बुधवार, 1 अगस्त 2012

वातायन-अगस्त,२०१२










हम और हमारा समय

गंगा-यमुना--तेरा पानी----

रूपसिंह चन्देल

व्यवस्थागत सैकड़ों करोड़ का घोटाला-भ्रष्टाचार हमें चौंकाता नहीं. जिस देश में हजारों-हजारों करोड़ के घोटाले हो रहे हों--- एक साथ अनेक—आठ हजार करोड़ का चारा जानवरों के बजाए नेताओं-अफसरों ने मिलकर खा लिया. कुछ नहीं हुआ. उस घोटाले से लेकर टू जी तक चारा के आपपास की राशियों के कितने ही घोटाले हुए, लेकिन प्रकाश में नहीं आए. आए तो केन्द्र के, राज्यों के राज्यों ने दबा दिए. टू जी को सबसे बड़ा घोटाला माना गया, लेकिन उसे पीछे छोड़ गया कोयला घोटाला. कॉमनवेल्थ गेम्स में हुआ भ्रष्टाचार इन सबके सामने चहबच्चा सिद्ध हुआ. जहां लाखों करोड़ के घोटाले हो रहे हों, वहां अठारह सौ करोड़ रुपये क्या मायने रखते हैं!

गंगा और यमुना को साफ करने के लिए १९९२ में सबसे पहले योजना बनाई गई. जापान ने इसके लिए पचासी प्रतिशत तक ऋण दिया. यह राशि लगभग बारह सौ करोड़ रुपये थी, जिसमें अकेले उत्तर प्रदेश को पांच सौ करोड़ से अधिक मिले. हरियाणा को दो सौ पचास करोड़ के लगभग. लगभग इतनी ही राशि दिल्ली को मिली. लेकिन गंगा और यमुना जैसी १९९२ में थीं, आज उससे कई गुना अधिक मैली हैं. पहले फेज में इन दोनों नदियों को कितना साफ दिखाया गया कि दूसरे फेज के लिए जापान से पुनः पचासी प्रतिशत धन ऋण के रूप में मिल गया. बीस वर्षों में दोनों नदियों की साफ-सफाई के लिए सरकारी आंकड़ों के अनुसार २०१२ तक अठारह सौ करोड़ खर्च किए जा चुके हैं. स्पष्ट है कि यह राशि नेताओं और अफसरों के खातों की शोभा बढ़ा रही होगी और कागजों में उन्हें साफ कर दिया गया होगा. इन दोनों नदियों की साफ-सफाई के लिए इस धनराशि को समाप्त दिखाकर नयी राशि प्राप्त करने के प्रयास पुनः प्रारंभ हो चुके हैं और एक बार पुनः जापान भारत सरकार को ऋण देकर उपकृत करने के लिए आगे आएगा. ऋण देने से पहले क्या कभी जापान ने इन नदियों का सर्वेक्षण करवाने का प्रयत्न किया? क्या उसने यह जानने का प्रयास किया कि यमुना को टेम्स बनाने की घोषणा करने वाली सरकारों ने अब तक क्या किया! संभव है सर्वेक्षण करवाया  हो. उन्हें साफ करवाकर कोई एक स्थान या घाट दिखा दिया गया हो.

मैं प्रतिदिन दो बार यमुना के वजीराबाद पुल से होकर गुजरता हूं. मई-जून में पुल पर लगे जाम से बचने के लिए नावों पर बने पंटून पुल से निकलता रहा. वहां से गुजरते हुए यमुना का काला-बदबूदार पानी नाक बंद करने के लिए विवश करता था. वजीराबाद घाट के चारों ओर फैली गंदगी-कूड़ा-कचरा सरकार की सफाई की पोल खोलने के लिए पर्याप्त है. यह स्थिति केवल यहीं की नहीं ---यमुना की यहां से कहीं अधिक बदतर स्थिति दिल्ली के आगे है. यही स्थिति कानपुर और उससे आगे गंगा की है.

अब यह रहस्य नहीं रहा कि ये नदियां किन कारणों से मैली हैं और सरकारें प्रचार के अतिरिक्त इनकी सफाई को लेकर कितना संजीदा हैं. लेकिन सारा दोष सरकारों पर डाल देना भी उचित नहीं है. सरकारों का मुख्य दोष यह तो है ही कि सफाई के नाम पिछले बीस वर्षों में अठारह सौ करोड़ की राशि की घनघोर लूट हुई और नदियों को मरने के लिए छोड़ दिया गया. यही नहीं आगे लूट के रास्ते भी खुले रखे गए. लेकिन इन नदियों के प्रति अपनी श्रृद्धा के बावजूद जनता ने अपने कर्तव्य का कितना पालन किया? पंडितों के पाखंडों से प्रभावित-प्रेरित जनता पूजा-अर्चना की सामग्री इन्हीं नदियों में फेककर स्वर्ग के पायदान पर पैर रख लेने का स्वप्न पालती रही. जिन नदियों के जल का आज भी आचमन (कीटाणुयुक्त विषाक्त जल) बड़े गर्व से लोग करते हैं उनकी सफाई के प्रति वे स्वयं कितना गंभीर हैं? विश्वकर्मा पूजा, विजयादशमी, सरस्वती पूजा, छठ आदि के बाद मूर्तियों और अन्य सामग्री को इन्हीं नदियों के हवाले किया जाता है. क्यों? मैं प्रतिदिन देखता हूं कि लोग प्लास्टिक के बैग भरकर पूजा का कचरा यमुना में उछालकर ऎसे फेंकते हैं, मानो अपने पाप और दारिद्र्य इनके हवाले कर रहे हों. यह  अंधविश्वास की पराकाष्ठा है. आज भी यह देश अठाहरवीं शताब्दी में जी रहा है. वही अर्थहीन कर्मकांड और पूजा-पाठ. पंडितों का व्यवसाय फलफूल रहा है और गंगा और यमुना मरने के लिए अभिशप्त हैं.

आभिप्राय यह कि सरकार में बैठे लोगों, जिनमें नेता, मंत्री, अफसर, बाबू---,को लूटने के लिए बहाने चाहिए. सरकारें यदि सफाई के प्रति ईमानदार हो जाएं तो वे गंदे नालों और फैक्ट्रियों के पानी को उनमें जाने से रोकने का प्रयत्न कर सकती हैं. अभियान के तौर पर कचरा उठवा सकती हैं, लेकिन जब तक जनता जागरूक नहीं होती नदियां मैली ही रहेंगी. सरकारें साफ-सफाई के प्रति ईमानदर होने के साथ ऎसे सख्त कानून बनाएं कि जो भी व्यक्ति-संस्था नदियों में कचरा फेंकता पकड़ा जाएगा सजा के तौर पर उसपर न केवल भारी जुर्माना होगा, बल्कि उसे तीन वर्ष तक की कैद की सजा भी दी जाएगी.

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वातायन का यह अंक खलील जिब्रान के जीवन और रचनाओं पर केन्द्रित है. खलील जिब्रान पर प्रस्तुत संपूर्ण सामग्री ’मेधा बुक्स’ नवीन शाहदरा, दिल्ली-३२ से वरिष्ठ कथाकार-कवि बलराम अग्रवाल की सद्यः प्रकाशित पुस्तक ’खलील जिब्रान’ से प्राप्त की गई है. सभी लघुकथाओं और सूक्तियों का अनुवाद बलराम अग्रवाल ने किया है.

साथ में प्रस्तुत हैं  वरिष्ठ कवयित्री विजया सती की कविताएं.

आशा है अंक आपको पसंद आएगा.

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खलील जिब्रान

’द पैन लीग’ के सदस्य चार घनिष्ठ मित्र,१९२०

बाएं से: नसीब आरिदा, खलील जिब्रान,
अब्द अल-मसीह हद्दाद और मिखाइल नियामी






जन्म-पूर्व की राजनीतिक परिस्थितियाँ एवं भौगोलिक पर्यावरण

बलराम अग्रवाल

भ्रष्ट हो चुकी राजनीतिक परिस्थितियों से त्रस्त लोगों का जिब्रान के जन्म से सैकड़ों वर्ष पहले सीरिया और लेबनान छोड़कर भागने का सिलसिला शुरू हो चुका था। उनमें से कुछ मिस्र में जा बसे, कुछ अमेरिका में तो कुछ यूरोप में। वे, जो न तो भाग-निकलने का सौभाग्य पा सके और न देश-निकाले की सज़ा का, उन्हें सुल्तान के खिलाफ विद्रोह करने के दण्ड-स्वरूप शहर के मुख्य चौराहे पर फाँसी पर लटका दिया गया ताकि बाकी बलवाई उन्हें देखकर सबक ले सकें। जिब्रान के जन्म से लगभग 350 वर्ष पहले, सन् 1537 के शुरू में तुर्की ने सीरिया पर विजय पा ली थी। लेबनान की पहाड़ियाँ तुर्क-सेना के लिए अगम थीं। इसलिए उन्होंने लेबनान के पहाड़ी इलाकों को छोड़कर बन्दरगाहों और मैदानी इलाकों पर अपना ध्यान केन्द्रित किया। पहाड़ी इलाकों और उनके जिद्दी बाशिन्दों को इस शर्त के साथ कि वे वहाँ रहने के एवज़ में सुल्तान के खजाने में टैक्स का भुगतान करते रहेंगे, तुर्कों ने स्वयं द्वारा नियुक्त एक पर्यवेक्षक की निगरानी में उन्हें उनके अपने शासकों के अधीन छोड़ दिया था।
जिब्रान के जन्म से लगभग सौ साल पहले, सन् 1789 में हुई फ्रांस-क्रांति का परिणाम यह रहा कि फ्रांस से कैथोलिक पादरियों का सफाया हो गया। इनमें से बहुत-से पादरियों को लेबनान में शरण मिल गई।
तुर्की का शुमार किसी समय दुनिया के महाशक्तिशाली देशों में किया जाता था। पूरा अरब, उत्तरी अफ्रीका और यूरोप का बड़ा हिस्सा इसके अधीन था। कानून के अनुसार सुल्तान सारे साम्राज्य का मालिक था। साम्राज्य के समस्त खनिज स्रोतों पर उस अकेले का आधिपत्य होता था। वह अपनी मर्जी से जिसे, जब, जितनी चाहे जागीरें बख्श कर उपकृत कर सकता था। इस छूट ने साम्राज्य को जागीरदारी प्रथा की ओर धकेल दिया। सुल्तान वादे तो खूब करता था, लेकिन जनता की आर्थिक मदद बिल्कुल नहीं करता था। उसके मुँहलगे दलाल राज्यभर से खूबसूरत लड़कियों को उठा-उठाकर महल में सप्लाई करने के धन्धे में लगे रहते थे। जो लड़की सुल्तान को पसन्द न आती, वह वज़ीर या उससे छोटे ओहदे वालों का निवाला बनती। वह अगर उनको भी नापसन्द होती या किसी को भी खुश करने में असफल रहती तो हाथ-पाँव बाँधकर गहरे समुद्र में दफन कर दी जाती थी।
साम्राज्य के लिए कर वसूलने वाले लोग राज्य-कर्मचारी नहीं होते थे। इस काम को ठेकेदार सम्पन्न करते थे। प्रति व्यक्ति आय का दस प्रतिशत कर देना होता था लेकिन ताकत के बल पर ठेकेदार इससे कहीं ज्यादा कर वसूल करते थे। खेत में खड़ी  फसल का मूल्य उसके वास्तविक बाज़ार-मूल्य से कहीं अधिक आँक कर उस पर कर निर्धारित किया जाता था, जबकि कोई किसान अगर आकलन से पहले फसल काट लेता तो उस पर फसल चोरी का मुकदमा चलता था। कर अदा न करने के दण्डस्वरूप ठेकेदार लोगों के घरों से अक्सर आम जरूरत की चीजें उठा ले जाते थे। अपने नागरिकों को लेशमात्र भी सुविधा दिए बिना तुर्की उन दिनों दुनिया का सर्वाधिक कर वसूलने वाला देश था।
इस सबने जिब्रान की जिन्दगी को कितना प्रभावित किया?
जिब्रान के जन्म से 14 वर्ष पहले साम्राज्ञी यूजीनी और उसके सम्राट पति नेपोलियन तृतीय के जहाज ने पोर्ट सईद नामक बन्दरगाह पर लंगर डाला। ऐन उस वक्त जब सम्राट, नवाब और उच्चाधिकारी नाच-गाने का आनन्द ले रहे थे, कारवाँ में शामिल भारत, अरब, सीरिया, लेबनान, तुर्की, यहाँ तक कि मिस्र मूल के भी लोगों के सफाए का बिगुल बज उठा। लाखों लोग जो घोडे़ और ऊँट खरीदने-बेचने का कारोबार करते थे, सराय चलाते थे, सामूहिक यात्राओं का इंतजाम करते थे, जो पूरब और यूरोप के बीच व्यापार की कड़ी थे, बरबाद हो गए। इस घर को आग लग गई घर के चिराग़ सेजैसा माहौल था। अरबी मुहावरे का प्रयोग करें तो यों समझ लीजिए कि कमर पर लदे भूसे ने ही ऊँट की कमर तोड़कर रख दी थी। अरब संसार आज तक भी उस विपदा के बाद संभल नहीं सका है। कितने ही सीरियाई और लेबनानी अफ्रीका की शरण में चले गए। कितनों ही ने बेरूत में जहाज को किनारे लगा दिया। आस्ट्रेलिया, दक्षिण अमेरिका, न्यूयॉर्क या बोस्टन-कितने ही लोग अनिच्छापूर्वक वहाँ बस गए जहाँ उनका जहाज जा खड़ा हुआ।

जिब्रान की यात्राएँ

भूगोल और इतिहास के बारे में जिब्रान का ज्ञान अपने शहर या स्कूली किताबों तक सीमित नहीं था। मध्य-पूर्व के स्थानों, घटनाओं, रिवाज़ों और इतिहास के उनके वर्णन को पढ़ने से पता चलता है कि इन स्थानों की उन्होंने यात्रा की थी। बारह वर्ष की उम्र में वे अमेरिका आ गये थे। दो वर्ष तक बोस्टन में पढ़ने के बाद अपनी आगे की पढ़ाई पूरी करने के लिए वे लेबनान वापस चले गए। गर्मी की छुट्टियों में पिता ने उन्हें पूरा लेबनान, सीरिया और फिलिस्तीन घुमाया। चार साल तक अरबी पढ़ने के बाद  उच्चशिक्षा के लिए वे ग्रीस, रोम, स्पेन और पेरिस गए। दो साल पेरिस में पढ़ाई करके वे बोस्टन लौट गए। जिब्रान जहाँ-जहाँ घूमे उनमें नजारथ, बैथ्लेहम, येरूशलम, ताहिरा, त्रिपोली, बालबेक, दमिश्क, अलिप्पो और पाल्मिरा प्रमुख हैं। दुनिया के नक्शे पर इन स्थानों की हैसियत कुछेक बिन्दुओं से अधिक नहीं है, लेकिन ये वे स्थान हैं जिन्होंने जिब्रान के विचारों को, लेखन को और दार्शनिकता को उच्च आयाम प्रदान किए। बालबेक गोरों का दुनियाभर में सबसे बड़ा धार्मिक केन्द्र है। दमिश्क को दुनिया का सबसे पुराना बसा नगर माना जाता है। इस्लाम के स्वर्णकाल की वह राजधानी था जबकि यूरोप अभी डार्क एज़’ (अनभिज्ञता) में ही था। दमिश्क की गलियों और मस्जिदों में घूमते हुए जिब्रान ने अरब के महान लोगों के चित्रों को वहाँ से नदारद पाया। इसका कारण इस्लाम में चित्रप्रदर्शन का प्रतिबन्धित होना था। सोलह साल का होते-होते जिब्रान ने अरब दार्शनिकों और कवियों का गहरा अध्ययन कर लिया था। ताहिरा और सूडान जिब्रान के जन्मस्थान के आसपास ही थे। ग्रीस की सभ्यता यहीं से पनपी। 




मेरी हस्कल का पोट्रेट,१९१० 






प्रारम्भिक जीवन और शिक्षा
जिब्रान खलील जिब्रान बिन मिखाइल बिन साद। पारम्परिक रूप से खलील जिब्रान का यही पूरा नाम है। उनका जन्म तुर्क वंश (यह वंश 13वीं शताब्दी से लेकर प्रथम विश्वयुद्ध में अपने समापन तक वहाँ काबिज रहा) द्वारा शासित ओटोमन सीरिया में माउंट लेबनान मुत्सरीफात के बिशेरी (वर्तमान रिपब्लिक ऑफ लेबनान) नामक स्थान में हुआ था। खलील जिब्रान: हिज़ लाइफ एंड वर्ल्डके लेखकद्वय जीन जिब्रान और खलील जिब्रान ने लिखा है—‘खलील जिब्रान ने एक बार कहा था कि मेरी जन्मतिथि का ठीक-ठीक पता नहीं है। दरअसल लेबनान के बिशेरी जैसे पिछड़े हुए गाँव में उन दिनों जीना और मरना मौसम के या बाकी दूसरे मौकों के आने-जाने जैसा ही सामान्य था। किसी लिखित प्रमाण की बजाय लोग याददाश्त के आधार पर ही जन्मतिथि बताते थे।आधिकारिक जन्मतिथि को लेकर जो उहापोह मची हुई थी, उसका निराकरण खलील जिब्रान ने अपनी लेबनानी मित्र मे ज़ैदी को लिखे एक पत्र में किया है। उन्होंने लिखा है-“...एक वाक़या तुम्हें बताता हूँ मे, और तुम्हें इस पर हँसी आएगी। नसीब आरिदा’ ‘अ टीअर एंड अ स्माइलके लेखों को संग्रहीत करके एक पुस्तक संपादित करना चाहता था। माय बर्थडेशीर्षक लेख के साथ वह निश्चित जन्मतिथि देना चाहता था। मैं क्योंकि उन दिनों न्यूयॉर्क में नहीं था, उसने खुद ही मेरी जन्मतिथि को खँगालना शुरू कर दिया। वह एक जुनूनी आदमी है, लगा रहा और उसने कानून-अल-अव्वल 6’ को जनवरी 6’ में अनूदित कर दिया। इस तरह उसने मेरी जि़न्दगी को क़रीबन एक साल कम कर दिया और मेरे जन्म की असल तारीख को एक माह आगे खिसका दिया। बस, ‘अ टीअर एंड अ स्माइलके प्रकाशन से लेकर आज तक मैं हर साल दो जन्मदिन मना रहा हूँ।
(अरबी में कानून-अल-अव्वल का मतलब हैदिसम्बर माह; जनवरी को कानू्न-अल-थानीकहा जाता है। इस स्पष्टीकरण के आधार पर खलील जिब्रान की सही जन्मतिथि 6 दिसम्बर 1883 सिद्ध होती है।)
खलील जिब्रान की माँ का नाम कामिला रहामी था। उनके जन्म के समय कामिला की उम्र 30 वर्ष थी।  वह उनके तीसरे पति की पहली सन्तान थे। उनके जन्म के बाद कामिला के दो कन्याएँ और उत्पन्न हुई—1885 में  मरियाना तथा 1887 में  सुलताना।  बादशाही को दिए जाने वाले हिसाब से कर के गबन की एक शिकायत के मामले में 1891 में जिब्रान के पिता को,  उनकी सारी चल-अचल सम्पत्ति ज़ब्त करके, जेल में डाल दिया गया था। जिन्दगी में आए इस अचानक तूफान ने कामिला को हिलाकर रख दिया। उससे भी अधिक भयावह दुर्घटना यह हुई कि उसका नाम गांव के ही एक व्यक्ति यूसुफ गीगी के साथ जोड़ा जाने लगा। गाँवभर में बदनामी से आहत होकर एक दिन उन्होंने अपने बेटे जिब्रान को गोद में बैठाकर कहा था—“अब लोगों की जुबान बंद करने का बेहतर तरीका यही है कि दुनियादारी छोड़कर मैं नन बन जाऊँ।’’
स्थानीय समाज की दृष्टि में पतित और आर्थिक बदहाली से त्रस्त कामिला के सामने वस्तुतः दो ही रास्ते शेष थे-पहला यह कि वह हजारों दीन-हीन औरतों की तरह बिषेरी में ही सड़ती रहे और दूसरा यह कि वह अनिश्चित भविष्य का खतरा उठाकर अपने चचेरे भाई के पास अमेरिका चली जाय। यद्यपि तीन साल बाद 1894 में ही जिब्रान के पिता की रिहाई हो गई थी तथापि भुखमरी और अपमान से त्रस्त कामिला ने अमेरिका में जा बसने का निश्चय किया। अपने शराबी, जुआरी और गुस्सैल पति, जिब्रान के पिता को लेबनान में ही छोड़कर  25 जून 1895 को वह अपने पूर्व-पति हाना रहामी की सन्तान, बुतरस पीटर को जो उम्र में खलील से 6 साल बड़ा था, खलील को व उनकी दो छोटी बहनों मरियाना और सुलताना को साथ लेकर अपने चचेरे भाई  के पास बोस्टन चली गईं। वहाँ पर कामिला ने घर-घर जाकर छोटा-मोटा सामान बेचने वाली सेल्स-गर्ल किस्म का काम करके परिवार को पालना शुरू कर दिया। बाद में, मामा की मदद से पीटर भी वहाँ पर किराने का व्यापार करने लगा। मरियाना और सुलताना भी उसके काम में हाथ बँटातीं जिससे परिवार का खर्च ठीक-ठाक चलने लगा।
जिब्रान जन्मजात कलाकार थे। उनको शैशवकाल से ही चित्रकला से प्यार था। अगर उन्हें घर में कोई कागज नहीं मिलता था तो वह घर से बाहर निकल जाते और ताजी बर्फ पर बैठकर घंटों विभिन्न आकृतियाँ बनाते रहते। तीन साल की उम्र में वह अपने कपड़े उतार डालते और पहाड़ों को झकझोर देने वाले तूफान में भाग जाते। चार साल की उम्र में उन्होंने इस उम्मीद में कि आगामी गर्मियों में उन्हें काग़ज़ की भरपूर फसल मिल जायेगी, जमीन में छेद करके उनमें कागज़ के छोटे-छोटे टुकड़े बो दिये थे। पाँच साल की उम्र में उन्हें घर का एक कोना मिल गया था जिसमें उन्होंने साफ-सुथरे पत्थरों, चट्टानी-टुकड़ों, छल्लों, पौधों और रंगीन पेंसिलों को रखकर एक बेहतरीन दुकान खोल ली थी। अगर काग़ज़ नहीं मिल पाता तो वे दीवारों पर चित्र बनाकर अपनी ख्वाहिश पूरी करते। छः साल की उम्र में उनकी माँ ने लियोनार्दो द विंची की कुछ पुरानी पेंटिंग्स से उनका परिचय करा दिया था।   

पारिवारिक गरीबी और रहने का निश्चित ठौर-ठिकाना न होने के कारण 12 वर्ष की उम्र तक जिब्रान स्कूल नहीं जा सके। उनकी स्कूली शिक्षा 30 सितम्बर 1895 को शुरू हुई। प्रवासी बच्चों की षिक्षा के लिए खुले बोस्टन के क्विंसी स्कूल में उन्हें प्रवेष दिलाया गया जहाँ वह 22 सितम्बर 1897 तक पढ़े।
कहा यह जाता है कि स्कूल-प्रवेश के समय अध्यापिका द्वारा उनके नाम के हिज्जे ग़लत लिखे जाने के कारण अंग्रेजी में उसे ‘Khalil’ के स्थान पर ‘Kahlil’ तथा जिब्रान को ‘Jibran’ के स्थान पर ‘Gibran’ लिखा जाता है; ये हिज्जे शब्दों के लेबनानी उच्चारण के अनुरूप लिखे गये हो सकते हैं क्योंकि कामिला रहामी के हिज्जे भी ‘Kamle Rahmeh’ लिखे जाते हैं और इसी तरह अन्य नामों के भी। सचाई यह है कि स्कूल में उनका नाम जिब्रान खलील जिब्रान लिखाया गया था, जिसमें अरबी परंपरा के अनुरूप प्रथम जिब्रानउनका नाम था, मध्यम खलीलउनके पिता का तथा अंतिम जिब्रानउनके दादा अथवा कुल का। इस नाम को छोटा करने तथा Khalil को Kahlil हिज्जे देकर अमेरिकी लुक देने का करिश्मा समाजसेविका जेसी फ्रीमोंट बीयले ने किया था। उनकी भावना को सम्मान देते हुए ही जिब्रान ने अपने लेखकीय नाम के हिज्जे यही बरकरार रखे।
हुआ यों कि, क्विंसी स्कूल में पढ़ते हुए जिब्रान ने चित्रों के माध्यम से अपनी अध्यापिका फ्लोरेंस पीयर्स का ध्यान आकृष्ट किया। उन्हें इस लेबनानी लड़के में भावी चित्रकार नजर आया और 1896 में उन्होंने समाजसेविका जेसी फ्रीमोंट बीयले से उनकी कला की प्रशंसा की। बीयले ने यह पूछते हुए कि क्या वह इस लड़के की कुछ मदद कर सकते हैं, अपने मित्र फ्रेड हॉलैंड डे को पत्र लिखा। डे एक धनी व्यक्ति थे। वे चित्रकार बच्चों के बड़े मददगार थे। वह अपने समय के विशिष्ट चित्रकार और फोटोग्राफर थे। उन्होंने जिब्रान को, उनकी दोनों छोटी बहनों को, सौतेले भाई पीटर और माँ को अपनी प्रतीकात्मक अर्द्ध-काम-सौंदर्यपरक फाइन आर्टफोटोग्राफी के मॉडल के तौर पर इस्तेमाल करना और आर्थिक मदद देना शुरू कर दिया। जिब्रान को उन्होंने बेल्जियन प्रतीकवादी मौरिस मेटरलिंक के लेखन से परिचित कराया। उन्नीसवीं सदी के राल्फ वाल्डो इमर्सन, वॉल्ट व्हिटमैन, जॉन कीट्स और पर्सी बाइशी शैली जैसे धुरंधर कवियों और सदी के अन्य अनेक  ब्रिटिश, अमेरिकी और अन्तर्राष्ट्रीय कवियों की रचनाओं से परिचित कराया। उन्होंने जिब्रान को ग्रीक संस्कृति, विश्व साहित्य, समकालीन लेखन और फोटोग्राफी से परिचित कराया। डे ने जिब्रान के हृदय में दबे उस आत्मविश्वास को जगाया जो विदेश-प्रवास और गरीबी के बोझ तले दब-कुचल कर सो-सा गया था। आश्चर्य नहीं कि जिब्रान ने तेजी से विकास किया और डे को कभी निराश नहीं किया। इस तरह उन्होंने बहुत कम उम्र में अपनी प्रतिभा के बल पर बोस्टेनियन चित्रकारों के बीच सम्मानजनक जगह बना ली थी।  
दो वर्ष बाद, 1897 में जिब्रान ने अपनी अरबी-भाषा की पढ़ाई को पूरा करने के लिए वापस लेबनान जाने का मन बनाया। बेटे की रुचि और तीव्रबुद्धि को देखते हुए कामिला ने उसकी बात मान ली और उन्हें बेरूत जाने की सहमति दे दी। 1897 में जिब्रान को लेबनान के मेरोनाइट बिशप जोसेफ डेब्स द्वारा संस्थापित स्कूल मदरसात अल-हिकमः में प्रवेश दिलाया गया। वहाँ वे पाँच साल तक देवदारों के साये में रहे और पढ़ाई के साथ-साथ चित्रकला के अपने जन्मजात गुण को भी सँवारते रहे। कक्षा में पढ़ाने के दौरान एक बार फादर फ्रांसिस मंसूर ने उनके हाथ में एक कागज़ देखा। उन्होंने उनसे वह ले लिया। देखा-जिब्रान ने उस पर एक नग्न लड़की की तस्वीर बनाई हुई थी जो पादरी के सामने घुटनों के बल बैठी थी। फादर मंसूर ने बदमाश लड़काकहते हुए जिब्रान के कान खींच डाले और स्कूल से नाम काट देने की धमकी तक दे डाली। यहां रहते हुए अपने मित्र यूसुफ हवाइक के साथ मिलकर उन्होंने एक पत्रिका अल मनरःशुरू की। उसे संपादित करने के साथ-साथ वह चित्रों से भी सजाते थे।
डे की मदद से सन् 1898 में मात्र 15 वर्ष की आयु में जिब्रान के चित्र पुस्तकों के कवर-पृष्ठ पर छपने शुरू हो गए थे। 
1899 में वे बोस्टन लौट आए लेकिन एक अमेरिकी परिवार के दुभाषिए के तौर पर 1902 में पुनः लेबनान लौट गये। परंतु कुछ ही समय बाद सुलताना के गंभीर रूप से बीमार हो जाने की खबर पाकर उन्हें बोस्टन लौट आना पड़ा। अप्रैल 1902 में सुलताना की मृत्यु हो गई।
यह एक उल्लेखनीय तथ्य है कि 1902 के प्रारम्भ में बेहतर आमदनी की तलाश में उनका भाई पीटर क्यूबा चला गया था। उस दौरान किराने की दुकान सँभालने का जिम्मा जिब्रान के कंधों पर आ पड़ा। सुलताना की मौत के सदमे से उबरने तथा घर का खर्च चलाने के लिए दुकान सँभालने की जिम्मेदारी ने उन्हें रचनात्मक कार्यों से अलग-थलग  कर दिया। इस कठिन काल में डे और जोसेफिन ने बोस्टन में होने वाली कला-प्रदर्शनियों और मीटिंग्स में बुला-बुलाकर उन्हें मानसिक तनाव से बाहर  निकालने की लगातार कोशिश की। शर्मीलापन छोड़कर उन्होंने उन्हें घर के मौत और बीमारी से भरे वातावरण से बाहर निकलने को प्रेरित किया। कुछ ही महीनों में पीटर जानलेवा बीमारी लेकर क्यूबा से बोस्टन लौट आया। 12 मार्च 1903 को उसका निधन हो गया। उसी वर्ष जून में उनकी माँ कामिला भी देह त्याग गईं। इससे वह पूरी तरह टूट गए। मरियाना भी टी॰बी॰ की चपेट में आ गई थी। परिवार में दो ही व्यक्ति बचे थे जो गहरे आर्थिक और मानसिक-संकट की स्थिति में पड़ गए थे। संभवतः घोर आर्थिक बदहाली, हताशा और निराशा के क्षणों में ही ये पंक्तियाँ लिखी गई होंगी जो उनके 1932 में प्रकाशित संग्रह सैंड एंड फोममें संग्रहीत हैं
(1) मुझे शेर का निवाला बना दे हे ईश्वर! या फिर एक खरगोश मेरे पेट के लिए दे दे।
(2) नहीं, हम व्यर्थ ही नहीं जिये। ऊँची-ऊँची इमारतें हमारी हड्डियों से ही बनी हैं।
परिवार में एक के बाद एक तीन मौत हो जाने और रचनात्मक कार्यों से पूरी तरह विलग होने से टूट चुके जिब्रान ने किराने की दुकान को बेच दिया और अपने-आप को पूरी तरह अरबी और अंग्रेजी लेखन में झोंक दिया। इस दोहरी-तिहरी जिम्मेदारी को ही उन्होंने अपने जीवन का लक्ष्य निर्धारित कर लिया।

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कविताएं





कवयित्री विजया सती की कविताएं






स्मृतियां

एक

किस एक स्मृति से है मन की संपन्नता का नाता ?
पूछती हूँ अपने–आप से.
कितना संपन्न था पहले यह मन
चांदनीचौक की तंग गलियों में घूमता पिता के साथ
दो अक्तूबर से शुरू होती थी खादी पर छूट 
और हम चुनते थे उनके साथ छोटे-छोटे रंगीन टुकड़े 
कुछ न कुछ बना ही देती थी मां -
मेरी सुन्दर सी फ़्राक, कुर्सी की गद्दी का खोल या फिर मेजपोश ही.
थकता कहाँ था यह मन 
ऊंची पहाड़ी के मंदिर तक उड़े चले जाता था
स्वस्थ पिता की उंगलियां थाम नवरात्र के मेले में
फतेहपुरी के भीड़ भरे बाज़ार की हलचल के बीच
खील-बताशे खरीदता दिवाली के आसपास !
उस सम्पन्नता का है कहीं सानी ?
जब झड़ते थे प्रश्न बेहिसाब
बचपन की फ़ैली आँखों से
उत्तर सब थे पिता के पास
और था कहानियों से भरा बस्ता
जिसमें झांकते थे -
टाम काका वेनिस का सौदागर और पात्र पंचतंत्र के.

यमुना किनारे की रेत से कभी बटोरते हम कांस फूल
नंगे पाँव ही हो आते थे उनके साथ
छोटी सी क्यारी में बोए मक्का तोड़ने
या उलझी लता से खींचते थे साथ मिलकर
नरम हरी तोरियाँ !
सुबह जागती-सी नींद में गूंजता स्वर
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय ..
संध्या वेला को त्र्यम्बकं यजामहे का विशुद्ध अटूट क्रम
यह है पिता के साथ की समृद्ध दुनिया अब भी मेरे भीतर.

बहुत बढ़-चढ़ तो गई ही है बाहर भी सब ओर
मेरे आस-पास की दुनिया 
सूना रहता ही कहाँ है
कामकाजी अभिनय से भरा जीवन-मंच?
मुश्किल से मिले निपट अकेले क्षणों में कभी
याद करना बीते हुए मां-पिता की दुनिया में अपनी व्याप्ति
और खो देना समूची रिक्तता 
लगता नहीं 
है कहीं इस सम्पन्नता का कोई सानी !

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दो

जिंदगी को गणित के सवालों सा हल करना
मुझे कभी नहीं आया.
कभी भाया ही नहीं जमा-घटा-गुणा-भाग.
बचपन से ही
कविता के आसपास रहती आई जिंदगी मेरी. 
रसोई में बर्तनों की खटपट के बीच मां गुनगुनाती -
गूंजते थे कानों में वे घुँघरू शब्द
जिन्हें पगों में बाँध नाचती थी मीरा !
बाहर खुले बरामदे में बैठ हम सुनते
पिता का सधा कंठस्वर
सुबह के उजाले को साथ लाता -
नागेन्द्र हाराय  त्रिलोचनाय ...अतुलित बलधामं हेम शैलाभ देहं
फिर कस्तूरबा आश्रम की दिनचर्या में भी तो तय था
सुबह शाम की प्रार्थना सभा का समय
जब आश्रम भजनावली से चुने भजनों का समवेत स्वर
धीमे से ऊंचा उठाती थी मैं भी
छात्रावास की सहेलियों के साथ -
वैष्णव जन तो तेने कहिए जे पीर पराई जाने रे ...
अब इस तरह के सवाल क्यों
जिनका कोई हासिल न हो?
मेरे अंत: को निर्मल बना रहे हैं जब तक रहीम रसखान भर्तृहरि
कबीर का अक्खड़ दोहा बल दे जाता है मुझे
जब तक
अज्ञेय का मौन और भवानी के कमल के फूल झरते हैं आसपास
शून्य हो जाने दूं जीवन का उल्लास 
व्यर्थ की जोड़ तोड़ करते ! ?

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तीन  

उनके जीवन के साथ
उनके दुख भी गये
वे किसी  को कोई दुख न दे गये
न किसी का कुछ  ले गये 
बहुत कम जो भी जोड़ा था
तन की मेहनत से
 मन की लगन से
उसी से था घर भरा-भरा
उनके जाने के बाद भी.
कई दिनों तक रहेगा
रसोई के भण्डार में
नमक तेल चीनी के साथ
और भी बहुत कुछ उनसे जुड़ा.

कोई ऋण बाकी न रहा उन पर
क्या उऋण  हो सकेगी संतान?

करेगी वह सभी के साथ
पिता और मां जैसा निस्वार्थ
और बिना शर्त प्यार?

इसीलिए तो
इतना अभावग्रस्त कर  देने वाला है
पिता के बाद मां का भी चले जाना !

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चार

 बारीक सा एक धागा जरूर टूट जाता  है
बाहर से
अटूट बना रह सकता है
भीतर ही भीतर
मां और पिता के साथ संतान का नाता
आजन्म !

जितना ही उनके जीवन के सच और त्याग
और आदर्श के निकट होंगे हम
उतना ही गहरे जुड़े रह सकेंगे
पिता और मां से हम
अपने जीते जी !

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पांच

पहले ही दिन से
महसूस नहीं हुआ कि
अपने देश और परिचित परिवेश से
बहुत दूर चली आई हूँ !
शायद यह भाषा ही थी जिसने मुझे
सबसे पहले थामा ! 
एक नई पहचान के साथ
केवल भाषा ही नहीं यहाँ तो जैसे
पूरा परिवेश भी मेरे साथ चला आया है !
बर्फ़ से ढकी इन पहाडियों में मिलती हूँ अपने नैनीताल से,
यह जो हलचल से भरा पुल है न,
लोहे का वही पुराना पुल है जमनापार वाला !
मारिया में पाती हूँ मीरा की झलक,
क्रिस्तीना में कृष्णा
और ओर्शी ..मुझे उर्वशी ही तो लगी.
शायद नहीं
यह सचमुच भाषा तो थी ही
और भी था कई तरह का अपनापन
जिसने मुझे इस अनजाने विस्तार में
पहले ही दिन से अकेला नहीं होने दिया !

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विजया सती
 

पहली कविता कॉलेज के प्रथम वर्ष में कॉलेज की ही वार्षिक पत्रिका में प्रकाशित.
कालान्तर में कल्पना, नया प्रतीक, धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, कादम्बिनी, संचेतना, दीर्घा आदि में कविताएँ.

एक सहयोगी काव्य संग्रह के अतिरिक्त दो शोध पुस्तकों का प्रकाशन. विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में आलेख निरंतर प्रकाशित.

दिल्ली विश्वविद्यालय से बी.ए. और एम.ए. हिन्दी – सर्वश्रेष्ठ छात्रा होने के नाते पुरस्कृत. वहीं से पीएचडी.

एसोसिएट प्रोफ़ेसर हिन्दू कॉलेज दिल्ली विश्वविद्यालय.
वर्तमान में – विज़िटिंग प्रोफेसर – भारोपीय अध्ययन विभाग,बुदापैश्त.

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खलील जिब्रान की लघुकथाएं एवं सूक्तियां

(सभी लघुकथाएं और सूक्तियां बलराम अग्रवाल द्वारा अंग्रेजी से अनूदित)   


खलील जिब्रान की मां का पोट्रेट

’यह मेरी मां की जुझारुता का पोट्रेट है’(खलील जिब्रान)




लघुकथाएं
  
चतुर कुत्ता

एक चतुर कुत्ता एक दिन बिल्लियों के एक झुण्ड के पास से गुज़रा.
कुछ और निकट जाने पर उसने देखा कि वे कोई योजना बना रही थीं और उसकी ओर से लापरवाह थीं. वह रुक गया.
उसने देखा कि झुंड के बीच से एक दीर्घकाय, गंभीर बिल्ला खड़ा हुआ था. उसने उन सब पर नज़र डाली और बोला, “भाइयो! दुआ करो. बार-बार दुआ करो. यक़ीन मानो, दुआ करोगे तो चूहों की बारिश ज़रूर होगी.”
यह सुनकर कुत्ता मन-ही-मन हंसा.
“अरे अंधे और बेवकूफ़ बिल्लो! शास्त्रों में क्या यह नहीं लिखा है और क्या मैं, और मुझसे भी पहले मेरा बाप, यह नहीं जानता था कि दुआ के, आस्था के और समर्पण के बदले चूहों की नहीं; हड्डियों की बारिश होती है.” यह कहते हुए वह पलट पड़ा.

अंतर्दष्टा

मैंने और मेरे दोस्त ने देखा कि मंदिर के साये में एक अंधा अकेला बैठा था. मेरा दोस्त बोला, “देश के सबसे बुद्दिमान आदमी से मिलो.”
मैंने दोस्त को छोड़ा अर अंधे के पास जाकर उसका अभिवादन किया. फिर बातचीत शुरू हुई.
कुछ देर बाद मैंने कहा, “मेरे पूछने का बुरा न मानना, आप अंधे कब हुए?”
“जन्म से अंधा हूं.” उसने कहा.
“और आप विशेषज्ञ किस विषय के हैं?” मैंने पूछा.
“खगोलविद हूं.” उसने कहा.
फिर अपना हाथ अपनी छाती पर रखकर वह बोला, “ये सारे सूर्य, चन्द्र और तारे मुझे दिखाई देते हैं.”


अंधेर नगरी

राजमहल  में एक रात भोज दिया गया.
एक आदमी वहां आया और राजा के आगे दंडवत लेट गया. सब लोग उसे देखने लगे. उन्होंने पाया कि उसकी एक आंख निकली हुई थी और खखोड़ से खून बह रहा था.
राजा ने उससे पूछा, “तुम्हारा यह हाल कैसे हुआ?”
आदमी ने कहा, “महाराज! पेशे से मैं एक चोर हूं. अमावस्या होने की वजह से आज रात मैं धनी को लूटने उसकी दुकान पर गया. खिड़की के रास्ते अंदर जाते हुए मुझसे ग़लती हो गई और मैं जुलाहे की दुकान में घुस गया. अंधेरे में मैं उसके करघे से टकरा गया और मेरी आंख बाहर आ गई. अब, हे महाराज! उस जुलाहे से मुझे न्याय दिवलाइए.”
राजा ने जुलाहे को बुलवाया. वह आया. निर्णय सुनाया गया कि उसकी एक आंख निकाल ली जाए.
“महाराज!” जुलाहे ने कहा, “आपने उचित न्याय सुनाया है. वाकई मेरी एक आंख निकाल ली जानी चाहिए. किंतु मुझे दुःख के साथ कहना पड़ रहा है कि कपड़ा बुनते हुए दोनों ओर देखना पड़ता है इसलिए मुझे दोनों ही आंखों की ज़रूरत है. लेकिन मेरे पड़ोस में एक मोची रहता है, उसके भी दो ही आंखें हैं. उसके पेशे में दो आंखों की ज़रूरत नहीं पड़ती है.”
राजा ने तब मोची को बुलवा  लिया. वह आया. उन्होंने उसकी एक आंख निकाल ली.
न्याय सम्पन्न हुआ.

लोमड़ी

सूर्योदय के समय अपनी परछाईं देखकर लोमड़ी ने कहा, “आज लंच में मैं ऊंट को खाऊंगी.”
सुबह का सारा समय उसने ऊंट की तलाश में गुजार दिया.
फिर दोपहर को अपनी परछाईं देखकर उसने कहा, “एक चूहा ही काफी होगा.”

रेत पर इबारत

एक आदमी ने दूसरे से कहा, “सागर में जबर्दस्त ज्वार के समय, बहुत बरस पहले, अपनी छड़ी की नोक से रेत पर मैंने एक लाइन लिखी थी. लोग आज भी उसे पढ़ने को रुक जाते हैं. और वे इस बात का ध्यान रखते हैं कि यह मिट न जाए.”
दूसरा बोला, “रेत पर एक लाइन मैंने भी लिखी थी. लेकिन वह भाटे का समय था. विशाल समुद्र की लहरों ने उसे मिटा दिया. अच्छा बताओ, तुमने क्या लिखा था?”
जवाब में पहले ने कहा, “मैंने लिखा था—’ अहं ब्रह्मास्मि’. तुमने क्या लिखा था?”
इस पर दूसरे ने कहा, “मैंने लिखा था—’मैं इस महासागर की एक बूंद से अधिक कुछ नहीं.”

सपने

आदमी ने एक सपना देखा.
नींद से जागकर व्ह स्वप्नविश्लेषक के पास गया और उससे स्वप्न का अर्थ बताने की विनती की.
स्वप्नविश्लेषक ने उससे कहा, “मेरे पास अपने वे सपने लेकर आओ, जिन्हें तुमने चेतन अवस्था में देखा हो. मैं उन सबका अर्थ तुम्हें बताऊंगा. लेकिन सुप्त अवस्था के तुम्हारे सपनों को खोलने जितनी या तुम्हारी कल्पना की उड़ान को जान लेने जितनी बुद्धि मुझमें नहीं है.”

ताकि शांति बनी रहे

पूनम का चांद शान के साथ शहर के आकाश में प्रकट हुआ. शहर भर के कुत्तों ने उस पर भौंकना शुरू कर दिया.
केवल एक कुत्ता नहीं भौंका. उसने गुरु-गंभीर वाणी में अपने साथियों से कहा, “शांति को भंग मत करो. भौंक-भौंककर चांद को धरती पर मत लाओ.”
सभी कुत्तों ने भौंकना बंद कर दिया. नीरव सन्नाटा पसर गया.
लेकिन उन्हें चुप करने वाला कुत्ता रातभर भौंकता रहा, ताकि शांति बनी रहे.

अहं ब्रह्माSस्मि

अपनी जाग्रत अवस्था में उन्होंने मुझसे कहा – “वह दुनिया जिसमें तुम रहते हो अन्तहीन किनारे वाला असीम सागर है और तुम उस पर पड़े एक कण मात्र हो.”
और अपने सपने में मैंने उनसे कहा –“मैं असीम सागर हूं और पूरी सृष्टि मेरे किनारे पर पड़ा एक कण मात्र है.”

युद्ध और शांति

धूप सेंकते हुए तीन कुत्ते आपस में बात कर रहे थे.
आंखें मूंदकर पहले कुत्ते ने जैसे स्वप्न में बोलना श्रू किया, “कुत्ताराज में रहने का निःसंदेश अलग ही मज़ा है. सोचो, कितनी आसानी से हम समन्दर के नीचे, धरती के ऊपर और आसमान में विचरते हैं. कुत्तों की सुविधा के लिए आविष्कारों पर हम अपना ध्यान ही नहीं, अपनी आंखें, अपने कान और नाक भी केन्द्रित करते हैं.”
दूसरे कुत्ते ने कहा, “कलाओं के प्रति हम अधिक संवेदनशील हो गए हैं. चन्द्रमा की ओर हम अपने पूर्वजों के मुकाबले अधिक लयबद्ध भौंकते हैं. पानी में अपनी परछाईं हमें पहले के मुकाबले ज्य़ादा साफ दीखती हैं.”
तीसरा कुत्ता बोला, “इस कुत्ताराज की जो बात मुझे सबसे अधिक भाती है, वह यह कि कुत्तों के बीच बिना लड़ा-झगड़ा किए, शान्तिपूर्वक अपनी बात कहने और दूसरे की बात सुनने की समझ बनी है.”
उसी दौरान उन्होंने कुत्ता पकड़ने वालों को अपनी ओर लपकते देखा.
तीनों कुत्ते उछले और गली में दौड़ गए. दौड़ते-दौड़ते तीसरा कुत्ता बोला, “भगवान का नाम लो और किसी तरह अपनी ज़िन्दगी बचाओ. सभता हमारे पीछे पड़ी है.”

नर्तकी

बिरकाशा के दरबार में एक बार अपने साज़िन्दों के साथ एक नर्तकी आई. राजा की अनुमति पाकर उसने वीणा, बांसुरी और सारंगी की धुन पर नाचना शुरू कर दिया.
वह लौ की तरह नाची. तलवार और नेज़े की तरह नाची. सितारों और नक्षत्रों की तरह नाची. हवा में झूमते फूलों की तरह नाची.
नाच चुकने के बाद वह राज-सिंहासन के सामने गई और अभिवादन में झुक गई. राजा ने उसे निकट आने का न्योता देते हुए कहा, “सुन्दरी! लावण्य और दीप्ति की मूरत!! कब से यह कला सीख रही हो? गीत और संगीत पर तुम्हारी पकड़ कमाल की है.”
नर्तकी पुनः महाराज के आगे झुक गई. बोली, “सर्वशक्तिमान महाराज! आपके सवालों का कोई जवाब मेरे पास नहीं है. मैं बस इतना जानती हूं कि दार्शनिक की आत्मा उसके मस्तिष्क में, कवि की उसके हृदय में, गायक की उसके गले में वास करती है लेकिन इन सबसे अलग नर्तक की आत्मा उसके पूरे शरीर में फैली होती है.”


 खलील जिब्रान(१९३१)

खलील जिब्रान की सूक्तियां

शाश्वत सत्य

जब दो औरतें बात करती हैं, वे कुछ नहीं कहतीं.
जब एक औरत बोलती है, वह ज़िन्दगी के सारे रहस्यों को खोल देती है.

नक़ाब

औरत एक मुस्कान से अपने चेहरे को ढंक सकती है.

लोमड़ी

सूर्योदय के समय अपनी परछाईं. देखकर लोमड़ी ने कहा, “आज लंच में मैं ऊंट को खाऊंगी.”
सुबह का सारा समय उसने ऊंट की तलाश में गुजार दिया.
फिर दोपहर को अपनी परछाईं देखकर उसने कहा, “एक चूहा ही काफी होगा.”

भुलक्कड़

भ्लक्कड़पन आज़ादी का ही एक रूप है.

गुणवत्ता

आदमी की गुणवत्ता इसमें नहीं है कि उसकी उपलब्धियां क्या हैं. उसकी गुणवत्ता इसमें है कि उपलब्धियों तक पहुंचने के उसके प्रयास क्या रहे.

संदेश

तुम मुझे कान दो, मैं तुम्हें आवाज़ दूंगा.

जीवंत न्याय

ईश्वरीय न्याय में अपने विश्वास को मैं क्यों न कायम रखूं?
जबकि मैं देख रहा हूं कि सोफों पर सोने वालों के सपने पत्थरों पर सोने वालों के सपनों से बेहतर नहीं हैं.

पेड़

पेड़ आसमान में धरती द्वारा लिखी हुई कविता हैं. हम उन्हें काटकर कागज़ में तब्दील करते हैं और अपने खालीपन को उस पर दर्ज़ करते हैं.

असल संबन्ध

अगर पतझड़ कहता—’वसंत का जनक मैं हूं’—कौन मानता?

आदत अपनी-अपनी

मैं चलते हुए लोगों के साथ चल सकता हूं. किनारे खड़े होकर सामने से गुज़रते हुए जुलूस को देख नहीं सकता.

हताशा

मुझे शेर का निवाला बना दे हे ईश्वर! या फिर एक खरगोश मेरे पेट के लिए दे दे.

अटल सत्य

महान से महान आत्मा भी दैहिक  जरूरतों की अवहेलना नहीं कर सकती.

स्पर्श

आप अंधे हैं और मैं गूंगा-बहरा.
इसलिए चीज़ों को समझने के लिए हमें परस्पर-स्पर्श का सहारा लेना चाहिए.

फरिश्ता और मनुष्य

ईश्वर का पहला चिंतन था—फरिश्ता.
ईश्वर का पहला शब्द था—मनुष्य

सफाई पसंद

देहरी पर रोककर मैंने अपने मेहमान को टोका, “नहीं, पैरों को आते समय मत पोंछो. इन्हें जाते हुए पोंछना.”

निरुत्तर

मैं एक बार लाजवाब हुआ. सिर्फ़ उस समय, जब एक आदमी ने मुझसे पूछा—“तुम कौन हो?”

खाई

मनुष्य की इच्छा और सफलता के बीच एक खाई है. उसे उसके वंशज ही तय करते हैं.

स्वर्ग

स्वर्ग, उस दरवाज़े के पीछे वाले कमरे में है. दुर्भाग्य से उसकी चाभी मुझसे गुम हो गई है.
काश, मैं उसे सिर्फ़ भूला होता.

अन्तर

उन्होंने मुझे पागल करार दिया क्योंकि मैंने सोने के बदले अपना समय उन्हें नहीं बेचा था.
और मैंने उन्हें पागल करार दिया क्योंकि वे सोचते थे कि मेरा समय बिकाऊ है.

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बलराम अग्रवाल

जन्म : 26  नवंबर, 1952 को उत्तर प्रदेश के जिला बुलन्दशहर में
शिक्षा : एम॰ ए॰, पीएच॰ डी॰ (हिन्दी), अनुवाद में स्नातकोत्तर डिप्लोमा
पुस्तकें : कथा-संग्रहसरसों के फूल(1994), ज़ुबैदा(2004), चन्ना चरनदास (2004); बाल-कथा संग्रहदूसरा भीम(1997), ग्यारह अभिनेय बाल एकांकी (2012)
  समग्र अध्ययनउत्तराखण्ड(2011); खलील जिब्रान(2012)
अंग्रेजी से
अनुवाद : फोक टेल्स ऑव अण्डमान एंड निकोबार (2000); लॉर्ड आर्थर सेविलेज़ क्राइम एंड अदर स्टोरीज़(ऑस्कर वाइल्ड); अनेक विदेशी कहानियाँ व लघुकथाएँ।
सम्पादन : मलयालम की चर्चित लघुकथाएँ(1997), तेलुगु की मानक लघुकथाएँ(2010), समकालीन लघुकथा और प्रेमचंद(आलोचना:2011), जय हो!(राष्ट्रप्रेम के गीतों का संचयन:2012); कुछ वरिष्ठ कथाकारों की चर्चित कहानियों के 12 संकलन; 1993 से 1996 तक  साहित्यिक पत्रिका वर्तमान जनगाथा का प्रकाशन/संपादन; सहकार संचय (जुलाई 1997), द्वीप लहरी(अगस्त 2002, जनवरी 2003 व अगस्त 2007) तथा आलेख संवाद(जुलाई 2008) के विशेषांकों का संपादन।  हिन्दी साहित्य कला परिषद, पोर्टब्लेयर की साहित्यिक पत्रिका द्वीप लहरी को 1997 से अद्यतन संपादन सहयोग।
 संपर्क : ई-मेल : 2611ableram@gmail.com मोबाइल : 09968094431