कहानी से पहले…
कहानी विधा में स्वाभाविक बने रहने की अंतर्निहित क्षमता है. जर्मन
कवि-नाटककार ब्रेख्त ने एक बात जोड़ी थी कि जो स्वाभाविक होता है उसमें चमत्कारिक होने
की शक्ति भी जरूर होनी चाहिए.
सारी मुश्किल यहीं पर आती है कि यथार्थ को कैसे स्वाभाविक बनाए रखा
जाए और वह चमत्कारिक भी हो.
बहरहाल, ऎसी ही मुश्किल कोशिशों का नतीजा है यह मेरा पहला कथा-संकलन
! मेरी पहली प्रकाशित कहानी ’छाला’ भी इसमें है जो बीस वर्ष पूर्व ’कहानीकार’ में छपी
थी. शुरुआती दौर का अनगढ़पन संकलन में दिखेगा ही.
इस संकलन के प्रकाशन में कमलेश्वरजी ने प्रोत्साहित किया, मैं उनका
हृदय से आभारी हूं.
अरुण प्रकाश
कहानी
कफन – १९८४
अरुण प्रकाश
करीब पैतालीस साल पहले महान प्रेमचन्द ने ’कफन’ कहानी लिखी थी.मैं वही
कहानी पढ़ रहा हूं. लगता है, प्रेमचंद मेरे
गांव के ही थे. कहानी पढ़ते वक्त मेरे गांव के सजीव पात्र मेरी चेतना में घूमते
लगते हैं. कभी ’कफन’ के पात्र, कभी मेरे मुहल्ले के लोग. सब कुछ गड्डमड्ड हो जाता है.
इन सबको लेकर अगर कहानी लिखूं तो कहानी बेनगी? चूं-चूं का मुरब्बा भले बन जाये !
कहानी के लिए शास्त्रीय ढंग से सशक्त कथानक, चरित्र, क्लाइमेक्स सब
सोचना पड़ता है. क्योंकि जीवन में ऎसे संयोग कम ही आते हैं कि किसी घटना में सशक्त कथानक,
चमकदार चरित्र और विस्मयकारी क्लाईमेक्स हो. अक्सर कहानी में ये सब कल्पना से जोड़े
जाते हैं. प्रेमचंद बिना पैंबद लगाए ही सहज सजीव जीवन सामने रख देते थे. प्रेमचंद की
कहानी ’कफन’ के १९८४ के संस्करण के असली पात्रों को अपनी शास्त्रीय और शाश्वत कला से
नकली मेकअप क्यों दूं? वह तो प्रेमचंद की सिद्धहस्तता से ही खिंच जाएगी. प्रेमचंद ने लिखा : “सब कुछ
आ जाएगा, भवान दे तो. जो लोग अभी तक एक पैसा नहीं दे रहे हैं, वही कल बुलाकर रुपए देंगे….”
सवेरे माधव ने कोठरी में जाकर देखा तो उसकी स्त्री ठंडी हो गयी थी.
उसके मुंह पर मक्खियां भिनक रही थीं. पथराई हुई आंखें ऊपर टंगी थीं. सारी देह धूल से
लथपथ हो रही थी. उसके पेट में बच्चा मर गया था.
बुधुवा की लाश को रामजी ने वालूघर में जाकर देखा. वहां कई मुर्दे कतार
में पड़े थे. सबके ऊपर सफेद चादर डाली हुई थी. होली अस्पताल का डोम बहुत विनती करने
के बाद, दो रुपये लेने के बाद ही लाश देखने को राजी हुआ था. गैरकानूनी काम जो ठहरा.
आखिर मरीज इलाज का खर्च बिना चुकाये जो मर गया था. होली अस्पताल के डॉक्टर थॉमस अस्पताल
के कानून से बंधे थे. कानून ट्रस्ट के पास कैद था और ट्रस्ट फादर जौनसन के सफेद लिबास
से प्रेरणा लेता था. ईश्वर भी चाहता है कि आदमी ईमानदार हो, वह मरे भी तो पहले ईश्वर
के सारे कर्ज चुका दे.
बुधुआ की आंखें बंद थीं. शरीर अकड़ गया था. दस घंटे पहले मरा. खबर पाते
ही बूढ़ा रामजी भागा आया था. पहले भी कई बार
कर्जे ले लेकर वह बुधुआ, अपने एक्मात्र बेटे, को देखने आया था. हर बार डॉक्टर थॉमस
बोलता, “बाबा, जॉन्डिस की बीमारी ठीक होने में थोड़ा टाइम लगेगा. तुम क्यों बेटा का
नाम अस्पताल से कटाने को मांगता है ?”
रामजी क्या बोले? डॉक्टर को क्या पता कि बुधुआ की बीमारी ने घर की कमर
ही तोड़ दी थी. गाय का दूध बेचने से परिवार कैसे चलता है, वही जानता था. दर्द से तिरछी
कमर और उस पर आंखों से नजदीक की चीज दिखायी नहीं पड़ती, फिर भी उसे घास छीलनी पड़ती.
दो-तीन बार खुरपे से अपनी अंगुलियां काट चुका है. तिस पर पांच खाने वाले. बुढि़या किसी
काम की नहीं—बस, कमर सेंकती रहेगी. बहू काम ही नहीं करेगी. दो जुड़वा पोते. अगर बहू
भी घर से बाहर निकल कमाती तो कुछ सहारा हो जाता. पर स्वाभिमानी बेटे ने उसे कभी घर
से बाहर काम करने ही नहीं दिया. खुद उसने मालिकों के यहां हलवाही नहीं की. कहता , कौन
बेगारी में फंसे, रिक्शा उससे लाख बेहतर ! सब दिन तो मालिक लोगों की नजर में चढ़ा रहा,
फिर रामजी किससे कर्जा लेता ? मुखियाजी की बहू से दो सौ, हेडमास्टर साहब से दो सौ कर्ज
पहले से है. तिस पर बुधुआ सब की नजर में चढ़ा था. कौन देता? कर्जे के नाम पर सब दुत्कारते.
अब---किससे मांगेगा रामजी ? बुधुआ की लाश कैसे मिलेगी ?
“सात सौ रुपये कौन देगा?” हेडमास्टर साहब ने यहां जमा लोगों को ललकारा,
“आप लोग देंगे ! गांव की लाश क्रिश्चियनों के यहां रह जाये, यह शर्म की बात है. निकालिए
अपने-अपने घरों से दस-बीस रुपये और चलिए दस लोग अस्पताल. हम लोग लाश ले आयेंगे, क्यों
मुखियाजी ?”
देखते-देखते आठ सौ चौवालीस रुपये जमा हो गये.
किसी ने पूछ लिया, “हेडमास्टर साहब और मुखिया जी ने कितना दिया ?”
मुख्याजी बरस पड़े, “हम लोगों ने दो-चार रुपये नहीं दिये हैं, हां. चार
सौ रुपया मूल, दस रुपया सैकड़ा की दर से तीन महीने का सूद एक सौ बीस. कुल पांच सौ बीस
रुपया इलाज के नाम पर रामजी को माफ कर दिया .”
“जब जमींदार साहब ने दो रुपये दिए तो गांव के बनिये-महाजन को इंकार कैसे
होता? घीसू जमींदार के नाम ढिंढोरा पीटना जानता था. किसी ने दो आने दिये, किसी ने चार आने---
लेकिन शिवजी के पास देने को पैसा नहीं था. अभी उसके पास कुछ होता तो
बुधुआ के लिए---पढ़ी-लिखी बेकारी में वह नौकरी ढूंढ़ता रहा. पर बुधुआ भाले की तरह सीधा
था. कमाने लायक हुआ तो सीधा रिक्शा चलाने लगा. जॉन्डिस का प्रकोप पूरे इलाके में चील
की तरह मंडरा रहा था. संसद में जॉन्डिस से मरने वालों के आंकड़े पर बहस चल रही थी. विशेषज्ञों-डॉक्टरों
का दल गरम पानी पीने की नसीहतें देता घूम रहा था. स्थानीय डॉक्टरों की चांदी थी. भुखमरी,
कुपोषण और दूषित जल की संपूर्ण व्यवस्था पूर्ववत थी. बुधुआ को भी जॉन्डिस हुआ. शिवजी
ने उसे ठीक से दवा-दारू कराने की राय दी थी और कहा था कि हो सके तो कुछ दिन रिक्शा
चलाना छोड़ दे; लेकिन बुधुआ क्या करता ! घर
का भोजन उसी की मजदूरी से चलता था. गाय भी तो नहीं ब्यायी थी जो दूध बेचकर वह घर का
खर्च चलाता और इलाज भी करवाता. कुछ दिनों तक उसने रिक्शा चलाना छोड़ा भी पर घर की किल्लतों
ने उसे मजबूर कर रिक्शे का हैंडल पकड़ा दिया.
फिर शुरू हो गयी सवारियों से भाड़े को लेकर झिक-झिक, धूप, पसीना, बैंक की किश्तों
के तकादे. वह फिर बिस्तर पर गिरा.
शिवजी बुधुआ से मिलने पहुंचा तो बुधुआ फिस्स से हंस पड़ा, “तुम्हारा
बाल-बच्चा है नहीं. बस नौकरी ढूंढ़ो. हम कमायेंगे नहीं तो परिवार कैसे चलेगा. इ बीमारी-ऊमारी तो रहती ही है---और क्या हालचाल
है ?”
बुधुआ का लीवर रोटी की तरह फूल गया था. वह बिस्तर से उठ नहीं सका. आखिरी
समय में बाप ने कर्ज लेकर उसे होली फैमिली अस्पताल में भरती करवा दिया. बेकार.
अस्पताल के डॉ. थॉमस पर गांव के बबुआनों की बातों का असर नहीं हुआ.
सात सौ इक्कीस रुपये जमा करने पर ही लाश मिल सकती थी. शिवजी से अस्पताल के एक कर्मचारी
ने चुपके से बताया कि फादर जॉनसन से मिलने
पर कुछ हो सकता है.
छाती पर क्रॉस बनाते हुए फादर ने शिवजी से कहा, “हम ईसू से तुम्हारा
वास्ते प्रेयर करेगा. वह डॉक्टर थॉमस को अच्छा अक्ल देगा. तुम डॉक्टर थॉमस के पास जाओ.”
शिवजी को देखते ही डॉक्टर थॉमस बोल उठा, “ईसू सबकी मदद करता है---तुम
बहुत गरीब आदमी है. हम बोल दिया है---तुम डैड बॉडी ले जा सकता है.”
कमरे से बाहर आते ही शिवजी उस दुख में मुस्करा उठा ---फादर जॉन्सन का टेलीफोन ! नहीं, ईसू का टेलीफोन !
---और दोपहर को घीसू और माधव बाजार से कफन लाने चले गये. इधर लोग बांस-वांस
काटने लगे---
लाश लेकर सब गाड़ी से उतरे तो मुखियाजी ने कहा, “आप लोग लाश लेकर चलिए,
मैं रामजी के साथ कफन खरीदने जाता हूं. आप लोग जब तक काठ-बांस का इंतजाम कर लीजिएगा.”
बीस गज कफन, गाय का घी, धूप की लकड़ी, अगरबत्ती आदि लेकर मुखियाजी लौट
रहे थे. रास्ते में रामजी से बोले, “क्या मंहगाई का जमाना आ गया है. एक सौ इकतालीस
रुपये लग गये. अब तो मरना भी सस्ता नहीं रहा.” गांव आकर पता चला कि लकड़ी भी खरीदनी
होगी. सिर्फ बांस का इंतजाम हो सका है. कम-से-कम दस-ग्यारह मन लकड़ी तो लगेगी ही. एक
सौ चौवन रुपये की लकड़ी आ गयी. श्मशान घाट पर कुछ रुपये पंडित को दिये गये. बुधुआ की
लाश फूंकने में इस तरह तीन-सौ तेईस रुपये खर्च हुए. गांव की इज्जत रह गयी, ऊपर से मुखियाजी
के पास पांच सौ इक्कीस रुपये बच गये.
बुधुआ की पत्नी दोनों बच्चों को चिपकाये सूनी आंखों से अंधेरे में देख
रही थी. मां दरवाजे के पास लोहा-पत्थर लेकर रामजी के लौटने का इंतजार कर रही थी. आते
ही रामजी के हाथ-पैर धोये. बुधुआ की प्रेतात्मा घर में न घुसे, इसलिए लोहा-पत्थर को
छूकर ही रामजी घर में घुसा. बुधुआ की मां और पत्नी फुक्का मारकर रोने लगीं. दोनों बच्चे
डरे कबूतर की तरह मां से सटे रहे. दोनों आखिर कब तक रोतीं. बुधुआ की मां मिट्टी के
नये बरतन में भात पकाने में जुट गयी.
अपने आगे दूध-भात परोसे देखकर रामजी विस्मय से पूछ बैठा, “चावल कहां
से लायी ?---जब वह जिंदा था, तो चावल नसीब नहीं---आज--.” उसकी आवाज भर्रा गयी.
“अब धरम-करम थोड़े छोड़ा जाता है.----शिवजी की मां से मांग लायी.” बुधुआ
की मां समझाते हुए बोली.
रामजी बिफर उठा, “कैसा धरम-करम ? जब बेटा ही नहीं रहा---फिर अरवा चावल
खाने के लिए पैसा भी तो हो…”
“बाबू जी, अब जैसे भी हो---चंदा भी तो हुआ है…” बुधुआ की पत्नी जमान
कुरेदती बोली.
रामजी नदी किनारे से बुधुआ की आत्मा की शांति के लिए तर्पण कर लौट रहा
था. तभी उसे याद आया, क्यों न मुखियाजी से चंदे की बची रकम ले ली जाये. वह मुखियाजी
के घर की तरफ मुड़ गया.
मुखियाजी के दालान पर हेडमास्टर साहब के अलावा कई लोग बैठे थे. शिवजी
भी था. ब्लाक प्रमुख के चुनाव पर लोग बातें कर रहे थे.
रामजी पर नजर पड़ते ही मुखियाजी ने संभलकर कहा, “आओ रामजी---बस, अब तो
संतोष से काम लेना पड़ेगा. आखिर गांव-समाज ही काम आया ! बुधुआ को कहते थे, हलवाही करो,
तो टन्न से जवाब देता था ---’मालिक, इससे पेट नहीं भरेगा.”
सकुचाते हुए रामजी ने कहा, “मालिक, अब तो बुधुआ ही नहीं है---किसी तरह
उसका क्रिया-कर्म हो जाये---“
मुखियाजी रामजी का पैसा मांगने का इरादा भांपते बोले, “गांव के लोगों
ने लाश उठवा दी. अब चाहते हो श्राद्ध भी हमीं करवा दें ? अरे, गाय है ही, बेचकर श्राद्ध
कर दो.”
रामजी गाय बेचना सुनकर सिहर उठा. एक उसी का तो आसरा है. आंसू सहेजता
रामजी बोला, “गाय का ही आसरा है, कैसे बेचें---चंदा वाले पैसे से श्राद्ध किसी तरह
हो जायेगा.”
मुखियाजी भभक उठे, “हेडमास्टर साहब, सुनते हैं इसकी बात ? गांव वालों
ने चंदा लाश उठवाने के लिए दिया था, सो लाश तुमको मिल गयी. श्राद्ध की बात कहां थी
और अब पैसा बचा कहां है? कफन, लकड़ी, पंडित और पूजा-पाठ के सामान में कुल तीन सौ तेईस
रुपये खर्च हो गये. हमारा और हेडमास्टर साहब का मूल और सूद लेकर पांच सौ बीस रुपया
बाकी था, सो सध गया. कुल आठ सौ चौवालीस में से एक रुपया बचा है---वह ले लो.”
मुखियाजी ने रामजी के हाथ में एक रुपये का नोट ठूंस दिया. रामजी एक
रुपए के नोट को हथेली में मसलता आगे बढ़ गया.
शिवजी से नहीं रहा गया.
“मुखियाजी, यह आपने अच्छा नहीं किया, रामजी का पैसा दे दीजिए.” उसने
कहा.
मुखियाजी गरजे, “बोलने वाले तुम कौन होते हो ! चंदा देते गांड़ फटती
थी और चले हैं हिसाब मांगने---माथे पर कर्जा लेकर बुधुआ मर गया ! वह नरक ही न जाता,
हेडमास्टर साहब! अब बुधुआ कर्ज से उबर गया तो नरक नहीं जाएगा. अब उसको स्वर्ग में जाने
से कौन रोक सकता है ?”
हेडमास्टर साहब मुसकराये, “मुखियाजी, आज सत्संग में भी चलना है, ग्यारह
बजे से है. आपने मेरा डूबा पैसा भी वसूल करवा दिया!”
“अरे, छोड़िये ! यह सब तो दुनियादारी है.” मुखियाजी विजयी भाव से गहराकर
बोले, “यह सब तो लगा ही रहता है. धरम-करम भी चलना चाहिए. दोनों साथ ही सत्संग में चलेंगे.”
मुखियाजी और हेडमास्टर साहब उठ खड़े हुए.
---और दोनों खड़े होकर गाने लगे : ठगिनी क्यों नैना झमकावै! ठगिनी---
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2 टिप्पणियां:
मैंने अरूण प्रकाश जी की अनेक कहानियां पढ़ी हैं। यह कहानी मैंने पहले नहीं पढ़ी थी। नि:संदेह एक ऐसी कहानी जो अरुण प्रकाश जैसे लेखक की रचनात्मकता को और ऊँचा करती है।
Arun Prakash ji ki kahani Kafan, 1984 evan anya sabhi sansmaran padh kar ab unke katha sangrah ko padhna kaa man ho aaya hai...dekhte hain ki kaise prapt ho sakta hai....
Unki punya smriti ko naman...
Aapka anek aabhaar...
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