हम और हमारा समय
उत्तराखण्ड में अपनों की तलाश
रूपसिंह चन्देल
प्राकृतिक
आपदाएं भारत ही नहीं विश्व का
शायद ही कोई देश ऎसा होगा जहां न आती हों. सूरीनाम जैसे कुछ देश अपवाद हो सकते
हैं, लेकिन वे पूरी तरह अछूते हों ऎसा मानने को मन तैयार नहीं है. पिछले वर्ष
जापान की तबाही ने पर्यावरणविदों को सकते में डाल दिया था और इस प्रकार प्रत्येक
आपदा के लिए हम ग्लोबल वार्मिंग को दोषी ठहराते हैं. यह गलत भी नहीं है. जिन देशों
में सुनामी ने कहर बरपाया और जो भविष्य में उसकी परिधि में हैं उन सबके पीछे
ग्लोबल वार्मिंग एक प्रमुख कारण है. प्रकृति के ये प्रकोप अपने पीछे भयानक त्रासदी
छोड़ जाते हैं और बहुत से ऎसे प्रश्न जिनसे मानवता को दो-चार होना पड़ रहा है और
होते रहना होगा.
भारत
प्राकृतिक आपदाओं का देश है.
प्रतिवर्ष यहां बाढ़ से हजारों जाने जाती रही हैं. यह सिलसिला शायद तब से ही शुरू हो
गया होगा जब से सभ्यताओं ने नदियों के किनारे बसना प्रारंभ किया होगा. जल के बिना
जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती…इसीलिए सभ्यताएं नदियों के तटों पर पनपीं और कितनी
ही उनमें समा भी गयीं. लेकिन मानव नदियों का आश्रय छोड़ नहीं पाया क्योंकि वह उनके
बिना जी नहीं सकता. कोसी, घाघरा, गंगा, यमुना, कर्मनाशा आदि प्रतिवर्ष कितने ही
गावों में तबाही मचाती हैं. लेकिन उनके उतार के बाद मानव पुनः वहीं जा बसता है. यह
मनुष्य की विवशता का एक पक्ष है, लेकिन इसका दूसरा पक्ष सत्ता से जुड़ा हुआ है जो
प्रतिवर्ष आने वाली बाढ़ की तबाही पर घड़ियाली आंसू बहाता है, हजारों करोड़ की धनराशि
बाढ़ पीड़ितों के लिए दिए जाने की घोषणा करता है लेकिन वह उन तक आधी भी नहीं
पहुंचती. उससे आधी से अधिक राशि नेताओं और अफसरों की जेब में जाती है. बची राशि
विकास कार्यों में लगाए गए नेताओं के चहेते व्यवसाइयों को मिलती है. तबाही का
शिकार जनता पुनः शून्य से शुरू होती है आगामी वर्ष की बाढ़ में अपने को तबाह देखने
के लिए.
बाढ़
जैसे प्राकृतिक प्रकोपों के
विषय में विशेषज्ञों का मानना है कि इस देश के भ्रष्ट राजनीतिज्ञों, अफसरों और
व्यवसाइयों को इस दिन की प्रतीक्षा रहती है. यही कारण है कि वे उससे निपटने के लिए
कभी कोई ठोस कदम नहीं उठाते…ठोस कदम उठाने की घोषणाएं प्रतिवर्ष किए जाने के
बावजूद. बाढ़ उनके लिए धन संग्रह का बड़ा श्रोत है और ठोस उपाय करके और बाढ़ से जनता
को स्थायी निज़ात दिलाकर उस श्रोत को वे
क्यों बंद करने लगे.
बिहार,
उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश,
पश्चिम बंगाल (पता नहीं इसे बंगाल न कहकर इसके साथ पश्चिम
शब्द क्यों जोड़ रखा गया है जबकि आजादीपूर्व का पूर्वी बंगाल अब बांग्ला देश बन
चुका है) आदि लगभग सभी प्रातों में आने वाली बाढ़ रूपी प्राकृतिक आपदा को इस
बार उत्तराखण्ड की आपदा ने सैकड़ों गुना पीछे छोड़ दिया. १६ जून, २०१३ को केदारनाथ,
बद्रीनाथ, गुप्तकाशी, उत्तरकाशी, पिथौरागढ़ आदि स्थानों में प्रकृति ने जो स्वरूप
प्रकट हुआ वह इतना प्रलंयकारी सिद्ध हुआ कि शायद इस देश के इतिहास में ऎसा कभी
नहीं हुआ होगा. चार धाम की यात्रा पर निकले उत्साही श्रृद्धालुओं और पहाड़ों की
सुरम्यता को अपनी आंखों में समेटने गए पर्यटकों को उसने अपने बचाव का अवसर तक
प्रदान नहीं किया. सरकारी आंकड़े भले ही
कुछ सौ के मरने की घोषणा करें लेकिन प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार हजारों को जान से
हाथ धोना पड़ा. बिहार के पूर्व स्वास्थ्य मंत्री, जो किसी प्रकार सुरक्षित वापस लौट
पाने में सफल रहे थे, के अनुसार कम से कम बीस हजार लोगों को जान गंवानी पड़ी. स्वयं
उत्तराखण्ड विधानसभा अध्यक्ष के अनुसार आंकड़ा दस हजार से अधिक हो सकता है. दबी
जुबान दूसरे भी संख्या को हजारों में मान रहे हैं. सरकार भी अप्रत्यक्ष मान रही है
कि हजारों लापता हैं. ये लापता कहां गए? स्पष्ट है कि अब वे शायद ही कभी अपनों के
बिच लौटें. तीन हजार से अधिक लोग आंखों में आंसू और हाथों में अपनों के चित्र
थामें उनकी तलाश में उत्तराखण्ड की खाक छान रहे हैं. प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार
उन्होंने सड़कें लाशों से पटी देखी और ये वे अभागे थे जो जान बचाने के लिए भागते
हुए पानी में बहते हुए चट्टानों की चोटें खाकर धराशायी हुए थे, लेकिन बहता पानी
टनों मलबा साथ बहा रहा था और कितने ही फुट मलबे के नीचे कितने लोग दबे होंगे
कल्पना करना कठिन है.
एक
लाख पांच हजार के लगभग लोगों
को सेना,वायुसेना, आई.टी.बी.पी. आदि के जवानों के अथक प्रयासों से बचाया गया. बचे
लोगों ने इन जवानों की जो प्रशंसा की उससे देश उन जवानों पर गौरवान्वित और उनके
प्रति नतमस्तक है. इस अभियान में बीस सपूत शहीद हुए. एक अपुष्ट सूचना के अनुसार आई.टी.बी.पी.
के चार जवान लापता थे. संभव है वे दूर दराज के गांवों में लोगों की सहायता कर रहे
हों. इस हृदयविदारक स्थिति में भी राजनीतिक पार्टियां और उनके नेता अपनी राजनीति
चमकाने से बाज नहीं आए. एक-दूसरे को नीचा दिखाने के कुत्सित और भर्त्सनीय प्रयास
किए गए. खाद्य सामग्रियों से भरे ट्रकों
को हरी झंडियां दिखाकर रवाना करने का उत्सव मनाया गया. यही नहीं उन सामग्रियों के
पैकेटों पर नेताओं के चित्र चिपकाए गए. आपदाग्रस्त लोगों की इससे बड़ी अवमानना और
इससे बड़ा उपहास क्या होगा. इसे राजनैतिक संवेदनहीनता ही कहेंगे कि ऎसी स्थिति में
भी वोटों की क्रूर राजनीति की गई. लेकिन ये राजनीतिज्ञ यह क्यों भूल गए कि आज की
जनता चार दशक पूर्व की जनता नहीं है. वह उनकी मंशा को भलीभांति समझती है. एक और
बात ध्यान खींचती है कि राज्यों ने दो करोड़ से लेकर चार करोड़ की राशि सहायतार्थ
दी---ऊंट के मुंह में जीरा. ये वे सरकारें हैं जो केन्द्र से हजारों करोड़ रुपए
राज्य के विकास के लिए लेती हैं और आधे से अधिक इनके नेता और अफसर डकार जाते हैं.
मैं
इस आपदा के मुख्य मुद्दे पर
आता हूं. आखिर इस स्थिति के लिए क्या केवल ग्लोबल वार्मिंग ही जिम्मेदार है या
राज्य सरकार की वे भूलें जो उत्तराखण्ड बनने के बाद की गईं. ग्लोबल वार्मिंग एक
कारण हो सकता है लेकिन मुख्य कारण है सरकारों द्वारा जंगल, खनन और भू माफियाओं को
लूट की दी गई खुली छूट. हर नवनिर्मित राज्य में खुली लूट होती है. चाहे वह झारखण्ड
हो, छत्तीसगढ़ या उत्तराखण्ड. विकास के नाम पर लूट और इस लूट के लिए ही अलग राज्य
की मांग की जाती है. मांग करने वाली और विकास का स्वप्न देखने वाली जनता को ठगा
जाता है. उत्तराखण्ड में बेरहमी से पहाड़ों को वृक्ष-विहीन किया जाता रहा, रेत से लेकर पत्थरों तक को खोदा
जाता रहा और उसके लिए विस्फोट से पहाड़ों को खोखला करने की आपराधिक गतिविधियां होती
रहीं लेकिन सरकारें कान में तेल डाले बैठीं रहीं. निशंक जी के मुख्यमंत्रित्व काल
में केन्द्रीय मंत्री जयराम रमेश ने कितनी ही बार उन्हें पत्र लिखकर सैण्ड
माफियाओं के प्रति आगाह किया लेकिन निशंक जी निशंक बने रहे. क्यों? यह बताने की
आवश्यकता नहीं. उनकी कुर्सी जाने के पीछे
ऎसे ही बहुत से कारण खोजे जा सकते हैं.
प्रकृति
के साथ इस प्रकार की आपराधिक
छेड़छाड़ को प्रकृति कब तक स्वीकार करती! एक न एक दिन उसे उत्तर देना ही था.
दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि उसका उत्तर आम जनता पर कहर बनकर टूटा, वह अतिसुरक्षित
परिसरों पर कभी टूटता भी नहीं. ऎसे हालातों का शिकार सदैव आम व्यक्ति ही होता है.
उत्तराखण्ड
की आपदा के कारणॊं के अध्ययन
के बाद उससे निकले निष्कर्षों से क्या सरकारें सबक लेंगीं! माफियाओं पर लगाम
लगेगी? पहाड़ों के साथ छेड़छाड़ बंद होगी और इस सबसे बड़ा
प्रश्न यह कि क्या किसी निष्पक्ष गैर सरकारी जांच एजेंसी (बेशक वह विदेशी हो) से
जांच करवाकर दोषियों के विरुद्ध कभी सख्त कार्यवाई की जाएगी. जो भी दोषी पाया जाए
उसे आजीवन जेल के सीखंचों के पीछे धकेल दिया जाना चाहिए यही अपनी जान गवाने वाले
लोगों और शहीद जवानों के प्रति सही श्रृद्धाजंलि होगी.
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वातायन
में इस बार प्रस्तुत है युवा कवि नित्यानंद गायेन की दस कविताएं.
आशा
है अंक आपको पसंद आएगा.
युवा कवि नित्यानंद गायेन
की दस कविताएं
1. आंसुओं का सैलाब है
----------------------
खोये हुए लोग
अभी घर नही पहुंचे
उनकी चिंता है
कि मंदिर में
पूजा कब शुरू हो
अपनों से बिछड़े हुए
लोगों की आँखों में
आंसुओं का सैलाब है
वे खुश हैं कि
मंदिर सही -सलामत खड़ा है |
उजड़ गये सैकड़ों परिवार
और वे
खरीद रहे हैं
दीये का तेल |
माँ के दूध के लिए
तड़प रही है बच्ची
और वे कर रहे हैं
टीवी पर बहस |
प्रलय से अधिक
हम पर व्यवस्था भारी है
हम लाचार -असहाय हैं आज भी
पहले की तरह....?
2. पहाड़ की माँ -----
सीता
पांच बच्चों की माँ
है
पार चुकी है
पैंतालीस वर्ष
जीवन के
दार्जिलिंग स्टेशन
पर
करती है कुली का काम
अपने बच्चों के
भविष्य के लिए |
सिर पर उठाती है
भद्र लोगों का भारी -भारी सामान
इस भारी कमरतोड़ महंगाई में
वह मांगती है
अपनी मेहनत की कमाई
बाबुलोग करते उससे मोलभाव
कईबार हड़तालों में
मार लेती है पेट की भूख |
योजना आयोग के 'आहलुवालिया'
नही जानता है इस माँ को
पर वह नही करती समझौता
अपने स्वाभिमान से
वह सिर्फ मेहनत की कमाई चाहती है
मेरा सलाम पहाड़ की इस
माँ को .................||
भद्र लोगों का भारी -भारी सामान
इस भारी कमरतोड़ महंगाई में
वह मांगती है
अपनी मेहनत की कमाई
बाबुलोग करते उससे मोलभाव
कईबार हड़तालों में
मार लेती है पेट की भूख |
योजना आयोग के 'आहलुवालिया'
नही जानता है इस माँ को
पर वह नही करती समझौता
अपने स्वाभिमान से
वह सिर्फ मेहनत की कमाई चाहती है
मेरा सलाम पहाड़ की इस
माँ को .................||
3.स्वर्ण मृग
उसने कभी नही मांगी
स्वर्ण मृग
नही था कोई राम उसके साथ
धरती भी नही फटी थी
नही किया था किसी रावण ने उसका हरण
उसे तो जला कर मारा
उसके अपने लोगों ने.||
4.पेड़ के पत्ते जब कांपते हैं
प्रभातकाल की
सूर्य किरण
मध्यम -मध्यम शीतल पवन
पक्षियों का मधुर स्वर
मुझे जगाता है
पूनम की रात में
आकाश का श्रृंगार करती है
चन्द्रमा
मैं देर पहर तक जगकर देखता हूँ उसे
पेड़ के पत्ते जब कांपते हैं
चांदनी की स्पर्श से
मुझे याद आता है
तुम्हारा कांपता शरीर
मध्यम -मध्यम शीतल पवन
पक्षियों का मधुर स्वर
मुझे जगाता है
पूनम की रात में
आकाश का श्रृंगार करती है
चन्द्रमा
मैं देर पहर तक जगकर देखता हूँ उसे
पेड़ के पत्ते जब कांपते हैं
चांदनी की स्पर्श से
मुझे याद आता है
तुम्हारा कांपता शरीर
अचानक ,
उठता है एक भूचाल
सागर के तल में
सुनामी बनकर आता है
और ले जाता है बहाकर सबकुछ
तब अहसास होता है
सहने की भी होती है एक सीमा ....
उठता है एक भूचाल
सागर के तल में
सुनामी बनकर आता है
और ले जाता है बहाकर सबकुछ
तब अहसास होता है
सहने की भी होती है एक सीमा ....
5. हरियाली की खोज में
चैत
के महीने में
हरियाली
की खोज में निकला
फट
चूका है
धरती
का सीना
कुछ
दिलों के दरमियाँ भी
पड़
चुकी हैं दरारें
ऋतुओं
का प्रभाव
अब
रिश्तों में है
यहाँ
भी सूखा पड़ चूका है |
मैं
खोजने निकला
दिलों
में हरियाली
पहले
देखा खुद का दिल
बहुत
तेजी से धड़क रहा था
फिर
देखा
सगे-सम्बंधी
और यारों का दिल
यहाँ
कुछ के दिलों में
मुस्कुरा
रहे थे रंग –विरंगे फूल –कलियाँ
कहीं
–कहीं असर था
मौसम
और प्रदूषण का
फिर
गया सत्ता की गलियारों में
यहाँ
नही पड़ा था कोई असर
चैत
की गर्मी का
सब
गुलजार था
यहाँ
नही फटी थी धरती ऊपर से
हरी
थीं घास
बस , उनपर थीं
लहू की छींटे .....
6. मैंने जीवन जलाकर रौशन किया तुम्हारे देवता का घर....
बहुत मंहगा है
दीये का तेल
और मेरे हाथ हैं खाली
मैंने जीवन जलाकर
रौशन किया
तुम्हारे देवता का घर ....
दीये का तेल
और मेरे हाथ हैं खाली
मैंने जीवन जलाकर
रौशन किया
तुम्हारे देवता का घर ....
7.कई बार झुलसा है
खामोश है शहर मेरा
सहमे हुए बच्चे की तरह
कई बार झुलसा है
दंगों की आग में
आजकल
जी रहा है
एक अपाहिज की तरह |
सहमे हुए बच्चे की तरह
कई बार झुलसा है
दंगों की आग में
आजकल
जी रहा है
एक अपाहिज की तरह |
8.अलग हैं हमारी मुस्कानों की छवि
9.धूप पिघल रहा है
धूप पिघल रही है
और --
आदमी सूख रहा है जलकर
राजा लूट रहा
मंत्री सो रहा है
वकील जाग रहे हैं
विपक्ष नाच रहा है
सड़क पर कुत्ते भौंक रहे हैं
"मैं " नासमझ दर्शक की तरह
सब कुछ खामोश देख रहा हूं….
और --
आदमी सूख रहा है जलकर
राजा लूट रहा
मंत्री सो रहा है
वकील जाग रहे हैं
विपक्ष नाच रहा है
सड़क पर कुत्ते भौंक रहे हैं
"मैं " नासमझ दर्शक की तरह
सब कुछ खामोश देख रहा हूं….
10.यदि होते हम
रेल पथ
यदि तुम
और मैं,
होते रेल पथ
दूरी रहती हमारे बीच
फिर भी , हम साथ –साथ चलते
मंजिल तक
हमारे सीने पर
जब गुजरती
भारी –भारी गाड़ियां
हम साथ –साथ कांपते
पर , चलते साथ –साथ
मंजिल तक दर्द के अनुभवों के साथ
जंग से बचाने को हमें
कोई कर्मचारी
आकर लगा जाता ग्रीस
हमारे जोड़ों पर
हम साथ –साथ चलते
मंजिल तक ......||
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और मैं,
होते रेल पथ
दूरी रहती हमारे बीच
फिर भी , हम साथ –साथ चलते
मंजिल तक
हमारे सीने पर
जब गुजरती
भारी –भारी गाड़ियां
हम साथ –साथ कांपते
पर , चलते साथ –साथ
मंजिल तक दर्द के अनुभवों के साथ
जंग से बचाने को हमें
कोई कर्मचारी
आकर लगा जाता ग्रीस
हमारे जोड़ों पर
हम साथ –साथ चलते
मंजिल तक ......||
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(नित्यानंद गायेन)
परिचय -
20 अगस्त 1981
को पश्चिम
बंगाल के बारुइपुर , दक्षिण चौबीस परगना के शिखरबाली गांव में जन्मे नित्यानंद
गायेन की कवितायेँ और लेख सर्वनाम, कृतिओर ,समयांतर , हंस, जनसत्ता, अविराम
,दुनिया इनदिनों ,अलाव,जिन्दा लोग, नई धारा , हिंदी मिलाप , स्वतंत्र वार्ता ,
छपते –छपते , समकालीन तीसरी दुनिया , अक्षर पर्व, हमारा प्रदेश , ‘संवदिया’ युवा कविता
विशेषांक, ‘हिंदी चेतना’ ‘समावर्तन’ कृषि जागरण आदि पत्र –पत्रिकाओं में प्रकशित .
इनका काव्य संग्रह ‘अपने हिस्से का प्रेम’
(२०११) में संकल्प प्रकशन से प्रकशित .कविता केंद्रित पत्रिका ‘संकेत’ का नौवां
अंक इनकी कवितायों पर केंद्रित .इनकी कुछ कविताओं का नेपाली, अंग्रेजी,मैथली तथा
फ्रेंच भाषाओँ में अनुवाद भी हुआ है . फ़िलहाल हैदराबाद के
एक निजी संस्थान में अध्यापन एवं स्वतंत्र लेखन.
संपर्क : नित्यानन्द गायेन
मकान सं. ४-३८/२/बी, आर.पी.दुबे
कॉलोनी,सेरिलिंगाम्पल्ली,
हैदराबाद – ५०००१९
मो. नं. ०९६४२२४९०३०