शनिवार, 12 अगस्त 2017

वातायन-अगस्त,२०१७



वरिष्ठ साहित्यकार प्राण शर्मा की लघुकथाएं
उपचार
        दौलत राम और देविका रानी का जवान बेटा  दिमागी बीमारी का शिकार हो गया था। उसके हाव - भाव विचित्र हो गए थे। सारा दिन उसकी आँखें ऊपर की ओर उठी रहती थीं। उसकी ऐसी शोचनीय हालत देख कर दौलत राम और देविका रानी विचलित हो गए थे। उनकी रातों की नींद उड़ गई थी। कुछ भी खाने को उनका जी नहीं करता था।  उन्होंने बेटे को शहर के प्रसिद्ध मनोचिकिस्तकों को दिखाया। पैसा पानी की तरह बहाया लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ। किसीने सुझाव दिया -
" दौलत राम जी , ऐसी मानसिक बीमारी कोई तांत्रिक ही दूर कर सकता है। मेरा भांजा तांत्रिक से ही स्वस्थ हुआ था। शहर के प्रसिद्ध तांत्रिक हैं -त्रिभुज जी। बेटे को ले कर उनके पास जाइये। अवश्य ही लाभ होगा। "
         दौलत राम  और देविका रानी तंत्र - मंत्र में विश्वास नहीं रखते हैं लेकिन मजबूरी के सामने उनका विश्वास डोल  गया। बेटे को ले कर उन्हें त्रिभुज जी के पास जाना ही पड़ा। सब कुछ देखने - परखने के बाद त्रिभुज जी बोले - " देखिये , आपके बेटे के शरीर में कोई भूत घुस गया है , उसे निकालना होगा। "
         " कैसे निकालेंगे ? " दौलत राम ने दुःखी स्वर में पूछा। 
         " आपके बेटे के शरीर को  मार - पीट कर। "
           सुनते ही दौलत राम और देविका रानी कांप  उठे। कांपते स्वर में ही दोनों ने पूछा - " स्वामी जी , कोई और उपाय नहीं है ? "
         " नहीं , कोई और उपाय नहीं है। देखिये , भूत बातों से नहीं लातों से भागते हैं। "
           दौलत राम और देविका रानी को त्रिभुज जी की बात के आगे झुकना पड़ा। जैसे - तैसे बेटा स्वस्थ होना चाहिए। 
           बेटे को एक गुप्त कमरे में ले जाया गया। भूत निकालने की विधि शुरु हो गयी।  बेटे को कभी थप्पड़ों - मुक्कों और कभी चाबुक से पीटा गया। चीखते - चीखते वह निढाल हो गया।  उसके निढाल शरीर से  आत्मा 
निकल गयी  लेकिन भूत नहीं निकला  . 
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रक्षक

           रतन  और अन्य लोग बार - बार  कलाई में बंधी  घड़ी देख रहे थे। कोई बस आती नज़र नहीं  आ रही थी।  " ये क्या  व्यवस्था है ? इस सरकार को अब जाना ही चाहिए। `` क़तार में  खड़े सभी लोग रोष प्रकट कर रहे थे। एक बस आती दिखायी दी , सबके चेहरे खिल गए लेकिन वो पास आते ही फुर्र से निकल गयी। एक और बस आयी , वो भी फुर्र से निकल गयी। लोगों का रोष और बढ़ गया।  एक बस आ कर रुकी। " दो ही सवारियाँ चाहिए। " कण्डक्टर ऊँचे स्वर में बोला।  लोगों में भगदड़ मच गयी। सभी बस पर चढ़ने को टूट पड़े।  रतन और उसके पीछे का व्यक्ति धक्कों के बीच बस पर चढ़ने ही लगे थे कि कहीं से दो सिपाही आ टपके। दोनों डंडों के ज़ोर से सबको धकेल कर बस पर चढ़ गए। 
            रतन और अन्य लोग विरोध में चिल्ला उठे " कण्डक्टर ,ये क्या माजरा है ?हम आधे घंटे से बस की प्रतीक्षा कर रहे हैं ,ये पुलिस वाले अभी आये और सवार हो गए। इन्हें उतारिये और हमें चढ़ाइये। "
            " इन्हें मैं उतार नहीं सकता। "
            " क्यों नहीं उतार सकते ?"
            " इन्हें ड्यूटी पर पहुँचना है। "
            " हमें भी ड्यूटी पर पहुँचना है। " लोगों की आवाज़ गूँजी। 
            " ये समाज की व्यवस्था के रक्षक हैं। "
            " हम क्या समाज की व्यवस्था के रक्षक नहीं हैं ? "
            " इनकी बात और है। "
              कण्डक्टर ने झट सीटी बजायी और बस  को आँखों से ओझल होते देर नहीं लगी। 
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मुराद

              घर में ख़बर फैलते ही सबके चेहरों पर प्रसन्नता की लहर दौड़ गयी कि छोटी बहु पेट से है। चार सालों के बाद सबकी मुराद पूरी हुयी थी।  दादा जी तुरंत बेटे और बहु की जन्म पत्रियाँ लेकर नगर के प्रसिद्ध 
ज्योतिषाचार्य के पास पहुँच गए। 
               दादा जी के अलावा घर में आठ सदस्य हैं - दादी , दो बेटे ,दो बहुएँ ,दो बेटियाँ और बड़े बेटे का बेटा। सभी दादा जी की प्रतीक्षा कर रहे थे। बेटियाँ तो उतावली सी पाँच - पाँच मिनट के बाद बाहिर जा कर उनकी राह देख आती थीं। 
               दादा जी का  प्रवेश हुआ। उत्सुकता में सभी उनके पीछे पड़ गए " बताइये , ज्योतिष ने क्या कहा है ?"
               " बताता हूँ , पहले प्यास तो बुझा लूँ। "
               " प्यास बाद में बुझाइये , पहले बताइये। "
               " कन्या  यानि लक्ष्मी का योग है। "
               " उफ़ ! "
                 सबके चेहरे लटक गए। 
               " अरे , चेहरे क्यों लटकाते हो ? लड़के का योग है। "
               " सच ? "
               "  सच। "
               "  हुर्रे ! "
                  झूमते हुए सबने दादा जी को उठा लिया 
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मोह

                 दादा जी गुस्से वाले थे। दादी जी के स्वर्ग सिधारने के बाद उनके गुस्से में बढ़ोतरी हो गयी थी। उनके गुस्से का नज़ला मेरे बड़े भाई पर अधिक गिरता था। बड़े भाई की दिलचस्पी क्रिकेट खेलने में अधिक और पढ़ाई -लिखाई में कम थी। दादा जी चाहते थे कि हम दोनों  भाई भी उनकी तरह ख़ूब पढ़ -लिख जाएँ और खानदान का नाम रोशन करें। 
                 बड़े भाई की दसवीं की परीक्षा चल रही थी। गणित की परीक्षा के एक दिन पहले छुट्टी थी। वह सारा दिन क्रिकेट खेलता रहा था। सूरज के डूबने के बाद वह घर लौटा। उसे देखते ही दादा जी गरज उठे - " कहाँ था तू अब तक ? "
                 " क्रिकेट खेलने गया था। "
                 " सूरज के डूबने तक क्रिकेट खेलता रहा ? कल गणित की परीक्षा है , उसकी कोई चिंता है तुझे ? "
                   बड़ा भाई उत्तर नहीं दे पाया। 
                 " नालायक ; बेपरवाह , तू सुधरेगा नहीं। "
                    दादा जी की आँखें सुर्ख हो गयीं। उनके थप्पड़ बड़े भाई के दोनों गालों पर पड़ने शुरु हो गए। उसके मुँह से खून बहते देर नहीं लगी।  पहले दादा जी के सामने माँ की मुँह खोलने की हिम्मत नहीं होती थी लेकिन अब बेटे के मुँह से ख़ून बहता हुआ देख कर वह चुप नहीं रह सकी। गुस्से में वह भी बोल उठी - " इतना गुस्सा ! आपने तो बेटे को पीट - पीट कर लहूलुहान कर दिया है। "
                   " बहु , पीटूँगा नहीं तो ये सुधरेगा कैसे ,पढ़े-लिखेगा कैसे ? "
                   " आगे से  आप इस पर हाथ नहीं उठाएँगे , छोड़ दीजिये 
                      मेरे बेटे को। "
                   "  ले ,छोड़ दिया तेरे बेटे को , तेरा घर भी छोड़ रहा हूँ। मेरा यहाँ रहना अब मुनासिब नहीं। "
                     माँ  ने हाथ जोड़े , उनके पैरों पर पडी लेकिन दादा जी ने अपना सामान उठाया और घर चले गए। दादा जी का घर से चले जाना किसीको अच्छा नहीं लगा। सब पर उदासी छा गयी।  इस उम्र में वह ------------ माँ  अपने कहे पर बहुत पछतायी।  पापा ने दादा जी के सब मित्रों से पूछताछ की , शहर के हर होटल , हर धर्मशाला और वृद्धाश्रम में उनको ढूँढा लेकिन उनका कोई अता -पता नहीं मिला। 
                      एक दिन मैं घर के बाहिर खड़ा था। मुझे दादा जी आते हुए दिखायी दिए। खुशी में मैं झूम उठा। मैंने माँ को तुरंत आवाज़ दी - " माँ,बाहिर आइये , देखिये कौन आ रहा है ?"
                     " कौन आ रहा है ?" माँ ने भीतर से ज़ोर से पूछा। 
                     " आप ही आ कर देख लें। "
                        माँ भागी - भागी बाहिर आयी। दादा जी को आते हुए देख कर उसकी आँखें खुशी के आँसुओं से भर गयीं। 
                      पास आते ही दादा जी ने मुझे अपनी  बाँहों में भर लिया और मेरे सिर पर आशीर्वाद का हाथ फेरना शुरु कर दिया। 
                      माँ से मिलते  ही वह भीगी आँखों से बोले - " बहु , पोतों का मोह मुझे वापस खींच लाया है। "

आकांक्षा

आकांक्षा तीस साल की हो गयी थी। अब तक उसका विवाह हो जाना चाहिए था। वह रईस से रईस माँ - बाप के बेटे से विवाह करना चाहती थी। बात बन नहीं रही थी। लड़के भी रईस से रईस माँ - बाप की बेटी से विवाह करना चाहते थे। माँ की सभी कोशिशें बेकार हो जाती थीं और बेटी की  वर्षों से  पाली बड़े - बड़े देशों को देखने की आकांक्षा धरी की धरी रह जाती थी। किसीने एक रईस ` लड़का ` सुझाया। रूप - रंग गोरा - चिट्टा था उसका पर उम्र सत्तर साल की थी उसकी। आकांक्षा ने सुना तो बौखला उठी - " उफ़ ,इतनी बड़ीऔर  उम्र ! नहीं,मैं उस बूढ़े खूँसट  से कभी ब्याह नहीं करुँगी। "माँ ने बेटी को पास बिठाया और बड़े लाड़ -प्यार से  समझाया - " अरी , क्या हुआ जो वो सत्तर साल का है ,है तो रईस न। एकाध साल में वो लुढ़का ही समझ। सारी संपत्ति की तू  वारिस होगी। तब ऐश और आराम का जीवन बिताना और जहाँ भी चाहे आना - जाना। तू किसी रानी  से कम नहीं होगी। "आकांक्षा को माँ का सुझाव खजूर से भी ज़्यादा मीठा लगा। दूसरे दिन ही  अग्नि के सात फेरों के बाद वह बूढ़े खूँसट की अर्धांगनी बन गयी। 

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                   संतान की सफलता 

   सुमित्रा के जीवन की एक ही कामना थी कि उसकी इकलौती बेटी रमा बी ए में प्रथम आये। उसकी सफलता का समाचार अखबारों में मोटे - मोटे और हरे - गुलाबी अक्षरों में छपवायेगी,आसपास के सभी मोहल्लों में खोये के लड्डू बँटवायेगी भले ही उसके हज़ारों रुपये ख़र्च हो जाएँ. बेटी रमा ने कमरे की सीढ़ियों के नीचे से गुहार लगायी - " माँ , कहाँ है आप ?मैं पास हो गई हूँ। आपकी मुराद पूरी हो गई है , मैं प्रथम आई हूँ , प्रथम। "
माँ ने सुना तो वह खुशी से उछल पड़ी। सीढ़ियों के ऊपर से ही बोली - फिर से बोल , मैंने अच्छी तरह से सूना नहीं है। "
" माँ , मैं प्रथम आई हूँ। " बेटी की आवाज़ कमरे में गूँज उठी। 
" मेरी आत्मा को खुश कर दिया है तूने। बलिहारी जाऊँ तुझ पर। "
बेटी को गले लगाने के लिए माँ खुशी में पागल हो कर नीचे उतरी। एक सीढ़ी पर उसका दाहिना पाँव फिसल गया। धड़ाम से वह नीचे आ गिरी। उसके माथे से ज़रा - ज़रा ख़ून बहना शुरु हो गया। 
डॉक्टर को बुलाने के लिए बेटी फोन की ओर लपकी। 
माँ ने रोक लिया। बाँहें फैला कर बोली - " पहले मेरे गले  से तो लग जा। ऐसी खुशी रोज़ - रोज़ कहाँ आती है ? "
माँ - बेटी गलबइयाँ हो गयीं। दोनों की पलकों पर खुशी के मोटे - मोटे मोती 
चमक उठे थे। 
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साख

एक निर्माणाधीन फिल्म को और रोमांचित बनाने के लिए निर्माता और निर्देशक को एक पहलवान की ज़रूरत पड़ गयी थी। यूनिट के सभी लोगों से विचार - विमर्श किया गया। देश के बड़े - बड़े पहलवानों के नाम सुझाये गए। हरियाणा के हट्टे - कट्टे पहलवान उदय सिंह को रोल के लिए निर्णय किया गया। निर्माता और निर्देशक तुरंत उदय सिंह के पास पहुँच गए। बातों - बातों में उन्होंने अपने आने का उद्देश्य बताया-" उदय सिंह जी , हमारी फिल्म में आपकी ज़रुरत है। आशा है , आप निराश नहीं करेंगे।"
- देखिये , मैंने अब तक किसी फिल्म में काम नहीं किया है। 
- हमारी फिल्म से काम करना शुरु कर दीजिये। 
- आपकी फिल्म में मुझे क्या करना है ?
- हीरो से बस कुश्ती करनी है। 
- हार - जीत का फैसला तो होगा ही ?
- जी , होगा। जीत हीरो की होगी। 
- मेरी हार दिखाएँगे आप ?
- खामोशी 
- देखिये , मैं अब तक देश - विदेश में हर बार जीता हूँ। आप मुझे हारा 
   हुआ दिखाना चाहते हैं ?
- हम आपकी हार के लिए दस लाख रुपये देंगे। 
- दस लाख रुपयों के लिए देश वासियों में बनी अपनी छवि बिगाड़ लूँ क्या ?
   जाइये ; जाइये , किसी और को ढूँढ़िये। 

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परिचय

प्राण शर्मा का जन्म १३ जून १९३७ को वजीराबाद (वर्तमान पाकिस्तान) में हुआ था. प्रारंभिक शिक्षा दिल्ली में. पंजाब विश्वविद्यालय से एम.ए.(हिन्दी). १९५५ से लेखन . फिल्मी गीत गाते-गाते गीत , कविताएं और ग़ज़ले कहनी शुरू कीं.

१९६५ से ब्रिटेन में.

१९६१ में भाषा विभाग, पटियाला द्वारा आयोजित टैगोर निबंध प्रतियोगिता में द्वितीय पुरस्कार. १९८२ में कादम्बिनी द्वारा आयोजित अंतर्राष्ट्रीय कहानी प्रतियोगिता में सांत्वना पुरस्कार. १९८६ में ईस्ट मिडलैंड आर्ट्स, लेस्टर द्वारा आयोजित कहानी प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार.

लेख - 'हिन्दी गज़ल बनाम उर्दू गज़ल" पुरवाई पत्रिका और अभिव्यक्ति वेबसाइट पर काफी सराहा गया. शीघ्र यह लेख पुस्तकाकार रूप में प्रकाश्य.

२००६ में हिन्दी समिति, लन्दन द्वारा सम्मानित.
"गज़ल कहता हूं' और 'सुराही' - दो काव्य संग्रह प्रकाशित.
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डॉ. किरण मिश्र की कविताएं

स्त्री-1
सारे दरवाजे बंद कर
घनघोर अँधेरे में बैठा वो
निराश हताश था
दरारों से जीवन ने प्रवेश किया
खोल दी खिड़की, जीवन की
वो स्त्री थी
जो रिक्त हुये में भरती रही उजाले
और बदल गई अँधेरे के जीवाश्म में
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स्त्री-2
टूटती जुड़ती स्त्री के बीच
बसी दुनियाँ में किसी ने 
हँसते हुए कहा स्त्री सिर्फ आंसू है
जबकि वो हँसी ले आया था
अपने बाहों में प्रेम की
किस्सों से आवाज आयी
स्त्री लालची है
स्त्री हैरान थी क्योंकि
उसने अपने अंश को जला
दी थी राजमहल को सुगंध चन्दन की
तभी शोर मचता है बेहया, बेशर्म
इतिहास में विचरण करती
पिता को दुग्धपान करा
उनकी जान बचाती
स्त्री को लोग दिखा रहे है
तोड़े गये समाज के  मुल्य
होकर परेशान
सारी सभ्यताओं को लांघ जाना चाहती है स्त्री
लेकिन हर बार सभ्यता रोकती है रास्ता
क्योंकि स्त्री आधा दिन और आधी रात है
जिसे दिन में सूरज सा जल कर
रात में रोपना है अपने स्त्री मन को
पुरुष के अन्दर
जिन्दा रखने सभ्यताओं को।
स्त्री सिर्फ रोपनी है।
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स्त्री-3
बादल उमड़ घुमड़ रहे है
खदेडी गई कौमों की स्त्रियां
इंतज़ार में है
अषाढ की उमस कुछ कम पड़े
सियासत की हवा कुछ नरम पड़े
तो नसों में धंसी वक्त की कीलों
को निकाल फेका जाए
वो जर्द चिनारों से
जो खौफ लेकर चली थी
वो खौफ भी उनके नहीं
आंसुओं से तर दर्द सूख गये
लेकिन लोरियों में घुले खून की महक
अभी तक गई नहीं
उनके रौंदे जिस्म महज़ब की कहानी कहते है
स्त्रियां भूल गई
रचना रचाना स्त्री का है
उसे बारूद के ढेर पर बैठाना पुरुष का काम है
स्त्री के लिए जमी कभी जन्नत न बनी
फिरदौस बरूह जमीनस्तो
जहाँगीर ने कहा था
नूरजहां कहां कह पायी थी ?
*******






स्त्री-4
तेदू पत्ता तुड़ान करते हुये एक दिन
मेरे ही धधकती जवानी से
ठेकेदार ने जब बीड़ी सुलगा ली तो
मैं नहीं बची
गुम हो मिल गई
दंडकारणय  की गुमनाम कहानियों में
लेकिन कहते है न
कुछ बचा रह जाता है
सो बची रही
नख भर उम्मीद  नख भर ताकत
उसी से ले हाथ में बगावत की विरासत
गांधी के न्यासिता के सिद्धांत को नकारा
लैण्ड माईन बिछाई लाल विचारों की
और कर दी घोषणा क्रांति की
उखाड़ फेका सत्ता, पुलिस, सेना को
हो कर खुश हवा में उठाया हांथ
मुठ्ठी बंद की और जोर से चिल्लाई
लाल सलाम
मैं आजाद थी
वर्ष बीते, बीते आजादी के ढंग
देख रही हूं हर तरफ
सिद्धांत परिभ्रमण का।
लोमड़ी जिसे मिली थी आजादी
बन के वो शेर शासक कहला रही है
अधोवस्त्र  फेक बीड़ी सुलगा रही है
मैं क्रांति की बात करने वाली
खुराक बन सत्ता की
कब की शेरों  के गले उतर चुकी हूं
मार्क्स तैयार है वर्ग संघर्ष के लिए
सलामी दे
हवा में हाथ लाल सलाम।

*******
तलाश
जीवन के खंड खंड से निकले शब्द
कविता बन उतरे कागजों पर
तो कभी मन के प्रान्तर में भटकते रहे
लेकिन एकांत अखंड ही रहा
आमंत्रण देता
संभावनाओं के पंख लगे
अब अधिष्ठाती हूँ मैं
फिर कोलाहल हुआ
'मैं' खंडित
तो कौन उपस्थित था
ऊर्जा
कैसी उर्जा
सम्बन्ध
कैसा सम्बन्ध
सारी ध्वनियाँ थरथरा कर
गुरुत्वाकर्षण का भेदन
नहीं करती
क्यों
कुछ नि:शेष है
शून्य से आगे
महाशुन्य की तलाश में
मैं।
******


 

कैदी
मुझे एक कैदी में तब्दील कर
वो भागता है हर बार
नये नये स्वप्न तट की तरफ
ये देख दरिया हँसता है
और रोती है दीवारें
लग कर गले
बिछड़े दोस्त की तरह,
मेरे भीतर उसकी मौजूदगी
ढलता सूरज है
उगा भी तो
इस कदर तपा देगा
की हो जाउंगी पत्थर
सुना है होते है
सख्त पत्थर के इरादे।
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प्रेम
होना तो ये था
पाबंद बन जाने थे माथे पर
जलाना था दिया
जाना था तकिया पर
ये पूछने
दरिया में आग क्यों अमृत क्यों नहीं
शायद दो मैना दिख जाती
लेकिन झुकना न आया
फिर मारे पत्थर दिल पर
खौफ़ की चक्की चलाई
सोचा तो ये भी था
आब-ए-चश्म में नहा कर
पता चलेगा
दिल का जला क्या पता देगा
कुछ आंखो में
जुगनुओं की तरह टिमटिमाया
फिर गायब
खुदाई में मिला
आत्मा का पता नहीं
आम दस्तूर
आग के दरिया से पार नहीं पाया
राख का पंछी बन
भटक रहा है वीराने में
जहां न चुम्बकत्व है
न गंध है
न सूर्य
अब कफ़स में मैना
पैगाम आए तो कैसे।
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तकिया- फकीरों-दरवेशों का निवास-स्थान\
आब-ए-चश्म- आंसू
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परिचय

12  अक्टूबर,१९७९ को कानपुर में जन्म
डॉ किरण मिश्रा: प्राचार्या डिग्री कॉलेज कानपुर
लेख- दैनिक हिन्दुस्तान, दैनिक जागरण ,लोकसत्य, लोकमत, जनमत की पुकार(पत्रिका) ग्राम सन्देश ।
कविता- आह!जिन्दगी, अटूट बंधन, सौरभ दर्शन
अनेक शोध पत्र -राष्ट्रीय /अंतरष्ट्रीय शोध -पत्रिकाओं में प्रकाशित    
प्रकाशित पुस्तके: समाजशास्त्र;एक परिचय
प्रकाशन में- एक कर्मनिष्ट यति
पुरस्कार सम्मान: माटी साहित्य सम्मान(२०१३), सरस्वती सम्मान (२०१२) निरालाश्री पुरस्कार (२०१५) गगन स्वर पुरस्कार (2015)दिल्ली
रामप्रसाद बिस्मिल सम्मान (2017)दिल्ली

13,टेम्पल रोड भोगल, जंगपुरा,नई दिल्ली   पिन कोड-110014  
मो.-  +918700696816


शनिवार, 8 जुलाई 2017

वातायन- जुलाई,२०१७


मित्रो,

अनेक व्यस्तताओं के कारण वातायन का प्रकाशन नियमित नहीं हो पाने का खेद है. मेरा प्रयास होगा कि पहले की ही भांति इसका प्रकाशन नियमित हो सके.  वातायन एक ब्लॉग पत्रिका के रूप में सदैव आप तक पहुंचता रहा है और विश्वास है कि भविष्य में भी उसी रूप में इसका प्रकाशन हो सकेगा.

वातायन के इस अंक में युवा कवयित्री और लेखिका सुश्री शशि काण्डपाल का  संस्मरण ’डाक्टर यादव’ और उनकी कविता-बूंदों  की ख्वाहिश’ प्रस्तुत है. सुश्री काण्डपाल प्रखर प्रतिभा की धनी हैं, जिनके पास आकर्षक शिल्प, सक्षम भाषा और सूक्ष्म दृष्टि है. भविष्य में भी आप उनकी अन्य रचनाएं यहां पढ़ सकेंगे.


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संस्मरण
(डाक्टर दिवस (०८-०७-१७) पर विशेष)

डाक्टर यादव
शशि काण्डपाल


डाक्टर----आप  पढ़ लिख कर जी जान एक करते है ताकि हमारे रोगों और परेशानियों का निदान कर सके और शायद अपने जीवन भर की नींद और आराम गवां बैठते है ..इसके लिए मैं सभी का आभार मानती हू..

डॉक्टर बोलते ही मुझे अपने  भाई बहनों,पड़ोसियों,मोहल्ले और एरिया के लोगो को सँभालते "डॉ यादव  " होम्योपैथ याद आ जाते है| 
कद छह फुट से थोडा कम,छरहरा शरीर,परिवार के एकलौते बेटे,अविवाहित  और उनकी बड़ी सी कोठी! 

पहले पहल घर में  क्लिनिक खोला और मेरे पापा अक्सर हमें वहाँ  ले जाते..कभी मिलने कभी दवाई लेने | मेरी दादी  को दवाई देने  वो  घर तक आ जाते और लगता हमारा पूरा घर स्वस्थ हो गया ...उनकी छोटी छोटी टिप्स बहुत अमूल्य  हो उठती|

अलग तरह के इंसान,जिन्हें समाज को सस्ती दवाइयां उपलब्ध करानी थीं ,बच्चो के मुँह पर मुस्कान लानी थी ,, हम उन्हें भगवान् सा मानते, ना इंजेक्शन ना कड़वी दवाई  देने  वाले  डॉक्टर!

उन्होंने  अपने घर के पीछे, एक बड़े से कमरे को अपनी कार्य स्थली बनाया,वो या तो पढ़ते रहते या लकड़ी की बनी ,दवाई की शीशियो को सजा कर रखने वाली, चौकोर और छोटे छोटे खानों वाली ट्रे से गोलियां  मिक्स कर रहे होते,पुडिया बना रहे होते....

उनके कमरे तक पहुँचने के लिए पूरी कोठी को गोलाई में पार  कर  उन  तक पहुँचना होता जो की एक अलग अनुभव होता और उससे भी  विशेष आकर्षण होता उनके दरवाजे पर लगी पीतल की घंटी जिसे डोर से खींचकर बजा सकते थे लेकिन मैं जब भी जाती  वो  व्यस्त मिलते  और मैं देहरी पर खड़ी  उनके बुलाये जाने का इंतजार करती...जब थकान से पैर उठाने ,बदलने लगती तब वो गर्दन उठा कर इजाजत देते और कहते तुम बोलोगी नहीं तो दुनिया सुनेगी नहीं ..किसे क्या पड़ी है जो तुम्हारा मौन समझे?? 

 मैं कुछ समझ ना पाती लेकिन आज  जानती हूँ कि  वो  तो  पहले  ही  मुझे अपनी  बड़ी  बड़ी  खिडकियों  से  आते  हुए  देख  चुके  होते  थे  बस  मेरे दब्बू  पन   का  इलाज  कर  रहे  होते  थे! लेकिन  डॉक्टर  साहब  ये  भूल जाते  थे  जन्मजात बिमारिया कम  ठीक  होती  है |

मरीज बढ़ते गए,नाम  बढ़  चला और कोठी गन्दी  होती  गई  सो  बाहर बाजार में एक कमरा जो की कल्लू हलवाई  के  बगल  में था , रोगियों का अस्पताल बना|
कोई भी पेटदर्द बताता तो उनका पहला प्रश्न होता कल्लू की मिठाई खायी थी क्या? 

कल्लू  भी  सुनता  और  डॉक्टर  भी  मिठाई  खाते  और  एक  दूसरे  की सहायता  ही  करते|

अब मेरा  आकर्षण  दुगुना था क्योंकि मीठी  दवाईयों में ,छनती  जलेबियों की खुशबू भी समा गई थी ...खौलता  दूध  और  औटता खोया घर जाने की याद बिसरा देता..

डॉक्टर सिर्फ एक रुपया लेते,और दो चार घंटे में एक स्तूप बन जाता और गिनने के लिए मेरे मत्थे पड़ता, रेजगारी कल्लू के हवाले करने पड़ती| वो कभी सिक्के या रुपये पर हाथ ना लगाते, अगर ज्यादा रूपये दिए है तो बाकी खुद उठा लो क्योंकि दवाई देते समय वो कुछ ना  छूते ..

अक्सर एक जमादार जो अपनी दवाई लेने आता जैसे ही सिक्का डालना चाहता वो डांट देते ..

हटाओ अपना गन्दा सिक्का...मिलाना मत और वो हरिराम खित्त से हँस देता...

सालों  एक  सिक्के को  दिखा  कर  स्वस्थ  होता रहा और हर बार डॉक्टर उसका सिक्का लौटाते  रहे...असल  में वो उससे दवाई के पैसे नहीं लेना चाहते  थे  क्योंकि तब एक रूपये की अच्छी कीमत  हुआ  करती  थी और मैं  हैरान होती की  आखिर  ये  एक तरह  की  बेइज्जती के बाद  भी  हँसता क्यों  है? बहुत  बाद  में  समझी  कि कुछ  दोस्त   ऐसे  भी  होते है...लेकिन वो उनका अहाता साफ़ रखता और अपनी खुद्दारी भी!

बचपन गया,शादी हुई और डॉक्टर मेरी स्मृतियों में धुधले पड़ गए लेकिन जब सालों बाद शहर वापस आई तो उनसे मिलने की कोशिश में कहाँ कहाँ ना  पता लगाया लेकिन वो कही नहीं मिले.

कल्लू की दूकान कलेवा नाम  से प्रसिद्द हो चुकी थी लेकिन मुझे बिलकुल मीठी नहीं लग रही थी..घर की जगह एक शौपिंग मॉल खड़ा था...

कहाँ गया वो बगीचा? वो बिल्लियाँ? वो तोते  और  ढेर  सारे   कबूतर? मैं  अक्सर  पूछती क्या  ये  सब  भी  आपकी मीठी दवाई  खा  सकते  है? और  वो मेरी  नाक  पकड़  कर कुछ सादी गोलियां मेरे मुह में टपका  देते  और मैं समझ  ना पाती   की मेरा  मुँह खुद  खुलता कैसे  है?? समय  ने  समझाया  कि जब सांसों  का   एक  रास्ता  बंद  कर  दो  तो  दूसरा प्रकृति खोल  देती है.....

जिससे भी पूछती  वो  उन्हें स्मृतियों में जानता लेकिन वर्तमान में कहाँ है पता ना चला........वो मेरे लिए अनुत्तरित ही रहे....भाई,पापा,पड़ोसी  सबने पता लगाने की कोशिश की लेकिन अपने माँ बाप की मृत्यु के बाद  वो  मकान बेच ना जाने  कहाँ  चले  गए? किसी  कल्लू, हरिराम और रोगियों को बताये बिना......

अभी कुछ साल पहले हरिद्वार गई और दिमाग ने कहा ऐसा न हो की उनकी परोपकारी प्रवृत्ति उन्हें किसी आश्रम या चेरिटी में ले आई हो और अपने सूत्रों से पता लगाने की कोशिश की लेकिन नाकाम रही.......क्या पता नाम भी बदल लिया हो!

आज भी उनकी उम्र के बुजुर्ग में उन्हें ढूढती हूँ क्या पता कहीं दिख ही जाये..

कितने भी बदले होंगे तो भी जुगाड़  से पहचान लूंगी उन्हें  और  वो मुझे....

आखिर एक मैं ही तो थी जो रोग होने पर उनके सामने बैठ जाती और वो मुझसे सिमटम्स पूछ  के  बता  रहे  होते  तुझे  ये  हुआ  है  और  सर  पे  एक  चपत  लगा  कर मेरा  दिया  सिक्का अपनी जेब में रख लेते.......
शायद मेरे जीवन के पहले  आदर्श जिनसे मेरा मोह कभी भंग नहीं होगा! सबको स्वस्थ करने वाले डॉक्टर यादव ..

 आप जहाँ  भी  हो कुशल से हो! स्वस्थ हो!
-0-0-0-0-


कविता

बूंदों  की ख्वाहिश
शशि काण्डपाल

सुबह हो, बारिशों  वाली,
और जाना हो कहीं दूर..
खाली सी सड़के हो,
और सोया सा रास्ता,
हँसते से पेड़ हो,
और ढूढ़ना हो,  कोई  नया  पता...

चले और चले फकत  जीने इन रास्तो को ,
जहाँ ये सफ़र हो...
और मंजिल हो लापता,,

ओस आती हो पैरों से लिपटने
और भिगो  जाये  टखनो तक.
दे जाती हो इक सिहरत,
ताउम्र ना भूल पाने को..
बस चलती रहूं
जियूं उन अहसासों को रात  दिन,
जो देते है  रवानियत ..
रहूं तेरी ख़ामोशी में..
बस फकत ये याद दिलाने ...

जब जब हो बारिश,
या शरद की गीली घास
भिगोये ये रास्ते,  तुझे  बार बार  ...
छिटकन बन जाए तेरी उलझन और उलझन  मुस्कान,,
और याद  आये कि पैरों  से लिपटती वो बूंदे ...
कही मैं तो नहीं?

झुक के देख खुद के कदमों को,
जिन्हें मैंने भिगोया ओस की बूंदे बन कर,
उठ के देख खुद को,
जिसे मैंने भिगोया याद बन कर..
कर ख़याल और समझ..
ये मैं  हूं...
मैं ही तो  हूं...
और कौन ............
जो तेरे कदमों  से  लिपट...
तेरे  घर तक जाना चाहे.........

-0-0-0-0-

युवा कवयित्री और लेखिका शशि काण्डपाल

 

शुक्रवार, 20 जनवरी 2017

वातायन-जनवरी,२०१७


मित्रो,

यहां मैं १८५७ की जनक्रान्ति के महानायक अजीमुल्ला खां पर अपना आलेख प्रस्तुत कर रहा हूं. यदि अजीमुल्ला खां इस देश में पैदा नहीं हुए होते तो वह जनक्रान्ति शायद ही संभव हो पायी होती. यहां अजीमुल्ला खां का उपलब्ध वह चित्र दे रहा हूं जो मेरी पुस्तक ’क्रान्तिदूत अजीमुल्ला खां’ (प्रकाशन विभाग, भारत सरकार- १९९२ में प्रकाशित) में प्रकाशित है. यह उस पुस्तक का कवर है और इस पुस्तक का पंजाबी और असमिया भाषाओं में अनुवाद हो चुका है. पंजाबी अनुवाद पंजाबी के वरिष्ठ कवि-लेखक और पत्रकार और इन दिनों पंजाबी भवन, नई दिल्ली के निदेशक बलबीर मधोपुरी ने किया है.

 


१८५७ और अजीमुल्ला खां
रूपसिंह चन्देल

१७५७ के प्लासी-युद्ध के पश्चात अंग्रेजों ने एक-एक कर राज्यों को अपने अधीन करना प्रारंभ कर दिया था. वारेन हेस्टिंग्ज ने काशी, रूहेलखंड और बंगाल में पराधीनता के बीज बोए तो वेलेजली ने मसूर, आसाई, पूना, सतारा और उत्तर भारत के अनेक राज्यों के अधिकार छीन लिए और एक दिन संपूर्ण भारत को पददलित करने लगे. भारतीय राजाओं-बादशाहों के अधिकार कम हो जाने के कारण अंग्रेज पूरी तरह निरंकुश हो गए और भारतीयों को गुलाम समझने लगे. अंग्रेजों की साम्राज्यवादी नीति और निरंकुशता के कारण उन राजे, महाराजे, बादशाह, जमींदार, जागीरदार और ताल्लुकेदारों के मन में ही अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह की भावना नहीं पनप रही थी, जिनके राज्य और सम्पत्ति अंग्रेजों ने हड़प लिए थे; बल्कि जन-साधारण की विक्षुब्धता भी बढ़ती जा रही थी, जिसका प्रस्फुटन १८५७ की ’जनक्रान्ति’ के रूप में हुआ था, जिसे अंग्रेज इतिहासकारों ने ’गदर’ कहकर महत्वहीन सिद्ध करने की कोशिश की और भारतीय इतिहासकारों ने उसे सैनिक विद्रोह कहा. इससे आगे जाकर कुछ लोग उसे राज्य क्रान्ति कहने लगे. अर्थात वह कुछ राजाओं, नवाबों, जमींदारों, जागीरदारों जैसे लोगों द्वारा अंग्रेजी शासन के विरुद्ध किया गया ऎसा यौद्धिक प्रयास था, जिसके द्वारा वे अपने खोए शासन को पुनः प्राप्त करना चाहते थे. यहां ये विद्वान इस तथ्य को अदृश्य कर जाते हैं कि १८५७ का वह विद्रोह, न मात्र सैनिक विद्रोह था, न राज्य क्रान्ति प्रत्युत वह ’समग्र जन-क्रान्ति’ थी (भले ही किन्हीं कारणों से सम्पूर्ण देश में नहीं हुई थी) क्योंकि उसमें देशी रजवाड़ों-नवाबों की ही भागीदारी न थी---आम जनता ने भी अपना रक्तिम योगदान दिया था. लगभग सम्पूर्ण उत्तर भारत के गांव-गांव में क्रान्ति का अलख जगाने के लिए ’कमल’ और ’रोटी’ (शायद यही जनता को आकर्षित करने के लिए सहज-स्वीकार्य रहे होंगे) का बंटवाया जाना इस बात का प्रमाण है. जनता के पूर्ण सहयोग के कारण ही नील तथा जनरल हेवलॉक जैसे नर संहारकों का शिकार हजारों ग्रामीणॊं को होना पड़ा था. ’१८५७ का भारतीय स्वान्त्र्य समर’ में विनायक दामोदर सावरकर लिखते हैं कि इलाहाबाद से कानपुर तक शेरशाह सूर मार्ग (जी.टी.रोड) के दोनों ओर हजारों ग्रामीणों को पेड़ों से लटकाकर फांसी दी गयी थी---कितनों ही को तोपों के मुंह से बांधकर उड़ा दिया गया था. इस स्थिति में वह महान क्रान्ति ’जनक्रान्ति’ ही कही जाएगी न कि सैनिक विद्रोह या राज्य क्रान्ति. हमें इस तथ्य को अस्वीकार नहीं करना चाहिए कि अंग्रेजी सेना में कार्यरत सैनिक किसी देशी राजा के अधीन नहीं थे. उनका क्रान्ति की अंग्रिम पंक्ति में रहना भी इसी तथ्य की ओर संकेत करता है कि १८५७ का वह समर ’जनकान्ति’ ही था.
और सच यह भी है कि उस ’जनक्रान्ति’ की भूमिका तैयार करने वाला व्यक्ति जनता के बीच से---सतह पर से आया था. वह महापुरुष था अज़ीमुल्ला खां, जिसका नाम इतिहास के पन्नों में इतना कम स्थान पा सका है कि आश्चर्य होता है. विश्वविद्यालयों के ’इतिहास-विभागों’ और ’इतिहास-संस्थायों” में बैठे सुविधाभोगी  प्राध्यापकों-अधिकारियों और शोधार्थियों ने इस ओर कभी ध्यान नहीं दिया. हमारे इतिहासकार आज तक अंग्रेज इतिहासकारों द्वारा लिखे गए इतिहास का ही विश्लेषण करते रहे---क्या वह आज़ादी के इतने वर्ष पश्चात भी उनके मानसिक और बौद्धिक गुलामी (अंग्रेजियत) को प्रमाणित नहीं करता?
’कानपुर का इतिहास’ के लेखक-द्वय और विनायक दामोदर सावरकर ने स्पष्ट स्वीकार किया है कि १८५७ की क्रान्ति का सारा श्रेय अजीमुल्ला  खां को था. और भी जो साक्ष्य मैं उपलब्ध कर सका हूं, उनके अनुसार यदि अजीमुल्ला खां इस देश में न जन्में होते तो १८५७ की क्रान्ति शायद ही होती और यदि होती भी तो उसका स्वरूप क्या होता---कहना कठिन है. यह एक पृथक प्रश्न है कि क्रान्ति असफल क्यों हुई? उसके कारणों पर पर्याप्त विचार हो चुका है. लेकिन जिस विषय पर विचार और शोध की आवश्यकता है, वह है अजीमुल्ला खां---उनका जीवन और योगदान---जो क्रान्ति का सूत्रधार---एक मसीहा पुरुष थे.
अजीमुल्ला खां के विषय में जो संक्षिप्त सूचनाएं प्राप्त होती हैं उसके अनुसार उनके पिता नजीबुल्ला खां कानपुर के पटकापुर मोहल्ले में रहते थे. नजीबुल्ला राजमिस्त्री थे और अथक परिश्रमी. उन दिनों कानपुर नगर बस रहा था. अंग्रेजों ने उसके सामरिक महत्व को समझ लिया था और वहां सैनिक छावनी कायम कर ली थी, जिसका नाम बाद में ’परेड’ मैदान पड़ गया. पटकापुर से यह स्थान निकट था. छावनी बनने के बाद अनेक अंग्रेज अफसर कानपुर में रहने लगे थे, जिनके रहने के लिए नये भवन बन रहे थे. कुछ धनी भारतीयों और सेठों ने भी नगर के महत्व को समझ लिया था और वे भी वहां बसने लगे थे. नये-नये मोहल्ले जन्म लेने लगे थे. इसलिए नजीबुल्ला खां को काम की कमी न थी. मां, पत्नी करीमन और स्वयं का खर्च आराम से चल जाता था. ऎसे समय १८२० की एक ठंड भरी रात में उनके घर एक बालक ने जन्म लिया और यही बालक कालान्तर में अजीमुल्ला खां के नाम से जाना गया.
अजीमुल्ला जब छोटे थे तभी उनके माता-पिता का देहावसान हो गया था. वे अनाथ हो गए. एक परिचित ने अनाथ अजीमुल्ला को सहृदय अंग्रेज अधिकारी हिलर्सडेन के यहां नौकर करवा दिया. तब वह आठ-दस वर्ष के रहे होंगे. वहां अजीमुल्ला साफ-सफाई के कामों के साथ हिलर्सडेन के मुख्य बवर्ची  की सहायता करते थे. रहते भी अंग्रेज के नौकरों की कोठरी में थे. कुछ बड़े होने के पश्चात बावर्जी का पूर्ण-दायित्व उन पर आ गया था. उस अंग्रेज को एक लड़का, एक लड़की थे. खाली समय में अजीमुल्ला दोनों बच्चों से अंग्रेजी अक्षर ज्ञान प्राप्त करने लगे. उन बच्चों को फ्रांसीसी भाषा पढ़ाने के लिए मॉरिस नाम का एक अंग्रेज आता था. हिलर्सडेन की कृपा से मॉरिस अजीमुल्ला खां को भी फ्रांसीसी पढ़ाने लगा. इस विषय में सावरकर लिखते हैं, “उन्होंने वहां इंग्लिश और फ्रेंच भाषा का पर्याप्त ज्ञान प्राप्त कर लिया एवं दोनों भाषाओं में धाराप्रवाह बोलने की क्षमता भी प्राप्त कर ली.”(पृ. ३३)
हिलर्सडेन ने अपने सद्प्रयासों से अजीमुल्ला खां को कानपुर के एकमात्र ’फ्री स्कूल’ में प्रवेश दिला दिया. यद्यपि वहां अंग्रेज अधिकारियों के बच्चे और कुछेक देसी रईसों और जमींदारों के बच्चे ही पढ़ते थे और अजीमुल्ला खां जैसे किसी बावर्ची के लिए कोई गुंजाइश न थी तथापि हिलर्सडेने के प्रभाव और अजीमुल्ला की कुशाग्रता के कारण वह संभव हो गया था. ’फ्री स्कूल’ के अध्ययन काल में भी अजीमुल्ला हिलर्सडेन के यहां बावर्ची का काम करते रहे थे . शिक्षा समाप्त होने के बाद वे उसी स्कूल में अध्यापक नियुक्त हो गए थे.
अध्यापक बनने के पश्चात अजीमुल्ला की पढ़ने की भूख और बढ़ी. उन्होंने मौलवी निसार अहमद, जो पटकापुर में रहते थे, से अरबी-फारसी और पं गजानन मिश्र से संस्कृत और हिन्दी भाषाओं का अध्ययन किया. देशभक्ति की भावना और अंग्रेजों की दासता से मुक्ति का भाव उनके हृदय में हिलोरें लेता रहता था---जिसका समाचार नाना साहब को मिला. एक दिन नाना साहब ने उन्हें बुलाया और प्रस्ताव किया कि वे उनके दरबार में आ जायें. इस विषय में थामसन ने अपनी पुस्तक ’कानपुर’ में लिखा था, “उन्होंने (अजीमुल्ला खां) अपनी बुद्धिमता के बल पर ही उन्नति की थी और अन्ततः वे नाना साहब के विश्वासपात्र मंत्रियों में से एक हो गए थे.”
कानपुर के नरमेध में जो दो अंग्रेज जीवित बचे थे उनमें थामसन एक था.
नाना साहब के दरबार में अजीमुल्ला खां की नियुक्ति कंपनी से अंग्रेजी में पत्राचार करने और नाना साहब को समाचार-पत्र पढ़कर सुनाने के लिए हुई थी. अजीमुल्ला अंग्रेजी समाचार पत्रों का हिन्दी रूपान्तरण नाना साहब को सुनाया करते थे. उनसे पहले यह काम टॉड नाम का अंग्रेज करता था, जिसे कार्यमुक्त कर दिया गया था. बाद में यह टॉड नामक व्यक्ति कानपुर के युद्ध में मारा गया था. एक अवसर पर अजीमुल्ला खां ने कोई महत्वपूर्ण सलाह नाना साहब को दी, जिससे वे बहुत प्रभावित हुए थे. सावरकर लिखते हैं, “अजीमुल्ला द्वारा प्रथम बार ही दिया गया सद्परामर्श नाना साहब को जंच गया और नाना साहब को मुक्त कंठ से इस मेधावी पुरुष की प्रशंसा करनी पड़ी. इसके पश्चात तो स्थिति यह हो गयी कि प्रत्येक महत्वपूर्ण कार्य  करने से पूर्व नाना साहब के लिए अजीमुल्ला खां से परामर्श करना अनिवार्य हो गया.”
 सलाहकार के रूप में  कार्य करते हुए अजीमुल्ला खां की कार्यशैली इतनी अद्भुत थी कि नाना साहब ने उन्हें सलाहकार के साथ-साथ अपना मंत्री भी नियुक्त कर लिया. इससे इस बात का अन्दाजा लगाया जा सकता है कि नाना साहब उनसे कितना प्रभावित थे.
अजीमुल्ला खां के रहने के लिए नाना साहब ने एक भव्य भवन दिया था. नाना साहब स्वयं खूबसूरत और कीमती चीजों के शौकीन थे.  थामसन के अनुसार, “ब्रम्भावर्त में बिठूर स्थित है. श्रीमान नाना साहब के राजमहल की बारहदरी विस्तीर्ण तो थी ही, साथ ही श्रेष्ठ और बहुमूल्य वस्तुएं उसकी शोभा बढ़ाती रहती थीं. रंग-बिरंगे और कीमती सतरंगियों और कालीनों आदि से राजमहल का दीवानखाना सुसज्जित रहता था. योरिपियन कला-कौशल से मण्डित अनेक प्रकार की कांच की वस्तुएं, कलश, हाथीदांत, स्वर्ण और रत्नजटित नक्काशीयुक्त वस्तुओं के नमूने वहां विद्यमान थे. संक्षेप में कहा जा सकता है कि हिन्दुस्तान के राजमहलों में दिखाई देने वाली सब प्रकार की कमनीयता ही मानो बिठूर के राजमहल में आकर निवास करने लगी थी.”
अजीमुल्ला खां अपनी कर्मठता और विलक्षण बौद्धिक क्षमता के कारण सतह से उठकर राजभवन का वैभव भोगने की योग्यता पा सके थे. लेकिन वास्तव में वे वैभव-विलास में डूबने  वाले जीव न थे. वे उस सब से निरपेक्ष कुछ और ही तलाश रहे थे---वह जो लगभग नव्वे वर्षों पश्चात इस देश की करोड़ों जनता को आज़ादी के सुख के रूप में प्राप्त हुआ था. यह एक अलग प्रश्न है कि कौन कितना आज़ाद हुआ या आज भी देश की अस्सी प्रतिशत जनता गुलामी से भी बदतर जीवन जीने के लिए अभिशप्त क्यों है? यह न अजीमुल्ला खां ने तब सोचा होगा और न बाद में आत्माहुति देने वाले हमारे किशोर-युवा क्रान्तिकारियों ने. उनकी मूल चिन्ता थी देश की आज़ादी. सुभाषचन्द्र बोस और भगतसिंह जैसे वीरों ने सोचा-विचारा भी, लेकिन वे आज़ादी देखने और कुछ करने के लिए जीवित नहीं रह सके और उनके विचारों को षड्ययंत्रपूर्वक किसी अंधेरी कोठरी में दफ्न कर दिया गया. खैर,
१८५१ में बाजीराव पेशवा की मृत्यु के पश्चात अंग्रेजों ने उन्हें मिलने वाली आठ लाख रुपए वार्षिक पेंशन बन्द कर दी थी. पेंशन बन्द करने के पक्ष में कम्पनी ने तर्क दिया कि, “श्रीमन्त बाजीराव साहब ने पेंशन से बचाकर जो राशि एकत्रित की है, वह बहुत अधिक है. अतः पेंशन जारी रखने का कोई कारण नहीं है.”
अजीमुल्ला ने नाना साहब की पेंशन प्राप्त करने के लिए कम्पनी के साथ पत्राचार आरंभ किया और तर्क दिया, “यह पेंशन किन्हीं शर्तों के आधार पर दी जा रही थी. क्या उन शर्तों में एक भी शर्त ऎसी है, जिसमें कहा गया हो कि बाजीराव को पेंशन की राशि किस प्रकार खर्च करनी है. दिए गए राज्य के बदले प्राप्त हुई पेंशन को किस प्रकार उपयोग किया जाएगा, यह प्रश करने का कंपनी को तनिक भी अधिकार नहीं है.यही नहीं यदि श्रीमन्त बाजीराव पेंशन की संपूर्ण राशि भी बचा लेते तो भी वह ऎसा करने के लिए पूर्ण रूप से स्वतंत्र थे. क्या कम्पनी ने कभी अपने कर्मचारियों से यह प्रश्न किया है कि वे अपनी पेंशन की राशि को किस भांति खर्च करते हैं और उसमें से कितनी राशि बचाते हैं? यह भी नितान्त आश्चर्यजनक है कि जो प्रश्न कंपनी अपने सामान्य कर्मचारियों तक से नहीं कर सकती वह प्रश्न एक विख्यात राजवंश के अधिकारी से किया जा रहा है.”
लेकिन नाना साहब की यह दर्ख्वास्त कंपनी के अधिकारियों ने स्वीकार नहीं की. परिणामस्वरूप मामले की पैरवी के लिए नाना साहब ने अजीमुल्ला खां को १८५४ में लन्दन भेजा. लन्दन जाने के लिए नाना साहब ने उन्हें इतना धन दिया कि वे महीनों नवाबी ठाट-बाट से वहां रह सकते थे. वहां पहुंचकर अजीमुल्ला को एहसास हुआ था कि पेंशन का मामला दो-चार –दस दिन में सुलझने वाला नहीं है. ईस्ट इंडिया कंपनी के उच्चाधिकारियों से मिलकर उन्होंने नाना साहब के पेंशन का प्रार्थना पत्र प्रस्तुत कर दिया और निर्णय की प्रतीक्षा करने लगे. लेकिन वे खाली नहीं बैठे. उन्होंने ब्रिटिश साम्राज की थाह लेनी प्रारंभ कर दी. वे मृदुभाषी, कुशल-वक्ता, बौद्धिक और सुदर्शन थे और लोगों को प्रभावित कर सकने में सक्षम. लन्दन के अनेक संभ्रान्त परिवारों में उन्हें प्रवेश मिल गया था.
सुबह-शाम कीमती और सुन्दर परिधान और बहुमूल्य आभूषणों से सुसज्जित जब अजीमुल्ला खां लन्दन की सड़कों पर चलते तब युवतियों के झुण्ड उनके पीछे होते थे. सावरकर लिखते हैं, “उनके सौन्दर्य, मोहक मधुर वाणी और तेजस्वी शरीर तथा पौर्वात्य उदारता के परिणामस्वरूप अनेक आंग्ल युवतियां उन पर अपना तन मन वार बैठीं. उन दिनों लंदन के सार्वजनिक उद्यानों, ब्रायरन के सागर तट पर यह हिन्दी राजा ही चर्चा का विषय बना रहता था जो परिधानों और आभूषणों से लदा रहता था. प्रचंड जनसमूह इस आकर्षक व्यक्तित्व के धनी की एक झलक लेने को बादलों-सा उमड़ पड़ता था. अनेक संभ्रान्त और प्रतिष्ठित अंग्रेज परिवारों की युवतियां तो उनके प्रेम में अपनी सुध-बुध खो बैठी थीं और उनके हिन्दुस्तान वापस लौट जाने के उपरान्त भी अपने हृदय की पीड़ा की अभिव्यक्ति हेतु उन्हें प्रेम-पत्र प्रेषित करती रही थीं.” (१८५७ का भारतीय स्वातन्त्र्य समर-वि.दा.सावरकर – पृ. ३३)  
१८५७ की क्रान्ति में बिठूर पतन के बाद हैवलॉक ने जब नाना साहब के किले पर अधिकार किया तब उसे अजीमुल्ला खां के नाम भेजे गए उन अंग्रेज युवतियों के प्रेम पत्र मिले थे जिन्हें बाद में उसने ’इंडियन प्रिंस एण्ड ब्रिटिश पियरेश’ शीर्षक से पुस्तक के रूप में प्रकाशित करवाया था.
जिन दिनों अजीमुल्ला खां इंग्लैण्ड में थे. सतारा के राजा की ओर से राज्य वापस लौटाने की अपील करने के लिए रंगोजी बापू भी वहां गए थे, लेकिन उन्हें अपने उद्देश्य में सफलता नहीं मिली थी. बाद में मंपनी ने अजीमुल्ला खां के अनुरोध को खारिज करते हुए लिखा, “गवर्नर जनरल द्वारा प्रदत्त यह निर्णय हमारे मत में पूर्णतः ठीक है कि दत्तक नाना साहब को अपने पिता की पेंशन प्राप्त करने का कोई अधिकार प्राप्त नहीं हो सकता.”
अजीमुल्ला खां और रंगोजी बापू कंपनी का निर्णय मिलने के बाद एक रात मिले और देश की तत्कालीन स्थिति पर गंभीरतापूर्वक विचार-विमर्श किया. अन्ततः वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि अंग्रेजों से देश की मुक्ति का मार्ग है सशस्त्र-जनक्रान्ति. रंगोजी बापू स्वदेश लौट आए थे दक्षिण भारत में क्रान्ति की अलख जगाने के लिए, (हालांकि किन्हीं कारणों से वे अजीमुल्ला के साथ संपर्क नहीं साध सके और न ही स्वतन्त्र रूप से क्रान्ति की ज्वाला धधका सके थे) लेकिन अजीमुल्ला खां योरोप और एशिया के कुछ देशों की यात्रा के लिए निकल गए थे. वे पहले फ्रांस गए, जहां उन्होंने वहां की क्रान्ति की पृष्ठभूमि का अध्ययन करना चाहा था. वहां से वे रूस गए. उन दिनों रूस तुर्की के साथ युद्ध में उलझा हुआ था और ब्रिटेन तुर्की का साथ दे रहा था. सीमा पार करते हुए वे रूसी सैनिकों द्वारा गिरफ्तार कर लिए गए थे, लेकिन पेरिस में परिचित हुए एक फ्रांसीसी पत्रकार जो किसी फ्रांसीसी समाचार पत्र के लिए युद्ध संवाददाता के रूप में सीमा पर कार्य कर रहा था के हस्तक्षेप से वे छूट गए थे.
वे रूस के तत्कालीन युद्धमंत्री से मिले थे और अपनी योजना उनके समक्ष प्रस्तुत कर सहायता का आश्वासन प्राप्त किया था. आश्वासन था कि युद्ध प्रारंभ होने की निश्चित तिथि की सूचना पाकर रूस की सेनाएं तिथि से पूर्व सीमा पर पहुंच जाएगीं. लेकिन २९ मार्च, १८५७ को बैरकपुर में मंगलपाण्डे की घटना के परिणाम स्वरूप निश्चित (३१ मई,१८५७) तिथि से पूर्व ही १० मई को सैनिकों ने मेरठ में युद्ध का बिगुल बजा दिया था.
सावरकर ने लिखा कि अजीमुल्ला खां तुर्की में भी ठहरे थे और इस बात के भी स्पष्ट प्रमाण मिलते हैं कि मिश्र के साथ भी संबन्ध स्थापित करने का उन्होंने प्रयास किया था. अन्ततः वे काबुल के रास्ते देश वापस लौट आए थे.
स्वदेश लौटने के पश्चात उन्होंने नाना साहब, तात्यां टोपे और बाला साहब (नाना के भाई) के साथ गूढ़ मंत्रणा की थी और उन्हें जनक्रान्ति की योजना समझायी थी. उसकी जो रूपरेखा उन्होंने बनायी थी  और उसे इतने प्रभावशाली ढंग से नाना साहब के समक्ष रखा था कि नाना और तात्यां को सहमत होना पड़ा था. यह अजीमुल्ला की पहली सफलता थी. अजीमुल्ला यह जानते थे कि बुद्धि भले ही उनके पास है, लेकिन साधन तो राजाओं, नवाबों और जमींदारों के पास ही हैं. यही नहीं जनता के प्रति अनेक अनियमताओं और अमानवीय व्यवहार के बावजूद अपने नवाबों और राजाओं के प्रति जनता में गहरा आदर और लगाव है और अंग्रेजों के विरुद्ध उनके आह्वान पर जनता उठ खड़ी होगी. नाना के मन्त्री के रूप में उन्होंने दूसरे राजाओं-नवाबों पर नाना की प्रतिष्ठा और प्रभाव को जान लिया था और यह एक संयोग और सुयोग था कि वे नाना के मंत्री थे और नाना साहब का उन पर अटूट विश्वास था. उसी विश्वास के बल पर भावी क्रान्ति की रूपरेखा उन्होंने बनायी थी, जिस पर नाना साहब, बाला साहब और तात्यां टोपे ने मुहर लगा दी थी. तात्यां एक प्रखर कूटनीतिज्ञ और अप्रतिम योद्धा थे और अंग्रेजों के शत्रु. नाना साहब के सेनापति थे और अजीमुल्ला के उस सुझाव का जबर्दस्त समर्थन उन्होंने किया था.
परिणामस्वरूप नाना साहब ने लखनऊ, कालपी, दिल्ली, झांसी, मेरठ, अंबाला, पटियाला आदि की यात्रांए की थीं जो अंग्रेजों के लिए धार्मिक कहकर प्रचारित की गई थीं, लेकिन वास्तव में थीं राजनीतिक. इन यात्राओं का उद्देश्य बहादुरशाह ज़फ़र, बेगम हज़रत महल, लक्ष्मीबाई आदि से क्रान्ति के विषय में मन्त्रणा करना, सुझाव प्राप्त करना और किसी एक तिथि पर सहमत होना था. इन यात्राओं में अजीमुल्ला खां नाना साहब के साथ रहे थे और लगभग सभी से उन्हें सहयोग का आश्वासन मिला था. बहादुरशाह प्रारंभ में इंकार करते रहे, लेकिन अन्ततः वे भी तैयार हो गए थे. वे यात्राएं भी अजीमुल्ला के दिमाग की ही उपज थीं और उनमें उन्हें सफलता मिली थी. तारीख निश्चित हो गयी थी ३१ मई, १८५७.
अजीमुल्ला खां को क्रान्ति के लिए जिस नायकत्व की आवश्यकता थी, उसके लिए उन्होंने नाना साहब को तैयार कर लिया था. उन दिनों सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और धार्मिक स्थितियां ऎसी थीं कि नायकत्व के लिए किसी राजपुरुष का चुनाव और वह भी ऎसे पुरुष का, जिसकी छवि देशी राजाओं-नवाबों और जनता के मध्य अच्छी हो, आवश्यक था. अजीमुल्ला खां इस तथ्य से परिचित थे और नाना साहब से, जो उनके आश्रयदाता थे, कौन अधिक उपयुक्त होता? अपनी योजनानुसार उन्होंने सब कुछ सुव्यवस्थित किया था---दूर-दूर तक—पंजाब से बिहार (राजा कुंवर सिंह आदि तक) संदेश भेजवाए थे. जनता में जागृति लाने और क्रान्ति के लिए सन्नद्ध करने के लिए साधुओं की (जिन पर उन दिनों जनता की अगाध शृद्धा और अटूट विश्वास था) सेवाएं और प्रचार के लिए प्रतीक स्वरूप ’रोटी’ और ’कमल’ का चुनाव उसी व्यक्ति के दिमाग की उपज हो सकती थी, जो भूत-वर्तमान और भविष्य पर गहन दृष्टि रखने वाला हो. अजीमुल्ला खां ने अपने कौशल का उपयोग कर वह कर दिखाया था. यह कल्पना कर सुखद आश्चर्य होता है कि जिस सुनियोजित ढंग से क्रान्ति का प्रचार किया गया और क्रूर-कुटिल कंपनी बहादुर को भनक तक न पड़ी वह एक चमत्कार-सा ही था. और यह योग्यता अजीमुल्ला खां में ही थी.
३१ मई, १८५७ की जो तिथि क्रान्ति के योजनाकारों ने निश्चित की थी अंग्रेजों के निरन्तर बढ़ते दुर्व्यवहारों, अधैर्य और क्षणिक उत्तेजना के वशीभूत हो मेरठ के सैनिकों ने उस तक प्रतीक्षा न कर १० मई को ही अंग्रेजों का सफाया प्रारंभ कर दिया. मेरठ से वे दिल्ली पहुंचे और बहादुरशाह ज़फ़र को बादशाह घोषित कर दिया. कानपुर इससे अछुता कैसे रहता. क्रान्ति की लपटें चारों ओर फैल चुकी थीं. अवध, झांसी, कालपी, इलाहाबाद, जगदीशपुर (बिहार) तक क्रान्ति की ज्वाला धूं-धूं कर जल उठी थी. दिल्ली में बूढ़ा शेर बहादुरशाह ज़फ़र गद्दीनशीं हो आज़ाद भारत के स्वप्न देखने लगा था तो जगदीशपुर का अस्सी वर्षीय बूढ़ा शेर कुंवर सिंह समरांगण में अंग्रेजों को चुनौती दे रहा था, जिसका साथ उनके भाई अमर सिंह, उनकी रानियां और जागीरदार निस्वार सिंह दे रहे थे.
कानपुर में सूबेदार टीका सिंह, दलभंजन सिंह, शमस्सुद्दीन, ज्वाला प्रसाद, मुहम्मद अली, अज़ीज़न ऎसे वीर योद्धा थे, जिनके साथ अजीमुल्ला के संपर्क पहले से ही थे. अज़ीजन एक नर्तकी थी, जिसके यहां अनेक अंग्रेज अफ़सर भी आते थे और अजीमुल्ला खां के निर्देश पर उसने उनके अनेक गुप्त भेज भी प्राप्त किए थे. उसके विषय में नानक चन्द ने अपनी डायरी में लिखा है, “सशस्त्र अज़ीजन स्थान-स्थान पर निरन्तर विद्युत लता-सी दमक रही थी. वह अनेक बार तो थके हुए सैनिकों को मार्ग में मेवा, मिष्ठान्न और दूध आदि देती हुई भी दृष्टिगोचर होती थी.”
नानक चन्द उस क्रान्ति का प्रत्यक्षदर्शी था और अंग्रेज भक्त था, जिसे सावरकर ने ’अंग्रेजों का क्रीतदास’ कहा है.
अज़ीजन केवल नर्तकी ही न थी, कानपुर के युद्ध में उसने सक्रिय भाग लिया था. सावरकर के अनुसार, “उसने वीरों के परिधान धारण कर लिए थे. कोमल गुलाब से कपोलों वाली और प्रतिक्षण मन्द मुस्कान विस्फारित करती रहने वाली वह रूपसी सशस्त्र ही अश्व की पीठ पर आरूढ़ होकर घूम रही थी.” कानपुर में युद्ध १९ जून, १८५७ को भड़का. लेकिन उससे पूर्व जो भी युद्ध विषयक गुप्त सभाएं होती थीं वे सूबेदार टीका सिंह और सैनिकों के दूसरे नेता शमस्सुद्दीन खां के निवास स्थान पर होती थीं. ऎसी ही एक गुप्त मंत्रणा, जो नाना साहब, अजीमुल्ला, टीका सिंह और शमस्सुद्दीन के मध्य गंगा में नाव पर हुई थी, का वर्णन करते हुए सावरकर कहते हैं कि यद्यपि उसके विषय में या तो वे नेता जानते थे या पुण्य तोया-गंगा, “किन्तु यह बात भी सुविख्यात है कि दूसरे ही दिन शमस्सुद्दीन अपनी प्रेमिका अज़ीज़न के घर गया और उसने भावावेश में उसे यह बता दिया कि अब केवल दो दिन ही प्रतीक्षा करो. अंग्रेजों के राज्य की समाप्ति होकर अपनी मारृभूमि हिन्दुस्तान स्वतंन्त्रता को प्राप्त कर लेगी.”
कानपुर के युद्ध में मात्र अज़ीजन एक मात्र महिला सैनिक न थी उसकी अनेक सहेलियां समरांगण में कूद पड़ी थीं और उसके साथ थीं. उनको देख युवक कैसे घरों में कैद रह सकते थे. और यह सब इस बात को प्रमाणित करता है कि १८५७ की वह क्रान्ति राज्य या सैनिक क्रान्ति नहीं, ’जनक्रान्ति’ थी और उसकी परिकल्पना आम जनता के मध्य से शीर्ष पर पहुंचे जिस महानायक ने की थी उसका नाम अजीमुल्ला खां था. लेकिन उस महामानव के प्रति अनभिज्ञता इस देश के लिए दुर्भाग्य की बात है. अभी भी तथ्य नष्ट न हुए होंगे. यदि सरकार इतिहासकारों की अन्ध प्रस्तुतियों से पृथक १८५७ पर नए सिरे से शोध करवाने में रुचि ले तो विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि न केवल अजीमुल्ला खां के विषय में पूर्ण जानकारी प्राप्त हो सकेगी; प्रत्युत अनेक ऎसे तथ्य उद्घाटित हो सकेंगे जो अतीत के गर्त में लुप्त हैं.
कानपुर के युद्ध के दिनों तक नाना साहब के साथ अज़ीमुल्ला खां की उपस्थिति के प्रमाण प्राप्त होते हैं लेकिन उसके पश्चात उनका क्या हुआ, इतिहासकार मौन हैं. एक-दो इतिहासकारों के अनुसार वे नाना साहब के साथ नेपाल चले गए थे, जहां उनकी मृत्यु हो गयी थी. फिर भी, बहुत कुछ ऎसा है जो अतीत की अन्धी सुरंग में छुपा हुआ है और आवश्यकता है उस सुरंग में प्रवेश कर सब खोज लाने की. शायद कभी यह संभव हो सके. लेकिन देश की वर्तमान अराजक स्थिति के विषय में सोचकर लगता है कि क्या इसी दिन के लिए उन वीरों ने आत्माहुति दी थी, जिनकी जलायी मशाल को बीसवीं सदी के क्रान्तिकारियों ने थाम देश को आज़ादी के मुकाम तक पहुंचाया था? सभी वीरों की---विस्मृति के गर्त में झोंकने का निकृष्ट प्रयास भले ही आज के सत्ता लोलुप करें, किन्तु इस सत्य को झुठलाया नहीं जा सकता कि जिस आज़ादी की स्वर्ण जयन्ती को करोड़ों रुपए फूंक (जो आम जनता की गाढ़ी कमायी है) वे विलासितापूर्ण ढंग से मना रहे हैं, उसकी प्राप्ति १८५७ के हज़ारों वीर योद्धाओं के साथ ही खुदीराम बोस, शहीद भगत सिंह, करतार सिंह सराभा, बटुकेश्वर दत्त, रामप्रसाद बिस्मिल, सुखदेव , आज़ाद और उनके सैकड़ों साथियों के बलिदान से ही संभव हो सकी थी.

(अंतिम दशक में कभी ’अपूर्व जनगाथा’ में प्रकाशित)        
सन्दर्भ:
१.     कानपुर का इतिहास – लक्ष्मीचन्द त्रिपाठी एवं नारायण प्रसाद अरोड़ा.
२.     १८५७ का भारतीय स्वातन्त्र्य समर – वि.दा.सावरकर.
३.     जी.ओ.ट्रेवेलियन कृत ’कानपुर’
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