बुधवार, 4 अप्रैल 2012

समीक्षा




आधी आबादी की पूरी कहानी -”एक औरत: तीन बटा चार‘‘
0 शालिनी माथुर

हिन्दी साहित्य में किताबों की बढ़ती कीमतें और पाठकों की सिमटती संख्या का हमेशा रोना रोया जाता है पर किसी प्रकाशक ने इस दिशा में कभी पहल नहीं की । इस दृष्टि से जयपुर के बोधि प्रकाशन की चर्चित रचनाकारों की स्तरीय किताबें पाठकों तक कम कीमत में पहुंचाने का स्वागत हर ओर से किया जा रहा है । सन् 2010 में कुछ लेखकों की 80 से 96 पष्ठों की पेपरबैक किताबें दस दस रुपये में प्रकाशित की गई थीं। इस साल जून 2011 में दस महिला रचनाकारों की कृतियों का एक सेट पाठकों को सौ रुपये में ( यानी एक पुस्तक दस रुपये में ) उपलब्ध करवाने का बोधि पुस्तक पर्व का अनुष्ठान स्वागत योग्य है । इसमें मन्नू भंडारी की चार लंबी कहानियों का संकलन - करतूते मरदां है , ममता कालिया का विविध टिप्पणियों का संग्रह - पढ़ते लिखते रचते है और चित्रा मुद्गल का पाटी और सुधा अरोड़ा की चैदह चर्चित छोटी कहानियों का संकलन - एक औरत: तीन बटा चार है ।

हमारे समय की बहुचर्चित और प्रतिष्ठित कथाकार सुधा अरोड़ा एक लम्बी लेखकीय यात्रा करने वाली लेखिका हैं । उनकी चैदह छोटी कहानियों का नया संग्रह मेरे सामने है -” एक औरत: तीन बटा चार।‘‘

बेहतरीन कहानियां लिखने के लिए जानी जाने वाली इस कथाकार ने सामाजिक परिघटनाओं और उनमें चोट खा कर गिरती और छटपटा कर फिर उठती हुई स्त्रियों के संघर्षों के आधार पर , कहानियां लिखीं हैं। पुस्तक की कहानियां आकार में छोटी , कलात्मक और प्रतीकात्मक होते हुए भी सरल सहज और बोधगम्य हैं। इन कहानियों का रचना काल 1994 से 2009 तक विस्तृत है। ये किसी क्षणिक आवेग या आवेश में की गई रचनाएं नही है। यूं भी पिछले पैंतालिस वर्षां से निरन्तर लिखने वाली जिस लेखिका की कलम की धार समय के साथ-साथ पैनी होती गई हो, और कहानियां लिखने के अतिरिक्त जिसकी सामाजिक चेतना और सामाजिक समझ ने उसे जमीनी सामाजिक कार्यों से जोड़ रखा हो, उसकी हर नई किताब अपना परिचय खुद होती है।

”एक औरत: तीन बटा चार ” में सुधा जी की चैदह कहानियां है । अक्सर कहानियां जीवन की हकीकत से कुछ ज्यादा सच्ची होती है। हकीकत से सच्ची इन कहानियों के कथानक पाठक की जिज्ञासा शान्त नहीं करते बल्कि पाठक को और प्रश्नाकुल बनाते है, और कुछ कहानियां स्त्री की अकथनीय व्यथा को कुछ इस तरह बयान करती है कि पाठक मजबूर हो कर कहता है बहुत हो गया अब और कुछ न कह¨, अब और नहीं सुना जाता । सुधा अरोड़ा की कहानियां सिर्फ दोपहर की फु़र्सत में महिलाओं को अच्छी नींद सुलाने के लिए नहीं लिखी गई हैं।

पहली कहानी ‘‘एक औरत तीन बटा चार’’ छोटी है - कलात्मक और प्रतीकात्मक। कहानी की शुरूआत ऐसी है मानो ओ. हेनरी ने कोई किस्सा सुनाना शरू किया हो - ”एक तीस बरस पुराना घर था। वहाँ पचास बरस पुरानी एक औरत थी। उसके चेहरे पर घर जितनी ही पुरानी लकीरें थीं।” वह ”एक खूबसूरत औरत थी - आखिरी उंगली पर डस्टर लपेटे - हर कोने कोने की धूलसाफ करती हुई। इसी दिनचर्या में से समय निकाल कर वह बाहर भी जाती बच्चों की किताबें लेने - साहब की पसंद की सब्जियां लेने” ” हर महीने की एक निश्चित तारीख को सखी सहेलियों के साथ चाय पार्टी में भी हिस्सा लेती” पर हर बार घर से बाहर निकलते समय वह अपना एक हिस्सा घर में ही छोड़ आती।” इस प्रतीकात्मक कहानी का अंत वहां होता है जहां पर आत्मकेन्द्रित पति पक्षाघात की बीमारी से उठकर छड़ी ले कर चलने योग्य हुआ और उसका घर संसार चलाने में अपना सर्वस्व लगा देने वाली उसकी खूबसूरत पत्नी उसकी ‘‘ छड़ी बन गई” जो साहब के बाएं हिस्से के अनुरूप अपने को हर माप के सांचे में ढाल ले। यह एक पूरी औरत के तीन बटा चार ‘‘मांस का लोथ” बनने की कहानी है।

उधर ‘‘ताराबाई चाल- कमरा नम्बर एक सौ पैंतीस’’ में रहने वाली गरीब श्रमजीवी महिला अपने पति के परपीड़न सुख और नृशंस बेरहमी को झेलने के बाद गालियों की बौछार कर लेती है , जिसे अनसुना करके मर्द करवट बदल कर खर्राटे भरने लगता है।‘‘उस बांझ औरत के अड़तीस वर्षीय मरद को मरे आज चैदहवां दिन था।’’ यातना देने वाले पति को याद करने के लिए स्त्री स्वयं को यातना देती है स्वयं को सिगरेट से जलाती हुई। कमरे में दम्पत्ति का भीड़ की तरह एक दूसरे से टकराना कतराना, रात के समय छत पर टंगे और दीवारों पर बैठे ख़र्राटों का आस-पास पसर जाना, और मरे हुए पति के धुंधलाए अक्स का खाट पर पैर हिलाते हुए बैठना, सारे बिम्ब पति के परपीड़न सुख और पत्नी के आत्मपीड़क आनन्द को दिखाते है।

बड़े घर की ‘‘तीन बटा चार औरत’’ घर से निकलते समय केवल ‘‘एक बटा चार साथ’’ ले जाती है और छोटे घर में रहने वाली गरीब औरत पति के मरने के चैदह दिन बाद पहली बार अपने आपको आईने में देखती है -” सारे बिखरे हुए टुकड़ों को मिलाकर उसने अपना चेहरा पहली बार एक साथ देखा - गले से नीचे उसने अपने आप को आईने में देखा ही नहीं था।”

उच्च और निम्न वर्ग के दम्पत्तियों के ये चेहरे हिंसा के सूत्र में बंधे है - स्त्री के त्याग पर पति का पनपना और त्याग का अनादर ,उपेक्षा और अवहेलना करते हुए हिंसक ही बने रहना।

‘‘रहोगी तुम वही” कहानी, जो लेखिका ने अपने बारह वर्ष के मौन के बाद 1993 में लिखी, एकालाप शैली में लिखी छोटी कहानी है जो अत्यंत लोकप्रिय हुई। ”सारा दिन घर घुसरी बनी क्यों बैठी रहती हो। खुली हवा में थोड़ा बाहर निकला करो - बाल छोटे करवा लो, सूरत भी कुछ सुधर जाएगी।” और फिर पन्द्रह साल बाद ”यह तुमने बाल क्यों इतने छोटे करवा लिए है। तुम्हें क्या लगता है, छोटे बालो में बहुत खूबसूरत लगती हो? यू लुक हारिबल।

यह कहानी पुरुष के लगातार बोलने और औरत के चुप रहने की कहानी नहीं है। यह कहानी स्त्री के बदलने और पुरुष के स्वभाव के न बदल पाने की कहानी है । यहां दृष्टव्य है कि स्त्री बदल तो रही है पर अपनी मर्जी से नहीं - पति की प्रताड़ना से और पति के उकसाने पर परन्तु फिर भी पति को संतोष नहीं। बदली हुई स्त्री के बदलाव को पति चिन्हित तो करता है - कटे बालों को , रोज़ दाल रोटी बैगन भिंडी और आलू की जगह बायल्ड वेजेटेबल्स को, समाज सेवा को और किताबों को, पर उसे न सम्मान दे पाता है न स्वीकृति।”कितनी भी किताबें पढ लो तुम्हारी बुद्धि में बढ़ोत्तरी होने वाली नहीं है। रहोगी तुम वही” वाक्य में कितना तिरस्कार भरा है और कितनी हिकारत।

स्त्री शिक्षा , स्त्री सशक्तीकरण का स्रोत बनेगी , यह उम्मीद कैसे पूरी होगी ? पुरुषवादी मानसिकता और पूर्वाग्रह तो स्थिति को बदलने ही नहीं देते। मुझे लगता है सशक्तीकरण एक मानसिक अवस्था है, उस व्यक्ति की, जिसे सशक्त होना है और सशक्त महसूस करना है। स्त्री को अपनी अवस्था बदलनी है - वह तब बदलेगी जब वह स्वयं को अपनी दृष्टि से देखेगी - सामाजिक दृष्टि की परवाह किए बगै़र।

”समुद्र में रेगिस्तान” कहानी इस संकलन की एक बहुत ख़ास कहानी है - केवल अपने षिल्प की बारीक बयानी और अमूत्र्तन के कारण ही नहीं बल्कि अपने कथ्य में छिपी गहन और प्रच्छन्न करुणा के कारण भी । संकलन की अन्य कहानियों की तरह इस कहानी की मुख्य पात्र भी एक औरत ही है। इस औरत ने अपनी रचनात्मकता को पीछे छोड़ कर एक अधेड़ , तीन बच्चों वाले पुरुष का घर बसाया पर स्वयं अधेड़ होने तक पीछे छूट गई - अकेली। हमारे देश में विवाह औरत को नई पहचान नहीं दे पाता, बल्कि उससे उसकी निजी पहचान भी छीन लेता है। नायिका छवि भी कहानी के अन्त में अपना नाम याद करती है , और पहचान पा लेती है - खुद अपने आप से परिचित होती है। अपर्णा सेन की फिल्म परमा के अन्तिम दृश्य में भी घर से बहिष्कृत नायिका को अपनी पहचान याद आती है और तभी एक पौधे का भूला हुआ नाम याद आ जाता है - कृष्णपल्लवी।

‘‘समुद्र में रेगिस्तान’’ कहानी उन कहानियों में से है जो ‘‘अपना शिल्प अपने आप गढ़ती है।’’ कहानी यूँ शरु होती है मानो कविता हो - ” दिन ,हफ्ते, महीने, साल - लगभग पैंतीस सालों से वे खड़ी थीं - खिड़की के आयताकार फ्रेम के दो हिस्सों में बँटे समुद्र के निस्सीम विस्तार के सामने - ऐसे जैसे समुद्र का हिस्सा हों वे। वे मानो कैलेंडर में जड़े एक खूबसूरत लैंडस्केप का हिस्सा बन गई थी।” व्यक्ति की मनःस्थिति जैसी होती है वाह्य जगत् भी उसे वैसा ही दिखाई देता है।

”तीस साल पहले समुद्र ऐसा मटमैला नहीं था। चढ़ती दुपहरी में वह आसमान के हल्के नीले रंग से कुछ ज़्यादा नीलापन लिए दिखता। आसमानी नीले रंग से तीन शेड गहरा।” दस साल बाद एक दिन अचानक जब गर्मी की छुट्टियां खत्म होने पर, बच्चे वापस पंचगनी के हाॅस्टल लौट गए, उन्हें समुद्र बदरंग सा नीला लगा।” समय गुज़रता गया। ”न जाने कब वह खिलंदड़ा समुद्र एकाकी और हताष रेगिस्तान में बदल गया।” कहानी के अंत में ”न जाने कैसे खिड़की के बाहर हिलोरें लेता रेगिस्तान उमड़ते समुद्र की तरह बेरोकटोक कमरे में चला आया और सारे बांध तोड़ कर उफनता हुआ उनकी आंखों के रास्ते वह निकला। नायिका का जीवन और समुद्र मानो एक ही गति से बहते हैं।

एक दिन अचानक एक पुराने सहपाठी ने उन्हें नाम से बुलाया और ”दीवारों पर लगी पेंटिंग्स के कोनों पर लिखा उनका छोटा सा नाम वहां से निकल कर पूरे कमरे में फैल गया। कमरे के बीचोंबीच वह नाम जैसे उनकी प्रतीक्षा में बैठा था।” अपने नाम का भूलना और उसका याद आ जाना हमारी खु़द से मुलाक़ात का प्रतीक है। नाम खोया नहीं था, वहीं बैठा था कमरे में , लिखा था तस्वीर पर , याद था हमारे सहपाठियों को , ज़िन्दा था उनकी स्मृतियों में , भुलाया तो सिर्फ हमने था - उस सुख की चाहत में जो सुख हमें इस पितृसत्तात्मक समाज की परिवार नामक इकाई का हिस्सा बनकर , विवाह नामक संस्था में प्रवेश करके , पति नामक प्राणी के माध्यम से प्राप्त होने वाला था - पर हो न सका। मिला क्या , और छूटा क्या? कहानी में मातृत्व की चाहत के संकेत हैं, छह आठ और दस साल के बालकों को पालने के लिए किए गए दूसरे विवाह के संकेत भी हैं। परन्तु सच बात तो यह है कि मातृत्व की चाहत भी समाज में द्वारा निर्मित ही होती है, तभी तो विश्व के हर समाज में यह भावनाएं तथा चाहतें अलग अलग रूप में दिखलाई पड़ती है। इस प्रकार की कथाओं में पति के देहान्त और वयस्क पुत्रों के जाने के बाद खाली घोंसले में अकेली छूटी नायिकायें हमें मन्नू भंडारी, मालती जोशी, उषा प्रियंवदा की रचनाओं में भी मिलती हैं परन्तु यह कहानी ख़ास है। क्योंकि यह कहानी समाज द्वारा छोड़ी हुई औरत की नहीं बल्कि स्वयं अपने आप से बिछुड़ी हुई औरत की दास्तान है, जिनका नाम उनकी प्रतीक्षा कर रहा था , ‘‘जिससे वे हुलस कर मिलीं और ढह गईं।”

कहानी ’’ नमक ’’ में स्त्री अपने ’’आफ़्टर शेव की महक से गमकते पति’’ को साहब कहती है जो नाश्ते में कटे हुए फल खाते हैं, ताजा रस पीते हैं, अंडों की सफेदी की भुर्जी खाते है और उसमें नमक कम होने पर प्लेट फेंक देते हैं। वह अपनी पत्नी को स्कूल में नौकरी नहीं करने देतेप पत्नी का काम है भरपूर नाश्ता देना -’’ कुल्ले फूटे साबुत मूंग , कटा हुआ पपीता ,सेब के कुछ टुकडे़, अनार के दानों के साथ पत्ता गोभी खीरा टमाटर हरे प्याज के पत्ते का बारीक कटा सलाद और उस पर डालने के लिए धनिया पुदीने की हरी चटनी और खट्टी मीठी इमली की चटनी, ज़र्दी के बगै़र दो अंडों की भुर्जी , छाछ का गिलास, संदेश ,गाजर चुक़न्दर का रस ,टिकोज़ी ढंकी हरी चाय।’’

शादी से पहले नौकरी करने वाली लड़की शादी के बाद पति की नौकरानी बनती है। उसके मायके वाले भी उसे पति सेवा का ही उपदेश देते हैं कि शादी के बाद उसके लिए मायके का कपाट भी बंद है । तीस साल तक वह मेज़ पर नमक रखना नहीं भूली ,और न ही पति नमक पर बवाल करना भूले। नमक कहानी का अन्त अनपेक्षित है। ’’सुना नहीं, नमक कम है लगता है भूल गई ’’ ,पति के शोर का जवाब पत्नी धीमी आवाज में देती है- ’’नहीं, भूली नहीं ,डाक्टर ने कम नमक खाने को कहा है। याद नही? आपका बीपी हाई है। फिर भी लेना हो तो आपके सामने ही पड़ा है।’’

पत्नी के पति के स्वास्थ्य के प्रति सजग है , प्रताड़ित होकर भी पति का ध्यान रखना नहीं भूली पर कहानी के अन्त तक इतना बड़ा साहस जुटा सकी कि कह सके कि नमक खुद उठा लो। यह बड़े घरों के घमंडी लड़कों से ब्याही गई सामान्य घरों की लड़कियों की कहानी है , जिसे भारतीय समाज की कोई भी लड़की आसानी से समझ सकती है।

‘‘सुरक्षा का पाठ ” और ‘‘दहलीज़ पर संवाद ” वयोवृद्ध दम्पत्तियों की दास्ताने हैं ,जिन्होनें अपना पूरा जीवन लगा कर अपने बच्चों को बड़ा किया है और जिनके बच्चे अब अपने पांव पर खड़े हैं। सुरक्षा का पाठ में मां का बेटा अमरीका में प्रवासी भारतीय है, उसकी पत्नी अमरीकी है, मां उनकी प्रतीक्षा करती है, बच्चों के बच्चे में अपने बच्चे के बचपन को ढूंढ़ती है। भारतवर्ष मां को याद है कि नियाग्रा फ्राल्स देख कर लौटते समय उसका बेटा बेबी सीट पर अकेले बैठ कर फुक्का फाड़ कर रो पड़ा था और वह विदेशी नियम कायदों के कारण उसे गोद में नहीं उठा सकी थी। वह आज भी अपराध बोध से ग्रस्त है और नियाग्रा फाल्स के आंखें को बेइंतहा ठंडक पहुंचाने वाले पानी के तेज़ तेज़ गिरने के शोर से भी उसे पाल के मुंह फाड़ कर रोने का स्वर ही सुनाई देता रहा। आज भी नियाग्रा फाल्स की स्मृतियों में दोनों शोर गड्ड मड्ड हो जाते है। ’’ आज मां के बेटा बहू अपनी बेटी को दूसरे कमरे में अकेली रोती छोड़ कर चैन से सोते हैं ,मां सो नहीं पाती और अपने बेटा बहू से फटकार खाती है कि वह पोती के फेफडे़ मजबूत क्यों नहीं होने देती। यह कहानी पीढ़ियों के अन्तर की नहीं संस्कृतियों के अन्तर को रेखांकित करती मार्मिक कहानी है।

भारतवर्ष में माता-पिता चाहे समृद्ध हों चाहे मध्य या निम्नवर्गीय वे अपना जीवन अपने लिये नहीं जीते। उनकी आंखों में अपने बच्चों के जीवन के लिए सपने होते हैं। यह ऐसी ही समृद्ध मां के -एम्पटी नेस्ट-वीरान घोंसले की कहानी है।

दहलीज पर संवाद के दम्पत्ति उतने समृद्ध नहीं। वे निम्नमध्यवित्त वर्ग के हैं, वे बीमार हैं और वृद्ध। उनका अफसर पुत्र और पुत्रवधू उनके साथ नहीं रहना चाहते। मध्यवर्गीय दोहरेपन के तहत साफ़ साफ़ कहते भी नहीं पर अपनी उदासीनता से उनका दिल दुखा देते हैं। उनके बच्चों को उनकी ज़रूरत नहीं ,और उन्होंने अपने जीवन को बच्चों की नजर के अलावा किसी नजर से देखा नहीं। वे स्वयं को बेज़रूरत समझते हैं। उनकी शारीरिक कमजोरी, ज़िन्दगी से उनकी निराशा ,उनकी उदासी ,निरूपायता और अकेलापन छोटे छोटे संवादों से स्पष्ट होता जाता है। मुझे तो लगता है ’’ कि न हम इधर है न उधर ’’’’तुम्हें ऐसा नहीं लगता’’ ’’कैसा ’’ ’’कि हमें अब’’ ’’हाय रब्बा मनहूस बातें ही निकालोगे मुंह से ’’ भारत के निम्न मध्यवर्गीय दम्पत्ति की जीवन भर की आमदनी बेटों पर खर्च हो जाती है और बेटे अपनी आमदनी अपने बच्चों पर खर्च करते हैं न कि अपने माता-पिता पर। बेटों की समृद्धि माता पिता के लिए समृद्धि नहीं लाती। वे अकेले छूट जाते हैं ’’ ऊपर छत पर धूलसना ,मैला पंखा धुंधला होता जाता है। दूर कीं दो घंटा बजता है तो अंधेरेदार सन्नाटा यूं कांपता है जैसे कोई अधमरी चीज हवा में उल्टी लटक रही हो.......।’’ । यह कहानी निम्न मध्यवर्गीय दम्पत्ति के एम्पटी नेस्ट की कहानी है । लेखिका छत, पंखे ,घंटे , अंधेरे और सन्नाटे के बिम्बों से अकेले छूटे माता पिता की वीरानी रचती हंै।

वीरानी तो संग्रह की अन्तिम कहानी पीले पत्ते में भी व्याप्त है। यह एक ऐसी स्त्री की कहानी है जिसके ’’गोरे चिट्टे संभ्रांत और भव्य से दिखते पति’’ ने उसे उसकी बेटी के साथ भारत में छोड़ कर जर्मनी में रहना शुरू कर दिया, किसी अन्य स्त्री के साथ। यह एक ऐसी स्थिति है जिसमें पति के पास पत्नी को छोड़ने का कोई विशेष कारण नहीं है, और न ही कोई ग्लानि या पश्चाताप। पत्नी को छोड़ देने के बाद भी पति हर साल एक बार उसके घर आता था क्योंकि ’’ पापा को मां के हाथ का खाना बहुत पसंद है। मां खूब बढ़िया खाना बनाती थी तब। अपने हाथों से पापा के लिए। ’’ वह बेटी के लिए डेªसेज लाता है। पत्नी अपने पति की दूसरी पत्नी को देख कर चुप हो गई और ’’ दो साल से ऐसे ही चुप है ’’ और बेटी का ’’फिर किसी से भी शादी करने का मन नहीं हुआ।’’ कहानी एक पड़ोस में रहने वाली स्त्री की ज़बानी बयान हुई है और स्त्री भाषा में ,स्त्री मन की परतें खोलती है।

”अन्नपूर्णा मंडल की आखिरी चिट्ठी” का ज़िक्र किए बिना इस पुस्तक पर चर्चा पूरी नहीं हो सकती। पूरब में कलकत्ते के पास बांकुड़ा से लेकर पश्चिम में बम्बई तक फैला वितान, बरसात का मौसम, भीगी सड़क, तालाब, पोखर, नाली, कीचड़, केंचुए, बारिष में भाई-बहनों का एक साथ खेलना, ”मौसम की पहली बरसात देखकर हम कैसे उछलते कूदते, माँ का बारिश आने की खबर देते, जैसे पानी की बूँदे सिर्फ हमें ही दिखाई देती है, और किसी को नहीं” (पृ-32) और निर्धन माँ बाप का बेटी ब्याहने का सपना, बेटी का ब्याह कर पराए दश जाना, उसकी गृहस्थी और जुड़वां बेटियों का जन्म। अपने जीवन से त्रस्त क्षुब्ध, निराश और व्यथित औरतें कितना डरती है बेटियों को जन्म देते ! उन्हें ज्ञात है - लड़की होना होता क्या है। पूरी कहानी बाहर से एक भौगोलिक विस्तार रचती है बंगाल के एक छोटे से गांव से बम्बई तक और भीतर ही भीतर रचती है एक अवचेतन का संसार जिसके भीतर रहते हुए एक सूत्र से गुंथे है - पराए देश ब्याही गई बेटी और उसके माँ बाप। क्या वे उसकी पीड़ा जानते नहीं, फिर भी यही सुनना चाहते है कि बेटी सुखी है -” तुम्हें मेरे ख़त कभी मिले ही नहीं।” बेटी ने माँ बाप को लिखा तो था उन्होंने पढ़ा ही नहीं-पढ़ना चाहा नहीं । इस कहानी पर विस्तार से लिखने की इच्छा है। पर वह टिप्पणी फिर कभी ।
‘‘डर’’ और ‘‘करवा चैथी औरत’’ मध्य तथा उच्च मध्य वर्ग की पढ़ी लिखी औरत की दयनीय स्थिति की कहानियां है। लेखिका ने इन्हें करुण कथा की तरह नहीं ,रुचिकर क़िस्से की तरह बयान किया है - अपने ही घर में गृहिणी का डर कर रहना (डर) और अपने ही घर में धीरे धीरे महत्वहीन होते चले जाना (करवाचैथी औरत) मध्यवर्गीय स्त्री की वास्तविकता है। ‘‘सत्ता संवाद’’ कहानी एक स्त्री का एकालाप है जो पैसा कमाने और घर की सारी जिम्मेदारी उठाने के लिए मजबूर स्त्री द्वारा गैर ज़िम्मेदार लेखक टाइप पति को झेलते रहने से उपजा क्रोध है जो खीझयुक्त बड़बड़ाहट के रूप में उभरता है। स्वयं को लेखक मानने वाले पाठक पाठिकाएं कदाचित् इस कहानी से सरलता से तादात्म्य स्थापित कर पाएंगे, जब कि यह कहानी किसी और प्रकार के दम्पत्ति की भी हो सकती है।

‘‘ तीसरी बेटी के नामः ये ठंडे सूखे बेजान शब्द ’’कहानी उस लड़की के विषय में है जिसने प्रेम किया, प्रेम विवाह किया, पढाई भी की और नौकरी भी, परन्तु वह अपने महत्वाकांक्षी ईष्यालु पति के द्वारा मारी गई। लेखिका ने इस कहानी को नयना साहनी और अंजू इल्यासी जैसी महिलाओं की हत्या के आलोक में लिखा बताया है जो अपने पुरूष साथियों द्वारा मारी गई।

सार्वजनिक स्मृति की आयु बहुत छोटी होती है। इस तरह की घटनाएं हत्याकांडों के रुप में हिन्दी अखबारों के मुखपृष्ठ पर कुछ दिन स्थान पाती हैं, फिर लुप्त हो जाती हैं। लोग कहते हैं, ये औरतें सबकुछ जानते हुए भी सार्वजनिक जीवन में आई ही क्यों थीं ? पुरुष तो बदमाश होते ही हैं । कहानी के रुप में प्रस्तुत हो कर यही विचार भावनाओं में अनुस्यूत हो जाते हैं और हृदय के भीतर घर कर जाते हंै।

‘‘बड़ी हत्या, छोटी हत्या’’ कहानी संवाद शैली में लिखी गई कहानी है जिसमें घर की बुज़ुर्ग महिला, दाई द्वारा नवजात कन्या की हत्या करवाती है। बीस बरस तक पालपोस कर बड़ी की गई बेटी को दहेज कम मिलने के कारण आधा टिन मिट्टी के तेल में फूंक दिया जाएगा , दादी यह जानती है, इसलिए नवजात पोती की हत्या करवा देती है -उस दाई से, जो सबेरे से दो हत्याएं और कर चुकी है। ससुराल में जलने से बेहतर है जन्मते ही मरना।

सुधा अरोड़ा की कई कहानियां यहां एक दूसरे के बरक्स खड़ी हैं - ‘‘रहोगी तुम वही’’ के सामने ‘‘सत्ता संवाद’’ , ‘‘एक औरत-तीन बटा चार’’ के सामने ‘‘ताराबाई चाल’’ ,‘‘सुरक्षा का पाठ ” के सामने ‘‘दहलीज़ पर संवाद, ” पीले पत्ते ’’ के सामने ‘‘नमक ’’ ‘‘अन्नपूर्णा मंडल’’ के सामने ‘‘समुद्र में रेगिस्तान’’, ‘‘तीसरी बेटी’’ के सामने ‘‘बड़ी हत्या,छोटी हत्या’’और डर के सामने करवाचैथी औरत । बाहर से बहुत दूर और कितने अलग अलग दिखने वाले विश्व, भीतर से बिल्कुल एक से हैं। सम्पन्न दम्पत्ति और विपन्न दम्पत्ति के घरों में सत्ता समीकरण एक जैसे हैं। कहानियां दर्शाती हैं कि सुविधाएं सुख का पर्याय नहीं होतीं, संभ्रान्तता से क्रूरता कम नहीं होती । कोई आवश्यक नहीं कि शिक्षा और उच्च पद किसी व्यक्ति को मानवीय रिश्तों को बेहतर बनाने की सलाहियत दे सके।

लोग माक्र्सवादी वर्ग की धारणा को जानते है, जहाँ मिल मालिक मजदूर का शोषण करता है , वह पूँजी और श्रम की लड़ाई है, और अमीर और ग़रीब की। परन्तु घरों के भीतर एक और तरह की लड़ाई जारी है जिसमें गरीब गरीब को ही सताता है और अमीर अमीर को ही। यह लिंगाधारित भूमिका विभाजन का प्रतिफल है जिसमें अधिकतर पुरुष ही शोषक की भूमिका में रहता है, अपने ही वर्ग की स्त्री को सताता हुआ।

सुधा अरोड़ा ने कहानियांे में परामर्श केन्द्र से जुड़े अनुभवों को भी आधार बनाया है। मैंने देखा है कि आमतौर पर परामर्श केन्द्र मध्यवर्ग की शिक्षित महिलाओं की पहल पर स्थापित हुए हैं तथा उन्हीं के द्वारा संचालित हैं। पर इनमें मामले निम्न आय वर्ग की महिलाओं के होते हैं जिनमें से अधिकांश को मध्यवर्गीय महिलाओं ने भेजा होता है। कामकाजी, श्रमजीवी, घरों में चैका बर्तन करने वाली, कपड़े धोने वाली, सब्जी वाली - महिलाओं का एक बड़ा वर्ग इनका लाभार्थी है।

पच्चीस वर्ष से ऐसे ही परामर्श केन्द्रों के साथ काम करते हुए मैंने भी यही पाया है कि उच्च तथा मध्य वर्ग की महिलाएं गरीब स्त्रियों के केस लाती हैं, उन्हीं का सरेआम बयान करती हैं , परन्तु वे यह नहीं बतातीं कि उनके अपने घर के भीतर पारिवारिक रिश्तों के टूटने बिखरने की स्थिति क्या है। अपनी आया-बाई, महरी-मिसरानी की व्यथा कहकर और उनके पतियों को उनके किए की सज़ा दिलवा कर मानो वे अपने सुशिक्षित, समृद्ध, सम्भ्रान्त दिखने वाले पतियों से उनकी क्रूरता तथा हिंसा का बदला ले रही होती हैं। जब कोई महिला हमारे परामर्श केन्द्र में चार ऐसे केस भेज चुकी होती है , मंै समझ लेती हूँ कि पांचवा केस उसका खुद का होगा। सुधा अरोड़ा ने संभ्रान्त मुखौटे वाले क्रूर पुरुषों द्वारा की जाने वाली हिंसा का अनेक कहानियांे में निरूपण किया है जहां हिंसा - जूतों डंडो, लाठी और गालियों से नहीं होती बल्कि होती है - उदासीनता और उपेक्षा से ।

हिन्दी जगत में अक्सर इस बात की चर्चा होती है कि यह समाज अपने बारे में नहीं लिखता। मध्यवर्ग के लेखक जिनमें से कई ऊंचे सरकारी पदों पर बैठे हंै, ऊंची तनख्वाह पा रहे हैं और शराबख़ोरी तथा रिश्वतख़ोरी जैसी अनेक आदतों में लिप्त हैं, वे भी स्वयं को माक्र्सवादी ,गरीबों के रहनुमा ,दलितों के हितैषी सिद्ध करने की होड़ में ग्रामीण अंचलों पर आधारित अतिरंजित ,अतिशयोक्ति पूर्ण कहानियां लिख रहे हैं। उनकी कहानियों में न उनका अपना परिवार दिखाई दे रहा है न उनके अपने घर की स्त्रियां न उनके अपने बच्चे और न मां बाप। वे वर्ग संघर्ष ,जाति संघर्ष को रेखांकित करती नक़ली कहानियां गढ़ रहे है। उनका नकलीपन पाठकों को स्पष्ट दिखाई दे जाता है। इनके बीच प्रतिष्ठित लेखिका सुधा अरोड़ा की यह कहानियां बेहद ईमानदारी से ,जीवन से उठाई गई कहानियां है, इतनी आत्मीयता से लिखी गई, कि पाठक सहज ही इनके पात्रों से तादात्मय स्थापित कर लें। अपने वर्ग पर तटस्थ हो कर दृष्टि डालना ,और अपने समाज , परिवार , परिवेश को सहजता से निरूपित करना इतना सरल नहीं होता। इस जटिल और कठिन काम को ,लेखिका ने सहजता से किया है। शहर में रहने वाले मध्यवर्गीय पाठक इसमें अपना चित्र देखेंगें,और उनका चित्र भी जो उनके आसपास झोपड़ियों में रह कर अभावों और अपमान का जीवन बिता रहे हैं।

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शालिनी माथुर, ए-5/6 कारपोरेशन फ्लैट्स, निराला नगर ,लखनऊ - 226020 फोन-09839014660 समीक्षित पुस्तक - एक औरत: तीन बटा चार मूल्य: प्रथम संस्करण रुपए 10 / बोधि प्रकाशन ,जयपुर

1 टिप्पणी:

Ila ने कहा…

ये समीक्षाएं पढ़ कर पाठक को इन किताबों को पढ़ना जरूरी लगेगा | यूँ भी सुधा जी जैसे रचनाकार का जितना विस्तृत परिचय उनकी रचनाओं एवं मुलाक़ात के माध्यम से इस बार के वातायन में उपलब्ध है कि वातायन का यह अंक ही सहेजे जाने के लायक बन गया है |
सादर
इला