रविवार, 10 फ़रवरी 2013

लघुकथाएं और कविताएं



अर्चना ठाकुर की तीन लघुकथाएं

बड़े साहब

कन्हैया लाल बड़बड़ाते हुए अपनी कुर्सी पर आकर बैठते ही मेज़ पर लगी घंटी बजाते है|
'क्या होगा इस देश का - कहते है प्रजातन्त्र है - ख़ाक प्रजातन्त्र है |'
'क्यों कन्हैया लाल जी क्या हुआ ?' साथ की कुर्सी पर बैठे बाबू ने पूछा |
मुँह घुमाकर  उसकी तरफ झुकते हुए कहते है -
'अरे होना क्या है - कई दिनों से छुट्टी के लिए दरख्वास्त दे रहा हूँ पर
हर बार बड़े साहब टाल देते है |'
'क्यों ?'
'क्यों!'(एक एक शब्द गुस्से में कुचलते हुए कहता है)'मैं क्या समझता नहीं
,ये जो कारण बता कर मेरी छुट्टी नामंजूर की है वो सब नाटक है |'
और आगे झुकते हुए -'दरअसल ये सब महज कुर्सी का रौब भर है - अरे हर बड़ा
अफ़सर अपने से छोटे  को अपना गुलाम समझता है की वो जो भी करता जाएगा उसे
छोटा अफ़सर सहता जाएगा |'
'साहब पानी |'
अपने सामने खड़े चपरासी को घूरते हुए कन्हैया लाल लगभग चीखे -
'इतनी देर लगा दी पानी लाने में - मर गया था क्या ?'
'साहब - !'
'क्या है ?'
'आधे दिन की छुट्टी चाहिए थी |'
'क्यों ,कोई मर गया है क्या ?'
'साहब मेरी घर वाली को बच्चा होने वाला है |'
'बच्चा तुम्हारी घर वाली को होने वाला है तुम्हें तो नहीं और जो तुम चले
गए तो यहाँ चाय पानी कौन देगा - जाओ - चाय ले आओ |'
वह गमगीन चेहरे के साथ उल्टे पाँव वापस चल दिया चाय लाने |
उसके जाते ही कन्हैया बाबू फिर उसी तरफ झुक गए -
'हाँ तो मैं कह रहा था की हर बड़ा साहब - |'

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गंदगी

कलफ़ वाली शर्ट पहने वो गले की टाई की नॉट ठीक कर रहा था| बस उसके हाथ कोट
की तरफ बढ़ने ही वाले थे की पत्नी आ गई और अपनी बात कह गई| पत्नी की बात
सुन वो लगभग चिल्लाया -
'तुम पागल तो नहीं हो गई हो - धनी नहीं आया ,तो मैं क्या करूँ -
पाँचसौ-हज़ार एक्स्ट्रा दो पर उससे कहो की छुट्टी न किया  करे - आखिर उसे
सिर्फ पिता जी की देखभाल के लिए ही रखा है - अब  उनकी बीमार हालत पर मैं
क्या कर सकता हूँ - नौकर तो लगा रखा है न - जानती हो न बीमारी के चलते
रोज़ नहाते भी नहीं - ठीक से अपने सहारे खड़े भी नहीं होते अब नौकर आज नहीं
आया तो मैं उनको पेशाब कराने ले जाऊँ - पूरा बोझा मेरे ऊपर ही देदेंगे -
तुम देख रही हो न ,मैं तैयार खड़ा हूँ - जरूरी मीटिंग के लिए निकलना है -
अगर कपड़ों में गंदगी का एक भी दाग लग गया तो बैड इंप्रेशन पड़ेगा - समझती
क्यों नहीं|' एक झल्लाहट के साथ वो अपनी बात खत्म करता है|
पत्नी के सामने कोई रास्ता नहीं था|शवसुर को खिला सकती थी पर गुसलखाने
कैसे ले जाती|
पत्नी को अभी भी खड़ा देख वो आगे कहता है -
'मैं तो कुछ नहीं कर सकता - अब तुम्हें जो समझ आए वो करो - चाहे कोई
दूसरा नौकर रख लो|'आस्तीन झाड़ता वो कोट अपनी बाँह में डाले बाहर की ओर
निकल जाता है| पत्नी बगले झाँकती अपना सा मुँह लिए रह जाती है|
वह बाहर निकल कर जूते के तस्मे बांध रहा था की उसका पाँच वर्षीय बेटा
चॉकलेट खाते खाते वहीं आ जाता है और अपने पिता से चिपटने ही वाला था की
पत्नी चिल्लाई -
'नहीं -हीं - पापा के कपड़े खराब हो जाएँगें|'
'तुम भी - मेरा बेटा कोई गंदगी थोड़े ही है - आओ बेटा पापा के गालों में
जरा प्यार तो कर लो ,फिर पापा जाएँगें - |'
बेटे को गोद में ले कर उसके फूले गुलाबी गालों पर अपना प्यार अंकित कर वो
मुस्कराता बाहर निकल जाता है और हाथों में लगे चॉकलेट के दाग को अपने
रुमाल से पौंछते बाहर अपनी कार की तरफ बढ़ जाता है|
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हक़

'दमयंती देवी जी के केस के सिलसिले में जा रहा हूँ|' एक ने कहा|
'दमयंती- दमयंती देवी-!' वो सोचने लगा|
'जानते हो क्या -!' वो एकाएक उत्सुक हो उठा|
'मध्यम कद की हल्के रंगत वाली महिला दमयंती देवी को तो मैं जानता हूँ -
यही कोई गाँव में हमारे घर से चार घर छोड़ कर घर था उनका - दमनी दीदी दमनी
दीदी कहा करते थे - वही है न|'
अब प्रश्न उसके चेहरे पर नज़र आ रहे थे|
सरकारी रोडवेज़ बस, सुबह के ग्यारह बजे| अचानक बस पर दो मित्रों की भेंट
हो जाती है| एक पेशे से वकील दूसरा प्राइवेट नौकरी पेशा| मिले तो अपनी
गुफ़्तगू के साथ दमयंती देवी के नाम के साथ उसके विषय पर चर्चा छिड़ गई|
'जानता हूँ - बहुत अच्छे से जानता हूँ - शुरुवात से ही बड़ी तेज़ रही है -
घर परिवार के हर मसले पर अपनी पैठ बनाने वाली - पर तुम ये बताओ कोर्ट
कचहरी में क्या चल रहा है उनका?'
'उनके निवास की पीठ दीवार से मिला कोई चार सौ गज़ का टूटा फूटा मकान है
,उसी के हक़ का मुक़दमा चल रहा है - आज आखिरी फैसले की तारीख़ है -|'
'वो क्या उनके किसी जानने वाले की ज़मीन थी?'
इस प्रश्न पर वो फिसफिसी हँसी हँस दिया|
'तुम कहते हो कि उनको जानते हो, फिर उल्टा प्रश्न मुझ ही से कर रहे हो -
वहाँ कोई बुढ़िया रहती थी - उसका तो कोई अपना था नहीं - अचानक एक दिन जब
गंध आई तब पता चला कि बुढ़िया मर गई - परिस्थितियों की मारी बेचारी को कभी
दमयन्ती देवी ने उधर झांक कर भी देखा नहीं होगा - पर उसके मरते जाने कौन
कौन से सबूत इकट्ठे कर लिए कि वो उस बुढ़िया को खाना खिलाती थी, वो मरने
से पहले कह गई थी की बिटिया ये तुम्हारा ही घर है|' वो बीच बीच में
फिसफसी हँसी हँसता जाता था 'मानना पड़ेगा बहुत चालू औरत है - अपने मतलब के
लिए गधे को भी बाप बना लेगी - एक नज़र देखो तो सभ्य समाज का आईना है तो
दूसरी तरफ तस्वीर ही दूसरी है|'
'हूँ|'
'दो लड़को ,पति के साथ खुद का पाँच सौ गज़ का अच्छा ख़ासा मकान है, पति बैंक
में नौकरी करता है,खुद भी सरकारी नौकरी में है - दोनों बेटे कमाऊ पूत है
- दिन रात घर पर धन लक्ष्मी की वर्षा होती है - पर सुना है (कहते कहते वो
उसके और नज़दीक सरक आया) पति के घर परिवार में भी मुकदमे से सारी ज़मीन
हथिया ली थी - सास श्वसुर की सारी ज़मीन जायदाद पर हक़ जता लिया - अब एक
छोटे से टुकड़े पर उसका देवर रहता है|'
'हाँ अपने गाँव में भी यही किया - उसकी माँ के मरने पर बाप ने दूसरा
ब्याह किया था - उससे दो लड़कियाँ हुई थी - तब तो वो चुप रही पर जैसे ही
इधर बाप मरा उधर बाप की पेंशन ,बैंक खाता सब पर इकलौती वारिस बन अपना
जायज़ हक़ दिखा कर सब हथिया लिया - सौतेली माँ को तो कानों कान ख़बर भी नहीं
हुई - बस गाँव के छोटे से घर में बेचारिया रह रही है|'
'बड़ी तेज़ औरत है ,मिलो तो दादा भैया से कम बात नहीं करती जैसे जबान में
गुड़ की ढेली हो पर है दो धारी तलवार है|'
'हमे क्या करना भैया - उसको मिला चाहे उसका हक़ रहा हो या न रहा हो|'
'ऊपर वाला भी कमाल है - किसके हक़ का किसको देता है - |'
फिर दोनों विषय बदल दूसरी चर्चा करने लगते है|
कहीं दूसरी सड़क पर एक तेज़ चमचमाती कार अचानक बंद पड़ गई| ड्राइवर पीछे की
सीट पर बैठी महिला से कहता है - 'मैडम जी गाड़ी में कुछ दिक्कत हो गई है|'
'क्या - मुझे कोर्ट पहुँचना है|'
'गाड़ी नहीं जा पाएगी - मैं ऑटो बुला कर लाता हूँ|'
कुछ ही देर में ऑटो आता है | दमयंती देवी उसमे बैठती है और फिर ऑटो हवा
से बातें करने लगता है कि तभी किसी मोड़ पर सामने से आते तेज़ रफ्तार ट्रक
से बचने में ऑटो सड़क के किनारे पेड़ो के झुरमुट से टकरा जाता गया| दमयंती
जैसे किसी रबड़ बाल सी उछलती पेड़ों के पीछे की झड़ियो में जैसे लुप्त हो
जाती है| ट्रक वाले को अपनी गलती का अहसास होता है और वो ट्रक रोक ऑटो के
पास आता है| वो एक नज़र में देखता है की वहाँ सिर्फ एक घायल ऑटो वाला था
,आस पास किसी और को न पा कर वो ऑटो वाले को ही अपने साथ उठा ले जाता है|
दमयंती घायल वही पड़ी रहती है उनही झाड़ियों के झुरमुट में जहाँ किसी की भी
नज़र उसे छू नहीं पाती | पत्थरों से टकराने से और झाड़ियों से लिपटने से
दमयंती का पूरा शरीर छिल गया था और लगातार उससे खून बह रहा था| पुलिस आती
है पर दमयंती तक उनकी भी नज़र नहीं जाती और वो वही उसी हालत में पड़ी रहती
है|
ढलती दुपहर तक किसी की भी नज़र उस घायल महिला पर नहीं जाती है | उधर घर
वाले परेशान की आखिर दमयंती गई कहाँ? दुपहर के नियत समय पर कोर्ट उसके हक़
में फ़ैसला सुना देता है और उसके घर के पिछवाड़े की ज़मीन पर उसका मालिकाना
हक़ जायज़ मान लिया जाता है| तभी घायल अवस्था में पड़ी दमयंती आखिरी हिचकी
लेती है|उसी वक़्त गाँव की ओर लौटती बकरियों का झुण्ड उसकी लाश को कुचलता
निकल जाता है और चरवाहा उसे देख चौंक जाता है|
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अर्चना ठाकुर की तीन कविताएं

मुझे एकाकी रहने दो.।

लहू लहू में बह जाने दो
नस नस में चढ़ जाने दो,
नशा है ये एकाकीपन का
जगह जगह इसे बिखर जाने दो,

न कहना है न सुनना है
न हँसना है न रोना है,
सिर्फ अँधेरों की गलियों में
भटक के खो जाने,

ख्वाहिशों की गहरी रातों में
तमन्नाओं के डूबे तारे है,
चिथड़ी चिथड़ी आवाज़ों के
दम घोटूँ सन्नाटे है,

मुझे न पुकारो कि न सुनूँगी मैं,
मुझे न रोको कि न रुकूँगी मैं,
मुझे आज चले जाने दो
ये एकाकी का समंदर है,
और मुझे इसमे डूब जाने दो,

एकाकी पन के घावों को सहलाने दो,
मैं एकाकी हूँ मुझे एकाकी रहने दो ||

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इस रात की सुबह नहीं..।

अरे कोई सूरज को  ढक दे
कि अभी सबेरा नहीं हुआ
कि अभी भी जगे नहीं लोग
कि अभी भी उनींदी है आँखें
कि अभी भी थका है मन
कि अभी भी गुज़री नहीं काली रात
कि अभी भी घर तक लौटे नहीं लोग
कि अभी भी रात का चूल्हा पड़ा नहीं ठंडा
कि अभी भी पूरे पसरे नहीं पाँव
कि अभी भी देहरी पर टिकी है आँखें
क्योंकि अभी तक सुबक रही है खबरें
रात की कब्रों में ||

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पृथ्वी का रुदन..

अब वो स्नेह नहीं रहा
मुझसे तुमको,
रंगो से बेज़ार नज़र आता है
इंद्रधनुष मुझको,
फूलों में वो खुशबों भी नहीं
लगती मुझको,
बादल आते बरसते
फिर भी नहीं भिगोते मुझको,
अब वो स्नेह नहीं रहा मुझसे तुमको,
चारों ओर दिखते है
सिर्फ काले काले धुएँ मुझको,
सुर्ख रंगों से रंगी
दिखती हर शह मुझको,
क्रूरता,दरिद्रता के दानव
हर पल रौंदते मुझको,
इसलिए लगता है मुझको
की अब वो स्नेह नहीं रहा
मुझसे तुमको |
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5 टिप्‍पणियां:

सुभाष नीरव ने कहा…

अर्चना ठाकुर की तीनों लघुकथाएं पढ़ीं। 'बड़े साहब' और 'गन्दगी' व्यक्ति के दोहरे चरित्र को दर्शाने वाली लघुकथाएं है। लघुकथा में एक दौर था जब इस प्रकार की लघुकथाओं का प्रचलन खूब हुआ जिसमें अन्त में पात्र के चरित्र को उल्टा करके दिखाया जाता था। धर्मयुग में छ्पी मेरी स्वयं की लघुकथा 'बड़े बाबू' इसी पैटर्न की लघुकथा थी। अन्य भी बहुत सी हैं। पर आज आधुनिक लघुकथा इससे बहुत आगे बढ़ चुकी है। और ऐसी लघुकथाओं को पसंद नहीं किया जाता है। 'हक' लघुकथा का कथ्य बहुत बढ़िया है, अन्त भी बहुत अच्छा है परंतु इस लघुकथा में विस्तार अधिक हो जाने से इसके प्रभाव में कमी आती है।

सुभाष नीरव ने कहा…

'इस रात की सुबह नहीं' कविता अच्छी लगी।

अर्चना ठाकुर ने कहा…

सुभाष नीरव जी मेरी रचनाओ पर प्रतिक्रिया के लिए बहुत धन्यवाद| आपकी पारखी नजरों ने सब जान लिया | वास्तव में बड़े साहब मेरी 10 वर्ष पूर्व लिखी रचना है| हक़ अभी का लेखन है| आपकी राय मेरी लेखनी का मार्गदर्शन करेगी..धन्यवाद

ashok andrey ने कहा…

Archanajee ki laghukatha aur kavitaon se gujarna achchha lagaa.
lekin unki laghu katha ne jayaada prabhav chhoda hai.ummeed karta hoon ki bhavishya men isse bhee achchhi rachnaen padne ko milengee,shubhkamnaon ke sath.

अर्चना ठाकुर ने कहा…

Ashok Andrey ji आपकी प्रतिक्रिया का बहुत धन्यवाद..मेरा प्रयास सदैव बेहतर से और बेहतर की ओर रहता है..आपका आभार