम संतोषी

डॉ. वीरेन्द्र सक्सेना

१९ जनवरी, १९३२ को जन्मे द्रोणवीर कोहली अपनी आयु की अमृत जयंती और अपने लेखन की स्वर्ण जयंती भी मना चुके हैं, लेकिन वे ’सेलिब्रिटि’ नहीं बन पाए, इसीलिए कभी चर्चा के केन्द्र में भी नहीं रहे! अतः अब इस बात का श्रेय ’संचेतना’ के संपादक डॉ. महीप सिंह को ही देना होगा कि उन्होंने कुछ महीने पहले ’संवाद’ की गोष्ठी में द्रोणवीर कोहली द्वारा कहानी-पाठ कराया और अब ’संध्या-छाया’ के अंतर्गत संचेतना के माध्यम से उन्हें चर्चा के केन्द्र में न सही, पर चर्चा की परिधि में लाने का प्रयास तो किया ही है.

इसमें कोई शक नहीं कि जो लोग किसी भी क्षेत्र में, किसी भी कारण से (कभी-कभी विवादास्पद हो जाने पर भी) ’सेलिब्रिटी’ बन जाते हैं, वे स्वतः चर्चा के केन्द्र में आ जाते हैं. इसीलिए, साहित्य के क्षेत्र में भी, जो साहित्यकार कोई बड़ा पुरस्कार मिल जाने के कारण, किसी नए आंदोलन का सूत्रपात करने के कारण, कोई बड़ा पद पा जाने के कारण या किसी बड़ी पत्रिका का संपादक बन जाने के कारण ’सेलिब्रिटी’ बनते गए, वे चर्चा के केन्द्र में भी आते गए. इस तरह चर्चा के केन्द्र में आते ही उनके साहित्य का तटस्थ मूल्यांकन भले न हो पाया हो, पर वे ’सुप्रतिष्ठित साहित्यकार’ मान लिए गए और उन्हें कई बड़े पुरस्कार भी प्राप्त होते गए.
इस संबन्ध में जहां तक द्रोणवीर कोहली का सवाल है, वे अब तक ’सुप्रतिष्ठित’ तो क्या, एक ’प्रतिष्ठित’ साहित्यकार तक नहीं बन पाए, यद्यपि मेरी दृष्टि में उनके साहित्य में वे सभी गुण मौजूद हैं, जो श्रेष्ठ और सार्थक साहित्य में होने चाहिए और जिनके कारण उन्हें एक ’प्रतिष्ठित साहित्यकार’ भी मान लिया जाना चाहिए था. उदाहरण के लिए मैं यहां उनके उपन्यास ’वाह कैंप’ का जिक्र करना चाहूंगा, जिसमें भारत-विभाजन की पूरी त्रासदी को बड़े ही सशक्त ढंग से चित्रित किया गया है, अतः विभाजन से संबन्धित उपन्यासों की श्रंखला में ’वाह कैंप’ को भी उचित स्थान दिया जाना चाहिए था. इसी तरह अमेरिका में रहने वाले भारतीय मूल के परिवारों की विडंबनाओं और विषमताओं को बड़े ही रोचक और व्यंग्यात्मक तरीके से उनके उपन्यास ’नानी’ में चित्रित किया गया है, किंतु किसी भी समीक्षा या चर्चा में ’नानी’ का भी यथोचित मूल्यांकन नहीं हो पाया, परिणामतः यह उपन्यास भी अपने ’प्राप्य’ से वंचित रह गया.

द्रोणवीर कोहली ने आरंभ में ’हवेलियों वाले’, ’आंगन कोठा’ और ’काया स्पर्श’ शीर्षकों से विभाजन-पूर्व भारत के पश्चिमी पंजाब की पृष्ठभूमि और परिवेश पर तीन उपन्यास लिखे थे. उसमें उन्होंने वहां की कुछेक स्थानीय बोलियों और मुहावरों आदि का भी प्रयोग किया था, लेकिन उन उपन्यासों पर भी कहीं भी वैसी चर्चा या समीक्षा नहीं हुई, जैसी कि अपेक्षित थी. इसी तरह सात्र और सिमोन दि बुआ के पारस्परिक संबन्धों पर आधारित उपन्यास ’चौखट’ का भी उल्लेख किया जा सकता है, जो अगर कोई ’सेलिब्रिटी’ लिखता तो अवश्य ही चर्चा के केन्द्र में रहता, पर चूंकि कोहली ने लिखा, इसलिए ’सेलिब्रिटीज’ पर लिखा होने के बावजूद ’अनसेलिब्रिटीड’ ही रह गया.

यहीं प्रश्न उठ सकता है कि आखिर द्रोणवीर कोहली की कृतियों के साथ ऎसा क्यों हुआ कि उनका उचित मूल्यांकन नहीं हो पाया और वे अपने प्राप्य से वंचित रहीं? लेकिन इस प्रश्न का उत्तर खोजने के लिए मुझे कोहली के व्यक्तित्व की भी छानबीन करनी होगी, (जो मैं आगे करूंगा) इसलिए पहले उनके कृतित्व की शेष छानबीन पूरी कर ली जाए.

अस्तु, कृतित्व की छानबीन करते हुए यह बताना भी अप्रासंगिक नहीं होगा कि कोहली ने भारत-विभाजन की त्रासदी पर ’वाह कैंप’ से पहले भी एक उपन्यास लिखा था, जिसका शीर्षक था – ’तकसीम’. और अब वे जो अपना नया उपन्यास ’ध्रुवसत्य’ लिख रहे हैं, वह भी भारत-विभाजन और उसके बाद की स्थितियों के संदर्भ में एक युवक की संघर्ष कथा पर आधारित है. इस तरह यह भी माना जा सकता है कि उन्होंने स्वयं भी अपने जीवन में विभाजन की त्रासदी और उसके बाद जो संघर्ष किया है, वह भी कहीं प्रत्यक्ष और कहीं परोक्ष रूप से उन उपन्यासों में चित्रित है. अतः ये तीनों उपन्यास, जीवनी परक उपन्यासों के रूप में भी व्याख्यायित या विश्लेषित किए जा सकते हैं.

उपन्यासों के अलावा द्रोणवीर कोहली ने अब तक लगभग २० कहानियां भी लिखी हैं, जो यथा समय विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहीं और बाद में ’बारह बरस बीते’ तथा ’जमा-पूंजी’ शीर्षकों के कहानी-संग्रहों में भी संकलित हुईं. इसके अलावा उन्होंने बच्चों के लिए भी कई पुस्तकें लिखीं’ जिनमें ’मोर के पैर’, ’करामी कद्दू’, ’जंगली मंगली’ तथा ’टप्पर गाड़ी’ (किशोरों के लिए) का विशेष उल्लेख किया जा सकता है.

कोहली भारत-विभाजन की त्रासदी को झेलते हुए जब सन १०४९ में पाकिस्तान से भारत आए, तब केवल दसवीं कक्षा तक शिक्षित थे, अतः उन्हें अपने जीवन यापन की शुरूआत एक मामूली क्लर्क की नौकरी से करनी पड़ी. लेकिन उसी नौकरी में रहते हुए उन्होंने एम.ए. तक अपनी शिक्षा पूरी की और बाद में ’भारतीय सूचना सेवा’ में भी चुन लिए गए. इस सेवा में आने के बाद वे आकाशवाणी में तो रहे ही, ’बाल भारती, ’आजकल’ तथा ’सैनिक समाचार’ जैसी प्रमुख पत्रिकाओं के संपादक भी रहे.

जहां तक मुझे स्मरण है सन १९७० के दशक में जब दिल्ली में रहने वाले सभी लेखक, पत्रकार और संपादक शाम को कनॉट प्लेस स्थित ’कॉफी हाउस’ में मिला करते थे, तब द्रोणवीर कोहली भी वहां आया करते थे और मेरा उनसे पहला परिचय वहीं हुआ था. उन्हीं दिनों वे ’आजकल’ पत्रिका के संपादक भी नियुक्त हो गए थे और ’बुनियाद अली’ के छद्मनाम से ’धर्मयुग’ में एक ’कॉलम’ भी लिखा करते थे. इस ’कॉलम’ के कारण कुछ लोग उनसे डरने भी लगे थे कि कहीं वे उनके बारे में कुछ उलटा-पुलटा न लिख दें, पर मेरी नजर में वे एक सीधे-सरल व्यक्ति थे, अतः डरने की कोई बात नहीं थी.

इस सीधे-सरल व्यक्तित्व के कारण ही, वे ’कॉफी हाउस’ में आने वाले लेखकों तथा अन्य लोगों से आत्मीय व्यवहार करते थे और उनके सुख-दुख में उनके सहभागी भी बनते थे. तब उन्हीं दिनों, जब मैं ’काम-संबंधों में यथार्थ और समकालीन हिन्दी कहानी’ पर शोधकार्य के दौरान ’सारिका’, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, तथा ’संचेतना’ जैसी प्रमुख पत्रिकाओं में समीक्षाएं लिखने लगा था, कोहली ने ’आजकल’ के लिए भी कई पुस्तकों की समीक्षाएं मुझसे लिखवाईं. अनंतर ’आजकल’ के बाद जब वे ’सैनिक समाचार’ के संपादक बने, तो उसके लिए भी वे नियमित रूप से मुझसे अनेक पुस्तकों की समीक्षाएं लिखवाते रहे. इसी क्रम में, जब मैं १९७८ में बंबई चला गया और वहां ’माधुरी’ के लिए सिनेमा संबन्धित लेखादि लिखने लगा, तो उन्होंने ’सैनिक समाचार’ के लिए भी सिनेमा संबंधी कई लेख मुझसे लिखवाए और उहें ’सैनिक समाचार’ में अभिनेता-अभिनेत्रियों के चित्रों के साथ प्रकाशित किया. बंबई-प्रवास के दौरान, उन्होंने अपने एक संबन्धी भीमसेन से भी मुझे परिचित कराया, जिन्होंने ’घरौंदा’ और ’दूरियां’ जैसी श्रेष्ठ फिल्में निर्देशित की थीं.

उक्त सारे विववरण से यह तथ्य स्वतः स्पष्ट है कि ’बाल भारती’, ’आजकल’ और ’सैनिक समाचार’ जैसी प्रमुख सरकारी पत्रिकाओं के संपादक रहते हुए भी द्रोणवीर कोहली ने कभी अपने हित में उनका उपयोग नहीं किया, बल्कि हमेशा पत्रिकाओं के हित में ही सोचा और उनमें ज्यादा विविधता लाने की कोशिश की. उदाहरण के लिए ’सैनिक समाचार’ जो मात्र सैनिकों के समाचार प्रकाशित करने वाली बुलेटिन थी, कोहली के संपादन-काल में समकालीन साहित्य और समकालीन सिनेमा से संबन्धित समीक्षाओं, परिचर्चाओं और लेखों आदि के समावेश से सैनिकों के बीच तो लोकप्रिय हुई ही, अन्य पाठकों द्वारा भी सराही जाने लगी.

अब मैं उस प्रश्न पर आता हूं कि द्रोणवीर कोहली की विविध प्रकार की श्रेष्ठ कृतियों का उचित मूल्यांकन क्यों नहीं हो पाया और उसके परिणाम स्वरूप ही स्वयं द्रोणवीर कोहली अब तक अपने ’प्राप्य’ से वंचित रहे. इस प्रश्न का पहला उत्तर तो यही है कि कोहली ने अनेक प्रमुख पदों पर रहते हुए भी अपने हित में उनका उपयोग कभी नहीं किया. दूसरा उत्तर यह है कि कोहली स्वभाव से बड़े संकोची व्यक्ति हैं और अपने मित्रों से भी अपनी कृतियों का जिक्र नहीं करते. नतीजा यह होता है कि जब भी कोई नयी पुस्तक छपती है, उसकी जानकारी काफी देर से मित्रों तक पहुंच पाती है, और वे उससे प्रभावित होने पर भी उसके प्रभाव को अन्य लेखकों, समीक्षकों या पाठकों तक नहीं पहुंचा पाते. इसी जानकारी के अभाव में न तो उनकी किसी प्रकाशित कृति पर अभी तक कोई विचार-गोष्ठी आयोजित हुई है, न ही उनका ५०वां, ६०वां, ७०वां, या ७५वां जन्मदिन किसी प्रकाशक या साहित्यिक संस्था ने मनाया है. और यही हाल रहा, यानी द्रोणवीर कोहली यों ही परम संकोची और परम संतोषी बने रहे, तो उनका शेष जीवन भी यों ही गुजर जाएगा.

अतः इस लेख के माध्यम से मैं सीधे-सरल और परम संकोची स्वभाव के द्रोणवीर कोहली से यह अवश्य कहना चाहूंगा कि वे अपनी हर नयी कृति की सूचना अपने मित्रों को अवश्य दिया करें और यदि संभव हो सके, तो उस कृति की आवश्यक प्रतियां प्रकाशक से प्राप्त करके मित्रों को भेंट स्वरुप दिया करें. इससे इतना तो अवश्य होगा कि मित्र-गण अपनी प्रतिक्रिया से उन्हें अवगत करा देंगे और यदि संभव हुआ तो किसी पत्र-पत्रिका में लिखित समीक्षा के रूप में, अपने विचार भी व्यक्त कर देंगे. इससे किसी न किसी रूप में पुस्तक के बारे में आवश्यक जानकारी आम पाठकों तक भी पहुंचेगी और द्रोणवीर कोहली ’सेलिब्रिटी’ या ’सुप्रतिष्ठित साहित्यकार’ भी बन सकेंगे और मैं समझता हूं, हर लेखक इतना तो चाहता ही है और यह चाहना अनुचित या अनैतिक भी नहीं है कि वह अधिकाधिक पाठकों तक पहुंच सके और अपनी कृतियों के माध्यम से संप्रेषित होकर अधिकाधिक पाठकों के बीच ’सुपरिचित’ बन सके और ’सुप्रतिष्ठित’ हो सके.

-0-0-0-0-0-0-

1 टिप्पणी:

सुभाष नीरव ने कहा…

भाई चन्देल, कोहली जी पर वीरेन्द्र सक्सेना का आलेख पढ़ा, मैंने सोचा था कि वह द्रोणवीर कोहली जी पर कुछ नये ढंग से बात करेंगे, पर ऐसा नहीं लगा। यह आलेख शायद पुराना आलेख है जिसे यहां कोहली जी के निधन के बाद ज्यों का त्यों दे दिया गया है। अब जब द्रोणवीर कोहली जी नहीं तब इस आलेख के बिलकुल अन्तिम पैरे को यहां कोई औचित्य नज़र नहीं आता। लेखक को इसे अपडेट करते हुए बात कहनी चाहिए थी, यदि वह नहीं कर पाया तो तुम्हें एक सम्पादक के नाते ही इसे हटा देना चाहिए था।